दीपंकर भट्टाचार्य
नई दिल्ली. केन्द्रीय बजट लोकसभा चुनाव से पहले आम जनता की आंख में धूल झोंकने के लिए की गई जुमलों की बौछार भर है. आज की तीन बड़ी घोषणायें – 5 एकड़ तक के किसानों को रु. 6000 की आर्थिक सहायता, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए 3000 प्रति माह की पेंशन और 5 लाख वार्षिक आय वाले करदाताओं को कर से छूट – दिखने में बड़ी भले ही लगें लेकिन इनका कोई खास मतलब नहीं है.
किसानों के लिए आर्थिक सहायता जो प्रति परिवार मात्र 500 रुपये प्रतिमाह होगी (पांच व्यक्तियों के परिवार में रु. 3 प्रति व्यक्ति रोजाना) किसानों की आय दुगना करने के वायदे का मखौल है. इस योजना में भी बंटाईदारों को अलग रखा गया है, यानि किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा इसमें शामिल ही नहीं किया जायेगा. खाद और अनाज में सब्सिडी जो पिछले साल 2.85 और 6.97 प्रतिशत थी, को घटा कर इस साल 2.69 और 6.62 प्रतिशत कर दिया गया है.
असंगठित क्षेत्र में जो मजदूर आज 20-25 साल का है उसके लिए साठ वर्ष की आयु के बाद रु. 3000 हजार की पेंशन का कोई मायने नहीं है, और आज से ही उसके लिए प्रीमियम देना शुरू कर देना होगा. वहीं 2.5 से 5 लाख तक वेतन पाने वालों को टैक्स में कुछ राहत दी गई है (5 लाख से ऊपर की वार्षिक आय वालों को 2.5 लाख वाले स्लैब का ही टैक्स भरना होगा), लेकिन इतनी आर्थिक असमानता बढ़ जाने के बाद इस बार भी सम्पत्ति कर से बरी करके और बिना अतिरिक्त टैक्स लगाये असली टैक्स राहत तो धन्नासेठों को ही दी गई है.
इस बजट में रोजगार के सवाल पर बिल्कुल चुप्पी साध बेहद बेशर्मी से कहा गया है कि भारत में रोजगार खोजने वाले (जॉब सीकर्स) अब रोजगार देने वाले (जॉब क्रियेटर्स) बन चुके हैं. भारी बेरोजगारी से जूझ रहे देश के युवाओं का यह बेहूदा तरीके से अपमान किया गया है. बेरोजगारी की दर नोटबंदी के बाद 2 प्रतिशत से बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हो गई है (15 से 29 आयुवर्ग के युवाओं में यह और भी ज्यादा बढ़ी है, 2011-12 में 5 प्रतिशत से 2017-18 में 17.4 प्रतिशत ग्रामीण पुरुषों के लिए, जबकि ग्रामीण महिलाओं के लिए 4.8 से बढ़ कर 13.6, और शहरी पुरुष व महिला युवाओं के बीच क्रमश: 18.7 और 27.2 प्रतिशत).
यह बजट भारत के नये मजदूर जिन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं में बेहद कम वेतन पर वालण्टियर कह काम कराया जा रहा है, उनकी नियमितीकरण और न्यूनतम मजदूरी की प्रमुख मांगों पर भी पूरी तरह से चुप है.
सरकार रक्षा बजट को बढ़ाने की बात कर रही है, लेकिन यह ग्रामीण विकास, समाज कल्याण और तमाम केन्द्रीय योजनाओं में आवंटन में कमी करके (जो 2018-19 में क्रमश: 5.5%, 1.69% और 12.41% था, अब 2019-20 में इसे घटा कर 4.99%, 1.77% और 11.77% कर दिया गया है).
चुनावी साल में अंतरिम बजट लाने की परम्परा रही है, लेकिन यह सरकार इस परम्परा को तोड़ते हुए एक तरह से पूर्ण बजट लेकर आई है. जबकि 2014 के बाद से ही लगातार देश के आर्थिक जीवन को तबाह करने के बाद अब इसका कार्यकाल पूरा होने को है.
इस सरकार के अर्थशास्त्र ने, जिसे लोग ‘जुमलानोमिक्स’ कहने लगे हैं, सभी प्रमुख आर्थिक सूचकों/सूचकांकों को काफी नीचे गिरा आम लोगों की आजीविका पर भारी संकट खड़ा कर देश को भयानक आर्थिक अनिश्चितता में ला दिया है. यह चुनाव पूर्व बजट भी वर्तमान आर्थिक गिरावट को तेज कर इस संकट को और बढ़ाने वाला है. जनता आगामी चुनावों में आर्थिक तबाही वाली नीतियों का करारा जवाब देगी, ताकि कॉरपोरेट मुनाफे और क्रोनी पूंजीवाद को बढ़ाने वाली नीतियों को उलट कर जनता के पक्ष में आर्थिक नीति बनायी जा सके.
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