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जलियांवाला बाग के सौ साल बाद

 जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन अंग्रेजी सरकार ने अमृतसर में जो हत्याकांड रचा उसकी अनुगूंज पिछले सौ सालों में कभी गुम नहीं हुई । रह रहकर उसका जिक्र होता रहा । उस हत्याकांड के कातिल के संरक्षक पंजाब के तत्कालीन लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर माइकेल ओ’डायर को गोली मारने वाले ऊधम सिंह की अस्थियों को देश लाकर सम्मान सहित दफ़नाने का मामला हो या उस जघन्य नरसंहार के लिए ब्रिटेन की सरकार के माफ़ी मांगने का सवाल हो, जलियांवाला बाग किसी न किसी वजह से बीते सौ सालों में हमेशा चर्चा में बना रहा । उस हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर को सजा तो नहीं मिली लेकिन समय से पहले उसे सेवानिवृत्त कर दिया गया । इसके बाद उसकी मदद के लिए तत्कालीन सैन्य अधिकारियों ने ब्रिटेन में चंदा जुटाया था ।

समाज के विशेषाधिकार सम्पन्न समुदाय की ऐसी आपराधिक एकजुटता दुर्लभ नहीं है । तबसे अब तक इस तरह की वर्गीय एकता के अनेक उदाहरण दुनिया भर में मिल सकते हैं । न केवल ब्रिटेन मे बल्कि हमारे देश में भी उसकी याद अभी हाल में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने नागरिकता संशोधन विरोधी प्रदर्शनों के हालिया दमन के सिलसिले में दिलाई । उसकी याद ताजा कराते हुए नागरिकता संशोधन विधेयक विरोध के सिलसिले में हिंसक पुलिस दमन को आंदोलनकारियों ने जामियावाला बाग कहा ।

ब्रिटेन की राजनीति में फिर से वह प्रमुख मुद्दे के बतौर सामने आया । ब्रिटेन के हालिया चुनाव में लेबर पार्टी के घोषणापत्र में इसके लिए माफ़ी मांगने का वादा किया गया । इस वादे से इस मसले की संवेदनशीलता और प्रासंगिकता का पता चलता है । कहने की जरूरत नहीं कि उसके बाद से निर्दोष लोगों के उत्पीड़कों के लिए डायर का नाम विशेषण की तरह इस्तेमाल होने लगा । आम जनता इसी तरह अन्यायी उत्पीड़कों को लम्बे समय तक याद रखती है । ध्यान देने की बात यह भी है कि इस घटना के पीछे जिस तनाव का हाथ था उसका कारण रौलट कानून थे जिनके तहत शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गई थी । शासन के बनाए उत्पीड़क कानूनों के विरोध का हिंसक दमन तब से लेकर आज तक के शासकों की आदत बनी हुई है । इन कानूनों का विरोध करने के चलते ट्रिब्यून के संपादक को हिरासत में ले लिया गया था । तब के पत्रकार आज की पत्रकारिता के विपरीत सरकार के गलत कदमों का विरोध भी किया करते थे । इसी ट्रिब्यून के संस्थापक दयाल सिंह मजीठिया के नाम पर दिल्ली में दयाल सिंह कालेज का नाम रखा गया । पाकिस्तान के प्रति दुर्भावना के इस दौर में याद दिलाना अन्यथा न होगा कि यह कालेज पहले लाहौर में था और विभाजन के बाद दिल्ली लाया गया । दयाल सिंह ने सिख होने के बावजूद प्रावधान किया था कि कालेज का मुखिया सिख नहीं होगा, सिखों के लिए प्रवेश में आरक्षण भी नहीं होगा और कालेज के संचालन में सिख धर्म की संस्थाओं की कोई भूमिका नहीं होगी । दुर्भाग्य से हाल में इस कालेज का नाम बदलकर दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर रखने की कोशिश हुई ।

