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नाटक

आरा में चार दिन ‘राग दरबारी’

आरा की नाट्य संस्था ‘भूमिका’ द्वारा 24 दिसंबर से 27 दिसंबर तक चार दिवसीय नाट्य मंचन का सिलसिला 2015 में मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ से शुरू हुआ था। 2016 में इस संस्था ने गिरीश कर्नाड के नाटक ‘तुगलक’ का मंचन किया, जो नोटबंदी के ठीक बाद मंचित होने के कारण कुछ ज्यादा ही प्रासंगिक हो गया। 2017 में इसके द्वारा शेक्सपियर के विश्वप्रसिद्ध नाटक ‘मैकबेथ’ का मंचन किया, जिसके संवादों और घटनाओं को दर्शकों ने मौजूदा सरकार के शह पर देश में निरंतर बढ़ती हिंसा, उन्माद, गैरआधुनिक और अवैज्ञानिक प्रवृत्तियों और असुरक्षा से जोड़कर देखा।
वैसे तो ‘भूमिका’ के खाते में महाभोज, दिल्ली ऊंचा सुनती है, थैंक्यू मिस्टर ग्लाॅड, घासीराम कोतवाल, एक और द्रोणाचार्य, अमली, लड़ाई, अंधों का हाथी, पंच परमेश्वर, आधे अधूरे जैसे नाटकों का मंचन शामिल है, पर विगत तीन वर्षों से उसके द्वारा साल में किसी एक नाटक के मंचन का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह सामाजिक-राजनीतिक प्रासंगिकता के लिहाज से गौरतलब है। मंचन में विभिन्न राजनैतिक-वैचारिक पृष्ठभूमि के कलाकार हिस्सा लेते हैं, पर नाटक प्रायः सत्ता और व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक रुख वाले होते हैं।
इस बार 24 से 27 दिसंबर तक मंचित नाटक ‘राग दरबारी’ भी इसी तरह का नाटक था, जो पचास वर्ष पूर्व प्रकाशित श्रीलाल शुक्ल के बहुचर्चित और बहुपठित उपन्यास ‘राग दरबारी’ का गिरीश रस्तोगी द्वारा किए गए नाट्य रूपांतरण पर आधारित था। पहले योजना थी ‘अंधा युग’ के मंचन की, पर बाद में मुझे ध्यान आया कि यह ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन का पचासवां साल है और मैंने निर्देशक से कहा कि क्यों न इस बार ‘राग दरबारी’ ही किया जाए और वे तैयार हो गए।
मैंने इसमें ‘राग दरबारी’ के केंद्रीय पात्र वैद्यजी की भूमिका की। हालांकि कई तरह की व्यस्तताओं के कारण मैंने गुजारिश की थी, कि नाटक के निर्देशक श्रीधर किसी और कलाकार से भूमिका करा लें, पर उनकी जिद थी कि मुझे ही इस भूमिका को निभाना है। खैर, वैद्यजी के शातिरपन, गांधीवादी और लोकतांत्रिक होने के उसके पाखंड के पीछे मौजूद निर्मम सामंती व तानाशाहीपूर्ण चरित्र के विभिन्न पहलुओं को मैंने अपने अभिनय के जरिए प्रस्तुत करने की कोशिश की। हालांकि नाटक के संक्षिप्त रिहर्सल और फिर मंचन के दौरान यह लगातार महसूस होता रहा कि इस उपन्यास का और बेहतर नाट्य स्क्रिप्ट लिखा जाना चाहिए। इस उपन्यास में ऐसे कई छोटे प्रसंग हैं जो आज के संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण हैं। मंचन का आरंभ होने के ठीक पहले यह ख्याल आया कि किसी एक दिन ‘राग दरबारी’ की प्रासंगिकता को लेकर एक विचार-विमर्श का कार्यक्रम भी रखा जाए। तो तीसरे दिन मंचन से पूर्व हमने ‘राग दरबारी और आज का समय’ पर एक परिचर्चा रख दी।
‘ राग दरबारी और आज का समय ’
