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वर्ण और जाति को समझने की मार्क्सवादी कोशिश

नवीन बाबू ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की एम फिल की उपाधि के लिए जो शोध प्रबंध जमा किया उसके लिए उन्होंने जाति का सवाल चुना था. ‘ वर्ण से जाति ’ शीर्षक पुस्तक उसी शोध प्रबंध का हिंदी अनुवाद है.

नवीन बाबू का आंध्र प्रदेश के कम्युनिस्ट आंदोलन की तीसरी धारा से गहरा जुड़ाव था. बिहार के मुकाबले उस इलाके के कम्युनिस्ट आंदोलन पर सामाजिक बदलाव की धारा का अधिक प्रभाव था. उसी असर में उन्होंने यह विषय चुना था. जाति के प्रश्न पर विचार करते हुए नवीन बाबू ने अस्मितावादी या समाजशास्त्र की पारम्परिक दृष्टि के मुकाबले मार्क्सवादी नजरिया अपनाया है.

गैर यूरोपीय समाजों पर विचार करते हुए बहुतेरे विद्वान एशियाई उत्पादन पद्धति नामक कोटि का सहारा लेते हैं और उसे सामान्य मार्क्सवादी नजरिए से पूरी तरह भिन्न कोटि की तरह पेश करते हैं. इस सोच का खंडन करते हुए नवीन बाबू ने उसके मुकाबले मार्क्स की सामान्य ऐतिहासिक भौतिकवादी पद्धति का उपयोग किया है. इस पद्धति की व्याख्या भी उन्होंने शुरू में ही की है.  इस पद्धति के अनुसार कोई भी सामाजिक ढांचा किसी खास समय की उत्पादन पद्धति के अनुरूप होता है. उत्पादन पद्धति के बदल जाने के बाद सामाजिक ढांचा भी बदल जाता है लेकिन पुराने ढांचे के अवशेष नए ढांचे के साथ भी बने रहते हैं.

उनका मानना है कि समाज के विभाजन की वर्ण आधारित व्यवस्था जाति व्यवस्था के मुकाबले कुछ कम जटिल है. वर्ण चार ही हैं जबकि जातियों की संख्या बहुत अधिक है. इसी आधार पर उनको लगता है कि वर्ण व्यवस्था किसी पुरानी उत्पादन पद्धति में पैदा हुई थी. उत्पादन पद्धति बदलने पर समाज की बढ़ती जटिलता के अनुसार जाति व्यवस्था का उदय हुआ लेकिन इस नई व्यवस्था के भीतर पुरानी वर्ण व्यवस्था के तत्व भी बने रहे. स्पष्ट है कि जाति के प्रश्न पर पारम्परिक समाजशास्त्रीय सोच से उनकी सोच अलग तो है ही मार्क्सवाद के भी भोंथरे इस्तेमाल से बचकर उन्होंने सवाल की गम्भीरता के अनुरूप अधिक परिष्कृत अनुप्रयोग किया है.

जाति के सवाल पर सोचते हुए आम तौर पर उसे नितांत जड़ और स्थिर माना जाता है. नवीन बाबू ने उसे ऐतिहासिक रूप से गतिशील कोटि के रूप में स्वीकार किया है. अकेले यही चीज उनकी किताब को पठनीय बनाती है. हमारे देश में जाति प्रथा की वापसी के समर्थक हिंदुत्ववादी ताकतों के उभार और सत्ता पर उनके कब्जे के बाद बुनियादी सामाजिक बदलाव का सवाल एक बार फिर से मजबूती से सामने आया है. इस माहौल में इस किताब की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है.

 ( मार्क्सवाद के अध्येता प्रो गोपाल प्रधान ने यह टिप्पणी नवारुण से प्रकाशित नवीन बाबू की किताब ‘ वर्ण से जाति ’ पर लिखी है)

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