समकालीन जनमत
जनमतस्मृति

जनतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर, निडर रचनाकार-अर्चना वर्मा

(हंस और कथादेश जैसी पत्रिकाओं का सार्थक सम्पादन कर साहित्यिक पत्रकारिता में स्त्री-हस्तक्षेप के लिए भरपूर गुंजाइश बनाने वाली अर्चना वर्मा गत 16 फरवरी को हमारे बीच नहीं रहीं। समकालीन जनमत, उनके परिजनों, पाठकों और प्रशंसकों के दुःख में शामिल है।)


पूर्णिमा मौर्या

प्रबुद्ध रचनाकार, संवेदनशील, खुद्दार, स्वाभिमानी व्यक्तित्व की धनी और पढ़ने-लिखने की बेहद शौकीन अर्चना वर्मा जी अब हमारे बीच नहीं रहीं।

जैसा कि कई बार होता है , लेखकों – रचनाकारों की ज़िंदगी के कुछ खास दौर को लेकर कई बहसें सामने आ जाती हैं , वही आज अर्चना जी के साथ भी हो रहा है।

मेरे एक अजीज पत्रकार मित्र ने कहा कि पुरस्कार वापसी वाले मामले में अर्चना वर्मा जी का रवैय्या काफी निराशाजनक था। वे पुरस्कार वापसी के विरोध में थीं। तथ्यात्मक तौर पर यह सब सही हो तब भी सोचने की बात यह है कि किसी भी लेखक, रचनाकार के मूल्यांकन की कसौटी क्या होनी चाहिए? उसका मूल्यांकन तात्कालिक प्रतिक्रियाओं, वक्तव्यों के आधार पर होगा या सम्पूर्ण लेखन-चिंतन से होगा? मेरा निवेदन है कि अर्चना वर्मा पर कोई भी बात करने से पहले उनके सम्पूर्ण लेखन चिंतन को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए।

अर्चना जी ने कहानी, कविता, किशोर साहित्य, संस्मरण, स्त्री विमर्श, समीक्षा, आलोचना आदि सभी विषयों में धीर विलम्बित किंतु नियमित लेखन किया।

उनके अब तक दो कविता संग्रह-‘कुछ दूर तक’ ‘तथा लौटा है विजेता’ दो कहानी संग्रह-‘स्थगित’ तथा राजपाट और अन्य कहानियां, दो आलोचना पुस्तकें- ‘निराला के सृजन सीमांत : विहग और मीन तथा अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर प्रकाशित हैं। ‘औरत : उत्तरकथा’, ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ तथा ‘देहरि भई बिदेह’ पुस्तकों में अर्चना वर्मा ने ऐतिहासिक महत्व का सम्पादन सहयोग किया।

ये तीनों पुस्तकें स्त्री विमर्श के नए आयाम खोलने के साथ साथ सहमति का साहस और असहमति का विवेक सिखाती-समझाती हैं।

अर्चना जी ने हिंदी की प्रमुख कहानी पत्रिकाओं ‘हंस’में लगभग दो दशक से अधिक तथा ‘कथादेश’में लगभग एक दशक तक सम्पादन सहयोग किया। इस दौरान इन पत्रिकाओं में महत्वपूर्ण स्त्रीवादी साहित्य आया।

1946 में इलाहाबाद में जन्मी अर्चना जी का बचपन अपने पिता की तबादले वाली नौकरी के कारण उत्तर प्रदेश के अलग अलग शहरों में रहते गुजरा।

उन्होंने एम.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में किया। हिन्दी साहित्य के कुछ वरिष्ठ नाम जैसे नीलाभ और जर्नादन द्विवेदी आदि उनके सहपाठी रहे तो ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह उनके सीनियर थे।

इलाहाबाद के लेखकीय माहौल ने उनकी लेखकीय क्षमता को उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने पहली कहानी ‘रेंगता हुआ शहर’ नाम से लिखी थी, जो बहुत बाद में छपी। उनकी पहली कहानी ‘बीते हुए दिन’ नाम से ‘धर्मयुग’ के दीपावली विशेषांक में 1966 में छपी।

तब तक वे कुछ कविताएं लिख चुकी थीं; जिसे स्कूल के दिनों में काफी सराहा भी गया था। अगस्त 1966 में दिल्ली के कॉलेज मिरांडा हाउस में बतौर हिंदी अध्यापक नियुक्त हुई।

अध्यापकीय जीवन के दौरान लडकियों को पढ़ाते उनको सुनते बतियाते उन्हें जो ऊर्जा व अनुभव मिले उसे वे अपने जीवन की सबसे मूल्यवान थाती मानती थीं।

एक बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि उनकी मॉं जानकी देवी कॉलेज में पढ़ाती थीं। उन्होंने बाल मनोविज्ञान पढ़ रखा था। वे अपने बच्चों की बेहतरीन परवरिश करना जानती थीं। बचपन में अर्चना जी को इस बात का एहसास नहीं था कि लड़के लड़कियों के बीच समाज में भेद किया जाता है। उनके घर का माहौल बिल्कुल वैसा नहीं था। मॉं की सिखाई एक बात उन्होंने हमेशा याद रखी कि सही को सही और गलत को गलत कहने में कभी संकोच मत करो, कभी डरो मत और न इस बात की परवाह करो कि ऐसा करने पर लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचेगें।