परिचर्चा में वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन ने कहा कि मौजूदा सरकार को देख लिया जाए, तो उसके सारे मंत्री राग दरबारी ही तो अलापते हैं। यह ऐसा शासनतंत्र है जो जितना गरीबी दूर करने की बात करता है, उतनी गरीबी बढ़ जाती है। किसान आत्महत्या करते हैं और सरकार के पक्ष में खड़े दरबारी पूरे देश को खाते जाते हैं। ‘राग दरबारी’ भारतीय समाज और राजनीति के विसंगतिपूर्ण यथार्थ का आईना है।
कथाकार नीरज सिंह ने कहा कि आजादी के आंदोलन की प्रतिज्ञाओं का क्या हस्र हुआ, उसे समझने के लिहाज से आजादी के बाद प्रकाशित रेणु का ‘मैला आंचल’ और श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ जरूरी उपन्यास हैं। निश्चित तौर पर ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन से लेकर अब तक स्थितियों में बदलाव भी हुआ है। प्रतिरोध की ताकतें भी विकसित हुई हैं, पर ‘राग दरबारी’ में वैद्यजी जिस तरह शिक्षा-व्यवस्था, काॅपरेटिव और पंचायत व्यवस्था काबिज हैं, कमोबेश जो वर्चस्ववादी ताकतें हैं, उनका उसी तरह का कब्जा आज भी है। ये ताकतें जाति-व्यवस्था को आज भी उसी तरह साधती हैं।
कवि आलोचक जितेंद्र कुमार ने कहा कि आजादी के बाद प्रभु वर्ग किस तरह लोकतंत्र का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए कर रहा था, इसे ‘राग दरबारी’ बखूबी दिखाता है। वैद्यजी ने कई तरह के दूकान खोल रखे हैं। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वैद्यजी की तरह अंदरूनी झगड़े इन पार्टियों में भी होते हैं। लेकिन आज हमें इसे लेकर ज्यादा चिंतित होने और संघर्ष करने की जरूरत है कि ये बड़ी कुर्बानियों के बाद मिली लोकतंत्र की उपलब्धियों- लोकतांत्रिक संस्थाओं पर जानबूझकर हमले कर रहे हैं।
चित्रकार राकेश दिवाकर ने ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन के समय और आज के समय के बीच के फर्क को चिह्नित करते हुए कहा कि यह रोचक उपन्यास है, इसे पढ़ते हुए ही किसी नाटक देखने का अहसास होता है। समाज की हर स्थिति पर यह टिप्पणी करता है। पर कई चीजें बदली भी हैं। विपक्ष को पहले की तरह मैनेज नहीं किया जा सकता। ब्रह्मचर्य को लेकर भी धारणाएं बदली हैं। आशा की किरणें क्षीण नहीं हैं।
नाटक में गयादीन की भूमिका निभाने वाले संविदा आधारित शिक्षक और रंगकर्मी सुभाषचंद्र बसु ने शिक्षा-तंत्र की गड़बड़ियों को पर्दाफाश करने वाले प्रसंगों की चर्चा की और कहा कि आज प्राइवेट और सरकारी दोनों तरह के स्कूलों की दशा खराब है, शिक्षक इस व्यवस्था में पीस रहे हैं, उनका कोई मान-सम्मान नहीं है। चुनाव लड़ने वाले अक्सर नेता घटिया होते हैं, यह आज भी उतना ही सच है, जैसा 1968 में रहा होगा। जनता,एक अजीब सी कशमकश में है। वह क्या निर्णय ले, यही सवाल नाटक में बुद्धिजीवी रंगनाथ के सामने भी है। एक दूसरे शिक्षक, जिन्होंने नाटक में भी मालवीय नामक शिक्षक की भूमिका निभाई, उनका कहना था कि यह मान लिया कि पूरा भारत शिवपालगंज बन गया है और यहां की पूरी व्यवस्था खराब है, लेकिन इससे कैसे बाहर निकला जाए, इस सिस्टम को कैसे बदला जाए, यही अहम सवाल है ?
‘भूमिका’ के अध्यक्ष रंजीत बहादुर माथुर ने कहा कि समाज में जो गरीब थे वे और गरीब हुए हैं, अमीर और ज्यादा अमीर होते गए हैं। सामाजिक परिवर्तन के दावे भी बहुत हुए, पर स्थितियां आज भी बहुत नहीं बदली हैं, आज भी सवाल यह है कि जो समस्याएं हैं, उनका निदान कैसे हो ?
