सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक पुराना वीडियो वायरल हुआ है। वीडियो तब का है जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। वीडियो में नरेंद्र मोदी एक जनसभा को संबोधित करते हुए लोगो से कह रहे हैं- “ क्या भारत के नागरिक को दिल्ली सरकार के खजाने का खर्च कहां होता है वो जानने का अधिकार है……………..अगर देश के नागरिक को ये जानने का अधिकार है और वो कोई पूछे कि भारत सरकार के तिजोरी की पैसे कहाँ खर्च किए गए वो गुनाह है।……..क्या ये पूछना सही है ? राइट टू इनफर्मेशन हमने लोकतंत्र को मजबूत बनाया है। तो आपको जानकारी देनी चाहिए कि नहीं देनी चाहिए ? कानून में कहा गया है कि तीन महीने में जानकारी देनी पड़ती है। भाईयों बहनों जब जानकारी छिपाई जाती है तब सवाल उठता है कि नहीं उठता है कि दाल में कुछ काला है, ………..मित्रों दाल में कुछ काला है कि पूरी दाल काली है ये सवाल है।”
दरअसल 9 मई को कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने प्रेस कान्फ्रेंस करके ‘पीएम केयर फंड’ की ऑडिट करवाने की माँग की थी। उसके बाद से साइबर गैंग ने राहुल गांधी को ट्रोल करना शुरु कर दिया। सोशल मीडिया पर उनके तरह तरह के मीम बनाए जाने लगे। भाजपा सरकार के प्रोपैंगेडा मशीनरी (साइबर गैंग) के काउंटर में नरेंद्र मोदी का वीडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब शेयर और लाइक किया जा रहा है। प्रधानमंत्री की वीडियो शेयर करते हुए लोग पूछ रहे हैं –“मोदी जी राहुल गांधी आपकी ही बात तो दोहरा रहे हैं, करवा दीजिए न ऑडिट, दे दीजिए ना पीएम केयर फंड का हिसाब।”
बता दूँ कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कोरोना काल में लॉकडाउन, प्रवासी मजदूर, गरीब आबादी और देश की अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर लगातार बोलते रहे हैं। अब उनकी लिस्ट में इस वैश्विक संकट से निपटने के लिए पीएम केयर्स फंड भी शामिल हो गया है। शुक्रवार 8 मई को वीडियो लिंक के जरिए संवाददाताओं से बातचीत के दौरान पीएम केयर्स की ऑडिटिंग की जरूरत बताने के ठीक अगले दिन यानि 9 मई शनिवार को ट्वीट कर अपनी बात दुहराई।
राहुल गाँधी की मांग, पीएम केयर्स फंड की हो ऑडिटिंग
ट्वीट करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस बार सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की कि वह कोरोना वायरस के संकट से निपटने के मकसद से बने ‘पीएम केयर्स’ फंड का ऑडिट सुनिश्चित करें। उन्होंने ट्वीट में लिखा- “पीएम केयर्स फंड को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और रेलवे जैसे बड़े सरकारी उपक्रमों से काफी पैसा मिला है। यह महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री सुनिश्चित करें कि इस कोष का ऑडिट हो और पैसे लेने और खर्च करने का रिकॉर्ड जनता के सामने उपलब्ध हो।’ उन्होंने शुक्रवार को भी मीडिया से बातचीत के दौरान कहा था कि पीएम केयर्स कोष का ऑडिट होना चाहिए।”
गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने कोरोना संकट से निपटने में मदद करने वालों के लिए प्राइम मिनिस्टर सिटिजन असिस्टैंस ऐंड रिलीफ इन इमर्जेंसी सिचुएशन (PM CARES) फंड का गठन किया है। जिसमें अब तक अरबों रुपए डोनेशन आने का दावा किया जा रहा है।
विश्व बैंक से भारत को कोविड-19 के लिए फास्ट-ट्रैक 1 बिलियन डॉलर की मदद
22 मार्च को जनता कर्फ्यू के साथ ही लॉकडाउन जारी हो गया था भले ही 24 मार्च की घोषणा की गई हो। लॉकडाउन की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूरों की तकलीफें सामने आने लगी। लगातार भुखमरी और भूख के चलते पलायन की ख़बरे छाई रही। नागरिक समाज और विपक्ष लगातार सरकार से आर्थिक मदद की घोषणा की मांग करते रहे लेकिन सरकार अनसुना करती रही।
