रविभूषण
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेन्द्र मल लोधा ने 28 अगस्त 2018 को पुणे पुलिस द्वारा पांच विशिष्ट और प्रमुख सक्रियतावादियों के आवास से उन्हें गिरफ्तार करने को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक आक्रमण ’ कहा है। उनके अनुसार यह संवैधानिक लोकतंत्र के मूल आधार को नष्ट करने का कार्य और यह असहमति के स्वरों को कुचलने का प्रयास है।
विरोध, मतभेद और असहमति के बिना लोकतंत्र निष्प्राण है। प्रमुख ट्रेड यूनियनिस्ट, छत्तीसगढ़ पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल ) की महासचिव, वकीलों के एक समूह ‘जनहित’ की संस्थापक, आई आई टी कानपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त, नेशनल लाॅ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में विजिटिंग प्रोफसर, अठारह वर्ष की उम्र में अमेरिकी नागरिकता छोड़ने वाली, दलित और आदिवासियों की लड़ाई लड़ने वाली सुधा भारद्वाज, लेखक, सक्रियतावादी, ईपीडब्लू के पूर्व सलाहकार सम्पादक गौतम नवलखा, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक सक्रियतावादी, पूर्व प्रोफेसर वर्नान गोंजाल्विस, क्रांतिकारी लेखक संगठन ‘ विरसम ’ के संस्थापक, प्रमुख भारतीय क्रान्तिकारी कवि और आदिवासियों के अधिकार के लिए निरन्तर संघर्षरत वरवर राव और मानवाधिकार सक्रियतावादी, वकील एवं हाल में प्रकाशित ‘कलर्स आॅव द केज: ए प्रिजन मेम्वायर’ के लेखक अरुण फरेरा की 28 अगस्त की गिरफ्तारी की काफी निन्दा हुई है और देश के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शन जारी है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल और आॅक्सफैम इंडिया ने भी ; एक साझा बयान में इसकी निन्दा की है। ये गिरफ्तारियां राज्य की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं, वकीलों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों पर एक बड़ा आघात है। सुधा भारद्वाज और गौतम नवलखा का पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने और बाद में सबको सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी। न्यायालय के निर्णय के अनुसार अब ये पांचों पुलिस हिरासत में न रहकर पुलिस की निगरानी में 12 सितम्बर तक अपने घरों में रहेंगे।
पुणे पुलिस के पास इन सबको गिरफ्तार करने का आधार क्या था ? पांच राज्यों ;दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखण्ड, गोवा और तेलंगानाद्ध के पांच शहरों – दिल्ली, मुम्बई, रांची, गोवा और हैदराबाद में इन पांच व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के यहां छापेमारी का क्या कारण था ? रांची में फादर स्टेन स्वामी के घर और कार्यालय में छापेमारी हुई। आनन्द तेलतुम्बड़े देश के प्रमुख दलित चिन्तक, स्तम्भकार ;हिन्दी मासिक पत्र ‘समयान्तर’ के नियमित स्तम्भकार, नागरिक अधिकार सक्रियतावादी और गोवा के इन्स्टीच्यूट आॅफ मैनेजमेन्ट में प्रोफेसर हैं। उनकी नयी पुस्तक ‘रिपब्लिक आॅफ कास्ट’ है। उनके गोवा स्थित आवास पर उनकी अनुपस्थिति में पुणे पुलिस के जाने का क्या कारण था ?
