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आजादी के पचहत्तर वर्षः प्रोपोगंडा, पाखंड और यथार्थ- दो

जयप्रकाश नारायण 

बरसात का खूबसूरत सावन मास चल रहा है। हमारे लोक जीवन में सावन मास संगीत, साहित्य, संस्कृति कला संवेदना और उत्सवी बहारों का सुहाना मास है। कजरी, झूला, अखाड़े, कबड्डी जैसे संगीत और श्रम के समायोजन से बुना-सजा सावन का महीना निश्चय ही भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की महत्वपूर्ण पहचान  है। झूलों पर झूलते हुए   सावन की फुहारों से अलमस्त नर-नारियों की गायी  कजरी कानों में अभी भी गूंजती रहती हैं।

भेदभाव रहित जीवन का उत्सव निश्चय ही हमारी सांस्कृतिक परंपरा का  उच्चतम रूप था। लेकिन भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उभार ने हमारी सबसे खूबसूरत सांस्कृतिक विरासत को किस तरह से बर्बाद किया है, इसे हम सावन महीने में चलने वाली कांवड़ यात्राओं से भली-भांति समझ सकते हैं।

हालांकि, इस वर्ष मानसून ने दगा दे दिया है। जिससे किसानों सहित देश के अन्य उत्पादक समूह भी चिंतित हैं। खरीफ की बुवाई का रकबा घट जाने से उत्पादन प्रभावित होने का गहरा असर भविष्य में हमारे समाज पर पड़ने वाला है।

आने वाले भयावह संकट से आंख मूंदे भारतीय सत्ताधारी वर्ग सावन महीने को  भोले शंकर के पूजा-अर्चना के नाम पर कांवड़ यात्रा द्वारा सरकारी इवेंट में बदलने में लगा है।

युवाओं की लंबी-लंबी कतारें रंग-बिरंगे सजावट के साथ लंबी दूरी की पद यात्राओं पर निकल पड़ी है। वे एक नदी से जल उठा कर दूसरे स्थान तक ले जाने में व्यस्त हैं। कांवड़ यात्राएं धार्मिक विश्वास के अंतर्गत पारंपरिक रूप से की जाती रही हैं लेकिन  इन यात्राओं  को उत्तर प्रदेश प्रशासन द्वारा जिस तरह से महिमा मंडित किया जा रहा है, वह युवाओं के भविष्य के लिए निश्चय ही घातक संकेत है।

संघ-भाजपा सरकारें कांवड़ यात्रा की आड़ में बेरोजगारी की मार से जूझ रहे युवाओं को उन्मादी  टोली में बदल कर उसे अपने राजनीतिक मकसद के लिए इश्तेमाल करने को उतावली हैं।

हरिद्वार से चलने वाले कांवरियों का पद प्राच्छालन करते हुए शामली के पुलिस अधीक्षक को देखकर आभास होता है कि हम कैसा भारत बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं।

सरकारें कांवड़ियों पर पुष्प वर्षा कर रही हैं लेकिन  वास्तविक जीवन में जनता के लिए दुर्लभ और सरकारी आतंक की प्रतीक पुलिस एवं उसके  अधिकारियों  को आजादी के अमृत काल में कांवरियों के पैर में मरहम लगाते हुए दृश्य को देखकर  समझ लेना चाहिए कि सत्ताधारी हमारे लोकतांत्रिक राष्ट्र को किस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिये हैं।

क्या अमृत काल के आदर्श नायक और निर्माता यही सामाजिक समूह होंगे और असंख्य भारतीयों के बलिदान से मिले हमारे लोकतंत्र की महान परंपरा के वाहक कांवड़ियों के समूह और भगवा झंडा लहराते उद्दंडता पूर्वक सड़कों पर उन्माद का उत्सव मनाने वाले युवा होने जा रहे हैं।
धर्म परंपरा और कारपोरेट नियंत्रित राज्य के सम्मिलन से कैसा भारत बनने जा रहा है, इस पर विचार करने की जरूरत है।

पूंजीवादी सभ्यता के विकास की यात्रा में हर राष्ट्रों के जीवन में एक ऐसा काल खंड आता है,   जिस समय वह अगर  अपने सामाजिक शक्तियों का सही समायोजन विन्यास करते हुए उचित संसाधन और वातावरण तैयार करने में सफल हो जाए तो वे विश्व पटल पर छा जाते हैं।

जो राष्ट्र ऐसा नहीं कर पाते वह पुनः उसी अंधकार काल की तरफ वापस लौटने के लिए अभिशप्त हैं।

राष्ट्रों के जीवन में  यह समय एक निर्धारित सीमा तक ही होता है। उसके बाद ठहराव आना लाजमी है।
हम फ्रांस इंग्लैंड स्पेन जर्मनी इटनी के विकास और ठहराव से इसे समझ सकते हैं।

लेकिन अगर इस दौर में उत्पादन करने वाली श्रम शक्तियों का सही समायोजन कर लिया जाए तो राष्ट्र और समाज में एक उन्नत मानक तैयार हो जाता है। जो सदियों तक  उस देश और समाज को विश्व के अग्रणी पंक्ति में कायम रखता है।

हम पिछले 400 वर्षों से दुनिया में ऐसा होते देख रहे हैं।

आज चीनी राष्ट्र की तीव्र गति की विकास  दर को अगर हम समझ लें तो हम राष्ट्रों के उत्थान-पतन की एक वैज्ञानिक दृष्टि हासिल कर लेंगे।

