समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

मातृभाषा की नागरिकता

 

सदानन्द शाही

 

जाने कब से लोकमन कहता चला आ रहा है-कोस कोस पर पानी बदले नौ कोस पर बानी. जैसे धरती के भीतर छुपा पानी एक कोस पर बदल जाता है ,वैसे ही नौ कोस की दूरी तय करने पर भाषा बदल जाती है. भाषा का यह बदलाव स्वाभाविक और प्राकृतिक है. इसीलिए भाषाई बहुलता और विविधता भारत का वैभव है लेकिन इसके उलट तीन सौ साल की औपनिवेशिक गुलामी हमें यह समझाने में सफल रही है कि विभिन्न भाषाओं का होना अभिशाप है. हमारे औपनिवेशिक प्रभु हमको यह भी समझाने में सफल हुए कि हमारी मातृभाषाएं देशी भाषाएँ हैं और इन्हें बोलना, बरतना, पढना, पढाना गंवार होने का प्रमाणपत्र है. यह प्रमाणपत्र जारी करने में उन्होंने जितनी होशियारी की और दरियादिली दिखाई उससे कई गुना ज्यादा इस प्रमाणपत्र को स्वीकार करते हुए हम अनुगृहीत हुए.

हमने इस बात पर वैदिक ऋचाओं से भी ज्यादा यकीन किया कि देशज भाषाओं को बरतना दूसरे दरजे का नागरिक होना है. हमने औपनिवेशिक प्रभुओं की कसौटी पर पहले दरजे की नागरिकता हासिल करने की जी तोड कोशिश की। इस कोशिश में हम पहले दरजे के नागरिक हो पाये या नहीं लेकिन अपनी मातृभाषाओं की नागरिकता खो बैठे. मातृभाषाओं की नागरिकता खोने का अर्थ है मातृभाषाओं के स्मृतिकोष में संचित ज्ञान -विज्ञान ,कला- कौशल, अनुभव -संवेदन ,शिल्प,साहित्य और संगीत सब कुछ खो बैठना. इस तरह हम सब कुछ खोते चले गये .

सब कुछ खो देने के बाद हमें एक और औपनिवेशिक ज्ञान प्राप्त हुआ कि मातृभाषाओं में नौकरी और रोजगार नहीं है. अब हर व्यक्ति को रोजी रोजगार और सम्मान तो चाहिए ही.और यह दोनो अंग्रेजी में ही मौजूद हैं . इसलिए अंग्रेजी का दबदबा कायम है. जिसकी वजह से हमारा सांस्कृतिक जीवन पंगु सा हो गया है.

जिस तरह हमारी सामाजिक दृष्टि मातृभाषाओं के विरुद्ध बनी और उन्हें हीन समझने लगी , उसी तरह हमारी अकादमिक दृष्टि निर्मित हुई. केवल यही नहीं हुआ कि हमने अपनी शिक्षा के लिए एक परायी भाषा को चुना बल्कि साथ ही साथ लगातार अपने को समझाते और विश्वास दिलाते रहे कि हमारी मातृभाषाएं नाकाबिल हैं और वे शिक्षा के काम नहीं आ सकतीं और अगर कहीं उनसे शिक्षा का काम लिया गया तो रोजी रोटी के लाले पड जायेंगे.

एक तरफ मातृभाषाओं की नाकाबिलियत का सतत अहसास और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम के रूप में परायी भाषा का व्यवहार ने हमें एक अजब तरीके से दुविधाग्रस्त करता है. यह दुविधाग्रस्तता हमारी शिक्षा व्यवस्था को खोखला करती जा रही है. शिक्षाविद कृष्णकुमार हमें बताते हैं -‘ उपनिवेश रह चुके देशों के लिए शिक्षा की एक बडी समस्या अपनी भाषाओं को ज्ञान की संभाल और रचना के लिए बरतने की है. यदि देशज भाषाओं को ज्ञान की चर्चा ,संवार और रचना के कामों में नहीं लाया जाता और ये भूमिकाएँ अँग्रेजी जैसी औपनिवेशिक भाषा में सिमटी रहती है तो उच्चशिक्षा की व्यवस्था और समाज के सम्बंधों में तनाव और असंतुलन बना रहना और बढना स्वाभाविक है’।कहने की जरूरत नहीं कि यह असंतुलन और तनाव लगातार बढता गया है और हमारी शिक्षा ,जिसमें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक सब शामिल हैं, और समाज के बीच बेगानापन बढता गया है. देशज भाषाओं में मौजूद परम्परित ज्ञान की अवहेलना और मौलिक ज्ञान के सृजन में विफलता के नाते शिक्षा प्रणाली लगातार प्रश्नांकित हुई है. ऐसा नहीं कि हमारे नीति निर्माताओं का ध्यान शिक्षा प्रणाली की विफलता पर नहीं गया और उन्होंने इसे ठीक करने की कोशिश ही नहीं की लेकिन मर्ज बढता ही गया ज्यौं ज्यौं दवा की वाला मामला साबित हुआ क्योंकि हमने इस बेगानेपन को दूर करने के लिए कोई उपाय नहीं किया। देशज भाषाओं की ज्ञान परम्परा को लेकर हम कुंठित बने रहे. बावजूद इसके कि हमारी चिंतन परम्परा में जनपद ,जनपदीयता और जनपदीय भाषाओं के महत्व के स्वीकार का भाव रहा है.

अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त पृथ्वी की महिमा का गान ही नहीं करता बल्कि वह हमें पृथ्वी से जोडता है-माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या: यानी भूमि हमारी माँ है और हम पृथ्वी के पुत्र हैं. पृथ्वी के जिस हिस्से पर हम निवास करते हैं उसके साथ उसके साथ हमारा आवयविक सम्बंध होता है. भाषा भी भूमि से जुडी हुई है. हमारे लोकमन में भी यह बात बसी हुई है. भाषा और भूमि का सम्बंध नैसर्गिक है. अनेक भाषाओं का अस्तित्व भी नैसर्गिक है.  पृथ्वी सूक्त की व्याख्या करते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं- ‘आपस में भिन्नता होना , अनेक भाषाओं और धर्मों का अस्तित्व कोई त्रुटि नहीं है. अभिशाप के रूप में उसकी कल्पना उचित नहीं है. ऋषि की दृष्टि में विविधता का कारण भौतिक परिस्थिति है. नाना धर्म ,भिन्न भाषाएँ, बहुधा जन- ये सब यथौकस अर्थात अपने निवास स्थानों के नाते पृथक हैं. इस स्वाभाविक कारण से जूझना मनुष्य की मूर्खता है. यानी विविध भाषाओं का और उनके बोलने वालों का होना प्राकृतिक है। इसलिए भाषाएँ श्रेष्ठ या हीन अथवा छोटी या बडी नहीं होतीं. भाषाई विविधता प्राकृतिक निधियां हैं. इन निधियों को बचाना और बरतना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है.

भाषाई विविधता केवल भारत में नहीं दुनिया भर में है और इस विविधता की रक्षा करना समकालीन दुनिया की बहुत बडी चुनौती है. भारत की तरह अफ्रीकी देश भी लम्बे समय तक औपनिवेशिक गुलामी झेलते रहे हैं. औपनिवेशिक शक्तियों ने जैसे भारतीय भाषाओं की  तबाही की पटकथा लिखी वैसे ही अफ्रीकी भाषाओं के तबाही की भी. इस मामले में अफ्रीका सौभाग्यशाली है कि वहां न्गूगी वा थ्यांगों जैसे विचारक भी हुए हैं जिन्होंने भाषाई तबाही को औपनिवेशिक साजिश के रूप में पहचाना और इसके विरुद्ध आवाज उठाई. उन्होंने अफ्रीकी लोगों को चेताया कि आँख मूँद कर पराई भाषा का इस्तेमाल और उस पर निर्भरता एक तरह से भाषाई आत्महत्या है. इससे हमारे लोगों की संस्कृति एवं समाज की स्मृतियां लुप्त हो जायेंगी. न्गूगी इस बात से इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने कह दिया कि अफ्रीका में अंग्रेजी विभागों को बन्द कर देना चाहिए और अफ्रीकी भाषा विभाग खोलने चाहिए.

ऐसा नहीं कि अंग्रेजी से उनकी कोई जाती दुश्मनी थी. उनका विरोध अफ्रीकी भाषाओं का दमन करने वाली अंग्रेजी से था. उन्होंने बहुत साफ शब्दों में कहा कि मातृभाषा में लिखने का आग्रह कोई अंग्रेजी की प्रतिक्रिया में नही है बल्कि यह शताब्दियों से जारी औपनिवेशिक लूट, जिसने अफ्रीका को आत्मिक और आर्थिक रूप से खोखला और राजनीतिक रूप से हाशिए पर डाल दिया है, के विरूद्ध सकारात्मक हस्तक्षेप है.

हमारे सामने भी यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि हम अंग्रेजी या किसी और भाषा के विरोधी नहीं हैं,क्योंकि भाषाएं मात्र सरस्वती का विग्रह होती हैं. हमारा विरोध भाषाई वर्चस्व की उस राजनीति से है जो लोक भाषाओं को लीलने पर आमादा होती है. हमें यह जानना होगा कि औपनिवेशिक प्रभुओं द्वारा निर्मित भाषा दृष्टि से भारत में भी मातृभाषाओं की आत्महत्या हो रही है. इसे रोकने के लिए के आगे आना होगा और इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि हम मातृभाषाओं की नागरिकता वापिस हासिल करें. यहां कह देना जरूरी लगता है कि मातृभाषा की नागरिकता हासिल करने का अर्थ बाकी भाषाओं से विदाई नहीं है. भाषाओं के देश का लोकतंत्र वैश्विक है. आप जितनी भाषाओं के नागरिक होंगे दुनिया की जटिलताओं को समझने में उतने ही समर्थ होंगे.

 

[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/03/sadanand-shahi.jpg[/author_image] [author_info](लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफ‍ेसर हैं)[/author_info] [/author]

Related posts

1 comment

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion