समकालीन जनमत
स्मृति

विजय दिवस : बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर

फगुआ के दिन ढोल-झाल के साथ लोग ताल ठोका करते थे। बारह बजे के बाद सेवक काका (रामसेवक सिंह) के दुआर पर लोग जमा होने लगते थे। उसके एक प्रमुख किरदार हुआ करते थे आधार काका। आधार काका का पूरा नाम था राम आधार कहार। सेवक काका और आधार काका पक्का जोड़ीदार थे। हम लोगों को उनके शुद्ध और पूरे नामों से कोई लेना-देना नहीं था। हम लोगों के लिए तो बस सेवक काका और आधार काका नाम ही काफी थे। सेवक काका ढोल बजाते थे और आधार काका छिटिका। दोनों गोल में अगल-बगल नहीं, आमने-सामने बैठते थे। बाकी लोग झाल बजाते थे।

सबसे पहले सुमिरन होता था। सुमिरन में गणेश-वंदना के साथ स्थानीय डीह-डीहवारों को होली गीतों में गुहराया जाता था। फिर,एक गीत अनिवार्य रूप से हर साल सुमिरन के तुरत बाद गाया जाता था और वो गीत था–” बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर/ बँगला में उड़ेला अबीर आहो लाला/ बँगला में उड़ेला अबीर हो…।”

यह गीत हर साल गाया जाता था और आज भी जो थोड़ी-बहुत गवनई बची हुई है, खासकर पुराना शाहाबाद जिला में (जो अब भोजपुर, बक्सर,रोहतास और कैमूर जैसे चार जिलों में बंटा हुआ है) यह गीत हर गाँव में गाया जाता है। बाबू कुँवर सिंह का नाम इसी गीत के जरिए सबसे पहले हमारी स्मृति का हिस्सा बना। वे बचपन के दिन थे। बड़ा हुआ तब भी यह गीत सुनता रहा। सेवक काका और आधार काका के गुजर जाने के बाद भी। इस गीत के बाद शुरू होते थे एक से एक श्रृंगारिक गीत। भाँग की मस्ती गोलवालों पर जैसे जैसे तारी होती जाती थी फगुआ उठान पर आते जाता था।

एक धुँधली- सी स्मृति

कह नहीं सकता कि किस साल किस तारीख को।पर,एक नाटक की बहुत धुँधली-सी स्मृति है मेरे जेहन में कहीं। सुकुल काका के दुआर पर कुँवर सिंह पर एक नाटक हुआ था। मैं अपने को नाटक देखता हुआ बहुत धुँधले-धुँधले रूप में देखता हूँ। मैकू मल्लाह का सीन कुछ-कुछ कौंध जाता है जब-तब। इस नाटक के मंचन में बाबूजी (बड़का बाबूजी) की भूमिका थी। उसमें बगल गाँव के देवलाल भट्ट और भोला सिंह की भूमिका की भी चर्चा थी। बाबूजी तो नहीं हैं पर,उस नाटक में विभिन्न पात्रों की भूमिका निभाने वाले कुछ लोग अभी भी हैं। अफसोस है कि इस विषय पर उनसे कभी कुछ पूछा नहीं।

आजमगढ़ के लड़ाइया हो बलम

कह नहीं सकता कि कब से। पर, आज भी सुनता हूँ। ब्याह-गीत और सोहर गाती हुई लड़कियाँ गाते-गाते पता नहीं क्यों आजमगढ़ वाला यह गीत भी गाने लगती हैं। इस आजमगढ़ से क्या नाता बनता है इन लड़कियों का ? पूछा कि कब से गा रही हो तुम लोग ? तो,बताया कि यह तो बहुत पहले का गीत है। उन सबों ने अपनी दादियों और बुआओं से सुना-सीखा है। गीत में आजमगढ़ की लड़ाई का जिक्र है। आजमगढ़ की धरती पर बाबू कुँवर सिंह और गोरी फौज के बीच भीषण लड़ाई हुई थी। काफी संख्या में लोग शहीद हुए थे। उसी की स्मृतियाँ इस गीत में महिलाओं ने सहेज रखा है।