पुणे पुलिस ने पांच व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। यह गिरफ्तारी आठ महीने पहले की घटना से जुड़ी थी। 1 जनवरी 2018 को कोरेगांव भीमा में जातीय दंगे भड़के थे जिसमें एक की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे। भीमा कोरेगाांव की हिंसा का मुख्य कारण पुलिस ने एलगार परिषद और नक्सलियों को माना था। एलगार परिषद के आयोजकों में से एक सेवा निवृत न्यायाधीश बी जी कोलसे ने इस परिषद के नक्सलियों से किसी भी प्रकार के संबंध को खारिज किया है।
29 अगस्त को पुणे की एक पब्लिक मीटिंग में कड़े शब्दों में परिषद पर लगाये गये आरोप का उन्होंने खंडन किया। पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये प्रमुख व्यक्तिों में से किसी का भीमा कोरेगांव की घटना से कोई संबंध नहीं था। उस समय इनमें से एक व्यक्ति भी वहां उपस्थित नहीं था। किसी पर कोई प्राथमिक सूचना रिपोर्ट (एफ आई आर) भी दर्ज नहीं थी। आठ महीने बाद पुणे पुलिस की नींद टूटने का कारण क्या था ? प्रधानमंत्री की हत्या से संबंधित पत्र था या और कुछ ? उस पत्र को हास्यस्पद सिद्ध कर दिया गया है।
29 अगस्त को पुणे कोर्ट में सार्वजनिक अभियोक्ता (पब्लिक प्रोसेक्यूटर) ने इन पांच व्यक्तियों द्वारा एक दिन पहले ‘फासिस्ट विरोधी मोर्चा’ के गठन की बात कही। सभी अभियुक्तों द्वारा ‘अखिल भारतीय संयुक्त मोर्चा’ के गठन को ‘ फासिस्ट विरोधी मोर्चा ’ की बात पहले अभियोक्ता उज्जवला पवार ने कही (टेलिग्राफ, 30अगस्त 2018)
रोमिला थापर, प्रभात पटनायक और अन्य तीन प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र, चन्द्रचूड़ और खांडवलेकर की पीठ ने अन्तरिम आदेश दिया। यह आदेश पुलिस के पक्ष में नहीं था। इस आदेश में ही गिरफ्तार लोगों को पुलिस की निगरानी में अपने-अपने घरों में रहने को कहा गया। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने असहमति को ‘ लोकतंत्र का ‘सेफ्टी वाल्व’ कहा। उनका यह कथन याद करना चाहिए। दबाने से प्रेशर कुकर फट सकता है।
प्रश्न यह है कि राज्य सामान्य जनों, नागरिक अधिकारों, दलितों और आदिवासियों की लड़ाई लड़ने वालों को क्यों हिरासत में लेना और रखना चाहता है ? इन आवाजों को बन्द करने का अर्थ ‘डेमोक्रेसी’ को समाप्त करना है। रामचन्द्र गुहा ने कहा है कि अगर आज गांधी होते तो सुधा भारद्वाज के साथ होते। लोकतंत्र में मानव अधिकारों और संविधान का रक्षक और पहरेदार सुप्रीम कोर्ट है। अपने को कोई ‘रखवाला’ और ‘ चौकीदार’ कह सकता है, पर आवश्यक नहीं है कि उसकी रखवाली और चौकीदारी भी ठीक हो, सही हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अम्बेडकर के प्रशंसक हैं। वे बार-बार अपने भाषणों में अम्बेडकर को याद करते हैं, उन्हें उद्धृत करते हैं और दूसरी ओर, देश में अभी अम्बेडकर के सबसे बड़े ज्ञाता और विद्वान अधिकारी आनन्द तेलतुम्बड़े के यहां छापा मारा जाता है। दूसरी ओर भीमा कोरेगांव का जो मुख्य अभियुक्त है, अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। क्यों नहीं हुई ?