शायर इम्तयाज अहमद दानिश का कहना था कि 1857 के बाद मुल्क में साइंसी, सियासी और सामाजिक तौर पर जबर्दस्त उथल-पुथल का दौर चला। 1947 की आजादी से हमने नए ख्वाब सजाए थे, पर उसका हस्र बहुत जल्दी ही दिखाई देने लगा। शायद उसी ने श्रीलाल शुक्ल को यह उपन्यास लिखने को विवश किया होगा। यह मौजूदा दौर का भी आईना है।
कवि जनार्दन मिश्र ने कहा कि ‘राग दरबारी’ मानवीय विसंगतियों और धार्मिक-आर्थिक-सामाजिक शोषण को दर्शाता है। यह जो कुव्यवस्था है, उसको बुद्धिजीवियों, छात्रों-नौजवानो और किसानों को हल करना होगा। ‘राग दरबारी’ उपन्यास को बेहद पसंद करने वाले युवा शिक्षक वेद प्रकाश संवेदी ने कहा कि यह मल्टीलेयर (बहुस्तरीय) उपन्यास है। पहले और आज के दौर में क्या फर्क है, देख सकते हैं कि किसान वहां बीमार है और आज भी बीमार है, आत्महत्या कर रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं को किस तरह लागू किया गया, यह सब इसमें देखा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि कई बार लगता है कि रंगनाथ, रुप्पन, वैद्यजी, रंगनाथ आदि सारे पात्र हर व्यक्ति के भीतर मौजूद हैं। परिचर्चा में देव कुमार पांडेय और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकत्र्ता जितेंद्र कुमार ने भी हिस्सा लिया। संचालन आशुतोष कुमार पांडेय ने किया। विषय प्रवत्र्तन करते हुए मैंने स्त्रियों और दलितों की बढ़ती हुई दावेदारी और किसानों की दुर्दशा और प्रतिरोध के संदर्भ में उपन्यास के कुछ प्रसंगों की चर्चा की। सामंती नैतिकता, सर्वग्रासी भ्रष्ट, स्वार्थपरक और संवेदनहीन राजनैतिक संस्कृति, सामंती-प्रतिक्रियावादी ताकतों और पूंजीवाद के गठजोड़, ग्रामीण समाज के गैरआधुनिक-गैरलोकतांत्रिक ढांचे और ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में डाॅ. अंबेडकर के नजरिये का जिक्र करते हुए मैंने उपन्यास पर अपने विचार व्यक्त किए।
कोई पार्टी कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के जितने दावे करे, कांग्रेसी संस्कृति के जो दुर्गुण थे, उससे भारत निरंतर भीषण रूप से युक्त होता गया है। यह भी कहा कि 1968 में तो दरबारी तंत्र के भेंट चढ़ने से यह उपन्यास बच गया, जब अज्ञेय ने नौकरी छोड़कर एक मीडिया हाउस ज्वाइन करने का प्रस्ताव दिया और तक उन्होंने चीफ सेक्रेटरी को व्यंग्य और आक्रोश से भरा खत लिखा और उसके बाद उनके उपन्यास के प्रकाशन की अनुमति मिल गई। पर आज सरकार और मीडिया घरानों का जैसा गठजोड़ है, उसे देखते हुए इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

पिछले दिनों रांची में ‘राग दरबारी’ पर आयोजित एक गोष्ठी में वरिष्ठ आलोचक रविभूषण के वक्तव्य से यह पता चला कि राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र के विद्वानों की यह प्रिय पुस्तक है। इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में दो दिनों का सेमिनार हो चुका है। हिंदी आलोचना के लिए ‘राग दरबारी’ एक ऐसी किताब है, जिसे लेकर आलोचकों के बीच मतभेद है। श्रीलाल शुक्ल के निधन् के बाद प्रकाशित रेखा अवस्थी द्वारा संपादित पुस्तक ‘राग दरबारी: आलोचना की फांस’ का शीर्षक इसी की ओर संकेत करता है। खैर, यह उपन्यास काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि पिछले पचास सालों में इसकी बीस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।