दबाव में आने के बाद सरकार ने 26 मार्च को ऊँट के मुँह में जीरा की तर्ज़ पर 1.70 लाख के राहत पैकेज का ऐलान किया।
2 अप्रैल, 2020 को विश्व बैंक के कार्यकारी निदेशक मंडल ने भारत को कोविड-19 महामारी को रोकने, पता लगाने और इसका प्रत्युत्तर देने और अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य तैयारी को मजबूत बनाने के लिए फास्ट-ट्रैक 1 बिलियन डॉलर भारत कोविड-19 आपातकालीन प्रत्युत्तर और स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी परियोजना को मंजूरी दी। यह बैंक की ओर से, भारत को स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए दिया गया अब तक का सबसे बड़ी सहयोग राशि है।
विश्व बैंक की आर्थिक सहायता के बाद ही अगले दिन प्रधानमंत्री मोदी ने देश में 17 हजार करोड़ रुपए सहायता राशि का ऐलान किया।
विश्व बैंक की प्रेस रिलीज
विश्व बैंक ने सहायता देने के साथ ही एक प्रेस रिलीज भी जारी किया जिसमें विश्व बैंक द्वारा दिए गए सहायता राशि और परियोजना की जिक्र है। सहायता राशि जिस परियोजना के तहत जारी की उसके तहत टेस्टिंग किटों की खरीद; अस्पताल के बेड को गहन देखभाल इकाई बेड में बदलने समेत नये आइसोलेशन वार्डों की स्थापना करना; संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण; और विशेष रूप से जिला अस्पतालों में निजी सुरक्षा उपकरण, वेंटिलेटर, और दवाइयों की खरीद, और विशेषीकृत संक्रामक रोग अस्पतालों का पैमाना बढ़ाया जाने की शर्त शामिल थी।
वर्ल्ड बैंक के भारत के कंट्री डायरेक्टर जुनैद अहमद ने कहा, “कोविड-19 के प्रसार से जूझने में भारत को बिना देरी के और लचीला समर्थन उपलब्ध कराने के लिए विश्व बैंक भारत सरकार के साथ निकट साझेदारी में काम कर रहा है।” उन्होंने कहा कि “इस परियोजना से निगरानी क्षमता बढ़ने, नैदानिक प्रणालियों के मजबूत होने और प्रयोगशालाओं की क्षमता का विस्तार होने की उम्मीद है। लेकिन, कोविड-19 महज एक स्वास्थ्य चुनौती नहीं है। इसके गहरे सामाजिक और आर्थिक पहलू हैं। इसके साथ ही, हम सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों और लोगों की आजीविका की रक्षा करने वाले आर्थिक उपायों पर सरकार के साथ समान तीव्रता से काम कर रहे हैं।”
यह परियोजना भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के लचीलापन को भी बढ़ायेगी, ताकि कोविड-19 और भावी रोग प्रकोपों के बेहतर प्रबंधन के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य रोकथाम और रोगियों की देखभाल की व्यवस्था उपलब्ध करायी जा सके। यह भारत के एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम, संक्रामक रोग अस्पतालों, जिला, सिविल, सामान्य और मेडिकल कॉलेज अस्पतालों को मजबूत करने और हाई कंटेनमेंट बायोसेफ्टी लेवल 3 प्रयोगशालाओं के एक नेटवर्क का निर्माण करने में मदद करेगा।
यूरोपीय देशों द्वारा खारिज कर दिए गए चीनी टेस्टिंग किट को भारत ने क्यों खरीदा
भारत में चीनी कंपनियों की जिन टेस्टिंग किट पर सवाल उठ रहे हैं, उन्हें यूरोप में पहले ही बैन किया जा चुका है। टेस्टिंग किट के फेल होने की वजह से यूरोपीय देशों ने चीन को 20 लाख किट वापस भेज दी थीं। चीन ने यूरोप से वापस आईं करोड़ों की इन्हीं किट्स को भारत को भेज दिया। शुरुआती जांच में जब किट्स के सही नतीजे आने पर इन्हें राज्यों को भेज दी गईं, लेकिन राज्यों के इन किट्स पर सवाल खड़े करने के बाद इनके इस्तेमाल को रोक दिया गया है। लेकिन अब सवाल ये खड़ा हो रहा है कि इतनी बड़ी लापरवाही का जिम्मेदार आखिर कौन है ?