पुलिस महानिरीक्षक विश्वास नानगरे पाटिल की रिपोर्ट के अनुसार भीमा कोरेगांव घटना (जातीय हिंसा) में शिव प्रतिष्ठान हिन्दुस्तान के प्रमुख संभा जी भिडे और समस्ता हिन्दू अघाड़ी के अध्यक्ष मिलिन्द एकबोटे की भूमिका थी। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार इस हिंसा का संबंध हिन्दुत्व सक्रियतावादी सम्भा जी भिडे और मिलिन्द एकबोटे से था। यह हिंसा पूर्व नियोजित थी और इसका एलगार परिषद से कोई संबंध नहीं था। संभा जी भिडे 1980 तक आर एस एस से जुड़े रहे थे। 1984 में उन्होंने एक अलग संस्था ‘शिव प्रतिष्ठान’ गठित की। ‘भिंडे गुरुजी’ के नाम से महाराष्ट्र में लोकप्रिय संभा जी मुडे ‘हिन्दुत्ववादी’ हैं। नरेन्द्र मोदी उनका सम्मान करते हैं। उन्हें अपना ‘प्रेरणा स्थान’ मानते हैं। ‘श्री शिव प्रतिष्ठान हिन्दुस्थान’ कट्टर हिन्दुत्व पर आधारित संगठन है। भिड़े गुरु जी के अनुयाइयों की संख्या लाखों में है। 2009 में उनके संगठन ने अन्य संगठनों के साथ ‘जोधा अकबर’ फिल्म का विरोध किया था। संभा जी भिड़े ने कोरेगांव हिंसा के कुछ दिन पहले दलितों के खिलाफ सवर्णों को ‘चेताया’ था।
इस हिंसा के विरोध में प्रकाश अम्बेडकर ने 3 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र बंद का आहवान किया था और भिंडे की गिरफ्तारी की मांग की थी। कोरेगांव हिंसा की जांच के लिए महाराष्ट्र सरकार ने जो ‘सत्यशोधक समिति’ गठित की थी, उसने संभा जी भिडे को उस हिंसा का मुख्य सूत्रधार एवं आरोपी माना था। पुणे के पिपरी पुलिस स्टेशन में भिडे और हिन्दू एकता अघाड़ी के मिलिन्द एकबोटे पर केस दायर किया गया था। एकबोटे पर दो एफ आई आर दर्ज था। पुलिस ने इन दोनों में से किसी को अब तक गिरफ्तार नहीं किया है जो उनके सामने है पर पुणे की पुलिस पांच राज्यों में पांच व्यक्तियों को कोरेगांव घटना से जुड़ने के कारण दौड़ पड़ी जबकि उस घटना से इनमें से किसी का कोई संबंध नहीं था जिन्हें पुलिस गिरफ्तार कर रही थी। भिडे को गिरफ्तार करने के आदेश के बाद भी भिडे की गिरफ्तारी नहीं हुई। रांची के स्टेन स्वामी कभी महाराष्ट्र नहीं गये, पर उनके आवास और कार्यालय में छापेमारी हुई। गलत को बचाने और सही को फंसाने का यह कार्यक्रम विविध स्तरों पर जारी है। फिलहाल उसमें कमी आने की संभावना दिखाई नहीं देती। जनदबाव से ही सरकार चेतेगी।
बुद्धिजीवी, पत्रकार, समाज सेवक, सक्रियतावादी, वकील आदि पर घेरा कसा जा रहा है। सरकार नहीं चाहती कि उसके खिलाफ कहीं से कोई आवाज उठे। दलित और आदिवासी की लड़ाई लड़ने वालों को चुप करा दिया जाय। वकील जब स्वयं घिरेंगे तो कमजोरों की लड़ाई न्यायालय में कौन लड़ेगा ? ‘न्यू इंडिया’ को ‘साइलेन्ट इंडिया’ में बदलने की कोई भी कोशिश क्या लोकतंत्र और संविधान विरोधी नहीं है ? आम जनता के मुद्दों से, जिनके पास आवाज नहीं है, उनकी आवाज बनने और उसे उठाने वालों से, सवाल पूछने वालों से, हिसाब मांगने वालों से, तर्क व बहस करने वालों से, जन चेतना जाग्रत करने वालों से सरकार को खतरा है। उसके पास दमन के कई हथियार हैं। क्या कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास करने वाले आतंकी हैं ? अपने को सही, महान, राष्ट्रभक्त कहना और विरोधियों को गलत और राष्ट्रद्रोही कहना लोकतंत्र की हत्या है।