गुलामी के उस कठिन समय में सरकार के विरोधियों की बात अनसुनी नहीं जाती थी । आज तो तमाम विरोध के बावजूद शासकों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती । विरोध के दमन के लिए तब भी पुलिसिया उपायों का सहारा लिया जाता था । इसी वजह से रौलट कानूनों के विरोध में होने वाले जन प्रदर्शनों को रोकने के लिए पंजाब में सख्त निषेधाज्ञा जारी कर दी गई थी । एक हिंसक घटना में किसी अंग्रेज महिला की जान चली गई थी । जिस जगह घटना हुई थी वहां लोगों को घुटने के बल चलते हुए गुजरना होता था । लोगों के इकट्ठा बाहर निकलने पर रोक इतनी कड़ी थी कि मृतकों के अंतिम संस्कार में भी कठिनाई होने लगी थी ।

उसके सौ साल पूरे होने के अवसर पर 2019 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से किम ए वागनर की किताब ‘अमृतसर 1919: ऐन एम्पायर आफ़ फ़ीयर & द मेकिंग आफ़ ए मैसेकर’ का प्रकाशन हुआ । ज्ञातव्य है कि वागनर ने लगातार भारत में अंग्रेजी राज के साथ टकरावों के बारे में गम्भीरता के साथ लिखा है । सबसे पहले उन्होंने ठगी के बारे में विस्तार से लिखा था । उसके बाद दूसरी किताब 1857 के गदर के बारे में लिखी । सामूहिक शहादत के इस शताब्दी वर्ष में प्रकाशित किताब के बारे में उनका कहना है कि इससे पहले की दोनों किताबें इस किताब की तैयारी जैसी हैं । लेखक ने इस सवाल पर गहराई से विचार किया है कि गोली से मरने वालों की बात अलग है लेकिन जो लोग घायल थे उन्हें वहीं तड़पने के लिए छोड़ देने की संवेदनहीनता आखिर डायर में पैदा कैसे हुई ।

पूछताछ के दौरान भी उसे अपने इस कृत्य का कोई पछतावा नहीं था । उसके मुताबिक वह हिंदुस्तानियों की बगावत की हिम्मत को तोड़ देने के लिए उन्हें सीख देना चाहता था । यह सीख जो मर गए उनको नहीं दी जानी थी बल्कि अन्य सम्भावित बागियों को दी जानी थी । इस सोच की तुलना 1857 के विद्रोहियों को सजा देने के तरीके से करते हुए उन्होंने बताया है कि उस समय साथी सिपाहियों के समक्ष तोप के मुंह से बांधकर उड़ा देना सबसे पसंदीदा सजा थी । अंग्रेज अधिकारियों में से बहुतेरे लोगों ने इस सजा को सबसे कम पीड़ादायक और प्रभावकारी भी बताया है । इस तरह की अमानवीयता का कारण अंग्रेजों की नस्ली सोच थी जिसके चलते वे भारतीयों को ऐसा प्राणी समझते थे जिसके साथ अमानवीय बरताव करना उनको जायज लगता था । ध्यान देने की बात है कि उपनिवेशवाद की विचारधारा के पीछे आर्थिक लाभ के प्रबल आकर्षण के साथ ही नस्ली भेदभाव की यह सोच भी काम कर रही थी ।

