समकालीन जनमत
कविता

संभावनाओं के बिम्ब गढ़ती आँचल की कविताएँ

लोकेश मालती प्रकाश


व्यक्ति की निजता अमानवीय सत्ताओं के निशाने पर हमेशा से रही है।

ग़ुलामी की सबसे मुकम्मल स्थिति वह होती है जब ग़ुलाम की निजता के अहसास को पूरी तरह नष्ट कर दिया जाता है। तब ग़ुलाम सत्ता द्वारा थोपे गए हर झूठ को अपने निज का सच मान लेता है।

उसकी स्मृतियाँ,सपनें,उम्मीदें,हसरतें सब कुछ सत्ता द्वारा तय किए गए दायरों में सिमटे रहते हैं।

यह अनायास नहीं है कि अमानवीय सत्ताएँ उन चीज़ों पर हमला सबसे पहले और सबसे आक्रामक तरीके से करती हैं जहाँ व्यक्ति की निजता अपने सबसे उद्दात रंग में सामने आती है।यानी इंसान की रचनात्मकता पर। चाहे वे तानाशाही निज़ाम हों,अधिनायकवादी हुकूमतें हों, फ़ासीवादी ताकतें हों, या ग़ुलामी व गैर-बराबरी पर टिकी सामाजिक संरचनाएँ हों, सभी इंसान की मौलिक अभिव्यक्तियों पर सबसे गहन हमला करते हैं।

ऐसे में सृजन कर्म न सिर्फ अपनी निजता को अभिव्यक्त करने की कवायद है, बल्कि एक अर्थ में बड़े ही गहन स्तर पर अमानवीय सत्ताओं के ख़िलाफ़ इंसान के संघर्ष की कवायद है।

अपनी खास निजी दृष्टि से दुनिया को टटोलता कवि अपनी रचना में बहुत सारी संभावनाओं को जन्म देता है। उसमें वह भी होता है जिसे मुक्तिबोध ने ‘सभ्यता समीक्षा’ कहा है – सचेत आलोचनात्मक निगाह से दुनिया की, समय की, अपने युग की पड़ताल।

साथ ही,इसमें इंसानी उम्मीदों का एक पूरा ताना-बाना होता है – प्रेम,जुड़ाव,कड़वे सच को कह पाने का साहस,आत्म-स्वीकृतियाँ और इसमें वे सभी चीज़ें होती हैं, साधारण चीज़ें जिनसे कभी सायास तो कभी अनायास ही कुछ गहन असाधारण अर्थ फूट पड़ते हैं।

बड़ी संवेदनशीलता व बारीकी से अपने आसपास की दुनिया पर नज़र डालती आँचल खटाना की कविताओं में इसी निजता की अभिव्यक्ति है- संभावनाओं से भरपूर अभिव्यक्ति।

‘नदी जो सुख चखती है’ कविता मेंआँचल नदी के फफक कर रोने की आवाज़ सुनती हैं। नदी किस दुख में रो रही है? असल में रोना – टूटना मानवीय होने की भी निशानी है।गहराई,विस्तार और रवानगी की -दूसरे लफ़्ज़ों में ज़िन्दगी की निशानी।

नदी की आवाज़ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने लिए हो सकती है। आँचल उस आवाज़ में मनुष्यता की एक संभावना ढूंढ निकालती हैं।

इसी तरह ‘पत्थर शहर में हम तुम’ में पत्थरों पर चुपचाप नाम कुरेदते प्रेमी जोड़े ऐसा करते हुए दरअसल एक त्रासदी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहे हैं।

क्योंकि वो जानते हैं

उनमें पत्थरों के मालिक होने का माद्दा नहीं

एक सच है जो बस वही जानते हैं,

कि वो लड़ रहे हैं निरंतर

एक युद्ध के वे योद्धा हैं

आग नहीं

पानी और बर्फ जैसे चुपचाप जल रहे हैं

उनके हिस्से

धीरे धीरे पिघल रहे हैं उनके पत्थर

‘वो जो नहीं दिखता’ कविता में आँचल परिन्दों के बिम्ब से सत्ता और उसके आकर्षण की परतें उघाड़ती हैं।

किले ढहाए जाते हैं

परिन्दे यक-ब-यक उड़ जाते हैं…

किले साल दर साल

मुँह लटकाए अनंत इंतजार में

जमे रहते हैं

परवाज फुर्सत में रहता हैं

इंतजार में नहीं

किले सामंती सत्ताओं की ताकत के, उनकी भव्यता के प्रतीक रहे हैं। आँचल इस कविता में सत्ता की ताकत और भव्यता की भंगुरता और उसके खोखलेपन को दिखाती हैं।

