सुधीर विद्यार्थी
विष्णु प्रभाकर को मैं साहित्य में गांधीवादी रचनाकार के रूप में ही जानता था। यही कारण था कि 1976 में शहीद भगतसिंह पर उनकी पुस्तक देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। भगतसिंह पर तब तक मैं काफी साहित्य पढ़ चुका था। इसलिए विष्णु जी की पुस्तक पढ़ने से पहले मेरे मन में कोई उत्सुकता नहीं थी। लेकिन पुस्तक का अध्ययन करने पर मुझे अनुभव हुआ कि स्वतंत्रता आंदोलन के नाम पर अब तक जो कुछ लिखा गया है वह इस या उस अतिवाद का शिकार है। मेरे सामने यह उदाहरण था कि एक इतिहास लेखक का सही रास्ता क्या हो सकता है और उस पर चलने के लिए न केवल सधे हुए कदमों की आवश्यकता है बल्कि दृष्टि का होना भी बेहद जरूरी है।
विष्णु जी मानते थे कि सही इतिहास तो वही लिख सकेगा जिसके दिमाग की सारी खिड़कियां खुली हों। मुझे याद है कि 1979 में शाहजहांपुर में एक क्रांतिकारी सम्मेलन आयोजित करने से पूर्व मैंने उनसे कहा था कि इस बार हम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पुनर्लेखन के सम्बन्ध में भी विचार विमर्श करेंगे। उनका उत्तर था–‘ प्रस्तावों से इतिहास लेखन नहीं हो सकता। जानते हो, कोई व्यक्ति ही पांच-दस वर्ष खपाकर यह कार्य कर सकेगा। वह व्यक्ति जो दर्द का अर्थ जानता हो। ’
विष्णु जी के नजदीक पहुंचकर मैं इसी दर्द को जानने का प्रयत्न करता रहा.
प्रायः सभी विधाओं में लिखने वाले विष्णु जी अपने को मूलतः कहानीकार ही मानते थे। यह अलग की बात है कि कुछ लोग उन्हें नाटककार के रूप में ज्यादा जानते हैं और जब शरत चंद्र की जीवन पर ‘ आवारा मसीहा ’ लिखा तब से संस्मरणकार या जीवनी लेखक की श्रेणी में भी उनका नाम शुमार होने लगा। पर उन्हें इस बात का दुख जरूर होता था कि उनके कहानीकार को भुला दिया जा रहा है।
वे अक्सर कहा करते थे कि नाटक भी मूलतः रंगमंच पर कही गई कहानी है। इतना जरूर है कि उसमें कहानी के अतिरिक्त और भी कई बातें हैं–अभिनय, संगीत, प्रकाश आदि। इसलिए कहानी को साहित्य की केन्द्रीय विधा मानने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी और यह भी निर्विवाद है कि उन्होंने ’धरती अब भी घूम रही है’ तथा ’एक और कुंती’ जैसी अनेक विशिष्ट कहानियां हिंदी साहित्य को दीं।
पहली कहानी उन्होंने नवम्बर 1931 में लिखी थी। शायद किन्हीं मित्र के आग्रह पर नेता जी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज को लेकर एक दर्जन से अधिक कहानियां लिख डालीं। मैं उन कहानियों को खास तौर पर पढ़ना चाहता था, पर वे पता नहीं कहां गईं। मैं यहां विशेष रूप से उनकी कहानी ‘ धरती अब भी घूम रही है ’ का जिक्र करना चाहता हूं। न्यायपालिका से 31 वर्ष तक जुड़े रहे होने के नाते मैं मानता हूं कि इस विषय पर लिखी गई उनकी यह रचना उनके निर्भीक कथा लेखन का बहुत पुख्ता सबूत है। एक बार न्यायाधीष ने मुझसे कहा था–‘ मैं और आप एक ही पथ के राही हैं। न्यायाधीष रह कर मैं निर्णय देता है और साहित्यकार के रूप में आप भी। पर दोनों में फर्क यह है कि हमारा दिया गया निर्णय जल्दी में लिखा गया एक सामाजिक निर्णय है जबकि साहित्य के जरिए आप जो रच रहे हैं वह सोच समझ कर लिखा गया सामाजिक फैसला होता है।’ मैंने तब उन्हें विष्णु जी की कहानी ‘ धरती अब भी घूम रही है ’ सुनाई।
याद है कि न्यायाधीश से मैं यह भी कह सका था कि आपके दिए गए फैसले की अपील हो सकती है लेकिन हिंदी के इस कथाकार ने अपनी इस रचना के जरिए न्यायतंत्र के बारे में अपना जो निर्णय लिख दिया है उसकी अपील कहीं संभव नहीं है। उनकी यह कहानी न्यायपालिका पर एक बड़ा सवालिया निशान है जिसका उत्तर दिया जाना अब तक शेष है। शायद ऐसा कर पाना उसके लिए संभव भी नहीं होगा।
इस कहानी के जरिए विष्णु जी ने न्यायालयों के चरित्र को बिना किसी घुमाव-फिराव के बहुत तीखेपन से उजाकर किया हैै जो प्रायः दुर्लभ है। ऐसी अप्रतिम कथा को रचने की प्रेरणा उन्हें अपने सरकारी सेवा जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार की एक घटना से मिली थी। उसी प्रसंग में एक बच्ची ने उनसे पूछा था–’ताऊ जी, सुंदर लड़कियों का अफसर क्या करते हैं। ’ यही एक वाक्य था जो अंतर में अटक कर रह गया और इस कथा के सर्जन का आधार बना।
यों तो रचनाकार को लिखने की प्रेरणा जीवन के हर कदम पर मिलती रहती है। पर क्या वह उन सभी को शब्द दे पाता है। वह चाह कर भी वह सब कुछ नहीं लिख सकता या कभी ऐसा भी होता है कि जो कुछ भोगता है वह उसका इतना निजी होता है कि किसी से बांटने की इच्छा नहीं होती उसकी। अठारह रूपए मासिक की दफ्तरी से शुरूआत करके जल्दी ही चालीस रूपए महीने के क्लर्क बन जाने पर भी उनके भीतर के रचनाकार की छटपटाहट कम नहीं हुई। दर्द की कल्पना ही की जा सकती है कि जिस नौजवान का मन देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का हो लेकिन उसे परिवार की गरीबी के चलते एक मामूली नौकरी करने को विवश होना पड़ा। कभी-कभी सपनों का बिखरना कितना पीड़ादायक होता है……..