बता दें कि अमेरिका, स्पेन, तुर्की और स्लोवाकिया के कुछ राज्यों ने भी चीन से आई रैपिड टेस्ट किट्स का इस्तेमाल किया था, लेकिन क्वालिटी ठीक ना पाए जाने पर इन्हें चीन को वापस कर दिया गया। तुर्की में इन किट्स की क्वालिटी केवल 35 फीसदी तो वहीं स्पेन में महज 20 फीसदी ही थी। बता दें कि नियमानुसार क्वालिटी को 70 से 80 फीसदी तक होना चाहिए।
इन टेस्टिंग किट्स को सीधे तौर पर खरीदने के बजाय सरकार ने तीन कंपनियों के चैन के मार्फत इसकी खरीदारी की। चीन की वांडोफ बायोटे व लिवजोन डायग्नोस्टिक द्वारा भारत को अब तक तकरीबन 40 करोड़ की 8.5 लाख किट्स भेजी गई हैं। वांडोफ बायोटेक की 60 प्रतिशत से अधिक टेस्टिंग किट्स आ चुकी हैं। इसी कंपनी ने मार्च में यूके को 20 लाख किट्स दी थीं। वहां पर शुरुआती जांच में गड़बड़ी पाने पर इन पर पाबंदी लगा दी गई थी।
बता दें कि छत्तीसगढ़ में 4 हजार में से 200 किट्स की जांच में केवल एक पॉजिटिव मिला था। वहीं आरटी पीसीआर जांच में वह निगेटिव मिला। जबकि गुजरात में एक हजार किट्स की जांच में तकरीबन 10 फीसदी रिजल्ट ही मिले हैं। वहीं राजस्थान में 5, पश्चिम बंगाल में 2 या 3 फीसदी परिणाम मिले हैं।
महँगे दामों में क्यों खरीदी गई खराब मेडिकल किट
25 मार्च के आस-पास इंडियन काउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने चीन की कंपनी गुआंगझाऊ वॉन्डफो के रैट किट्स को हरी झंडी दिखाई। आईसीएमआर ने 27 अप्रैल को एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से बताया कि शुरुआत में इसने सीधे निर्माता कंपनी से किट्स खरीदने की कोशिश की थी लेकिन दो दिक्कतों के चलते आईसीएमआर ने टेंडर जारी करने का फैसला लिया। इन दिक्कतों में से एक यह थी कि रेट डॉलर में कोट करने थे और दूसरी थी कि जहाज से माल सही हालत में पहुंचने की हमारे पास कोई गारंटी नहीं थी।
बता दें कि मैट्रिक्स लैब भारत में वॉन्डफो का अकेला वितरक नहीं था। अबॉट फार्मा, कैडिला और माईलें भी कम से कम तीन अन्य कंपनियां भी हैं जो भारत में वॉन्डफो के उत्पाद वितरित करती हैं।
आईसीएमआर की प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक टेंडर के माध्यम से चार बोलियां प्राप्त हुयी थीं। प्रति किट 1204 रुपए, 1200 रुपये, 844 रुपये और 600 रुपये।
30 करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनी मैट्रिक्स लैब्स अग्रिम किट्स आयात करने के लिए ज़रूरी पैसे का जुगाड़ नहीं कर पाई अतः इसने आर्थिक सहायता के लिए दिल्ली स्थित वितरक कंपनी रेयर मेटाबॉलिक्स से हाथ मिलाया।
बात इस पर बनी कि रेयर मेटाबॉलिक्स पैसे का जुगाड़ करेगी और मैट्रिक्स लैब्स रैट किट्स का आयात करेगी चूँकि एक तो इसके पास आयात लाइसेंस था और दूसरा इसकी बोली स्वीकार कर ली गयी थी।
किट्स के भारत में आने के बाद उनका वितरण रेयर मेटाबॉलिक्स द्वारा गाज़ियाबाद की कंपनी अरक फार्मास्यूटिकल के माध्यम से करना था। इसी दर्म्यान तमिलनाडु सरकार के वेंडर के तौर पर शान बायोटेक कंपनी इस दृश्य में प्रवेश करती है। शान बायोटेक 50,000 टेस्टिंग किट्स मैट्रिक्स लैब्स से खरीदना चाहती थी। इसके लिए मेट्रिक्स लैब्स ने अपने भागीदार रेयर मेटाबॉलिक्स से बात की, लेकिन उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि वो आपूर्ति केवल आईसीएमआर को ही करेगा।
