वामपंथी आन्दोलनों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नब्बे के दशक में एक व्यक्ति को बहुत शिद्दत से मार्क्सवादी साहित्य की किताबों का स्टाल लगाए देखा करता था. बाद में जब प्रतिरोध का सिनेमा और गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल की सक्रियता बढ़ी तब इस शख्स से सीधी मुलाक़ात संभव हुई. ये थे हम सबके गंगा जी.
हमारे पहले गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल में भी गंगा जी का स्टाल लगा और फिर वे अपने एक अन्य सहयोगी और मित्र गौड़ साहब के साथ आगे चार फेस्टिवलों में शरीक होते रहे. मैं आदतन उनसे हर रोज रात में किताबों की बिक्री के बारे में पूछता था जिसे वे टाल जाते. एक साल उन्होंने मुझे टोका और कहा ‘कामरेड, मैं स्टाल किताबों की बिक्री के लिए नहीं बल्कि इसलिए लगाता हूँ कि नौजवान ज्यादा से ज्यादा संख्या में मार्क्सवादी साहित्य पढ़ें और इस फिर इस विचार के प्रति आकृष्ट हों.’ इस जवाब के बाद फिर मैंने कभी किताबों की बिक्री में दिलचस्पी न दिखाई.
धीरे –धीरे गंगा जी से दोस्ती गाढ़ी होती गयी और लखनऊ में उनके प्रमुख अड्डे लेनिन पुस्तक केंद्र में आना –जाना लगा रहा. इस आने –जाने में कई बार दुर्लभ किताबों से गंगा जी ने परिचय करवाया.
11 जून 2010 को उनके जीवन के बारे में लेनिन पुस्तक केंद्र पर ही अपने मोबाइल के रिकॉर्डर से एक लम्बी बातचीत कर सका था जिसे सितम्बर 2010 के अंक में समकालीन जनमत में जगह मिली.
गंगा जी के रास्ते पर चलते हुए जसम की दिल्ली इकाई ने पिछले साल ‘घुमंतू पुस्तक मेले’ की शुरुआत की जिसका बहुत स्वागत हो रहा है.
समकालीन जनमत में सितम्बर 2010 में प्रकाशित लेख
लखनऊ के बर्लिंगटन चौराहे के बाद चारबाग जाने वाली सड़क पर राणा प्रताप की प्रतिमा से सीधे हाथ मुड़ने पर रास्ता लालकुआं को जाता है. इसी सड़क पर दाहिने हाथ पर लेनिन पुस्तक केंद्र का बोर्ड नज़र आता है. तंग सीढ़ी से ऊपर चढ़ने पर पहली मंजिल का दरवाजा एक दूसरी दुनिया में आपको ले जाएगा. ये दुनिया है वामपंथी विचारों वाली किताबों की. दुकान में घुसते ही बड़ी मेज़ के पीछे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के नायक मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ के चित्र नज़र आएंगे. वहीं नक्सलबाडी से जुड़े चारु मजुमदार, विनोद मिश्र और नागभूषण पटनायक के पोर्ट्रेट भी आपका ध्यान खींचेंगे. किताबों को उलटते पलटते पुस्तक केंद्र के संचालक गंगा जी आपका गर्मजोशी से स्वागत करेंगे.
वैसे गंगा जी की असल पहचान यह न होकर विभिन्न आयोजनों के दौरान नौजवानों और पुस्तक प्रेमियों की भीड़ से भरे स्टाल हैं जहाँ वे पूरी तन्मयता के साथ सभी की जिज्ञासाओं को शांत करते दिखाई देते हैं. जैसे ही आयोजन के तम्बू कनात लगने शुरू होते हैं गंगा जी कमीज पैंट पहने अपने एक दो सहयोगियों के साथ बड़े – बड़े झोलों के साथ आपको दिखाई दे जायेंगे. फिर धीरे- धीरे आयोजन स्थल पर किताबों की दुनिया शक्ल लेना शुरू कर देती है.
लखनऊ में 1938 में जन्मे गंगा जी बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृति और विद्रोही स्वभाव के थे. इसी जिज्ञासु प्रवृति के चलते गंगा जी ने बचपन में एक दिन पिता की दी हुई देवी की भभूत को फ़ेंक दिया और रात भर अनिष्ट के घटने का इंतज़ार करते रहे. जब सुबह तक कुछ न हुआ तो पक्के नास्तिक बन गए. अपने विद्रोही स्वभाव के चलते ही मोहल्ले की ब्राह्मण दोस्त राम से ब्याह रचाया और तमाम खतरों के बावजूद इसे बहादुरी से निभाया भी.