ऊपर से भले ही दिखाई न देता रहा हो पर भीतर तो एक आंदोलन चल रहा था उनके। एक सपने को जैसे वे जी लेना चाहते थे। अफसर अंगे्रज था सो ऐसे में गांधी की फौज के सिपाही तो नहीं बन पाए तब विष्णु जी ने खद्दर पहनना शुरू कर दिया। पर इसके लिए बड़ा विरोध सहना पड़ा उन्हें। 1940 का वक्त आया जब प्रांतव्यापी तलाशियों के वे शिकार बने और 1944 आते-आते नौकरी से अलग हो गए। यह था उनका स्वतंत्र लेखन के लिए लिया गया बड़ा निर्णय। फिर तो आकाशवाणी के निदेशक का पद भी उन्हें बांध कर नहीं रख सका। किन स्वप्नों में डूबते और भटकते हुए वे निरन्तर आगे बढ़ते रहे। यह जानते हुए भी कि जीवन की पाठशाला बड़ी विचित्र होती है। यहां सफल होने के लिए सौ में से सौ अंक लेनेे पड़ते हैं। पर मां का एक वाक्य याद था उन्हें–’बेटे, धीरज मन खोना।’ जब कभी निराशा परेशान करती तो सरल हृदया सुशीला भाभी भी कह उठतीं–‘ दूसरों से कहते हो भागो नहीं, दौड़ो और स्वयं निराश होते हो। अभी तो और आगे बढ़ना है आपको मेरे प्राण……..’ और वे कई कदम आगे बढ़ जाते तब।
एक बार किसी ने पूछा था–‘ विष्णु जी, तुम्हें दो वरदान मांगने का अवसर मिले तो क्या मांगोगे ? ’ तुरन्त उत्तर दिया उन्होंने–‘ पैरों में गति और कंठ में संगीत।’ विष्णु जी का पूरा व्यक्तित्व ही संगीतमय था और यह भी सही है कि उनके पैरों में पंखों जैसी गति थी। उनके दो ही व्यसन थे–घूमना और लिखना। हजार मील हिमालय पर्वत की यात्रा, बंगाल और दक्षिण में सागर तक का सफर। शहर-दर-शहर, गांव-गांव कहां नहीं गए वे।
‘आवारा मसीहा’ की खोज में वर्षों तक घूमते-भटकते रहे। उन्हें देखकर घुमक्कड़ राहुल और अज्ञेय की याद आती थी और अपनी निष्क्रियता और आलस्य पर मुझे लज्जा का भी अनुभव होता था।‘ रक्तचाप बढ़ गया है–105/120 तक गया। अभी भी नार्मल नहीं। आज 80/160 है।’ पर विष्णु जी हैं कि यात्रा की योजना बना रहे हैं। उनका पत्र आता था–‘ मेरठ, जम्मूू, रोहतक, पानीपत आसपास घूमता रहा। और 19 से 22 तक जोधपुर में रहूंगा’ (14/11/82)…….’ आपका 22 अगस्त का पत्र नागपुर 1 ता. को पहुंचा। मुझे यहां 9 ता. को मिला। मैं कल कलकत्ता जा रहा हूं’ (13/9/83)………‘ आज ही यात्रा से लौटा हूं ’ या ‘ अप्रैल बाद जून में मैं कर्नाटक, केरल और नागपुुर की यात्रा पर था। अब भी नागपुर जाना था पर मेरे भाई बीमार हैं। अब मैं 31 अगस्त को केरल जाऊंगा और 12 या 16 को लौटूंगा। आपसे भेंट नहीं होगी।’ (10/8/84)…….’मैं 17 से 20 तक हिसार रहूंगा। उसके बाद 25 को केरल जाऊंगा। 10 नवम्बर को लौटना होगा’ (15/10/85)…….’बाहर था। कल ही लौटा। रक्तचाप बढ़ गया है ’ (13/11/87)……..’मेरा रक्तचाप फिर बढ़ गया है। आॅपरेशन भी करवाना है’ (10/1/91)।
सोचता था कैसा है यह यात्री। कभी न थकने वाला मुुसलसल सफर का राही। वर्षों पहले सुुशीला भाभी के साथ गोमुख यात्रा का चित्र उनके घर देखकर जाने क्यों मुुझे बहुत सुखद लगा था। जीवन के सम-असम डगर पर चलने वाले उन दो चिर-यात्रियों को मृत्यु ने अलग कर दिया। फिर तो मैं देखता था कि भाभी के निधन के बाद घर पर बहुत कम ठहरते वे। यात्रा का सिलसिला चलता ही रहता। अकेलापन बहुत सालने लगा था उन्हें। मैं कुण्डेवालान के उनके घर में तब भी जाता था जब सुशीला भाभी थीं और बाद को भी जब तक वे अजमेरी दरवाजे वाले उस मकान में रहते रहे। प्रायः मैं शाहजहांपुर से चलकर बहुत सवेरे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैदल ही उनके घर मुुंह अंधेरे जा पहुुंचने पर भी उनके घर के दरवाजे कभी बंद नहीं मिले। किबाड़ सिर्फ इसलिए भिड़े होते ताकि दूध वाला खाली बोतल ले जाकर भरी हुई चुपचाप रख जाए और उसके ऐसा करते समय उनके रचनाकर्म में कोई व्यवधान न पड़े। मैं धीरे-से दरवाजा खोलकर भीतर देखता कि विष्णु जी छोटी-सी मेज पर टेबिल लैम्प के सहारे पैरों पर चादर डाले कुछ लिख रहे हैं। हर बार मेरे सामने यही दृश्य होता भले ही मौसम गर्मी का हो अथवा जाड़े का। मैं घंटे-दो घंटे रूक कर चला आता।
