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जड़ समाज को झिझोड़ने की जरूरत है – डाॅ नासिरा शर्मा

‘ अदब में बाईं पसली खवातीन के मसाएल और नजरिया ’ पर हुई चर्चा
शायर तशना आलमी की याद में हुआ कार्यक्रम

लखनऊ. जन संस्कृति मंच ने 17 सितम्बर को लखनऊ में उर्दू के मशहूर शायर तशना आलमी की पहली बरसी पर ‘ अदब में बाईं पसली खवातीन के मसाएल और नजरिया: एक गुफ्तगू ’ विषय पर सेमिनार  आयोजित किया। लोगों की राय थी कि हिन्दी और उर्दू के लेखक मिले, बैठे, आपस में संवाद करें, अपने मसायल की चर्चा करें, यह बहुत जरूरी है। इस दिशा में जसम की यह पहल महत्वपूर्ण है। लोगों ने उम्मद जताई कि आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा।

विचार विमर्श में खवातीन के मसायल पर तो चर्चा हुई ही, इस्मत चुगताई, रजिया सज्जाद जहीर, कुरतुल बेन हैदर, रशीद जहां, फहमीदा रियाज आदि के द्वारा इस मसले पर अदब में किये काम पर भी वक्ताओं ने रोशनी डाली।

कार्यक्रम की चीफ गेस्ट और मुख्य वक्ता प्रसिद्ध कथा लेखिका और उपन्यासकार डा. नासिरा शर्मा थीं। उन्होंने विस्तार से अपने विचार रखे। उनका अदब में बाई पसली खवातीन पर गहरा और मानीखेज काम है जिसकी खासी चर्चा रही है। इस विषय पर उनकी कई किताबें आ चुकी हैं। मध्य-पूर्व देशों पर किये अपने काम के बारे में कहा कि इन देशों में लिटरेचर का नशा है। अरब के देशों को लेकर प्रोपगण्डा ज्यादा है। सच्चाई है कि वहां के कलमकारों पर जुल्म होता रहा है। हमारे यहा भी लेखकों की हत्याएं हुईं। वहां बीस-बाइस साल के लेखकों को देश निकाला मिला, उन्हें जेलों में बन्द किया गया। लेकिन जुल्म से वह खत्म नहीं हुआ। कलमकारों ने शब्दों के लिए कुर्बानियां दी हैं। उनकी कविताओं और कहानियों में जो यथार्थ है, उससे कहीं ज्यादा कठिनाई भरा उनका जीवन रहा है। मैने उनका अनुवाद किया है। साहित्य के साथ वहां के सियासी मंजर को भी लिया है ताकि समझा जा सके कि यह किन हालातों में लिखा गया। जितना भी लेखन है, वह बाईं पसली की हकीकत को सामने लाता है।

डाॅ नासिरा शर्मा का कहना था कि मघ्य-पूर्व के देशों से लेकर हिन्दुस्तान तक महिलाएं समस्याओं से घिरी हैं। बीते 70 साल में न तो समाज की मानसिकता बदली है और न मर्दों की। हां, औरतें जरूर बदली हैं। वे मर्दों को पैदा करती है और वह औरतों के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। वह औरत से मोहब्बत करना जानता है और वह भी तेजाब डालकर या ताजमहल बनाकर। उन्होंने ईरान, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान आदि देशों के लेखकों की कहानियों पर आधारित अपनी किताब ‘अदब में बाई पसली’ का हवाला देते हुए कहा कि तमाम उथल-पुथल के बावजूद इन देशों में महिलाओं की समस्या मजहब नहीं बल्कि सियासत है। वहीं हिन्दुस्तान में सामाजिक व धार्मिक जकड़न है। इसे कौन बदलेगा ? जड़ समाज को झिझोड़ने की जरूरत है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता डा. सबीहा अनवर साहिबा ने किया। उन्होंने उर्दू अदब के हवाले से कहा कि औरत को खूबसूरती का पैकर बनाकर पेश किया गया। औरतों की मानसिकता भी उसमे ढ़ली। अदब में भी इसी रूप में देखा गया। औरतों के पास भी दिमाग है, वे सोच सकती हैं। ‘उमराव जान’ तथा प्रेमचंद की कहानियों में औरत की सोच सामने आती है। रशीद जहां ने अपनी कहानियों से चिन्गारी पैदा की। उन्होंने इस्मत चुगताई और अन्य महिला लेखिकाओं का हवाला दिया और कहा कि औरतों को अपने हक की आवाज को उठाना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि उनकी लड़ाई मर्दों से नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था से है।