मेधावी गंगा जी पिता की असमय मृत्यु के कारण ग्यारवीं से आगे न पढ़ सके. जीविकोपार्जन के लिए खरात का काम सीखा. इटावा, बम्बई होते हुए यूनियन कार्बाइड की लखनऊ यूनिट में नौकरी करने लगे. नए – नए विचारों और प्रयोगों में रूचि होने के कारण लोहिया और उनकी विचारधारा के प्रति आकृष्ट हुए. 67 में गैर कांग्रेसवाद की लहर के चलते सोशलिस्टों की संयुक्त सरकार बनी. गंगा जी के तमाम दोस्त संयुक्त सरकार में मंत्री बन गए. सत्ता में आने के बाद लोहियावादियों से गंगा जी का जबरदस्त मोहभंग हुआ और एक बार फिर से किसी नए सत्य की खोज के लिए वे विवश थे. इस बार होमिओपैथी की मीठी गोलियों ने उन्हें सहारा दिया. फैक्ट्री से मिलने वाले 2000 रुपये के मेडिकल भत्ते से उन्होंने प्रैक्टिस शुरू की और जल्द ही यूनियन कार्बाइड के 400 मजदूर साथियों का मुफ्त इलाज़ करने लगे. होमिओपैथी की मुफ्त सेवा उनकी ट्रेड यूनियन गतिविधियों के लिए पुख्ता जमीन तैयार कर रही थी. जल्द ही होमिओपैथी डाक्टरी और ट्रेड यूनियन गतिविधि साथ – साथ चलने लगी.
ट्रेड यूनियन गतिविधि के कारण 1985 में गंगा जी नौकरी से निकाल दिए गए. कारण बहुत अजीब था. 1985 से पहले तक यूनियन कार्बाइड की दो कैंटीने थीं. एक मजदूरों के लिए और दूसरी स्टाफ की. गंगा जी की यूनियन ने दोनों कैंटीनों को मिलाने के मांग की. ग्यारह महीने तक क्रमिक अनशन चलता रहा और हल नहीं निकला. फिर यूनियन ने तय किया कि सारे मजदूर स्टाफ कैंटीन में चाय नाश्ता करेंगे. गंगा जी के नेतृत्व में सफलतापूर्वक चाय -नाश्ता सम्पन्न हुआ. मल्टीनेशनल कंपनी के नियम- कायदे को तोड़ने के एवज में गंगा जी और दो अन्य कामरेड नौकरी से बर्खास्त किये गए, फिर लम्बी लड़ाई के बाद तीनों नौकरी पर बहाल किये गए.1980 के दशक में आई पी एफ के निर्माण के बाद वे कम्युनिस्टों के संपर्क में आये लेकिन अन्य राजनैतिक पार्टियों के अनुभव के चलते पार्टी की मेम्बरशिप लेने से बचते रहे.
1994 में AICCTU के राष्ट्रीय सम्मेलन में पटना गए. पटना में पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं और विधायकों के बीच कोई फर्क न देखकर पार्टी मेम्बर बने. 1996 में नौकरी से रिटायर होने के बाद गंगा जी को फिर एक नयी भूमिका में उतरना था. बहुत दार्शनिक अंदाज़ में कहते हैं ” व्यक्ति अपना जीवन नहीं जी पाता. पहले कैरियर की चिंता फिर शादी -ब्याह. शादी- ब्याह तो बच्चे और पढ़ाई- लिखाई . पढ़ाई- लिखाई के बाद उनकी नौकरी और शादी- ब्याह की जिम्मेवारी.” रिटायरमेंट के बाद सारी जिम्मेवारियों से मुक्त होने के बाद गंगा जी ने निश्चय किया कि अब अपनी तरह जीवन चलाएंगे. इसी जिद के नाते अपने आपको पूरी तरह पार्टी के लिए प्रस्तुत कर दिया और लेनिन पुस्तक केंद्र की जिम्मेवारी संभाल ली.