याद है कि ‘आवारा मसीहा’ की प्रति उन्होंनेे अपने इस घर में ही मुझे हस्ताक्षरित करके भेंट की थी। ‘ शुचिस्मिता’ भी जिसमें सुशीला भाभी पर उनकी बिखरी संस्मृतियां हैं। कुछ दिन बाद यही शुचिस्मिता नाम उन्होंनेे मेरी बड़ी बेटी को दिया। मैंने पत्नी पर लिखी उनकी इस पुस्तक को बार-बार पढ़ा। भावुक भी हुआ। चर्चा करने पर 1981 के एक पत्र में उन्होंने मुझे लिखा–‘ पत्नी ने जीवन भर मेरा साथ दिया हो, केवल इतना ही नहीं बल्कि निरन्तर कष्ट सहकर मुझे प्रोत्साहित किया। ’
सुशीला भाभी का यही सहयोग और संग-साथ पाकर विष्णु जी निरन्तर घूमते और रचते रहे। उन्होंने इतनी अधिक यात्राएं की थीं कि उनसे हम एक ‘ घुमक्कड़ शास्त्र ’ लिखने की उम्मीद करते रहे पर वह संभव नहीं होे पाया।
गांधी विचारों की ओर विष्णु जी का झुकाव सुपरिचित था। पहनावा भी ऐसा कि हर कोई उन्हें गांधी का अनुयायी मान लेता। खादी का कुर्ता, पायजामा, सदरी , सिर पर सफेद गांधी टोपी और कंधे पर गांधी आश्रम का झोला। विष्णु जी से मेरी निकटता देखकर हंसराज रहबर ने एक बार कहा था–‘ तुम एक कंधे पर गांधी और विष्णु प्रभाकर को तो दूसरे पर अशफाकउल्ला और भगतसिंह को बैठाए घूम रहे हो। ’ रहबर जी ने तब मुझे समझौतावादी करार दिया था। पर मैं इससे विचलित नहीं हुआ। मैं जानता था कि भले ही विष्णु जी पर गांधीवाद का लेबल चस्पां रहा हो पर वे सिर्फ गांधी के विचारों से ही प्रभावित नहीं थे। उन्हें जो अच्छा लगता उससे जुड़ने में कोई संकोच नहीं होता था उन्हें। कौन नहीं जानता कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन ’इप्टा’ से वर्षों उनका सम्बन्ध बना रहा। 1957 में इप्टा के सबसे बड़े आंदोलन में वे सक्रिय थे। वे कहते भी थे कि इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि हम लोग कम्युनिस्ट पार्टी से निर्देशित नहीं होते थे और जो लोग कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे वे भी स्वतंत्र नीति के तहत इप्टा मेें कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध थे। शायद एक समय इस सांस्कृतिक मोर्चे से अधिक लोगों के जुड़ने का यही कारण रहा हो।
कितने गर्व से विष्णु जी बताया करते थे कि एक जमाने में सीपीआई के जनरल सेक्रेटरी पीसी जोशी हमारे यहां बाहर खड़े होकर टिकट चेक किया करते थे। अरूणा आसफ अली भी उन्हीं दिनों ‘इप्टा’ के करीब आईं। लेकिन मुुझे एक रोज समाचार पत्र में यह खबर पढ़कर बहुत दुख हुआ कि ‘इप्टा’ के एक नए अलम्बरदार ने विष्णु जी को सलाखों के पीछे भेजने का पूरा इंतजाम कर लिया और उन्हें ‘इप्टा’ का अध्यक्ष मानने से ही इन्कार कर दिया। सामाजिक जीवन के ऐसे कड़वे-मीठे दर्दों ने ही उनके लेखक के अनुभव संसार को समृद्ध बनाया है।
मैंने अपने लेखन के शुरूआती दिनों में पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी के सुझाव पर कर्मवीर पंडित सुंन्दरलाल पर एक ग्रंथ के संपादन का काम अपने हाथ में ले लिया था। यह योजना विष्णु जी को बताई तब वे बहुत प्रसन्न हुए। पंडित जी उनके ही जिले मुजफ्फरनगर की विभूति थे। ‘नया हिंद’ के समय से ही विश्णु जी का उनसे परिचय था और उनके पास पंडित जी की स्मृतियों का बड़ा खजाना था। मेरे आग्रह पर उन्होंने न केवल पंडित जी के संस्मरण लिपिबद्ध किए बल्कि बनारस जाने पर मेरी पुस्तक के लिए वे पंडित जी के निकट रहे बैजनाथ सिंह ‘ विनोद ’ का 27 पृष्ठ लंबा संस्मरण लेख ले आए और उसे संशोधित करके मेरे पास भेजा। दिल्ली में यशपाल जैन, सुरेशराम भाई, ओमप्रकाश पालीवाल, सत्यवती मलिक और न जाने कितने लोगों को वे निरन्तर मेरे कार्य का स्मरण दिलाते रहे। यह भी कहा, जैनेन्द्र जी के पास तो किसी को भेज कर लिखवाना होगा। तब पंडित जी की कीर्ति-रक्षा के मेरे इस अभियान की कुछ व्यक्तियों ने मेरी आलोचना भी की–‘उनकी चीन भक्ति की लीपापोती कैसे हो’ या ‘ वे कम्युनिस्ट कहां हैं जो जीवन भर पंडित जी का इस्तेमाल करते रहे।’ पर विष्णु जी निरन्तर मेरी पीठ थपथपाते रहे–‘आपको बहुत मेहनत करनी पड़ रही है।’ और फिर बीसियों सुझाव। कहते–निराश होने की आवश्यकता नहीं है। आप लगे रहें। मैं भी पता करूंगा। बहुत मिलेंगे लिखने वाले।’