वैद्यजी हिंदुस्तान की सत्ता पर छाए हुए हैं, ‘राग दरबारी’ नाटक में दिखा आज का यथार्थ
गैर-आधुनिक, अवैज्ञानिक-पुरातनपंथी, तर्कविरोधी, पाखंडी, भेदभाव भरी हिंसक प्रवृत्ति की जड़ों की शिनाख्त

उपन्यास के केंद्र में शिवपालगंज नामक एक कस्बा है, जहां सत्ता के केंद्र वैद्यजी हैं। उनके पहलवान बेटे बद्री और उनके चेलों की ही वहां चलती है। उस कस्बे की राजनीति, प्रशासन, थाना, काॅलेज, गांव-सभा- सब पर उन्हीं की दबदबा है। उपन्यास गांव-कस्बों के प्रति बने रुमानी दृष्टिकोण को जबर्दस्त झटका देता है। एक तरह से आजादी के बाद के भारत के शासन-प्रशासन, उसके विकास के माॅडल और विकास योजनाओं, शिक्षा-स्वास्थ्य-सहकारिता, कृषि- हर क्षेत्र की स्थिति पर कटाक्ष करता है। हमारे देश की राजनीति में जो तानाशाही की प्रवृत्ति है, उसकी जड़ें हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के भीतर हैं, इसे नाटक ने बखूबी दिखाया।
नाटक में एक पात्र कहता है कि वह शिवपालगंज से चला जाएगा, तो दूसरा पात्र जवाब देता है कि देश के नक्शे को फैलाकर देख लो, कहां नहीं है शिवपालगंज। उपन्यास में शिवपालगंज जो हिंदुस्तान का प्रतीक था, आज वह पूरी तरह हकीकत बन चुका है। वैद्यजी आज हिंदुस्तान की सत्ता पर छाए हुए हैं, अपनी गैर-आधुनिक, अवैज्ञानिक-पुरातनपंथी, तर्कविरोधी, पाखंडी, भेदभाव भरी हिंसक प्रवृत्ति के साथ। गाहे बगाहे आने वाले नेताओं के बयान इसका साक्ष्य हैं।
राग दरबारी गाने वालों की तादाद भी आज इस मुल्क में पिछले किसी समय से ज्यादा है, जो वैद्यजी जैसों की हर बात को उचित साबित करने में लगे रहते हैं। हमारे लोकतंत्र में जो भारी गड़बड़ियां हैं, इस ओर इस नाट्य प्रस्तुति ने ध्यान खींचा। हमारे बौद्धिकों के दरबारी बनने की नियति और आलोचनात्मक विवेक के कमजोर होने के खतरों को भी चिह्नित किया, जिसके कारण कोई भी लोकतांत्रिक समाज कमजोर होता है।
उपन्यास की शुरुआत रंगनाथ द्वारा ट्रक के रोमांचक सफर से होती है, वह बताता है कि देश का हाल ट्रक के गेयर की तरह है, उसे जितना भी टाॅप में डाला जाए, वह न्यूट्रल में आ जाता है।  शिवपालगंज में रंगनाथ को एक ओर सरकारी प्रचार-पोस्टर नजर आते हैं, जिसमें कहीं देश के लिए अधिक अन्न उपजाने का संदेश है, तो कहीं देश के लिए धन बचाने की बात है, दूसरी ओर दाद-खाज खुजली से लेकर बवासीर तक के इलाज के इश्तहार हैं और सर्वोपरि है वैद्यजी के ब्रह्मचर्य का संदेश, जो मानो हर चीज का समाधान है। नाटक इसी व्यंग्यात्मक तेवर के साथ शुरू हुआ।