शब्द गढ़ने में वर्तमान सरकार का कोई जवाब नहीं है। ‘अर्बन माओवादी’ एक नया शब्द है। 7 जून 2018 को पुणे पुलिस ने रोना विल्सन, सुरेन्द्र गाडलिंग, महेश राउत, सोमा सेन और सुधीर धावले को गिरफ्तार किया था। ‘शहरी नक्सली’ और ‘शहरी माओवादी’ नये शब्द हैं। अपने से असहमत लोगों और अपने विरोधियों को ‘माओवादी’ कहना आसान है। जो हिंसा में शामिल नहीं है, जो हिंसक कार्रवाइयों में लिप्त नहीं हैं, उन्हें किसी भी तर्क से ‘माओवादी’ सिद्ध नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में विरोध को दबाना विस्फोट पैदा करना है। इतिहास प्रमाण है कि बड़ा से बड़ा तानाशाह भी सबको चुप नहीं करा सकता। बिना ठोस प्रमाण के ;शंका और संदेह पर किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह आतंकवादी सत्ता ही कर सकती है।
सुप्रसिद्ध वकील राजीव धवन ने कहा कि सुधा भारद्वाज जिस एन जी ओ के लिए छत्तीसगढ़ में कार्य करती हैं, उसकी फडिंग वे करते हैं। इसलिए अब उनकी बारी है। वरवरा राव पर पिछले कई दशकों में बीस से अधिक आपराधिक मुकदमें दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकांश में वे छूट चुके हैं।
शहरों में मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, सक्रियतावादी, वकील, कवि-लेखक सब रहते हैं। मीडिया सरकार के हाथ में है। ये सब मिल-जुलकर सही आवाज नहीं उठायें, इसके लिए सरकार के पास एक नायाब तरीका है कि उन्हें ‘शहरी नक्सली’ और ‘शहरी माओवादी’ घोषित कर दिया जाय। प्रचार-प्रसार तंत्र सरकार के हाथ में है। इसका यह परिणाम होगा कि धीरे-धीरे विरोध घटता जायेगा। पर भारत जैसे देश में यह संभव नहीं है। अभियोग लगाना आसान है। उसे सिद्ध और प्रमाणित केवल कोर्ट में ही किया जा सकता है और इस देश की न्यायपालिका अभी लोकतंत्र और संविधान के साथ है। उसके पक्ष में है।
इन गिरफ्तारियों के कई कारण हैं, अनुमान भी है। आगामी लोकसभा चुनाव से पहले बौद्धिकों को भयभीत करना है। सही बातों के प्रचार-प्रसार को रोकना है। यह सब एक सुनियोजित कार्यक्रम के तहत है। ईसाई, मुसलमान, और कम्युनिस्ट संघ के ‘आन्तरिक शत्रु’ हैं। सही आवाजें ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनने/बनाने में बाधक हैं। फिलहाल अघोषित आपातकाल है। जब मााओवाद शहर में फैल जाय तो घोषित आपातकाल भी लग सकता है। इन्दिरा गांधी ने भी तो लगाया था। सनातन संस्था से ध्यान हटाना भी एक कारण हो सकता है। कारण जो भी हो, सच्चाई यह है कि लोकतंत्र में आवाजों को रोका नहीं जा सकता। प्रशान्त भूषण का कहना है कि ‘फासीवादी शक्तियां अब खुलकर सामने आ गयी हैं’। अपने विरोधियों को, सत्यवादियों को, सही अर्थों में राष्ट्रवादियों को ‘माओवादी’ कहना पहले नहीं था। ‘अरबन नक्सल’ और ‘माओवाद’ का जुमला संवाद और असहमति को खत्म करने के लिए है। संकट मे लोकतंत्र और संविधान है। अब इसकी रक्षा करने वाली ताकतें अलग-थलग नहीं रह सकतीं।