चित्रकला युगों से धनिकों की पृष्ठपोषकता में ही विकसित होती रही है, यह सच नहीं है. पर यह जरूर एक महत्वपूर्ण सच है कि धनिकों की रूचि और प्राथमिकताओं को ध्यान में रख कर बनाये गए चित्रों को ही प्राथमिक रूप से चित्रकला के संग्रहालयों, कला दीर्घाओं और अकादमियों द्वारा संगृहित और प्रोत्साहित किया जाता रहा है. इस प्रकार आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग की रूचि के अनुसार ही कला के मानकों को तय करने की कोशिश की जाती रही है.
आज भी यह कोशिश बखूबी जारी है। यह वही वर्ग है ,जो एक निश्चित अवधि के बाद किसी भी कला कृति को दुर्लभ पुरावस्तु (एंटीक) के रुप में तब्दील कर उसकी कीमत बढ़ा लेने में सक्षम रहा है. इसीलिए, हम पाते हैं कि बाज़ार, सबसे पहले एक जीवित चित्रकार की कृतियों की माँग और कीमत को सुनियोजित ढंग से बढ़ाता है और कलाकार की मृत्यु के बाद जब माँग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ने लगे तो प्राथमिक तौर पर दिवंगत चित्रकारों के नकली चित्र बना कर उस माँग को पूरा करने की कोशिश करता है. साथ ही उसे ‘दुर्लभ’ घोषित कर लगभग ‘एंटीक’ या पुरावस्तु बना देता है।
वैसे, सीमित क्षमता के संग्राहकों की रूचि पर आम तौर पर भरोसा किया जा सकता है क्योंकि वे मूलतः ‘कला प्रेमी’ होते हैं और अपनी रूचि के आधार पर चित्रों को पसंद या नापसंद करते हैं. पर कला में निवेश करने वाले बड़े निवेशक चित्रकला को केवल ‘दुर्लभ’ होने के आधार पर ही ऊँची कीमत लगाते हैं और यही चित्रकला का सबसे निकृष्ट और कुरुचिपूर्ण पक्ष है, क्योंकि ऐसे निवेशक ही चित्रकला के मानक बदल देते हैं. आम कला प्रेमी यह सोच कर, कि ‘ ऊँची कीमत पर बिकने वाला चित्र निश्चय ही महान होगा’ ; ऐसे चित्रों को महान मान बैठता है और नए चित्रकार भी इसी समझ के साथ कृति को ‘ अनुकरणीय ‘ मान लेता है. ऐसे ही, एक समाज में चित्रकला आम जनता से कट जाती है. चित्रकार चित्रों को बेचने के चक्कर में दिशाहीन हरकतों में उलझे रहते हैं और बाज़ार अपनी गति से विकसमान बना रहता है.
आश्चर्य होता है, कि हम यहाँ जो चर्चा कर रहे हैं वह एक कला रूप पर चर्चा है, जो न केवल मनुष्य की आदिमतम अभिव्यक्ति ही है ; कहानी, कविता, रंगमंच, संगीत आदि जैसी ही अपने आप में एक स्वतंत्र कला है. सदियों से चित्रकला एक ऐसी कला रही है जिसके प्रशिक्षण के लिए कला विद्यालय , संरक्षण के लिए संग्रहालय, प्रदर्शन के लिए कला वीथिकाएँ और प्रोत्साहन के लिए बनी सरकारी गैरसरकारी कला अकादमियाँ बनती रही हैं. साथ ही यह भी सच है कि चित्रकला ही एक मात्र कला रूप है जहाँ ‘ नकली ‘ चित्र बनाने का सदियों पुरानी परंपरा आज भी जीवित है. जहाँ पैसों के बल पर किसी भी मामूली चित्रकार को विश्वप्रसिद्ध सिद्ध किया जा सकता है और अपने धूर्त राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पैसों के दम पर पूरी दुनिया में कला की परिभाषा ही बदल दी जा सकती है.
सदियों से कला का मूल्यांकन आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग के पास रहा है क्योंकि उनके पास ही कला को ‘खरीदने’ का सामर्थ्य है. यहाँ हम कला-व्यापार के आरंभिक दौर के एक दस्तावेजी चित्र पर बात करेंगे , जिसे डेविड टेनियर ने 1651 में बनाया था. लगभग पाँच सौ साल पहले बनाये गए इस चित्र में ब्रसेल्स के एक कला व्यापारी आर्चड्यूक लियोपोल्ड विल्हेम की गैलरी को चित्रित किया गया है. गैलेरी बहुत बड़ी तो नहीं है पर इसकी छत काफी ऊँची है , जिसके कारण विशाल संख्या में चित्रों को प्रदर्शित करना संभव हो सका है. इस चित्र में, बिक्री के लिए प्रदर्शित चित्रों के साथ साथ ( बिजली की रौशनी के आविष्कार से पहले ) चित्रों को प्रकाशित करने के प्राकृतिक प्रकाश का सहारा लेने के लिए विशाल खिड़कियों का होना गौरतलब है. चित्र में कला व्यापारी के साथ साथ कई क्रेता भी मौजूद हैं. इन लोगों को देख कर हम सहज ही इनके वर्ग को पहचान सकते हैं.
चित्र में इन क्रेताओं के साथ दो ऊँची नस्ल के कुत्ते भी दिखते हैं. वास्तव में, इस दौर के चित्रों में समाज के ऊँचे वर्ग के लोगों को ख़ास वेशभूषा में दिखाया गया है. साथ ही उनके साथ प्रायः ऊँची नस्ल के घोड़ों , ऊँची नस्ल के कुत्तों को भी दिखाया जाता रहा है. इस चित्र में भी दो कुत्तों की उपस्थिति उस वर्ग का परिचायक है.
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