इसके बाद मंच पर वैद्यजी अवतरित हुए, पता चला कि उन्होंने भांजा रंगनाथ को उसकी सेहत सुधारने के लिए वहां बुलाया है। वे उसे पूरे देश के नौजवानों की तरह निकम्मा नहीं रहना देना चाहते। हालांकि उनके खुद के बेटों की योग्यता यह है कि बड़ा बेटा बद्री पहलवानी करता है और ताकत के दंभ में रहता है, दूसरा बेटा रुप्पन उसी काॅलेज में छात्रों और शिक्षकों के बीच राजनीति करता है, जिसके मैनेजर खुद वैद्यजी हैं। उसके बाद दर्शकों का काॅलेज की दुनिया से साक्षात्कार हुआ, जहां प्रिंसिपल, मालवीय और खन्ना मास्टर के बीच के स्वार्थ आधारित झगड़े हैं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है, खन्ना की महत्वाकांक्षा वाइस प्रिंसिपल बनने की है। लेकिन अंततः वैद्यजी अपने दरबारी प्रिंसिपल की ही सुनते हैं, खन्ना मास्टर को त्यागपत्र देना पड़ता है और मालवीय को जान गंवानी पड़ती है।
काॅलेज, कोआपरेटिव, ग्राम सभा चुनाव और वैद्यजी के बैठकखाने यानी दरबार के दृश्यों से यह नाटक बुना गया है। कोआपरेटिव में आठ लाख रुपये का गबन होता है, वैद्यजी उसमें साझीदार हैं, पर उन्हें कुछ नहीं होता। इस्तीफा देकर बेटे बद्री पहलवान को मैनेजर बना देते हैं। अपने नौकर सनीचर को प्रधान बनाकर गांव-सभा को अपनी मुट्ठी में कर लेते हैं। लंगड़ गांधीवादी किस्म का एक ऐसा पात्र है, जो न्याय के लिए अंतहीन कोशिश करता है, पर उसे न्याय नहीं मिल पाता। वैद्यजी के सिद्धांत सिर्फ भाषण के लिए हैं, व्यवहार में उनका स्वयं का आचरण उसके विरुद्ध है। उनके बेटे ही उनका पोल खोल देते हैं और उनके घोषित सिद्धांतों का मजाक उड़ाते हैं और उनके विपरीत आचरण करते हैं।
सामंती नैतिकता जिसके खाने के दांत और दिखाने के कुछ और होते हैं, उसका नमूना हैं वैद्यजी। नाटक में कृषि, शौचालय, स्वास्थ्य आदि विभिन्न क्षेत्रों की बदहाल स्थिति की सूचनाएं और शासन-प्रशासन के संवेदनहीन रवैये की चर्चाएं भी आती रहती हैं।
नाटक में एक ही स्त्री पात्र है बेला, जिसने भारतीय समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति को दिखाया। बेला पर वैद्यजी के दोनों बेटे फिदा हैं। इस प्रसंग ने जितना हास्य उत्पन्न किया, उतना ही बारीक तरीके से प्रेम और स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति सामंती नजरिये को भी दर्शाया।
नाटक में रंगनाथ, जो भारत के मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का प्रतीक है, को लगता है कि कहीं कोई विकल्प नहीं है, हर ओर अंधेरा है, पूरा हिंदुस्तान ही शिवपालगंज है, जहां वैद्यजी की ही सत्ता है। रोजी रोटी के लिए उनका दरबारी बनना ही उसकी नियति है। वह खुद को भयानक रूप से घिरा महसूस करता है। मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था के छद्म पर जितने भी प्रसंग और पात्रों के संवाद नाटक में थे, वहां दर्शकों की तालियां बज रही थीं।
उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने अवधी के प्रभाव वाली खड़ी बोली का उपयोग किया है। निर्देशक ने श्रीधर ने इसमें वैद्य जी के बेटों- बद्री और रुप्पन, उनके नौकर सनीचर और न्याय के लिए जूझते लंगड़ आदि कई चरित्रों की भाषा भोजपुरी कर दी थी, जिससे भोजपुरी भाषी दर्शकों के लिए ‘राग दरबारी’ नाटक ज्यादा प्रभावकारी बन गया। साहित्यिक रचनाओं में हिंदी के क्लिष्ट शब्दों के इस्तेमाल को लेकर इस नाटक का नायक रंगनाथ एक जगह एक टिप्पणी भी करता है। बद्री पहलवान से वह कहता है कि ‘‘हिंदी वालों को तुम्हारे अखाड़े में चार महीने रखा जाए तो मिट्टी के जर्रे-जर्रे से नया शब्दकोश तैयार हो जाएगा। परिप्रेक्ष्य, युगबोध, आयाम, संदर्भ, सर्जनात्मकता, संचेतना- खोजे हुए शब्दभंडार से कहीं ज्यादा सशक्त शब्द।’’
