समकालीन जनमत
सिनेमा

गरीबों की जमीन हड़पने और उन्हें अपराधी बताने का सिंड्रोम

(‘हिचकी’ के बहाने भारत की सबसे बड़ी सामाजिक बीमारी की चर्चा)

आलोक कुमार श्रीवास्तव

मार्च 2018 में आयी रानी मुखर्जी की केंद्रीय भूमिका वाली फिल्म ‘हिचकी’ की मुख्य किरदार नैना माथुर जिस सेंट नॉटकर कॉन्वेन्ट स्कूल में टीचर हैं, उस स्कूल के खेल का मैदान भी मानों फिल्म का एक किरदार है और बड़ा ही अहम किरदार। जैसा कि फिल्म में बताया गया है कि अगर सेंट नॉटकर वालों को स्कूल के लिए बड़े प्लेग्राउंड की ज़रूरत न होती तो स्कूल में 9-एफ़ नाम का डिवीज़न भी न होता। और जब सेंट नॉटकर में 9-एफ़ नामक फिसड्डी और शरारती (अपराधोन्मुख) डिवीज़न न होता तो नैना माथुर को वहां टीचर की जॉब ही भला क्यों मिलती ? और नैना माथुर का टीचर बनने का सपना और उसके लिए अपने टोरेट सिंड्रोम से सतत् संघर्ष न होता तो यह फिल्म ही आखिर क्यों बनती ?

स्कूल के संबंध में फिल्म के माध्यम से दी गयी इस बुनियादी सूचना में दो आपत्तिजनक बातें निहित हैं। इनमें पहली है – आर्थिक-सामाजिक स्थिति के आधार पर पिछड़े हुए परिवारों के बच्चों के लिए अलग से एक विशेष डिवीज़न की व्यवस्था और दूसरी है उन बच्चों का लम्पट, शरारती, अपराधी के रूप में चित्रण।

इन दो आपत्तिजनक बातों के साथ फिल्म जो सबसे बड़ी ग़लती (इसे आपराधिक ग़लती कहना ठीक होगा) करती है वह है एक असामान्य और सर्वथा अविश्वसनीय बात को फिल्म के कथा-तत्व का हिस्सा बनाना। यह मामला है स्कूल के प्लेग्राउंड की ज़मीन का। इमोशनल ब्लैकमेलिंग के ज़रिए हड़पी गयी ज़मीन पर अमीरों के बच्चे अपना भविष्य बना रहे हैं और ग़रीबों के बच्चों को उसी ज़मीन पर बाकी बच्चों से अलग-थलग करके जन्मजात फिसड्डी और अपराधी बताया जा रहा है।

यह समझने की ज़रूरत है कि नैना माथुर को तो टोरेट सिंड्रोम है, जिस कारण उसे वक्त-बेवक्त हिचकी आती है लेकिन उन लोगों को यह कौन-सा सिंड्रोम है जो गरीबों की ज़मीनें हड़पते हैं और उनके बच्चों को अपराधी बताते हैं। न केवल उनकी पहचान,बल्कि उनके इस पूँजीवादी सिंड्रोम का समाजवादी इलाज भी ज़रूरी है।

बॉलीवुड (अर्थात् पूँजीवादी) सिनेमा की सीमाएं ‘ हिचकी ’ की भी सीमाएं हैं, मगर फिर भी जाने-अनजाने अपने समय और उसकी समस्याओं-विसंगतियों की तस्वीर सिनेमा खींच ही लेता है। स्कूल के खेल के मैदान की जमीन का मसला ऐसी ही समस्या की विकृत सिनेमाई तस्वीर है।

फिल्म इस जमीन का जो किस्सा बयान करती है उस पर क्या शहर, क्या गांव, कहीं की भी जनता यकीन नहीं करेगी। वो कौन-सी जगह है जहां म्युनिसिपल स्कूल की जमीन गिरवी रखी जाती है ? यह सवाल ज्यों ही जेहन में उठता है त्यों ही बैठ भी जाता है। हम इस सिनेमा की मजबूरी जान जाते हैं और गिरवी वाले सवाल को परे रखकर बाकी की फिल्म देखने लगते हैं। सिनेमा हॉल में यह करना ही पड़ता है, वरना नुकसान अपना है।

सिनेमा हॉल के भीतर तो ठीक, मगर बाहर आकर यह सवाल जेहन में अटक जाता है – फिल्म की नायिका की अनचाही हिचकी की तरह। नायिका नैना माथुर की ही तरह शायद हमने भी ऐसे सवालों के सिंड्रोम के साथ जीते रहना / एडजस्ट करना सीख लिया है। फिल्म का धंधा भी चलता रहे और माफिया का बेताज साम्राज्य भी कायम रहे – इस समझौतावादी निष्कर्ष पर हमें हमारी सरकारें ले आयी हैं।

