लखनऊ। जन संस्कृति मंच की ओर से लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा के स्मृति दिवस की पूर्व संध्या पर 24 फरवरी को सालाना जलसा का आयोजन करन भाई सभागार, गांधी भवन, लखनऊ में किया गया। कार्यक्रम दो सत्रों में था। पहले सत्र में अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान तथा दूसरे सत्र में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। व्याख्यान का विषय था ‘भारतीय चित्रकला का सच’ और मुख्य वक्ता थे प्रसिद्ध चित्रकार और कला समीक्षक अशोक भौमिक।
भारतीय चित्रकला के संदर्भ में अशोक भौमिक ने कहा कि भारतीय कला का इतिहास तभी से शुरू होता है जब से हम इन चित्रों के बारे में जानना शुरू करते हैं। क्या रचे और कैसे रचे, इस संबंध में कविता व कहानी जैसी विधाओं से चित्रकला का अनुभव अलग है।
चित्रकला में वर्चस्व की सत्ता और सामाजिक शक्तियों की रुचियां प्रधान रही हैं।
अशोक भौमिक का आगे कहना था कि चित्रकला भारतीय जीवन से आवेग लेती हुई आगे बढ़ी है। इसी क्रम में स्वतंत्रता आंदोलन और जन संघर्षों से उसने गहरा असर लिया है। यह प्रतिरोध की कला और कलाकारों के कलाकर्म से हमें परिचित कराती है। 1848 में राजा रवि वर्मा आते हैं। अमृता शेरगिल के चित्रों में कहीं पर भी किसी देवी देवता को चित्रित नहीं किया गया है। टैगोर और अमृता शेरगिल इन मायनों में और चित्रकारों से अलग हैं। बाद में चित्तो प्रसाद, जैनुल आबेदीन, सोमनाथ होर आते हैं।
उनका यह भी कहना था कि आजादी के बाद सत्ता प्रतिष्ठानों में कला के लिए मिले स्पेस तथा अभिजन प्रवृत्ति ने कला को यथार्थ से दूर और जन विमुख किया है। यहां कला के लिए बाजार है। अभिजन वर्ग के ड्राइंग रूम में कला पहुंची। उनके लिए स्टेटस का सिंबल बनी। कला दीर्घाओं में आयोजित कला प्रदर्शनियां, अति महंगी कलाकृतियां और उसका बढ़ते बाजार ने अंततः कला को तथा कलाकार को बाजार के बिकाऊ माल में परिवर्तित कर दिया है। चित्र कमोडिटी है। चित्र को खरीदना, बेचना, नीलामी आज की हकीकत है। क्या इसे कविता या इस तरह की किसी विधा से जोड़ा जा सकता है? इस मायने में चित्रकला अन्य कलाओं से भिन्न है। कहें तो चित्रकला कला भी नहीं है। आजादी के पहले चित्रकला सबके लिए उपलब्ध थी। स्वयं को मुक्त किये बगैर कला की मुक्ति नहीं है । कलाएं हमें मुक्त करती हैं लेकिन आज वह निर्देशित है। इसलिए मुक्त नहीं है। यह दौर भारतीय कला का आत्मसम्मान विहीन दौर है।
अशोक भौमिक के व्याख्यान बाद प्रश्न सत्र में ब्रजेश यादव ने सवाल किया कि कला में हिन्दुत्व कब से आया ? अशोक भौमिक का उत्तर था कि देवी देवताओं के चित्र एवं मूर्तियां धर्म सत्ता के अधीन निर्मित हुईं। धर्म सत्ता और राज्य सत्ता के नियंत्रण में जो भी कला विकसित हुई, उसमें कलाकार स्वतंत्र नहीं था। इसलिए कलाकार अपने समाज, समय और अपना दुःख-सुख अभिव्यक्त नहीं कर सका। नाइश हसन ने एबस्ट्रैक्ट पेन्टिग के बारे में सवाल किया। पेन्टिग बहुत महंगी बिकती है पर समझ में नहीं आती। अशोक भौमिक का कहना था कि मानवतावाद-मार्क्सवाद मुख्य लक्ष्य है जिसमें बराबरी, न्याय, प्रेम और कला के उत्कर्ष के वास्तविक प्रतीक हैं। इसलिए कला में मनुष्य को खत्म कर दो। कुछ ऐसा रचो जो आम आदमी समझ ही न सके। यह अमेरिका और पश्चिमी दुनिया के पूंजीवादी सत्ता की साज़िश के तहत हुआ है। उन्होंने यह भी कहा अजन्ता, एलोरा और खजुराहो में जो भी कला दिखती है वह कलाकारों की स्वयं की अभिव्यक्ति नहीं है। राज्य सत्ता और धर्म सत्ता ने उनसे ऐसा करवाया है। इसलिए उसमें कला तो है पर कलाकार की निजी अभिव्यक्ति नहीं है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता आर्ट्स कॉलेज के कला अध्यापक व मूर्तिकार धर्मेन्द्र कुमार और जसम लखनऊ के अध्यक्ष कवि-आलोचक चन्द्रेश्वर ने की। संचालन कला अध्यापक आलोक कुमार ने किया। उन्होंने समकालीन कला के परिप्रेक्ष्य को रखते हुए कहा कि झूठ के दौर में कला के सच से रुबरु होना जरूरी है।