लेकिन मेट्रिक्स ने तय कर लिया और 24,000 किट्स की पहली खेप आते ही उसे शान बायोटेक को दे दिया। इस तरह रेयर मेटाबॉलिक्स के साथ किये गए अनुबंध को उल्लंघन करने के साथ ही विवाद पैदा हुआ जिसके बाद रेयर मेटाबॉलिक्स ने दिल्ली हाईकोर्ट जाने का निश्चय किया।
रेयर मेटाबॉलिक्स के दिल्ली उच्च न्यायालय में जाने से हुआ मामले का खुलासा
रेयर मेटाबॉलिक्स के दिल्ली उच्च न्यायालय जाने का निर्णय लिया और इस तरह घोटाले से पर्दा उठा। 24 अप्रैल को दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह आदेश जारी किया कि वॉन्डफो की प्रत्येक किट का दाम 600 की बजाय 400 रुपये होगा। यह बात भी उभरकर सामने आया कि मैट्रिक्स लैब्स ने किट्स 245 रुपये प्रति किट के हिसाब से आयात किये थे। इसके बाद अरक फार्मास्यूटिकल के माध्यम से रेयर मेटाबॉलिक्स ने इन्हें आईसीएमआर को 600 रुपये प्रति किट के हिसाब से बेचा।
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक कुल आंकड़ा इस प्रकार है :
मैट्रिक्स लैब्स द्वारा किये गए आयात का मूल्य (5लाख किट्स के लिए) : 12.25 करोड़ रुपये
रेयर मेटाबॉलिक्स द्वारा खरीदने में खर्च की गयी कुल रकम : 21 करोड़ रुपये
आईसीएमआर द्वारा खरीद में किये गए भुगतान की रकम : 30 करोड़ रुपये
इस बीच आईसीएमआर ने 2 लाख रैपिड किट्स का एक अन्य ऑर्डर चीन की कंपनी लिव्ज़ों को दे दिया। यह ऑर्डर गुड़गांव की कंपनी जीन्स टू मी के माध्यम से दिया गया था। इन किट्स का ऑर्डर 7 अप्रैल को दिया गया था और जीएसटी में 5 फीसद कटौती के बावजूद इनकी कीमत 795 रुपये प्रति किट रखी गयी।
आंध्र प्रदेश ने दक्षिणी कोरिया की एक कंपनी से किट्स 730 रुपये प्रति किट्स के हिसाब से खरीदीं, वहीं केरल ने 699 रुपये प्रति किट के हिसाब से ऑर्डर दिया तो कर्नाटक ने 700 रुपये प्रति किट के हिसाब से ऑर्डर जारी किया।
छत्तीसगढ़ ने 337 रूपए प्रति किट के हिसाब से दक्षिणी कोरिया की एक कंपनी को ऑर्डर दिया, जबकि किट्स पर केंद्र सरकार ने कस्टम ड्यूटी और स्वास्थ्य कर में कटौती कर दी थी।
आईसीएमआर ने 27 अप्रैल को एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से राज्यों को रैट किट्स वापिस करने का निर्देश जारी किया। लेकिन आईसीएमआर पर कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
एंटीबॉडी टेस्टिंग किट खरीदने की ज़रूरत ही क्या थी
रैपिड एंटीबॉडी टेस्टिंग किट खरीदने की ज़रूरत ही क्या थी जबकि इससे कोविड-19 संक्रमित की सटीक पहचान नहीं हो सकती है। दरअसल सरकार अपार्याप्त टेस्टिंग किटों व लैबों के चलते राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना की शिकार हो रही ही थी। विश्व बैंक से सहायता राशि हासिल करने के बाद भारत सरकार पर दबाव था कि वो टेस्टिंग स्पीड बढ़ाए। टेस्ट आँकड़े बढ़े हुए दिखाने के लिए रैपिड एंटीबॉडी टेस्टिंग किट का इस्तेमाल किया गया।