एक अलग मिजाज़ की कविता ‘छोर से छोर तक’में इंसानी रिश्तों की खूबसूरती को बड़े ही प्यार से उभारा है।

दोनों के बीच से कुछ लहरें बहेंगी

कुछ सीपियाँ, मोती,रेत और कण

और भी न जाने क्या क्या होगा …

और कभी किसी युगल की

मुस्कुराहट और थरथराहट बनेगा

असल में निजता की जो चेतना है उसकी एक खास बात यह भी है कि वो अपनी नज़र से व्यक्ति को एक व्यापक दायरे से जोड़ती है।

यह जुड़ना किसी से बंधना या अपनी निजता को उसमें घोल देना नहीं होता है। बल्कि उसमें रवानगी भरने जैसा होता है, काफी कुछ एक नदी की तरह।

जिसके बहाव में कितनी संभावनाएँ,कितनी संभावनाओं के बिम्ब पैठे होते हैं। बस थोड़ा गहरे उतरने की दरकार है।

‘शक्ल के टुकड़े’ कविता में उन तमाम विडंबनाओं को उकेरने की कोशिश है जिनसे आदमी घिरा हुआ है।

कुछ इसी तरह की कोशिश ‘सड़क’और ‘राख’में भी दिखती है। इन कविताओं में कई बड़े ही दिलचस्प बिम्ब गढ़े गएँ हैं। मिसाल के लिए,

वे अंत

उन शयनकक्षों की राख है

जहाँ हम सो जाया करते थे बेसुरत,

वही राख उन नंगे बदनों पर लिथड़ेगी

जिनकी चौखटों के इस पार

शमशान है और उस पार

तीन ईटों के बीच आग की लपटें।

हमने यहाँ बाार-बार संभावनाओं की बात की है। इन तमाम संभावनाओं में से एक संभावना शायद वह उम्मीद है जिसकी कुछ छटाएँ इन कविताओं में देखने को मिलती है।

यह उम्मीद ही है कि “सबसे निरीह” प्रेमी जोड़े भी “एक युद्ध” के योद्धा बन जाते हैं और तहखानों में बन्द शहरों में भी मौसम बदलता है और वे रोशनी में नहाते हैं। यह उम्मीद कि फरिश्ते हमें इतना लचीला बनाएँ कि,

हम पिंजरों की ओर नहीं

नदियों की ओर सोचें

ताकते हुए आसमान।

कविता में उम्मीद दरअसल इस बात का चिन्ह है कि ज़िन्दगी में उम्मीद अभी बाकी है और इसी लिए अनगिनत संभावनाएँ भी।

आँचल खटाना की कविताएँ

 

1. और फिर से…

वक्त की खोहों में केद रहते हुए
शहर जो पल रहे हैं तहखानों में
फिर एक और हवा बहती हुई
खींच लेगी हाथ ।
फिर जो आएगा वो मौसम होगा
हमारे चेहरों पर।
और ये बंद मकान , जर लगे दरवाजे
ढहने लग जाएंगे,
हवा को अपने जिस्म पर रगड़कर
हम समवेत स्वर में गाएंगे
कोई मधुर राग।

2. नदी जो सुख चखती है

नदी को जिसने भी छुआ , ऐसे
कि उसके फफक पड़ने की आवाज
छूने वाले के
काठ से मन में भी गूंज गई हो ,
तब उसने
तलहटी , तलछट और बहाव
के नियम को समझा
और टूटने के सुख को चखा है।

3. पत्थर शहर में हम-तुम

खंडहरों के पत्थरों पर , लोग
चुपचाप कुरेद जाते हैं नाम
क्योंकि वो जानते हैं
उनके पास कुछ भी नया और अनोखा नहीं
क्योंकि वो जानते हैं
उनमें पत्थरों के मालिक होने का माद्दा नहीं
एक सच है जो बस वही जानते हैं,
कि वो लड़ रहे हैं निरंतर
एक युद्ध के वे योद्धा हैं
आग नहीं
पानी और बर्फ जैसे चुपचाप जल रहे हैं
उनके हिस्से
धीरे धीरे पिघल रहे हैं उनके पत्थर
सबसे निरीह होते हैं प्रेमी जोड़े
उन पर कभी भी बोला जा सकता है
हमला।

 

4. चुपचाप

समुद्र की सतह के नीचे
बह जाती हैं मछलियाँ
बह जाती है
लाश भी!