उनकी जिज्ञासु प्रवृति के कारण ही पुस्तक केंद्र सिर्फ किताबों की खरीद फ़रोख्त का केंद्र न रहकर बहस और विचार विमर्श का जीवंत अड्डा बन गया. यह सन 2000 का वाकया है. लेनिन पुस्तक केंद्र का बोर्ड अभी कुछ दिन पहले ही टंगा था. एक रात एक अक्खड़ आवाज गंगा जी को फ़ोन पर सुनायी दी ” लेनिन का कुछ है आपके पास “. गंगा जी ने विनम्रता से उस अक्खड़ आवाज को पुस्तक केंद्र पर आने का न्योता दिया. गंगा जी बताते हैं- ” हमारी संकरी सीढ़ियों से होता हुआ एक नौजवान कुछ दिनों बाद यहाँ आ धमका. फिर वही सवाल ” लेनिन का कुछ है आपके पास” . मैंने पूछा- लेकिन लेनिन ही क्यों ? तब उसने कहा – ” दरअसल मैंने हाल ही में The legend of Bhagat Singh फिल्म देखी है. उसमें देखा कि भगत सिंह लेनिन की किताब पढ़ रहे हैं. तब मन में ख्याल आया कि जब भगत सिंह लेनिन की किताब पढ़ रहे हैं तो निश्चय ही लेनिन बड़े आदमी होंगे. इसीलिये उनकी कोई किताब चाहिये .”
ऐसा ही एक और मजेदार वाकया नेपाल के माओवादियों का है. लेनिन पुस्तक केंद्र पर एक दिनवगँवई परिवेश के एक बुजुर्ग और और 14-15 साल का एक लड़का आये. सत्तर बरस के उस नेपाली बूढ़े ने गंगा जी के समक्ष एक अजीब मांग रखी . मांग थी कम्युनिस्ट पार्टी की किताब चाहिए. गंगा जी मुश्किल में पड़ गए, पूछा – “कम्युनिस्ट पार्टी की कौन सी किताब दें”. बुजुर्ग बोले – “बस किताब चाहिए”. तब गंगा जी ने प्रारंभिक मार्क्सवाद की छोटी पुस्तिकाओं की एक -एक प्रति पकड़ा दी. बुजुर्ग ने कहा कि एक नहीं दस-दस प्रतियां दीजिये, गाँव में पढ़ानी हैं. लेनिन पुस्तक केंद्र के संचालक गंगा जी सिर्फ पुस्तक विक्रेता नहीं हैं इसलिए किताबों की ज्यादा बिक्री से वे प्रभावित नहीं हुए. वे प्रभावित हुए इस बात से कि जिस ग्रामीण समाज को यह नहीं मालूम कि कम्युनिस्ट पार्टी की कौन सी किताब पढ़नी है वही समाज इस बात के लिए चिंतित है कि “कम्युनिस्ट पार्टी की किताब” पढ़नी है. नेपाली माओवादी आन्दोलन से जुड़े युवक और युवतियों के बहुत सारे किस्से गंगा जी अनायास सुनाने लगते हैं. वे नेपाली युवाओं की जिज्ञासा के कायल हैं. इसी जिज्ञासा को वे उस आन्दोलन की सफलता की एक ख़ास कुंजी की तरह भी देखते हैं.
गंगा जी बरसों से ट्रेड यूनियन आन्दोलन की सक्रियता से दूर हैं. इस दूरी का दुःख उन्हें शुरू में सालता भी था. लेकिन उन्होंने पुस्तक केंद्र में भी धीरे- धीरे ट्रेड यूनियन आन्दोलन की गर्मजोशी को समेटने की कोशिश की. लोगों की जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए खुद भी तैय्यारी की. किताबें पढ़ीं, पढ़े- लिखे लोगों से जीवंत संपर्क बनाया और निरंतर अपने केंद्र को आधुनिकतम विचारों और जिज्ञासाओं से लैस किया.बाल सुलभ आतुरता के साथ वे आपको नई किताबों की सूचना देने के साथ- साथ किसी संग्रहणीय दुर्लभ किताब को भी दिखाएँगे जिसे उन्होंने अपनी किसी पिछली यात्रा में शहर के कबाड़ी या किसी शुभेच्छु से हासिल किया होगा. उन्होंने हमेशा अपने हर काम में मजे को खोजा और खुश रहे. शायद इसी वजह से 72 वर्षीय नौजवान गंगा जी अब कुछ नया खोजने के लिए दुर्गम पहाड़ों, बीहड़ रेगिस्तान, घने जंगलों और विशाल समुंदर के बीच कुछ समय बिताना चाहते हैं जहां रहकर वे अपनी जिज्ञासाओं को शांत कर सकें. यही कारण है कि किताब के उनके स्टाल पर आप उन्हें हमेशा जिज्ञासु आंखों को खोजता पायेंगे.
(संजय जोशी ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक, सिनेमा के पूरावक्ती कार्यकर्ता तथा ‘नवारुण प्रकाशन’ के संचालक हैं. )