डाॅ साबिरा हबीब ने कहा कि औरतों की हालत में बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। दबंग नहीं हो पर उन्हें अपनी आवाज उठानी चाहिए। उनकी लड़ाई मर्द समाज से नहीं है। अदब में भी इस्मत जैसी कम पैदा हुई। गुफ्तगू होनी चाहिए। यह अहसास हो कि वह अबला नहीं सबला है।

तब्बसुम किदवई ने गुफ्तगू में हिस्सा लेते हुए कहा कि बिटिया होने पर आज भी लोग गमजदा हो जाते हैं औरत होना बुरा माना जाता है। उसे कमजोर बनाया गया। ऐसे कुछ नाॅवेल लिखे गये जिनमें औरतों के हालात का वर्णन है। खवातीन खुद एक मसला थी। सोच में अभी भी तरक्की नहीं हुई है।

डाॅ एहतेशाम खान ने कहा कि बायां हाथ कमजोर होता है, औरतों के लिए यह जिक्र आता है। उर्दू अदब में औरतें बहुत बाद में आती हैं. पहली आवाज रशीद जहां थीं. ‘अंगारे’ मील का पत्थर है. औरत भी एक इन्सान है, यह सिलसिला इस्मत और अन्य के माध्यम से आगे बढ़ा। देखें तो आज साक्षरता में औरतों की हालत अच्छी नहीं है। उनका प्रतिशत मर्दों से काफी पीछे है। यह जानबूझ कर किया गया। इसके पीछे निजाम है । इस हालात को बदलना होगा।

कार्यक्रम का संचालन लेखिका व सोशल एिक्टिविस्ट नाइश हसन ने किया। बीज वक्तव्य रखते हुए उन्होंने कहा कि हाशिये की बात होते ही बाईं पसली का जिक्र न हो मुमकिन नहीं। दो फिक्र दिखती है। एक है कि जो जैसा है, उसे वैसा बनाये रखा जाय। दूसरी फिक्र इसे बदलने और अपने को बेहतर बनाने की है। औरतें आज सवाल करना सीख रही हैं। औरतों ने जब भी अपने मसायल पर कलम चलाई, उन पर सवाल उठे। इस्मत और फहमीदा रियाज नमूना है। ये दोनों यूपी से जुड़ी हैं। औरतों ने पितृसत्ता पर हमला किया है। कभी धीमे तो कभी तेजी से। इसी सिलसिले को हमें आगे बढ़ाना है। इस कार्यक्रम का मकसद भी यही है।

इस गुफ्तगू में नरेश सक्सेना, प्रतुल जोशी, विमल किशोर, अशोक चन्द, डाॅ अलका सिंह आदि ने हिस्सा लिया और उसे जीवन्त और मौजू बनाया।

यह कार्यक्रम उर्दू शायर तशना आलमी की पहली बरसी पर आयोजित किया गया था। उनका इंतकाल पिछले साल 18 सितम्बर को लखनऊ में हुआ था। तशना अपनी जिंदादिली और जनपक्षधरता के लिए जाने जाते हैं। उनके जीवन काल में कवि भगवान स्वरूप कटियार ने ‘अतश’ नाम से एक वृतचित्र का निर्माण किया था। ‘बतकही’ नाम से उनकी शायरी की किताब भी आयी।

इस मौके पर उनके जीचन और शायरी पर अपनी बात रखते हुए कवि और जसम के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने कहा कि तशना आलमी ऐसे शायर थे जिनमें इन्सानियत कूट-कूट कर भरा था। जैसा उनका जीवन था, सच्चाइयों से भरा वैसी ही उनकी शायरी थी। कोई फांक नहीं। वे मुशायरों के नहीं आम लोगों के शायर थे। वे दुष्यन्त, गोरख और अदम की परम्परा में आते हैं। उनकी शायरी में सहजता ऐसी कि वह लोगों की जुबान पर बहुत जल्दी चढ जाती। इसमें एक तरफ इंकलाब है तो वहीं उसमें प्रेम व करुणा भी भरपूर है।

इस मौके शैलेन्द्र सागर, मधु गर्ग, रजनी गुप्त, विजय राय, राजेश कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, अशोक श्रीवास्तव, डाॅ अनीता श्रीवास्तव, सुशीला पुरी, कांति मिश्रा, शीला पांडेय, दिव्या शुक्ला, विजय पुष्पम, सीमा मधुरिमा, अलका पांडेय, शन्ने नकवी, रविकांत, राम किशोर, लाल बहादुर सिंह, मीना सिंह, के के शुक्ला, वीरेन्द्र त्रिपाठी, कल्पना पांडेय, मो कलीम खान, आर के सिन्हा, शालिनी सिंह, अर्चना सिंह, सुधा शुक्ला आदि मौजूद थे।

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