मुझे याद नहीं कि इसी अथवा ऐसे ही किसी प्रसंग पर विष्णु जी ने मुझसे कहा था–‘ केवल दोष ही देखना अंततः दृष्टि को धूमिल कर देगा। समग्रता में ही व्यक्ति की पहचान है। कोई भी सिद्धांत सम्पूर्ण और अंतिम नहीं है।’
विष्णु जी का विश्वास कभी किसी की आलोचना करने या बखिया उधेड़ने में नहीं रहा। चीजों को देखने-परखने का नजरिया उनका अपना था। गुण और दोष दोनों पर दृष्टि रहती थी उनकी। वे अपने से छोटों का कितना ध्यान रखते थे, इसे मैंने उनके निकट रहकर जाना था। लगता था कि वह सब जैसे उनके स्वभाव और जीवन का हिस्सा हो। मेरे पास विष्णु जी केे करीब डेढ़ सौ पत्र सुरक्षित हैं। उनमें स्नेह है तो कहीं जीवन अनुभवों के साथ ही सुझाव और संकेत भी। अनेक पत्रों में मेरी निजी परेषानियों से जुड़ी उनकी ढेर सारी उनकी चिंताएं हैं जिनसे मुुझे बहुत ताकत मिलती थी।
याद आता है कि एक बार शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की बहन श्रीमती शास्त्री देवी ने ‘जनसत्ता’ में छपे एक साक्षात्कार में मेरे ऊपर लाखों रूपए खा जाने का आरोप लगा डाला। पढ़ा तो मैं सन्न रह गया। विष्णु जी उस असलियत को ढंग से जानते थे। उनका पत्र आया–‘ सार्वजनिक जीवन में यह सब सहना पड़ता है।’ फिर मुझे बिना बताए ही उस अखबार के संपादक को दो पत्र लिखकर उन्होंने वास्तविक स्थिति से अवगत कराया। तब उन्होंने मेरा पक्ष लेकर मुझे बहुत बल प्रदान किया जबकि मैं अधिक ही विचलित था। बाद को मैंने उस लांछन से भी मुक्ति पा ली जब शास्त्री देवी से पुनः लिए गए साक्षात्कार में यह तथ्य सामने आया कि वैसा उन्होंने किसी के कहने से बोल दिया था। इस मसले पर ‘जनसत्ता’ ने बाद को एक पत्र लिखकर मुझसे खेद भी प्रकट किया था।
इसी तरह मैं वे दिन भी कभी नहीं भूल सकता जब मेरे पुत्र की न बोलने की बीमारी और असहायता के चलते विष्णु जी मुझे प्रतिपल ढाढस बंधाते और चिकित्सा के उपाय सुझाते रहे। उनके लिखे शब्द मुझे बार-बार निराशा से उबार ले जाते रहे। इसके बाद एक मोटर दुर्घटना में अपने उसी बेटे और फिर पत्नी को असमय खोने की मेरी पीड़ा के समय वे सचमुच बहुत दुखी हुए थे। उन क्षणों वे मुझे निरन्तर पत्र लिखकर सम्बल प्रदान करते रहे। उनकी अक्षरमाला मैं बार-बार पढ़ता। बेटियों को दिखाता। कभी आंखें छलक आतीं। मैं नहीं लिख पाता तो वे ही पत्र भेजकर कुशल-क्षेम पूछ लेते। कहते–‘आपकी पीड़ा को समझता हूं। पर अब तो उसे शक्ति बनाना पड़ेगा। अपने को व्यस्त रखो। मैंने भी तो यही सीखा है। दुख कहा नहीं सहा जाता है।’ और मैं सहने की शक्ति बटोरते-बटोरते थकने लग जाता।
उन दिनों मेरा दिल्ली जाना करीब-करीब बंद हो गया था। जीवन की प्राथमिकताएं और ढर्रे बदल गए थे। लगभग घर में कैद हो गया था मैं। लगता था कि सिर के बल खड़ा कर दिया गया होऊं। याद है कि अनेक वर्षों बाद दिल्ली अपने मित्र रामकुमार कृषक के घर पहुंचा तो विष्णु जी से मिलने की इच्छा व्यक्त करते ही कृषक जी ने भी साथ चलने को कहा। लंबी जद्दोजहद के बाद विष्णु जी तब तक महाराणा प्रताप एन्कलेव वाले अपने घर में पहुंच चुके थे। सामने पहुुंचकर मैंने विष्णु जी के चरण स्पर्श कर लिए। मैं भीतर से बहुत खामोश भी था। वे कृषक जी से बात करने लगे। देर तक करते रहे। मेरी तरफ मुखातिब नहीं हुए। लिखने की मेज पर थे। बैठने का वही ढंग। सामने टेबिल लैम्प जल रहा था। कुछ क्षण बीतते कृषक जी समझ चुके थे कि मेरी ओर विष्णु जी का ध्यान नहीं है। इतने वर्षों बाद अचानक मेरे पहुंचने का उन्हें अनुमान भी नहीं था। एकाएक कृषक जी ने मेरी नई पुस्तक ‘ भगतसिंह की सुनें ’ की प्रति विष्णु जी के सामने रख दी। अब विष्णु जी की चर्चा का विषय दूसरी ओर मुड़ गया था। स्नेह भरे स्वर में उन्होंने बोलना शुरू किया–‘ इस लड़के सुधीर विद्यार्थी ने बड़ा काम किया है। क्रांतिकारियों पर बहुत लिखा है इसने। पिछले दिनों यह बड़े संकट में रहा। बेटे का बहुत इलाज कराया, दिल्ली में भी। उसे यहां लेकर आता था वह। फिर एक मोटर दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी पत्नी सरला नहीं रही। मैं उसके घर जा चुका था।’ यह सब सुनते हुए मेरे भीतर का सन्नाटा और अधिक सघन हो गया। कृषक जी बोले–‘ विष्णु जी, सुधीर विद्यार्थी को पहचाना नहीं आपने।’
‘ अरे बेटा तुम ’–उनके यह कहते ही मैंने भरी आंखों पुनः उनके चरण स्पर्श कर लिए। फिर तो ढेरों आशीर्वाद। बार-बार स्नेह भरा हाथ वे मेरी पीठ पर रखते रहे। बोले–‘ कितने वर्षों बाद आए हो तुम। बहुत कष्ट रहा तुम्हें पिछले दिनों।’ फिर वे बच्चों के बारे में जानते-बूझते रहे देर तक।
वे कई बार मेरे लेखन की प्रशंसा भी करते। कहते–‘ आप निरन्तर इस क्षेत्र में ईमानदारी से काम करते आ रहे हैं। आज के युग में यह बहुत बड़ी बात है।’ सुनकर मैं भावुक हो जाता। 3 दिसम्बर 2007 को लिखे उनके पत्र में पढ़कर तो मैं चौंक ही गया. जिसमें लिखा था–‘ कितना काम किया है आपने और कर रहे हैं। बड़ा मन होता आपको लेकर एक लेख लिखूं। लेकिन इधर एकदम असमर्थ हो गया हूं। पिछले दिनों गिर गया था। सिर में चोट आई।’ पढ़कर मैं उनके स्वास्थ्य की चिंता में पड़ गया। मैं उनकी तबियत को लेकर परेशान हुआ तो कहा–’देखिए, कब तक चलता है। कोई चिंता नहीं।’
याद आता है जब बहुत पहले मैंने विष्णु जी को आग्रह करके शाहजहांपुर बुलाया तब वे ‘ आवारा मसीहा ’ के बहुचर्चित-प्रशंसित होने के दिन थे। शायद 1982 का दिसम्बर महीना रहा था। मैंने उनसे प्रस्ताव किया कि वे एक बैठक में वे 14 वर्षों में रची गई इस अमर कृति की रचना-प्रक्रिया पर बात करेंगे और दूसरे दिन मैं गांधीवाद की प्रासंगिकता पर एक व्याख्यान देने का आपसे अनुरोध करता हूं।
लौटती डाक से उनका पत्र आया जिसमें लिखा था–’एक बार मेरे मन में आया कि मैं इस दूसरे विशय पर बातचीत करने के लिए तुमसे मना कर दूं क्योंकि मैं जहां जाता हूं साहित्य पर बात करता हूं, राजनीति पर कभी भाषण नहीं करता। फिर दूसरे ही क्षण मैंने तुम्हारे प्रस्ताव को यह सोच कर स्वीकार कर लिया कि इससे मेरी भी परीक्षा हो जाएगी कि आखिर मैं कितने पानी में हूं।’ उस दिन विष्णु जी ने पहली बार राजनीति पर खुलकर बातचीत की थी। सभा डेढ़ घंटे से ऊपर चली और लोगोें ने बहुत धैर्य से उनकी बात को सुना। बाद को कई व्यक्तियों ने मुझसे कहा भी–‘ अपने शहर में इतना अच्छा वक्ता पहले कभी कोई नहीं आया।’ जो कुछ उन्होंने कहा उसे देश की स्थिति पर एक दृष्टि सम्पन्न लेेखक जी चिंता ही कह सकता हूं। याद है कि गांधी विचारों और उनके चेलों द्वारा पैदा किए गए गांधीवाद को कितनी सूक्ष्मता और गहराई से उन्होंने विश्लेषित किया था। उन्हें सुनकर मन में कोई ऐसी धारणा नहीं बनी कि वे सिर्फ गांधीवाद से प्रभावित हैैं। यद्यपि उनकी चेतना के विकास में गांधी विचारों का बहुत बड़ा हाथ था। उन्होंने उस दिन स्पष्ट किया था कि वे हर विंदु पर गांधी को सही नहीं मान लेते। प्रत्येक व्यक्ति कहीं-न-कहीं गलत होता ही है। मुुझे याद है कि उस भरी सभा में कम्युनिस्ट साथियों को संबोधित करते हुए वे बोले थे–’मैं