इस नस्लीयता पर विचार करते हुए अमेरिकी अश्वेत चिंतक डब्ल्यू ई बी ड्यु बोइस ने कहा कि बीसवीं सदी ने उपनिवेशों के खात्मे का काम तो पूरा किया लेकिन उपनिवेशवाद के पीछे की नस्ली सोच अब भी जिंदा है । इसके लिए उन्होंने वैश्विक रंगभेद कायम करने के संरचनात्मक तरीके की पहचान की और इससे बने वैश्विक विभाजन को ग्लोबल कलर लाइन का नाम दिया । ड्यु बोइस का मत था कि समूची बीसवीं सदी की समस्या नस्ल की समस्या है । साम्राज्यों के निर्माण की उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया भर के संसाधनों और भूभागों पर कब्जा करने के लिए आपस में होड़ लगाई । उनके आचरण में चमड़ी के रंग पर आधारित ऊंच नीच की नस्ली सोच निहित थी । धरती पर गोरों के अधिकार के पीछे इसी तर्क का इस्तेमाल किया गया । बीसवीं सदी में इस साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में आंतरिक अंतर्विरोध पैदा होने लगे और सदी के मोड़ पर ही युद्ध शुरू हो गए । इसी संदर्भ में ड्यु बोइस ने ठीक ही कहा कि साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित इस वैश्विक रंगभेद को दुरुस्त करना बीसवीं सदी का कार्यभार है । इसके जरिए ही नई और सार्वभौमिक विश्व व्यवस्था की कल्पना सम्भव है । बीसवीं सदी में कुछ हद तक इस कार्यभार को अंजाम भी दिया गया लेकिन इस काम को पूरा नहीं किया जा सका ।

नस्लवाद का जो तर्क था वह अब भी सामाजिक पदानुक्रम के लगभग सभी रूपों के साथ जुड़ा हुआ है । इसके लिए भेदभाव के कुछ अन्य रूपों को देखना पर्याप्त होगा । उदाहरण के लिए जाति आधारित भेदभाव का तर्क भी मनुष्यों के एक बड़े हिस्से को अमानवीय व्यवहार के लायक समझने पर टिका हुआ है । मनुष्यों के जिस समुदाय को नीचा बताया जाना है उन्हें अपवित्र आदि कहकर भेदभाव को जायज ठहराया जाता है । सामाजिक भेदभाव के दूसरे प्रमुख रूप, स्त्री की पराधीनता को भी इसी तार्किक संरचना से मजबूत बनाया जाता है । इसके लिए उसे अबला या निर्भर आदि कहकर उसकी हीनता को आम लोगों की चेतना में प्रतिष्ठित किया जाता है । इसके जरिए समाज की बुनियादी इकाई परिवार के संचालन में उनके योगदान को गोपन बना दिया जाता है । देहाती इलाकों में चूल्हा चौकी से लेकर शहरी क्षेत्रों की कामगार स्त्रियों तक फैले हुए इस श्रमिक समुदाय की मेहनत को अदृश्य बनाकर समूची सम्पदा के सृजन का पारितोषिक देने की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया जाता है । स्पष्ट है कि मानव समाज में किसी खास समुदाय के साथ हिंसक आचरण के लिए सबसे पहले उसे कमतर दर्जे का साबित करना जरूरी हो जाता है अन्यथा अत्याचार करने वाला अपने आचरण का औचित्य नहीं स्पष्ट कर सकेगा । हम कह सकते हैं कि भारतीयों के साथ अंग्रेजों के क्रूर व्यवहार का आधार उनकी नस्ली सोच थी ।

उपनिवेशवाद के इस रूप को समझकर ही हम भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूदने से पहले दक्षिण अफ़्रीका में गांधी की तैयारी का महत्व आंक सकते हैं । प्रसंगवश इस बात को भी याद रखना चाहिए कि जलियांवाला बाग के हत्याकांड ने गांघी को साम्राज्यवाद का जबर्दस्त विरोधी बना दिया था । इससे पहले उनके मन में अंग्रेजों के प्रति कुछ सहानुभूति रही थी, यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनकी सेवाओं के बदले में उन्हें कैसरे-हिन्द की उपाधि भी मिली थी । वह उपाधि तो उन्होंने उस समय नहीं लौटाई लेकिन उनका दिल जरूर टूट गया । इसके बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने की लड़ाई के लिए उन्होंने सबको शामिल करने लायक तरीकों का इस्तेमाल किया । इसी वजह से उन्होंने हमेशा साम्प्रदायिक एकजुटता को बरकरार रखने की कोशिश की । उन्होंने तो नहीं लेकिन रवींद्रनाथ ठाकुर ने नाइटहुड की उपाधि लौटाकर सत्ता की बर्बरता के विरोध का नायाब बौद्धिक तरीका खोज निकाला था । रवींद्रनाथ ठाकुर के इस तरीके से ही प्रेरणा लेकर हाल के दिनों में लेखकों ने अपने पुरस्कार लौटाकर विक्षोभ जाहिर किया । इन सभी वजहों से इस हत्याकांड को भारत के स्वाधीनता आंदोलन का निर्णायक मोड़ समझा जाता है ।