‘राग दरबारी’ में लेखक अपनी ओर से कोई स्पष्ट वैचारिक समाधान या दिशा नहीं बताता। नाटक का स्क्रिप्ट भी स्थितियों को ज्यों का त्यों सामने रख देता है। लेकिन जगह-जगह लेखक के गहन अनुभवों से भरी टिप्पणियों की गूंज जरूर दर्शकों के जेहन में जगह बना रही होंगी। जैसे नाटक में एक जगह रंगनाथ लंगड़ से कहता है- ‘‘देखो…. लंगड़ जानने की बात सिर्फ एक है कि तुम जनता हो और जनता इतनी आसानी से नहीं जीतती।’’
नाटक का कला-पक्ष
नाटक में रूप-सज्जा की जिम्मेवारी चित्रकार रौशन राय और राकेश कुमार दिवाकर ने निभाई। उन्होंने अभिनेताओं के चरित्रों के अनुरूप काफी सटीक मेकअप और वेशभूषा प्रदान किया था। मंच दो हिस्सों में बंटा था, बायीं ओर छंगामल काॅलेज है और दायीं ओर वैद्यजी का बैठकखाना और उनका तखत लगा था। सामने सनीचर के भांग पीसने की जगह थी।
इस नाटक में अभिनय कर रहे कलाकारों ने आरा रंगमंच के भविष्य के लिहाज से बेहतरीन संभावनाओं का परिचय दिया। खासकर वैद्यजी के नौकर सनीचर की भूमिका निभा रहे आजाद भारती को दर्शकों की ओर से खूब तालियां मिलीं। थोड़े बौड़म, मुंहलग्गू और प्रधान बनने की प्रक्रिया में एक चतुर नेता में रूपांतरित होते शख्स की भूमिका उन्होंने शानदार ढंग से निभाई। वैद्यजी के बड़े बेटे बद्री पहलवान और उसके साथी छोटे पहलवान की भूमिका में रंजन यादव और दीपक सिंह गुड्डू दबंग व्यवहार की छाप छोड़ने में पूरी तरह सफल रहे। वैद्यजी के दूसरे बेटे रुप्पन के स्वच्छंद और उद्दंड मिजाज को रंजन सिंह राठौर ने बखूबी जीवंत किया।
काॅलेज के प्रिंसिपल और वैद्यजी की निरंकुशता से परेशान शिक्षकों- खन्ना, गयादीन और मालवीय की भूमिकाओं में क्रमशः राजू कुमार मिश्रा, सुभाषचंद्र बसु और ओमप्रकाश पाठक ने एक ही मकसद से जुड़े, अपनी-अपनी व्यक्तिगत खासियत रखने वाले लोगों की भूमिकाएं कुशलता से निभाई। खन्ना तुरंत उत्तेजित होने वाले शिक्षक थे, तो गयादीन चिंतक-विचारक किस्म के गंभीर व्यक्तित्व वाले और मालवीय थोड़े मानसिक उहापोह में फंसे, हिचक के शिकार, जो कभी-कभी गुस्से से फट पड़ते हैं। प्रिंसिपल और वैद्यजी के मुंहलगे क्लर्क की भूमिका संतोष सिंह ने कुशलता से निर्वाह किया।
लंगड़ की भूमिका में निशिकांत अपनी शारीरिक मुद्राओं और अपनी आवाज के संतुलन के जरिए दर्शकों के मर्म को छूने में कामयाब रहे। शायर रामाधीन भिखमखेड़वी की भूमिका वेदप्रकाश गुप्ता ने निभाई और छोटे दृश्य के बावजूद अक्खड़पन के बेहतरीन अभिनय की वजह से दर्शकों की सराहना पाई। काॅलेज के छात्र की भूमिका रविशंकर सिंह, अभिषेक और रवि ने निभाई और समाज के भविष्य के प्रतीक के रूप में नाटक के अंत में सामने आए कुमार उत्कर्ष अनंत।