वे कहती थीं जिस दोस्त के सामने सही बात कहने से दोस्ती टूटने का खतरा हो तो ऐसी दोस्ती का टूट जाना ही बेहतर हैं।

बतौर कथाकार अर्चना जी समाज के तथाकथित आधुनिकों की प्रगतिशीलता की पड़ताल करते हुए उन्हें चुनौती देती हैं, आत्मालोचना के लिए बाध्य करती हैं, स्त्री का स्वयं से संवाद कराती हैं तथा स्त्री मुक्ति आन्दोलन के मार्ग की चुनौतियों से रूबरू कराती हैं।

‘राजपाट तथा अन्य कहानियां’ संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी है ‘जोकर’; जो अपने कथ्य और शिल्प दोनों में अभूतपूर्व है। यह कहानी बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे को बड़ी जिम्मेदारी के साथ उठाती हैं और सामाजिक निर्मिति को चुनौती देती हैं-‘दंडविधान की कठोरता से अपराध समाप्त नहीं होते, सिर्फ़ ज़्यादा जटिल, अप्रत्यक्ष और कू्रर हो जाते हैं।…..बलात्कार सिर्फ एक शारीरिक कर्म नहीं जो होकर ख़त्म हो जाता है। बल्कि एक मानसिक विकलांगता है जो ख़त्म होने के बाद भी चलती रहती है।…..हमलावर एक डरा हुआ आदमी है।

उसे तुम्हारी शर्म पर भरोसा है। इसीलिए बेशर्म बनो।’अपने कहानी पात्रों को लेकर वे बहुत सजग रहती हैं। स्त्री पात्रों में कोई आदर्श गढ़ने की कवायद उनके यहां नहीं मिलती। अपनी स्वाभाविकता के साथ उनके पात्र अपने समय का यथार्थ कहते हैं।

अर्चना वर्मा की कहानियां अपने ’कहन’ में संवेदना को बड़ी बारीकी से समेटे, सतर्कता व चौकन्नेपन के साथ ’गुनहगार’ को उसकी ’औकात’ बता देती हैं वहीं स्त्री को उसके आभासी ’राजपाट’ की हकीकत दिखा उसका ’भरम’ भी दूर करती हैं कि ’मुक्ति’ किसी विषेष अवसर पर अचानक मिल जाने वाला ’उपहार’ नहीं है। उनके कथाकर्म पर टिप्पणी करते हुए यशस्वी सम्पादक, कथाकार राजेन्द्र यादव ने लिखा था, ‘अर्चना वर्मा की कहानियां गहरे आत्मसाक्षात्कारों की संश्लिष्ट कहानियां हैं, लगभग कविताओं की तरह शब्द संवेदना में उतरती और विस्तारित होती हुई।

उनके पात्र लगभग वैज्ञानिक की दृष्टि से एक-एक रेशे का परीक्षण करते हुए नए सत्य के आविष्कार का रोमांच उपलब्ध कराते हैं। नए अर्थां और बिंबों का संयोजन उनको विलक्षण कहानीकार बनाता है।’

ऐसे समय में जब लोग अपनी बात कहने से कतराते हो, झमेले मोल ना लेना चाहते हों, जोड़ जुगाड़ कर पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार हासिल कर लेना चाहते हों ऐसे में निडरता से अपनी बात कहने वाली अर्चना वर्मा अपनी कविताओं, कहानियों के द्वारा जनतान्त्रिक मूल्यों की सशक्त हस्ताक्षर के रूप में सामने आती दिखतीं हैं।

उनकी कविता ‘राजद्रोह’जनता के सुखी होने की घोषणा करने वाले राजा के खिलाफ़ अपना शांत प्रतिरोध दर्ज कराती है “राजा की मुनादी थी, सुख है/ सब ओर, सिर्फ सुख ही सुख/ ऐसा पहले तो ना था मगर/ आगे बस ऐसा ही होगा/ सुख के सिवा कुछ भी/ नहीं होगा/ मुझे उम्रकैद की सजा मिली/ क्योंकि मेरी आँखों में एक बूंद आँसू आया था/ उन्होंने मेरा जुर्म/ राजद्रोह बताया था.”

मुझे लगता है आज उनका ना होना साहित्य के माध्यम से जनतान्त्रिक मूल्यों के हिमायती बड़े व्यक्तित्व का जाना है। यह जानते समझते हुए कि वे इधर कुछ डिगी हुईं दिखीं थी। अन्त में विनम्र श्रद्धांजलि के साथ बस यही कि-‘जमाना बड़े गौर से सुन रहा था, तुम्हीं सो गए दास्तॉं कहते कहते’।

(डॉ. पूर्णिमा मौर्या मूलतः कवयित्री हैं। उनका एक कविता संग्रह ‘सुगबुगाहट’, एक आलोचना पुस्तक ‘कमजोर का हथियार’ तथा एक संपादित पुस्तक ‘दलित स्त्री कविता’ प्रकाशित है। वे दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘महिला अधिकार अभियान’ की कुछ दिनों तक कार्यकारी सम्पादक भी रहीं। उनकी कविताएं, लेख, टिप्पणियाँ विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं व पुस्तकों में छिटफुट प्रकाशित होती रहतीं हैं। 

सम्पर्क:drpurnimacharu@gmail.com)

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