इस प्रसंग में गांधी के नेतृत्व में संचालित साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के दौरान दो बेहद महत्वपूर्ण पहलू उभरकर सामने आते हैं । एक तो यह कि उन्होंने भारत की एकता का कारण उपनिवेशवाद के विरोध में चलने वाली लड़ाई को माना । उनका कहना था कि विविधता से भरे हुए इस देश के लोग आपस में मिलकर उपनिवेशवाद से लड़े और इस क्रम में देश की जनता में चट्टानी एकता पैदा हुई । बहुत सारे लोग रेलवे को भारत को जोड़नेवाला सूत्र समझते हैं लेकिन गांधी का कहना था कि रेल के चलते जनता के आंदोलनों को दबाने के लिए फौज भेजने में अंग्रेजों को आसानी हुई । इस तरह इसने भारत की गुलामी को मजबूत बनाने में मदद की । उनके रुख को समझने में इस बहस से मदद मिलती है कि भारत के विकास के लिए उस समय रेल के मुकाबले नहरों की अधिक जरूरत थी । विकास के सिलसिले में इस समय जो पागलपन छाया हुआ है उस प्रसंग में गांधी के इस रुख को ध्यान में रखना जरूरी है । सीमित संसाधनों का निवेश राष्ट्र की प्राथमिकता के अनुसार किया जाना चाहिए ।

इस विराट देश की जनता की विविधता के बावजूद भारतीय के रूप में उसकी एकता का अनुभव उन्हें दक्षिण अफ़्रीका में ही हो गया था जहां गिरमिटिया के रूप में गए लोगों की कोई अलग पहचान नहीं रह जाती थी, वे सभी कुली कहलाते थे । स्वाधीनता आंदोलन के बहुरंगी परिदृश्य में काश्मीर के नेशनल कांफ़रेन्स से लेकर हैदराबाद के निजाम से लड़कर तेलंगाना को भारत में शामिल कराने वाले योद्धाओं तक इस देश के प्रत्येक हिस्से ने उसी मुक्ति संघर्ष के चलते आपसी एकजुटता को महसूस किया और प्रचुर विविधता के बावजूद एक साथ मिलकर रह सके । दूसरे यह कि गांधी ने राष्ट्रवाद की ऐसी धारणा का विकास किया जिसमें भारत में रहने वाले सभी धर्मों, जातियों और संस्कृतियों के लोग इस देश के स्वाभाविक नागरिक थे । इस प्रसंग में जलियांवाला बाग की इस विरासत को भी याद रखना चाहिए कि उसके दो नेताओं के नाम सैफ़ुद्दीन किचलू और सत्यपाल थे ।

वागनर ने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है कि अमृतसर में तब मुसलमान बहुसंख्यक हुआ करते थे । इस तथ्य से जाहिर होता है कि विभाजन ने देश को कितनी गहराई से प्रभावित किया । तब से पंजाब की जिस सामासिक संस्कृति का निर्माण हुआ उसकी झलक भारत के त्रासद विभाजन के बावजूद आज भी न केवल पंजाब बल्कि देश भर में यत्र तत्र मिल जाती है । राजनीति की विडम्बना का प्रतिकार लोकप्रिय सांस्कृतिक व्यवहार में होना कोई अचरज की बात नहीं होती ।

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