सत्र के आरंभ में भगवान स्वरूप कटियार ने अनिल सिन्हा पर लिखी कविता सुनाई । इस मौके पर साहित्यकार व सोशल एक्टिविस्ट वन्दना मिश्र ने अनिल सिन्हा के साथ की यादों को साझा किया। उनका कहना था कि उनके लेखन में उत्कृष्टता और जन पक्षधरता का मेल था। इससे तो हम परिचित हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की खूबियों पर गौर करने की जरूरत है। उनमें जहां वैचारिक दृढ़ता थी, वही विनम्रता भी थी। यही कारण है कि वे बहुतों को जसम से जोड़ने में सफल हुए। कह सकते हैं कि लखनऊ में वे जसम के पर्याय थे।
कार्यक्रम का आरंभ करते हुए जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कवि कौशल किशोर ने सभी का स्वागत किया और कहा कि अनिल सिन्हा अपने जीवन के अंतिम दिनों में तीन लेख लिखे जो उनकी वैचारिकी और रचनात्मकता का उदाहरण है। उनमें एक लेख था ‘खौफनाक समय में सतर्कता’। यह समय था जब विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इरोम शर्मिला अफ्स्पा के खिलाफ भूख हड़ताल पर थीं। गुजरात मॉडल को देश का मॉडल बनाया जा रहा था। अनिल सिन्हा आने वाले समय की आहट को महसूस कर रहे थे। आज खतरनाक हो रहे समय हम रूबरू हैं। कौशल किशोर ने ब्रेख्त और मुक्तिबोध को उद्धृत करते हुए कहा कि अगर चुनौतियां हैं तो उसके सामने खड़े होने का हमारे अंदर जज़्बा भी होना चाहिए। अपनी कोशिशें को तेज करने की जरूरत है। अनिल सिन्हा को याद करने का यही मतलब हो सकता है।
दूसरा सत्र सांस्कृतिक कार्यक्रम का था। डी पी सोनी व अंकुर ने वामिक जौनपुरी की नज़्म सुनाई जिसके बोल थे ‘गम की नांव चलती है/रात के समंदर में गम की नांव चलती है’। वहीं, शमशेर बहादुर सिंह की मशहूर कविता ‘ग्वालियर के मजूर’ की प्रस्तुति ने समां बांध दिया – ‘ये शाम है../ धुआं धुआं /सुलग रहा ग्वालियर के/ मजूर का हृदय’। जसम लखनऊ के अरविंद शर्मा ने दो गीत सुनाए। उनमें यश मालवीय का गीत ‘दबे पैरों से उजाला आ रहा है’ था। इप्टा के शहजाद रिजवी ने लोगों के आग्रह पर भोजपुरी गीत सुनाया जो ‘जवन देसवां में राम जइसन रजवा’ के द्वारा आज के हालात को बयां करता है। कार्यक्रम का समापन लोकगायक ब्रजेश यादव के गायन से हुआ। उन्होंने अपने धारदार गीतों से सत्र को नयी ऊंचाई प्रदान की।
इस सत्र का संचालन जसम लखनऊ के सह सचिव मीडियाकर्मी कलीम खान ने किया। जसम लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष उर्दू लेखक, आलोचक व इतिहासकार असगर मेहदी ने सत्र की अध्यक्षता की और सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया।
जन संस्कृति मंच का सालाना जलसा जन सांस्कृतिक मेला जैसा था। करन भाई सभागार के प्रांगण में लेनिन पुस्तक केंद्र द्वारा लगाई गई पुस्तक प्रदर्शनी लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। इसका संयोजन जसम लखनऊ के सचिव कथाकार फ़रज़ाना महदी ने किया। यहां नवरुण सहित आधा दर्जन प्रकाशनों की किताबें थीं। इसके साथ कथान्तर, प्रेरणा अंशु, समकालीन जनमत, अभिव्यक्ति आदि पत्रिकाएं भी थीं। इसी प्रांगण में धर्मेंद्र कुमार द्वारा लगाया गया इंस्टॉलेशन भी था।
इस मौके पर रमेश दीक्षित, शकील सिद्दीकी, शैलेश पंडित, उषा राय, नाइश हसन, तस्वीर नकवी, रुचि दीक्षित, इशरत नाहीद, अवंतिका सिंह, अशोक वर्मा, विमल किशोर, दयाशंकर राय, वजाहत हुसैन रिजवी, मोहम्मद उवैद सिद्दीकी, अशोक चंद्र, अनूप मणि त्रिपाठी, विनय श्रीवास्तव, अशोक श्रीवास्तव, मीना सिंह, लाल बहादुर सिंह, सत्य प्रकाश चौधरी, ओ पी सिन्हा, केके शुक्ला, अनिल कुमार श्रीवास्तव, अजीत प्रियदर्शी, आशीष सिंह, अजय शर्मा, राजीव कुमार, भूपेन्द्र अस्थाना, वीरेंद्र त्रिपाठी, अरुण खोटे, रमेश सिंह सिंगर, मधुसूदन मगन अनिल कुमार, आरके सिन्हा, कौशल किशोर (उन्नाव) ज्योति राय सहित अच्छी खासी संख्या में नौजवानों व साहित्य व कला प्रेमियों की उपस्थित थी।