5. फरिश्ते

उनकी चोंच में भरे होते हैं
आसमान के कुछ मीठे टुकड़े
बादलों के रस
जो हमारी बेस्वाद दुनिया को
धीरे – धीरे मीठेपन से भर सकते हैं
हमारे पास कुछ पहला होता है
तो बस इतना
कुछ छिटपुट सपने
और आसमान की ओर उठे हुए दो हाथ
हम इंसानों के पास
इससे ज्यादा कुछ नहीं होता
फरिश्तों के पास होते हैं पंख
होती है चोंच
वही ला सकते हैं
बादलों और आसमान का
स्वाद हम तक
वही कर सकते हैं , ये
कि अपने मरमरीं पंखों से
तोड़ दें हमारी अकड़न भरी हड्डियाँ
वही बना सकते हैं हमें इतना लचीला
कि हम पिंजरों की ओर नहीं
नदियों की ओर सोचें
ताकते हुए आसमान।

6. राख

समय हमारे अपने कठघरों में
मचलता है तड़पता है
सिसकता है ठठाता है
यहाँ से होते-होते
एक हिस्से में पीछे ही पीछे
वो शांत पिघलता है
वैसे ही जैसे भभकती आग के साथ
कहीं चुपचाप राख अपनी जगह बना रही होती है।
हम कितनी जल्दी में पाना चाहते हैं
जीवन के परिणाम
भागते हुए जो हमारे हाथ लगते हैं
वे अंत
उन शयनकक्षों की राख है
जहाँ हम सो जाया करते थे बेसुरत,
वही राख उन नंगे बदनों पर लिथड़ेगी
जिनकी चौखटों के इस पार
शमशान है और उस पार
तीन ईटों के बीच आग की लपटें।

7. सड़क

सड़क
किसी प्रेमी के मन में जलती
उसकी प्रेमिका की आँखें हैं ।
दिन,दोपहर,शाम,रात
एक सी,
जितने राही उस पर से गुजरे हैं
सभी का
कुछ-कुछ चिट्ठा लिए बैठी है।
कल,आज और कल का
सबकुछ सामने ही रख दिया है
सबके,
कभी-कभी कोई फुर्सतिया पथिक
बस उसी भाषा को सीखने बैठ जाता है।
कभी सफल कभी विफल भी
यूं तो सड़क बहुत ही,
सपाट है
पर कहीं -कहीं
अपना अतीत लिए
बैठी रहती है
कभी उसमें बरसात भरती है
कभी रेत भी
पर,वो जगह खाली ही रहती है
न बरसात ही भरती है
न रेत ही
बस भरा रहता है
अतीत!
असल में
सड़क किसी प्रेमिका की आँखें हैं।
जो उसके प्रेमी के मन में
जलती ही रहती हैं
दिन,दोपहर,शाम,रात
एक सी!

——————–

8. वो जो नहीं दिखता

परिन्दे और किले एक नहीं होते
किले ढहाए जाते हैं
परिन्दे यक-ब-यक उड़ जाते हैं
किले संगमरमर के शौकीन होते हैं
किले महीन पच्चीकारी चाहते हैं
किले चमकना चाहते हैं
परिन्दे तो खुद पच्चीकारी हैं
बादल की हवा की
किले छिप जाने को होते हैं
और परिन्दे भीग जाने को
परिन्दों को पसंद है
नीला रंग
किले किसी रंग से
संतुष्ट कब हुए हैं
किले साल दर साल
मुँह लटकाए अनंत इंतजार में
जमे रहते हैं
परवाज फुर्सत में रहता हैं
इंतजार में नहीं
और हम
हवा में अब तक
किलों को परिन्दे बना
न जाने क्या क्या
ढहाए जा रहे थे।

——————–

9. यहीं से

तुम्हारी आँखों में डूबना
आँखों का डूबना नहीं है
बस उभर आने की
पहली छपक जैसा है।

———————–

10. छोर से छोर तक

चलो हम किसी धारा के
दो किनारे बन जाएं

तुमसे,मुझसे,होकर,टकराकर
बीतेंगी गुजरेंगी कुछ मंद हवाएँ

कुछ कश्तियाँ ठहरेंगी तुम पर ,मुझ पर

हम मिलेंगे नहीं
पर साथ रहेंगे
शांत,स्थायी,चिर

दोनों के बीच से कुछ लहरें बहेंगी
कुछ सीपियाँ,मोती,रेत और कण
और भी न जाने क्या क्या होगा
हमारे तुम्हारे बीच,
जो कभी आभूषण बन
किसी देह पर सजेगा

और कभी किसी युगल की
मुस्कुराहट और थरथराहट बनेगा ।

(प्रस्तुत कविताओं के माध्यम से आँचल खटाना ने पहली बार कविता लेखन की ज़मीन पर कदम रखा है। आँचल खटाना ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातक एवं स्नातकोत्तर किया है और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही विदेशी भाषा हंगरी का अध्ययन कर रही हैं। टिप्पणीकार लोकेश मालती प्रकाश युवा कविता का चर्चित नाम हैं)

प्रस्तुति: उमा राग

 

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