बेला के चरित्र के लिए नाटक में पर्याप्त जगह नहीं थी, पर बद्री की प्रेमिका के रूप में पूजा कुमारी ने यादगार अभिनय किया। नाटक में रंगनाथ की भूमिका निभा रहे लोकेश दिवाकर ने आधुनिक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के मानसिक द्वंद्व और व्यवस्था से उसके मोहभंग को विभिन्न प्रसंगों के जरिए जीवंत किया। कभी नैरेटर के तौर पर लंबा संवाद, तो कभी अपने मामा जी के बेटे के साथ चुहल, कभी रूमानी मिजाज के नौजवान, कभी लंगड़ के प्रति करुणा से भरे सहृदय व्यक्ति तो कभी वैद्यजी की सत्ता के पीछे की अनैतिकता, दोहरेपन, भ्रष्टाचार और पाखंड से आक्रोशित बौद्धिक- हर रूप को जीने की भरपूर कोशिश उन्होंने की।
प्रिंसिपल के चरित्र  के भी कई स्तर थे, एक ओर वैद्यजी की जबर्दस्त चापलूसी, तो दूसरी ओर अधीनस्थ शिक्षकों के साथ निर्मम व्यवहार, एक पल में सख्त तो दूसरे ही पल बिल्कुल मुलायम। इस बड़बोले चरित्र की भूमिका शानदार ढंग से नाटक के निर्देशक श्रीधर ने खुद निभाई। नाटक में वैद्यजी और बद्री पहलवान, खन्ना और प्रिंसिपल, बद्री पहलवान और छोटे पहलवान तथा गयादीन, मालवीय और खन्ना के बीच के द्वंद्वात्मक और तनावपूर्ण दृश्य बड़े प्रभावशाली बन पड़े थे, दर्शकों ने जिनका जमकर आनंद उठाया।
नाटक की शुरुआत में रंगनाथ अपने सफर और शिवपालगंज के बारे में बताता है, उस समय उसी के समानांतर वैद्यजी के पूजा का दृश्य चलता है, जो सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक यथास्थिति का प्रतीक है। अंतिम दृश्य में जब रंगनाथ वैद्यजी के दरबारियों यानी सिस्टम के घेरे में फंसा हुआ है, उस वक्त भी वैद्यजी धूपदान लिए हुए पूजा में मग्न दिखाए देते हैं, पर इस प्रतीक के समानांतर दूसरा प्रतीक उभरता है, उस अंधेरे में एक बच्चा, स्त्री और किसान हाथों में रोशन टार्च लिए नजर आते हैं। इस तरह बेहतर भविष्य की उम्मीद से जुड़ी शक्तियों की ओर संकेत करते हुए नाटक समाप्त हुआ।
प्रकाश-व्यवस्था की जिम्मेवारी पहली बार आशुतोष कुमार पांडेय ने निभाई और अपनी हरफनमौला प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने इस मंचन के दौरान उद्घोषणा और परिचर्चा का संचालन भी किया। ‘भूमिका’ का मोटो है- रंगमंच के जादू की फिर से खोज। हर रोज मंचन के बाद हमने दर्शकों के सुझाव और उनकी प्रतिक्रियाएं सुनीं और उसके अनुरूप प्रस्तुति को बेहतर बनाने की कोशिश की। चारों दिन दर्शकों की पर्याप्त मौजूदगी और नाट्य मंचन को देखने के पश्चात अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव देने के प्रति उनके उत्साह ने कलाकारों को भी उत्साहित किया।
आरा शहर की जो विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रही है, उसे ‘राग दरबारी’ की नाट्य प्रस्तुति ने और चमक प्रदान किया। प्रस्तुति संयोजक सत्येंद्र कुमार थे। सहयोग किया राजीव सिंह, शमीम आरवी, डाॅ. प्रतीक और डाॅ. कुणाल ने। इस मौक़े पर वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, कवि-आलोचक जितेंद्र कुमार, रंगकर्मी मनोज नाथ और संभावना आवासीय विद्यालय के प्रबंध निदेशक व रंंगकर्मी द्विजेंद्र किरण को सम्मानित भी किया गया।

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