कंवलजीत कौर
कहीं पढ़ रही थी जिसमें जिक्र था कि भारत के सबसे गरीब जिलों में से एक तमिलनाडु के पुडुकोट्टई की महिलाओं ने जो किया वह स्त्री अस्मिता, स्त्री स्वतंत्रता और स्त्री गतिशीलता के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है. इन महिलाओं ने साइकिल को अपना प्रतीक बनाया. साइकिल से चलने के उनके फैसले की खूब आलोचना हुई पर वे अपने फैसले पर अडिग रहीं. माध्यमिक स्कूल में पढ़ाने वाली फातिमा कहती हैं – “साइकिल चलाने में एक खास तरह की आजादी है. हमें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता. मैं कभी इसे नहीं छोड़ूंगी।”
जिन चीजों को बाजार तक या अन्य गाँव तक ले जाने के लिए पहले घंटे भर बस का इंतजार करना पड़ता था। बस स्टॉप तक पहुंचने के लिए पिता, पति, भाई या बेटों की मदद लेनी पड़ती थी, साइकिल सीखने से यह फायदा हुआ कि उन्हें अब किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। वहाँ यह तस्वीर आम है कि महिला अपने बच्चों को पीछे साइकिल पर बैठाकर स्कूल छोड़ने जाती है, महिला अपने सामान की बिक्री के लिए साइकिल पर सवार होकर निकल पड़ती है, महिलाएँ एक दूसरे को साइकिल पर बैठाकर घूमने के लिए भी चल पड़ती हैं. भारत के सबसे गरीब जिले में इस तरह की आत्मनिर्भरता व आजादी का होना प्रेरणा देता है.
महिलाओं में स्वतंत्र व आत्मनिर्भर बनने की यह सोच आज अचानक नहीं बनी है. अपने संघर्ष और अपने वजूद को निखारने की उनकी इस लड़ाई का सौ साल से भी पुराना इतिहास है। 1908 में 15 हजार महिलाओं ने न्यूयॉर्क सिटी में अपनी विभिन्न मांगों के लिए मार्च निकाला। इसका असर यह हुआ कि एक साल बाद अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी ने सन् 1909 में 28 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। दुनिया के लगभग सभी देशों में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ रही थीं। अपने संघर्षों के बल पर उन्होंने जो आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियां हासिल की उसी के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 8 मार्च 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा की। उसी के बाद से दुनिया के सभी देशों में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा।
भारत के संदर्भ में बात करें तो यहाँ भी महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए काफी संघर्ष किया है। इतिहास के पन्नों में कभी उन्हें देवी की रूप में देखा जाता था, कहा जाता था कि –“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।“ फिर कहा गया – “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आँखों में पानी।“ भारत की महिलाएं आज इन दोनों ही स्थितियों से ऊपर उठ चुकी हैं। न तो उन्हें देवी होने के भ्रम में जीने का शौक है और न अबला बनकर रहने की मजबूरी है। आज वह अपना रास्ता खुद तलाश रही हैं। आर्थिक,राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्र में उनकी पहुँच का लोहा आज सभी मान रहे हैं।
महिलाओं के खिलाफ सती प्रथा, बाल विवाह, अशिक्षा एवं चौखट के भीतर पूरी जिंदगी गुजार देने जैसी कई सामाजिक बुराइयां व्याप्त थीं। इन बुराइयों को समाप्त करने व महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए पंडिता रमाबाई और सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता है। रमाबाई ने महिलाओं के खिलाफ व्याप्त सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए लड़ाई लड़ी तो सावित्रीबाई ने स्त्रियों की शिक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। स्त्रियों को पंगु बना देने वाली इन बुराइयों को समाप्त होने में सौ साल से अधिक समय लग गया। आज स्त्री स्वतंत्र हो चुकी है। वह अपना भला बुरा स्वत: सोच पा रही है। वह घर से बाहर निकल रही है। आर्थिक निर्भरता के लिए नौकरी कर रही है। सामाजिक वजूद के लिए आंदोलन कर रही है। राजनीतिक निर्भरता के लिए अपनी दावेदारी पेश कर रही है। चौखट पार कर देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद तक पहुंच रही है। महिलाओं के लिए यह छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है।
इन सब के बीच हम महिलाओं को एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि हमें यहाँ तक पहुँचने में उनके खुद के संघर्षों व उपलब्धियों में पुरुषों का भी पर्याप्त योगदान रहा है। बिना उनके सहयोग के इस ऊंचाई को हासिल कर पाना आसान नहीं था। आज पुरुष वर्ग भी स्वीकार करता है कि स्त्रियों को साजिशन उनके अधिकारों से वंचित रखा गया था वह हर अधिकार देने के लिए आगे आ रहा है। यह धारणा भी टूटी है कि पुरुष ही घर को संभाल सकता है। आज बहुत सी महिलाएं हैं जो अपने बूते घर परिवार संभाल रही हैं। पुरुषों के साथ बराबरी के साथ खड़ी होकर उनका साथ दे रही हैं।
यह आखिरी दौर नहीं हैं. अभी और लड़ाई लड़नी है। यह अधिकार कुछ महिलाओं तक सीमित न रह जाए इसे सुदूर गाँव तक, वंचित वर्ग तक पहुँचाने के लिए संघर्ष करना है। कुछ बुराइयां अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त हैं उसे दूर करना हैं। लैंगिक असमानता अभी भी बनी हुई है। साक्षरता दर अभी संतोषजनक नहीं है। हम प्रत्येक को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चियाँ स्कूल जाएँ, पढ़ें और आगे बढ़ें। महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा हो या वाह्य उन्हें रोकने के लिए अभी और लड़ाई लड़नी है। मुझे विश्वास है वह दिन दूर नहीं जब हम इन समस्याओं पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे। एक कविता याद आ रही है जो आज की आधुनिक स्त्री के व्यक्तित्व को रेखांकित करती है-
मैं अबला नादान नहीं हूँ, दबी हुई पहचान नहीं हूँ
मैं स्वाभिमान से जीती हूँ, रखती अंदर खुद्दारी हूँ
मैं आधुनिक नारी हूँ।
[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में पढ़ाती है[/author_info] [/author]