गीत की पँक्ति है : “आजमगढ़ के लड़इया हो बलम तोहे जाए ना देबो। ” कोई भूल से भी यह न समझे कि उस वक्त पत्नियों ने अपने पतियों को युद्ध में जाने से रोका होगा ।यह तो उसकी भीषणता का लोकाख्यान है।

बुढापा में जवानी के उभार

आठवीं या नौवीं कक्षा में था तो पाठ्य पुस्तक में मनोरंजन प्रसाद सिंह की एक कविता थी -‘कुँवर सिंह’। इसके पहले की किसी कक्षा में सुभद्राकुमारी चौहान की ‘झाँसी की रानी’ कविता थी। तब स्कूलों में अंत्याक्षरी का जमाना था। प्रत्येक शनिवार को अंत्याक्षरी हुआ करती थी।दो कक्षाओं के बीच कम्पटीशन हुआ करता था।’झाँसी की रानी’ को पूरी तरह याद कर लिया था। एक-एक लाइन रट लिया था। उसी समय मनोरंजन प्रसाद सिंह की ‘कुँवर सिंह’ कविता को भी कंठस्थ कर लिया था। अंत्याक्षरी में जीत दिलाने में ये दोनों कविताएँ काफी मददगार होती थीं।किसी भी अक्षर से शुरू करो और ‘थ’ पर गिरा दो। इन दोनों से यह काम खूब लिया।

‘अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था
सब कहते हैं कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मरदाना था।”

‘थ’ पर गिराने के लिहाज से इस कविता की तुलना में ‘झाँसी की रानी’ ज्यादा कारगर थी। तो, हुआ यह कि 1857 के दो अप्रतिम नायकों से दूसरे चरण का साक्षात्कार कुछ इसी तरह हुआ था।
दुर्गाशंकर सिंह, सर्वदेव तिवारी ‘राकेश’ और चंद्रशेखर मिश्र ने कुँवर सिंह पर महत्वपूर्ण काव्य-ग्रंथों की रचना की है।इन लोगों ने काफी श्रमपूर्वक कुँवर सिंह के जीवन और संघर्षों को काव्य के शिल्प में प्रस्तुत किया है।

रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ की कुँवर सिंह पर दो कविताएँ हैं। रमता जी खुद स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ कवि भी थे।कुँवर सिंह पर उनकी एक जबरदस्त कविता है। वे कुँवर सिंह को ‘बुढापा में जवानी का उभार’ मानते हैं और ‘उनकी मूँछों को बरछी की नोक’ से तुलना करते हैं। वे लिखते हैं – “बुढापा में जवानी के उभार कुँवर सिंह।”संग्रामी कुँवर की शोभा और समझ का बड़ा ही जीवंत वर्णन इस कविता में हुआ है।
सुरेश काँटक ने कुँवर सिंह पर भोजपुरी में ‘सत्तावन के वीर बाँकुड़ा बाबू कुँवर सिंह’ नाटक लिखा है।कुँवर सिंह पर यह अद्यतन प्रामाणिक नाटक है।काँटक जी ने काफी खोज और अध्ययन के आधार पर यह नाटक लिखा है।

नीरज सिंह ने भी कुँवर सिंह पर भोजपुरी में एक कहानी लिखी है जिसका शीर्षक है ‘थाती’।यह एक मार्मिक प्रेमकथा है।कुँवर सिंह का व्यक्तित्व इकहरा नहीं था।यह कहानी उनके व्यक्तित्व के उन पहलुओं को उजागर करती है जिनकी तरफ कम ध्यान जाता है।

शहादत को सलाम

कुँवर सिंह का व्यक्तित्व संग्रामी था।उनकी सेना में मैकू मल्लाह भी थे।जगदीशपुर और उसके आसपास के गरीब-गुरबों ने कुँवर सिंह को खुलकर सपोर्ट किया था।उनकी शहादत के साथ शहीद पीर अली की शहादत जुड़ी हुई है – “पीर अली फाँसी पर लटका मजहब का दीवाना था/ सब कहते हैं कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मरदाना था।”

आज विजय दिवस है। भीषण संग्राम के बाद 23 अप्रैल1858 को बाबू कुँवर सिंह और उनके साथियों ने जगदीशपुर को ईस्ट इंडिया कम्पनी से आजाद कर लिया था।

विजय दिवस के अवसर पर उनकी और उनके साथियों की शहादत को सलाम।

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