साम्यवादी मित्रों से कहता हूं कि सबसे ज्यादा यदि देश के साथ विश्वासघात किया है तो तुम लोगों ने किया है। तुमसे बहुत उम्मीदें थीं पर अपनी सारी मान्यताओं को झुठलाकर इस देश में तुम उस रास्ते पर चल पड़े हो जिस पर हमारे सत्ताधारी चल पड़े हैं। तुम भी इस दूषित चक्र में पड़कर चुनाव जीतने में, पद पाने में, मंत्री बनने में उलझ कर रह गए हो। हम सिद्धांत की बात थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं, एक नैतिकता, आचरण की बात–इसमें तो कोई सि़द्धांत आड़े नहीं आता। कम्युनिस्ट बहुत नैतिकतावादी हैं। मैं रूस में दो बार उनके बीच रहकर देख आया हूं। वह आचरण को पूरी तरह जीवन में उतारना चाहते हैं। हमारा उनसे मतभेद किसी स्थल पर हो सकता है, लेकिन दैनन्दिन जीवन में हमारा कोई उनसे विशिष्ट मतभेद नही।’ विष्णु जी का यह पूरा भाषण मैंने रिकार्ड किया था जिसे बाद में लिपिबद्ध कर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपवाया।
विष्णु जी क्रांतिकारियों पर मेरे लेखन के प्रषंसक थे और सहयोगी भी। मुझसे बार-बार कहते–’आप अपने सीमित क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं’ या ‘ तुमने बहुत परिश्रम करके इतिहास की कड़ियों को जोड़ा है।’ उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर मुझे लगता कि वे मुुझे प्रोत्साहित करने के लिए ऐसा कर कह रहे हैं। सिर्फ यही नहीं, मुझे अपने सुझाव भी लिखते–‘ क्या यह संभव नहीं है कि इस समय जो क्रांतिकारी जीवित हैं, आग्रह करके उन सबसे संस्मरण के रूप में सामग्री जुटाई जा सके। पुराने दस्तावेज टटोले जाएं। और उन्हें उसी प्रकार प्रकाशित किया जाए। कुछ वर्ष पूर्व परस्पर विरोधी वक्तव्य प्रकाशित हुए थे, उन्हें भी जांचा जाए। अभी पुराने साथी जीवित हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं जो आंदोलन से सीधे नहीं जुड़े थे पर किसी-न-किसी रूप में क्रांतिकारियों से परिचित थे। हैदराबाद में विजय कुमार सिन्हा हैं। वे भी संस्मरण लिख रहे थे। तीन-चार वर्ष में वहां गया था तो फोन पर बातें हुई थीं। जाऊंगा तो अगले माह भी, पर तीन दिन ही रह पाऊंगा।’
विष्णु जी हैदराबाद गए, पर सिन्हा जी से उनका संपर्क नहीं हो पाया। मैं भी अपनी व्यस्तताओं के चलते उनसे संस्मरण लिपिबद्ध नहीं करा सका। मुझे उनसे पत्र-व्यवहार करने का अवसर तो मिला और सिन्हा जी से मुझे अपने कार्यों की सराहना भी मिली, पर उनसे भगतसिंह पर जिस बड़ी कृति की हम अपेक्षा कर रहे थे उसका लिखा जाना तभी संभव हो सकता था जब मैं उनके नजदीक बैठकर काम करता। चाहते हुए भी मेरी पारिवारिक स्थितियों ने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी। वे बार-बार बुलाना चाहते थे पर हैदराबाद और सिकन्दराबाद का फासला मैं तय नहीं कर सका।
1990 की ही बात है जब विष्णु जी ने क्रांतिकारी काशीराम की स्मृतियों कोे जुटाने में मेरी सहायता के लिए अरविन्द आश्रम पांडिचेरी को पत्र लिखा था। चन्द्रशेखर आज़ाद के अभिन्न साथी काशीराम बाद को अरविन्द आश्रम चले गए थे और वहां से चीजों को संकलित करने में तब मुझे बहुत कठिनाई हो रही थी। कह सकता हूं कि विष्णु जी की मदद के अभाव में मेरा जरूरी कार्य तब अधूरा ही रह जाता। आज काशीराम को कौन जाने। सुना था कि आजाद ने अल्फ्रेड पार्क में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पुलिस से मुकाबला करते हुए कहा था–‘ काश ! आज मेरे साथ जगदीश (काशीराम का पार्टी का नाम) न हुआ……। ’ ये शब्द अंग्रेज पुलिस अधिकारी नाॅट बाबर ने स्वयं काशीराम से कहे थे जब वे हथकड़ी में जकड़े उसके एक पुलिस स्टेशन में सम्मुख खड़े थे।
