समकालीन जनमत
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फेंस के इधर -उधर और झुनू बहनजी का मोहल्ला छोड़ना

 

ग़ाज़ियाबाद में हिंडन पार के जिस इलाके में पिछले 15 साल से रहता हूँ. वह लगभग 2 एकड़ में पांच ब्लाकों में बसा एक अपार्टमेंट है जिसमे ज्यादातर ख़बरनवीस रहते हैं . दो ब्लाक आठ मंज़िलों वाले हैं जिनमे लिफ्ट की सवारी करनी पड़ती है.तीन ब्लाक चार मंज़िले हैं जिनमें सीढ़ियाँ चढ़नी होती है.

जब हम 2003 में यहाँ रहने आये तो 16 फ्लैट वाले हमारे बिना लिफ्ट वाले सी ब्लाक में कुछ जमा चार या पांच घर आबाद थे. पड़ोसी के नाम पर गिलहरी, कबूतरों या गमले में उग रही बोगेनवेलिया की लताओं से ही संवाद होता था . फिर धीरे –धीरे लोग आते गए और ब्लाक गुलजार होता गया. मजे की बात यह थी कि संवाद अभी भी कबूतरों से ही ज्यादा जम रहा था जिनकी बीट साफ़ करते –करते दम भर जाता.

इसी घर में हमारी बेटी पैदा हुई जिसकी देखभाल के लिए मेरे माँ –पिता इलाहाबाद से रहने के लिए यहाँ आ गये. यह एडजस्टमेंट तीन साल तक के लिए था जब तक हमारी बच्ची प्ले स्कूल में दाखिल न हो जाती. मेरी माँ का रह–रह कर दम घुटने लगता क्योंकि दिन भर की बात को कहने के लिए उन्हें कोई पड़ोसी ही न दिखता. वे अक्सर सामने के खाली घर की बालकनी में बैठकर सामने सड़क की हलचल से अपनी घुटन कम करने की कोशिश करती. बहुत बाद में कवि–कहानीकार संजय कुंदन के परिवार के आने के बाद उनको कोई पड़ोसी मिला और उनकी घुटन कम हुई.

असल में वे इलाहाबाद के जिस मोहल्ले में रहती आयीं थी वह 17 किरायेदारों और एक मकान मालिक वाला ऐसा मोहल्ला था जहाँ सबकुछ कामन था. एक तो सारे मकान एक के बाद एक जमीन पर बने थे इसलिए मोहल्ले के किसी कोने पर बैठकर भी पूरे मोहल्ले की हलचलों पर नज़र रखी जा सकती थी. फिर सब तीस –चालीस साल पुराने पड़ोसी थे इसलिए भी एक –दूसरे की कमी –बेशियों को अच्छी तरह से जानते थे और दुःख सुख में हमेशा साथ थे. अपार्टमेंट के ब्लाक में सही मायने में हमारा कम्युनिकेशन सिर्फ अपनी मंजिल तक ही सीमित था. वास्तु का ऐसा कोई जुगाड़ था नहीं कि किसी एक कोने पर बैठकर अपार्टमेंट के सभी 112 घरों पर नज़र रखी जा सके. इसलिए मेरी माँ अक्सर ज्ञानरंजन की कहानी ‘फेंस के इधर उधर’ की याद करती. माँ –पिता इन वजहों से हमारे यहाँ कैद महसूस करते इसलिए एक बार तीन साल बीतते ही पोती के मोह के बावजूद इलाहाबाद जो भागे तो बहुत दिनों बाद ही दुबारा आये और इस बार स्टेशन से घर पहुँचते ही पिता ने सबसे पहला काम अपना वापिसी के टिकट को बुक करवाने का किया.

हमें भी अब अपने ब्लाक से ही मोहब्बत हो गयी है और कुछ पड़ोसियों से अच्छी दोस्ती भी. कुछ ऐसे भी यार बन गए हैं जिनके घर से देर शाम आलू प्याज और थर्मामीटर माँगा जा सकता है लेकिन फिर भी बीच –बीच में लगता है कि ज्ञानरंजन की कहानी का प्लाट हमारे ही ब्लाक पर बुना गया गया है. पिछले दिनों थोड़ा अचरज में था जब एक पड़ोसी ने अपनी बेटी की शादी का न्योता ही नहीं दिया. अचरज इसलिए था क्योंकि उसे कक्षा 8 से बड़ा होते देखा था. अब सोचता हूँ कि अपनी बेटी का न्योता उन्हें दूंगा या नहीं जो उनके सामने ही पैदा हुई है. ऐसे ही एक नए पड़ोसी की बेटी की शादी की सारी रस्में अपने से ठीक दो मंजिल होती रहीं और इस बार भी हम बिन बुलाये थे. मन ने माना नहीं और जब घरेलू संस्कार वाले गीत औरतों ने गाने शुरू किये तो अपने मोबाइल से उन्हें कैद ही कर लिया.

असल में यह सब कुछ याद करने का असल कारण वह तस्वीर है जिसमे आप देख सकते हैं कि घरेलू सामान लादा जा रहा है. महिला दिवस को अचानक सीढ़ी चढ़ते अपने ब्लाक की पहली मंज़िल के चौहान साहब का सामान बंधता हुआ दिखा तब समझ में आया कि वे अपार्टमेंट छोड़कर कहीं और जा रहे हैं. चौहान साहब हड़बड़ी में थे इसलिए उनसे आख़िरी बार की चाय के लिए भी न कह सका. अब कुछ दिनों तक उनके शरारती बेटे वेदान्त की याद बनी रहेगी और तेजी से बड़ी होती हुई उनकी बेटी रिशिका जब कभी बाज़ार में दिखेगी तो न पहचानने की गलती भी कर सकूँगा शायद.

चौहान साहब को चुपचाप जाते हुए चालीस साल पुराना अपना इलाहाबादी मोहल्ला याद आया जब एक दिन झुनू बहन जी को घर –घर सबसे अंकवार करते रोते –धोते देखा था. दरअसल झुनू बहन जी मोहल्ले के ही वासी प्रदीप दास की छोटी बहन थी और खूब मंजी हुई पंचायती. वे हवा से भी तेज गति से एक घर की ख़बर दूसरे घर में नमक –मिर्च लगाकर पेश करती और फिर दोनों परिवारों में घमासान शुरू हो जाता. कुछ ही दिनों में झुनू बहन जी की पोल खुलती उनकी लानत –मलामत होती लेकिन अपनी आदत से मजबूर वे फिर कोई नया काण्ड कर बैठती. जिस दिन झुनू बहन जी ने मोहल्ला छोड़ा वे सबसे मिलकर और माफ़ी मांगकर गयीं और सबने उनकी पुरानी गलतियों को माफ़ कर भारी मन से विदा किया.

मैं अपने सोलह फ़्लैट वाले ब्लाक में इलाहाबाद के मोहल्ले को बार–बार पाने की गलती करता हूँ. मुझे यह समझ लेना चाहिए कि जमाना बदल गया है इसलिए खुद को बदलने में ही भलाई है.

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]संजय जोशी ‘ प्रतिरोध का सिनेमा ‘ के राष्ट्रीय संयोजक हैं [/author_info] [/author]

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