भारत की विकास यात्रा आजादी के बाद नियोजित ढंग से  शुरू हुई। भारत में सभी क्षेत्रों में नये संस्थानों का निर्माण शुरू हुआ। कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, तकनीक, स्पेस साइंस के साथ जनजीवन के सभी पैरामीटर पर भारतीय समाज में परिवर्तन दिखने लगा था।

यहां तक कि वर्ण व्यवस्था की सदियों पुरानी दीवारें  धीरे-धीरे दरकने लगीं।  हमारे समाज में समानता,  स्वतंत्रता, बंधुत्व की चेतना का प्रसार शुरू हुआ। सदियों पुरानी मृत पराम्पराएं वैज्ञानिक चेतना से टकराकर  कमजोर होने लगी।

समाज के लोकतांत्रीकरण के साथ वैज्ञानिक चिंतन मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करना शुरू किया और लगा कि भारत एक वैश्विक आर्थिक सामरिक राजनीतिक शक्ति बन जाएगा।

इस अवस्था तक आते-आते भारत में तकनीकी, वैज्ञानिक और आधुनिक ज्ञान से भरपूर युवाओं की एक लंबी कतार तैयार हो चुकी थी।

लेकिन नब्बे का दशक शुरू होते ही आजादी के संघर्ष से निकली हुई राजनीतिक दिशा और उसकी नेतृत्व कारी ताकतें अपना आवेग खो बैठी।  जिस कारण भारत चौतरफा जड़ता का शिकार हो गया।

हमारा लोकतंत्र भी कई हिचकोले खाते हुए अंततोगत्वा संकटग्रस्त होने के राह पर चल निकला।  नागरिक चेतना का विध्वंस शुरू हो गया और पुराने जाति और धर्म के विमर्श ने आकर लोकतांत्रिक स्पेस को घेर लिया।

इन्हीं कारणों से इसी समय भारत में आर्थिक संकट आ खड़ा हुआ। 40 वर्षों के लगातार प्रयासों से जो नया युवा शक्ति भारत का नेतृत्व करने के लिए तैयार हो रही थी, वह इस जाल में उलझ कर दिशाहीन हो गई।

इसको समझने के लिए कांवड़ यात्राओं में उछलते-कूदते युवाओं और नाबालिग बच्चों, महिलाओं को देख-देखकर हम भारत के भविष्य का आकलन कर सकते हैं।

भारतीय प्रधानमंत्री भारत की युवा शक्ति की प्रशंसा करते नहीं थकते। शुरुआती दिनों में यह डिमोग्राफी डिविडेंड की लंबी चौड़ी डीग हांका करते थे। अपनी प्रत्येक सभाओं और नीतिगत बहसों में युवा भारत का गर्व के साथ उल्लेख करते थे।

आम तौर पर विभिन्न मंचों से गर्व के साथ  कहा जाता था कि भारत युवाओं का देश है और इस युवा वर्ग के शक्ति, पराक्रम  और सामर्थ्य के बल पर आने वाले समय में भारत विश्व की महान ताकत बन सकता है।

लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की उभार के दौर की  पिछले 30 वर्षों की घटना प्रवाह पर नजर डालें तो  हम देखेंगे कि भारत के वैश्विक महाशक्ति बनने की संभावना समाप्त हो चुकी  है।

तथाकथित अमृत काल में जब हम भारत के आजादी के 75वें  वर्ष का उत्सव मना रहे हैं, तो भारत के पतन के लिए असली जिम्मेदार सत्ता में बैठे हुए लोगों से बाहर तलाशना अगर हमारी नियत बन जाए तो हम वास्तव में संकट के मूल कारणों की शिनाख्त करने से  भाग रहे हैं।

युवा बेरोजकारी, शिक्षण संस्थाओं का ध्वंस, तकनीकी ज्ञान के प्रति लापरवाही और वैज्ञानिक चिंतन से घृणा ने भारतीय युवा की  छलांग को प्रभावित किया और उसे बौद्धिक रूप से विकलांग बना दिया है।

युवाओं में हताशा, बढ़ती आत्महत्या और ज्ञान के प्रति एक  वितृष्णा ने हमारे देश को अंधेरी गुफा के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया है।

लेकिन सब कुछ अंधकार से घिरा नहीं है। भारत की वास्तविक  युवा मेधा शक्ति आज इस अंधकार के दौर से लड़ने के लिए छटपटा रही है। इसीलिए अंधकार की ताकतें ज्ञान केंद्रों, विश्वविद्यालयों  पर हमलावर हैं और उन पर दमन तेज हो गया है।
आज भारतीय युवा भारत के निर्माण की दो दिशाओं में स्पष्टत: विभाजित हो गया है।

एक, अंधकार की ताकतों से ज्ञान, तर्क, विवेक की लोकतांत्रिक चेतना और स्वतंत्रता संघर्ष  की महान परंपराओं का झंडा उठाए लड़ रहा है।

दूसरा- अंधकार की ताकतों के वैचारिक गिरफ्त  में फंसकर अवैज्ञानिक धर्मवादी, जातिवादी चेतना और  पिछड़े मूल्यों का वाहक बना हुआ है।

इस परिवर्तन की शिनाख्त करने के लिए हमें अतीत की तरफ नहीं जाना होगा, बल्कि वर्तमान के पिछले 30 वर्ष की छानबीन कर  हम भारतीय समाज में फैले विध्वंसक कैंसर को पहचान सकते हैं।

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