हिंदी के एक बड़े कहानीकार को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि क्रांतिकारी आंदोलन पर लेखन में विष्णु जी मेरी मदद करते रहे हैं। मैंने कहा कि मार्ग भिन्न होते हुए भी वे क्रांतिकारियों की देशभक्ति, कर्तव्य के प्रति उनकी निष्ठा , वीरता और बलिदान की भावना से बहुत प्रभावित हैं। विष्णु जी ने एक बार मुझसे कहा भी था कि उस युग का साक्षी होने के कारण मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि जनता क्रांतिकारियों को वही आदर और सम्मान देती थी जो दूसरे नेताओं को। वे मानते भी थे कि किसी भी लक्ष्य पर पहुंचने का एक ही मार्ग नहीं होता। हर एक को अपने विश्वास के प्रति ईमानदार रहने का अधिकार है। हां, स्वार्थ की भावना निष्चय ही निंदनीय है।
भगतसिंह पर उनकी पुस्तक पर मैने कई बार चर्चा की उनसे। मेरे सुझाव पर वे उसमें कुछ और जोड़ना-घटना चाहते थे। देरी हो रही थी तब मैंने उसे वैसे ही दुबारा छपवाने को कहा। उनका कहना था कि उनके मष्तिष्क में उसे फिर से लिखने की योजना है। लेकिन प्रकाशक से सम्बन्ध ठीक-ठाक न रहने के चलते भी वह काम पड़ा रह गया। उन्होंनेे शहीद सुखदेव जी जीवनी लेखन में उनके भाई मथरादास थापर की बहुत मदद की थी। उसे संशोधित करने, छपवाने में उनका बड़ा योगदान था। यह बात एक भेंट में थापर जी ने जब मुझे फीरोजाबाद में पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी के घर बताई थी. उनकी आंखों में विष्णु जी केे प्रति प्रशंसा और कृृतज्ञता का गहरा भाव था। उसके बाद विष्णु जी ने इस पुस्तक पर एक लंबा समीक्षात्मक लेख मेरे द्वारा संपादित ‘साथी’ के चन्दशेखर आज़ाद विशेषांक के लिए लिखकर भेजा जो सुखदेव और तत्कालीन क्रांतिकारी संग्राम पर एक स्वतंत्र रचना का आस्वाद देता है।
1946 के नाविक विद्रोह की अर्धशती आई तब मैं देश की आजादी के लिए हुई उस अनोखी बगावत पर सामग्री की तलाश कर रहा था। इसकेे लिए मैं राष्ट्रीय अभिलेखागार गया। विष्णु जी से भी मिला। बाद को उन्होंने तलाश करके स्वाधीनता आंदोलन पर अपने रूपकों की पुस्तक मुझे डाक से भेजी। मुझे संतोष है कि भारतीय नौसेना की उस ऐतिहासिक क्रांति पर जो कुुछ मैंने लिखा, वह विष्णु जी को बहुत पसंद आया और उन्होंने उसे स्वतंत्रता संग्राम का अत्यंत संतुलित और मूल्यवान दस्तावेज माना।
विष्णु जी की दृष्टि का एक और परिचय मुझे उनके नाटक ‘ केरल का क्रांतिकारी ’ से मिला। क्रांतिकारी आंदोलन पर हिंदी में कितनी ही पुुस्तकें लिखी गई हैं, पर वे सब प्रायः उत्तर भारत के संग्रामों और गतिविधियों तक सीमित रह गई हैं। दक्षिण में क्रांति के नाम पर जो भी कोशिशें हुईं, उनकी बहुत उपेक्षा हुई हमसे। सही तो यह है कि हमें विष्णु जी की तरह इस आंदोलन को समग्रता में देखना होगा। हमें यह भी जानना-देखना होगा कि हिंदी पट्टी के दूरस्थ प्रदेषों में उसकी कैसी और कितनी हलचलें थीं।
कहना चाहता हूं कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगे के दिनों मुझे विष्णु जी की बहुत याद आई। वे अक्सर मुुझसे कहते थे कि मुजफ्फरनगर मेरा जिला है और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए पूरा जीवन लगा देने वाले कर्मवीर पं0 सुन्दरलाल की जन्मभूमि भी। उन्हें बहुत गर्व होता था यह बताते हुए। इस बार उनकी वह जमीन घृणा की आग में धधकी तो मैं बहुत शिद्दत से मुझे विष्णु जी का कथन याद करता रहा–’मैं तो मुस्लिम एरिया का रहने वाला हूं–मुजफ्फरनगर का इलाका। हम मुसलमानों के बीच में खाए, खेले, बड़े हुए। वह जमाना था, जब हम उनके घर में जाते थे तो वह हमें खाना अपने हाथ से नहीं खिलाते थे। खाना हमें कोई हिन्दू ही लाकर खिलाता था। लेकिन हम लोगों में प्यार-मोहब्बत बहुत था–लेना, देना, रोना, सोना। हमारे घर आते थे वह लोग तो हमारी मां वर्तन मांजती थीं आग से। आज वह आग से वर्तन मांजना बंद हो गया है। अब मेरे मुुसलमान दोस्त मेरी रसोई में आकर खाना बना देते हैं। हम खा ले लेते हैं। लेकिन हमारा यह दावा है कि जितने आज हम कटे हुए हैं, इतने पहले कभी कटे हुए नहीं थे। ’