शिक्षा के निजीकरण के नुकसान पर चर्चा से कतराते हुए हम पिछले दिनों रेयान में प्रद्युम्न की हत्या करवा चुके हैं। वहीं फिल्मी मनोरंजन के मोर्चे पर हमने ‘ हिंदी मीडियम ‘ भी देखा है। जब हम ‘ गोलमाल रिटर्न्स ‘ के भू-माफिया को नज़र-अंदाज़ कर हॉरर-कॉमेडी एंजॉय कर रहे थे, तभी देश भर में तमाम लोग अपने घरों से उजाड़े जा रहे थे। अभी जब हम स्कूल के जमीन के सवाल से मुंह मोड़ टोरेट सिंड्रोम पर अपनी समझ बढ़ाने का पाखंड कर रहे हैं, ठीक तभी केंद्र की सरकार ने देश के 62 विश्वविद्यालयों/ उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता (के नाम पर निजीकरण) की घोषणा कर दी है। इस हालत में सेंट नॉटकर कॉन्वेन्ट स्कूल के प्लेग्राउंड की जमीन मेरे जेहन में बार-बार अटक जा रही है।

 

फिल्म में जो नहीं बताया और दिखाया गया, वह मुझे कुछ यूं समझ में आता है –

सेंट नॉटकर स्कूल जहां पर है, उसके नज़दीक ही एक झोपड़पट्टी है। स्कूल चूंकि कॉन्वेन्ट है, इसलिए उसे आसपास झोपड़पट्टी गंवारा नहीं। झोपड़पट्टी को उजाड़कर न केवल लोकेल को क्लीन किया जा सकता है बल्कि स्कूल के लिए बड़ा प्लेग्राउंड भी पाया जा सकता है जो आगे चलकर कहीं ज्यादा अमीर क्लाइंट्स को रिझाने के काम आएगा। झोपड़पट्टी के बासिंदे आसानी से उजड़ जाने को तैयार नहीं, लेकिन अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की ललक उनकी कमज़ोरी बन जाती है। स्कूल वालों को वे अपनी जमीन का एक हिस्सा इस शर्त पर देने को राजी हो जाते हैं कि उनके बच्चों को भी इस कॉन्वेन्ट स्कूल में पढ़ने का मौका मिलेगा।

इसके बाद बच्चों के साथ जो बरताव स्कूल में किया जाता है, उसका चित्रण फिल्म में किया गया है और बढ़िया किया गया है – ख़ास तौर पर मिस्टर वाडिया और उनके प्रीफेक्ट बैज होल्डर शिष्य के किरदार गरीब और वंचित वर्ग के प्रति सम्पन्न और सुविधाप्राप्त वर्ग की नफरत का बेहतरीन चित्रण करते हैं। यहीं रोहित वेमुला का मार्मिक जीवन-संघर्ष याद आता है। उच्च शिक्षा संस्थानों में यह नफरत किस कदर जहरीली हो गयी है, इसका उदाहरण हैदराबाद-इलाहाबाद-जे.एन.यू.-बी.एच.यू. आदि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वालों के साथ होने वाले बरताव से लेकर नौकरियों में आरक्षण के विरोध की दलीलों तक देखा जा सकता है।

इन दलीलों के दलाल हर दिन अपनी दलाली (नफा-नुकसान की मात्रा) के मुताबिक अपनी दलीलों में रद्दोबदल करते रहते हैं। अगर कोई ब्राह्मण या राजपूत सेना देश में हिंसक प्रदर्शन करती है तो वह उसकी आस्था-विश्वास पर चोट का लोकतांत्रिक प्रतिवाद बन जाता है और अगर दलित, पिछड़े, किसान,  अल्पसंख्यक,  छात्र-नौजवान अपने जीवन के बुनियादी सवालों पर कोई शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन भी करते हैं तो वह फौरन एक आपराधिक कृत्य बन जाता है।

ज़रूरत इस बात की है कि पूँजीवादी सिंड्रोम से पीड़ित इस वर्ग का इलाज क्रांतिकारी-समाजवादी चिकित्सा-पद्धति से शुरू किया जाए। केवल तभी सिनेमा जैसे पॉपुलर कला-माध्यमों में समाज का सच अभिव्यक्त हो सकेगा, अन्यथा छोटी-छोटी शारीरिक बीमारियों के नाम पर तो पूरी की पूरी फिल्में बना दी जाएंगी लेकिन सबसे बड़ी सामाजिक बीमारियों पर चर्चा तक न होगी।

हाल ही में देश के किसानों, छात्रों,  नौजवानों, महिलाओं,  दलितों, पिछड़ों,  अल्पसंख्यकों ने प्रतिरोध के समय एकजुटता दिखाते हुए इस इलाज की शुरुआत कर दी है और हमें उम्मीद है कि समाज के सभी हिस्सों पर इसका माकूल असर भी होगा।

(युवा कवि, आलोचक आलोक कुमार श्रीवास्तव रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया, मुम्बई में कार्यरत हैं । आपका एक कविता संग्रह ‘सपने में दलईपुर’ प्रकाशित हो चुका है.)

 

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