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में टेस्ट के गलत नतीजे आ रहे हैं, जिन लोगों में एंटी बॉडी नहीं है, टेस्ट से उनमें भी एंटी बॉडी मिल रही है। जबकि ब्रिटेन में वैज्ञानिकों का कहना है कि टेस्ट में सेंसिटिविटी रेट कम है। ब्रिटेन के स्वास्थ्य सचिव ने पत्रकारों से कहा कि ये इतने काम के नहीं हैं। वहीं स्पेन, तुर्की और नीदरलैंड्स ने चीन में बने हज़ारों टेस्टिंग किट और मेडिकल मास्क को डिफेक्टिव बताकर रिजेक्ट कर दिया था। स्पेन सरकार का कहना है कि एक चीन की कंपनी से हज़ारों टेस्ट किट ख़रीदी थीं, लेकिन इस्तेमाल के कुछ दिनों बाद ही पता चला कि क़रीब 60 हज़ार किट मरीज़ों में वायरस को ठीक तरीक़े से डिटेक्ट नहीं कर पाईं।
क्यों हो रहा है रैपिड बॉडी टेस्ट जबकि ये डाइग्ग्नोस्टिक टेस्ट नहीं है
लाल पैथ लैब के मैनेजिंग डायरेक्टर अरविंद लाल के मुताबिक – “एंटीबॉडी टेस्ट डाइग्नोस्टिक टेस्ट नही है, बल्कि इनका इस्तेमाल सिर्फ सर्विलांस स्टडी और सोसाइटी के इम्यून स्टेटस को पता लगाने के लिए किया जाता है। ये टेस्ट डाइग्नोस्टिक इसलिए नहीं हैं, क्योंकि पहले सात दिन में ये टेस्ट कभी भी पॉज़िटिव नहीं आएंगें।
वायरस या किटाणुओं के शरीर में आने के सात दिन बाद पहला एंटीबॉडी (IgM एंटी बॉडी) डेवलप होता है और बॉडी में इसका प्रोडक्शन करीब 17-18 दिन तक होता है और इक्कीस दिन पर ये एकदम नॉर्मल या ज़ीरो हो जाती है।
अगर किसी में आईजीएम एंटी बॉडी पाया जाता है तो इसका मतलब है कि अभी उस मरीज़ को इन्फेक्शन है। ये इन्फेक्शन का एक साइन है। वहीं 14वें दिन के बाद IgG एंटी बॉडी बननी शुरू होती है, जो 28 दिन के बाद हाई हो जाती है, उसके बाद कई महीनों तक ये बहुत ज़्यादा रहती है। एंटी बॉडी को ऐसे समझा जा सकता है कि वायरस जब हमारे शरीर के अंदर जाता है तो बॉडी का इम्यून सिस्टम इससे लड़ने के लिए एक एंटी बॉडी बनाता है।
जब आईजीजी एंटी बॉडी आपको मिल जाती है तो इससे पता चल जाता है कि ये व्यक्ति एकदम ठीक है और इनका प्लाज़्मा अब आप और मरीज़ों को भी ठीक होने के लिए दे सकते हैं। अगर आईजीजी 50 प्रतिशत लोगों में ज़्यादा मिले, तो इसका मतलब है कि उन मरीज़ों में हर्ड इम्युनिटी आ गई है। हर्ड इम्युनिटी का मतलब है कि इस वायरस का प्रभाव अब एकदम ख़त्म हो गया है और लोग अपनी सामान्य ज़िंदगी में लौट सकते हैं।
भारत सरकार का पक्ष
सरकार का कहना है कि भारत के टेस्टिंग के अनुभव को देखा जाए तो 69% पॉज़िटिव मामले एसिम्टोमेटिक हैं और 31% सिम्टोमेटक या जिनमें हल्के लक्षण हैं। इन तथ्यों ने भारत की चिंता भी बढ़ाई है, क्योंकि अगर ज़्यादातर मामलों में लक्षणों का पता ही नहीं चल रहा तो वायरस को रोकना चुनौती बन सकता है। अब तक कोरोना वायरस की कोई वैक्सीन नहीं है, इसलिए टेस्ट के ज़रिए इन मरीज़ों की पहचान करना ही एक अहम हथियार है। ऐसे में रैपिड टेस्ट एक उम्मीद की तरह आए थे। जिसे करने की प्रक्रिया आसान है और नतीजे भी कुछ मिनटों में आने का दावा किया जा रहा है।
राजस्थान सरकार ने भी पहले रैपिड बॉडी टेस्ट किए जाने पर ज़ोर दिया था। दिल्ली में भी अधिकारियों ने कन्टेनमेंट ज़ोन में जाकर रैंडम लोगों के रैपिड टेस्ट करके देखने की कोशिश की थी। महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे ने भी 20 अप्रैल को कहा था कि हम जल्द ही 75000 रैपिड टेस्ट करेंगे। इसके लिए हमें केंद्र सरकार से हमें इसके लिए सशर्त मंज़ूरी मिल गई है। जबकि छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, असम, और तमिलनाड़ू जैसे कुछ राज्यों ने खुद ही अलग-अलग कंपनियों से और अलग-अलग जगहों से किट खरीदे थे।