अपने इस दर्द को 24 वर्ष पहले बांटा था उन्होंने मुझसे। यह एक रचनाकार का पीड़ा थी और उस व्यक्ति की भी जो अपनी धरती कोे बेहंतहा प्यार करता था और अपनी जमीन को किसी तरह तकसीम होते नहीं देखना चाहता था। उसकी आकांक्षा थी कि सिर्फ ऊपरी नहीं, भीतरी दरारें भी पटें और मिटें ताकि सद्भाव की खुशबुओं के तैरने पर कोई बंदिश न लगा सके। राजनीति की बात जाने दीजिए। मैं साहित्य और संस्कृति की दुनिया से यह सवाल करता हूं कि क्या इतना समय पर्याप्त नहीं था कि सद्भाव की विरासत को मांजने-संवारने की उस जरूरी जिम्मेदारी को अपनी कलम और दूसरे माध्यमों के जरिए भी पूरा करने की दिशा में हम आगे बढ़ते। ठीक उसी तरह जिस तरह सुन्दरलाल जी ने अपने समय मे ’भारत में अंग्रेजी राज’ लिखकर अंग्रेजी जाति के तथाकथित संसदीय अंह पर चोट करते हुए उसे समूचे योरोप के सिर पर पटक दिया था। कहां हुईं फिर उस तरह की कोशिशें। उलझ गए हम सब अपनी पहचान बनाने और फिर उसे भुनाने में। कहना चाहता हूं कि हमारे कार्यभार निर्लज्ता से बदल गए और हमने उन्हें वैसा हो जाने दिया।
विष्णु जी के कार्य और प्रभाव का क्षेत्र केवल हिंदी भाषी इलाके तक ही सीमित नहीं था। सभी भारतीय भाषाओँ के लेखक और पाठक उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। अहिंदी भाषी क्षेत्रों में भी वे उतने ही लोकप्रिय थे जितने हमारे बीच। वर्षों पहले हिंदी दिवस पर तिरूवनंतपुरम के एक आयोजन में केरल हिंदी प्रचार सभा के मंत्री एमके वेलायुधन नायर ने मुुझसे स्वयं कहा था कि विष्णु प्रभाकर को तो अब हमने केरल का ही लेखक मान लिया है। आज मुुझे हिंदी कथाकार और विषयवस्तु ’ के संपादक धर्मेन्द्र गुप्त की याद आ रही है जिन्होंने विष्णु जी पर केन्द्रित अपनी पत्रिका के एक विशेषांक में सभी भारतीय भाषाओँ के विद्वानों से विष्णु जी के सम्बन्ध में लिखवाकर इस आवारा मसीहा के विराट व्यक्तित्व से हमें परिचित कराने का अनोखा उद्यम किया था।
सर्जन कर्म को मानव मन की गहराई से उपलब्ध वस्तु मानने वाले विश्णु जी के साहित्य का मूल स्वर नारी की मुक्ति और धार्मिक शोषण का विरोध है। यहां वे हमें शरत के बहुत नजदीक खड़े दिखाई देते हैं। वे स्वयं मानते थे कि उनके सर्जन की शक्ति प्रतिभा नहीं, प्रीति है–सरलप्राणा प्रीति। वे आर्थिक और सामाजिक समानता के प्रबल पक्षधर थे। उनका समाजवाद और कुछ नहीं, उदात्त मानवता की खोज का दूूसरा नाम था। उनके पात्र ही नहीं, स्वयं हर कहीं वे इसी के लिए सपर्पित और जूझते दिखाई पड़ते थे। मेरे जानते वे एक ऐसा विंदु थे जहां हमें व्यक्ति और साहित्यकार में कोई अन्तर्विरोध देखने को नहीं मिलता था। उनके व्यक्तित्व के आर-पार देखा जा सकता था। मैं हर क्षण उन्हें बड़ा कथा-शिल्पी , सिद्धहस्त नाटक लेखक, कुुशल जीवनीकार के साथ-साथ एक बड़ा आदमी भी मानता रहा। ऐसा व्यक्ति जब किसी भाषा के लिए समर्पित होकर कार्य करता हैै तो उससे भाषा भी गौरवान्वित होती है। मानना होगा कि हिंदी इसलिए बड़ी है कि उसके माध्यम से भारतीय साहित्य का अनुपम रूप ‘ आवारा मसीहा ’ सामने आया और इसलिए भी कि उसने भारतीयता और मानवता के लिए समर्पित लेखक विष्णु प्रभाकर को पाया।
विष्णु जी की अनुपस्थिति मेरे लिए एक सुहृदय सखा, शुभचिन्तक और प्यार करने वाले उस आदमी के दूर चले जाने के मानिन्द है जिसका दिया गया शुचिस्मिता नाम मेरी बड़ी बेटी के रूप में घर में चहलकदमी कर रहा है.
[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info] सुधीर विद्यार्थी क्रांतिकारी साहित्य के अध्येता हैं [/author_info] [/author]
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