समकालीन जनमत
पुस्तक

पीटर ग्रे की दृष्टि में शिक्षा का प्रतिदर्श

राम विनय शर्मा


शिक्षा मनुष्य के चहुँमुखी विकास का सबसे प्रमुख माध्यम है। विद्वानों ने शिक्षा को तरह-तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया है। फिर भी अभी तक ऐसी परिभाषा नहीं बनी है, जिसका अनुसरण करके हम शिक्षित होने का दावा कर सकें। शिक्षा कहाँ और कैसे मिलती है? क्या इसका कोई एक केन्द्र और नियम होता है? क्या बच्चों के स्कूल ही शिक्षा का एकमात्र केन्द्र है, जहाँ एक ही ढर्रे पर सब कुछ चलता रहता है? क्या बार-बार दिशा-निर्देश और टोका-टाकी करना शिक्षा के लिए ज़रूरी है? दरअसल शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए जीवन के किसी विशेष कालखण्ड और स्थान का होना अपरिहार्य नहीं है। शिक्षा के औपचारिक एवं अनौपचारिक दो रूप हैं। सरकारी नौकरी के लिए औपचारिक शिक्षा भले ज़रूरी हों, लेकिन वह शिक्षा का अकेला माध्यम नहीं है। औपचारिक शिक्षा ही किसी को ज्ञानी बना दे, यह भी जरूरी नहीं है। जीवन में हम बहुत कुछ स्कूल और शिक्षक के बिना अनौपचारिक ढंग से सीखते हैं। शिक्षा के सन्दर्भ में बात करें, तो उसमें ज्ञान से अधिक सीखने पर अधिक बल दिया जाना चाहिए, जबकि व्यवहार में इसके विपरीत देखने को मिलता है। ज्ञान और सीखना एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। ज्ञान एक यान्त्रिक क्रिया है, जबकि सीखना जीवन्त प्रक्रिया। जब तक शिक्षा हमें संस्कारित, संवेदनशील तथा जीवन की चुनौतियों से जूझने के योग्य न बनाये, वह हमारे लिए सूचनाओं का पुंज मात्र है। ज्ञान का भाव से समृद्ध होना शिक्षा के लिए बहुत आवश्यक है।
शिक्षा के लिए ऐसा वातावरण चाहिए, जहाँ विद्यार्थी बिना झिझक आपस में बातें कर सकें और खुलकर खेल सकें। खेलना केवल मनोरंजन करना या समय बिताना नहीं है। खेलना एक सकारात्मक एवं सार्थक क्रिया है, जिसके द्वारा बच्चे बहुत कुछ सीखते हैं और साथ ही उनमें सामाजिकता का भी विकास होता है। पारस्परिक संवाद से नये विचारों को जानने, नयी खोज करने और लोकतन्त्र का स्वाद चखने के लिए खेल ज़रूरी है। दुर्भाग्य से पूरी दुनिया में शिक्षा की जो प्रणाली विकसित की गयी, उसमें बच्चों के स्वतः सीखने पर जोर देने की बजाय रटने पर ज्यादा जोर दिया जाता है। इससे बच्चों की कल्पना-शक्ति का समुचित विकास नहीं होने पाता। ऐसे में वर्तमान स्कूली शिक्षा प्रणाली को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने और उसे बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास के अनुकूल बनाने की ज़रूरत है। सुप्रसिद्ध अमेरिकी शिक्षा मनोवैज्ञानिक पीटर ग्रे ने अपनी पुस्तक ‘शिक्षा का अर्थ’ में शिक्षा के संक्षिप्त इतिहास पर प्रकाश डालते हुए खेल को सीखने का सबसे शक्तिशाली माध्यम बताया है। उनका कहना है कि घुमन्तू संस्कृतियों में खेलों और खोजों के जरिये ही सीखने की प्रक्रिया विकसित होती रहती थी। शिकारी संग्राहक जीवन-शैली को वे कौशल एवं ज्ञानकेन्द्रित बताते हैं तथा काम और खेल के बीच कोई फर्क नहीं देखते। कौशल और ज्ञान का विकास तभी सम्भव है, जब कोई व्यक्ति कल्पना-शक्ति के सहारे नयी युक्तियाँ ढूँढ़ता है। दूसरी तरफ पीटर ग्रे जब खेती और उद्योग को श्रमकेन्द्रित बताते हुए इन्हें संपत्ति आधारित व्यवस्था कहते हैं, तो उनका मन्तव्य बहुत स्पष्ट है।
पीटर ग्रे कहते हैं कि संपत्ति आधारित व्यवस्था ने दासप्रथा और पराधीनता के विविध रूपों को जन्म दिया। इस व्यवस्था में स्वामी के आदेश का पालन करने, अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित रखने तथा स्वामी एवं सरकार का आदर करने को ही परम कर्तव्य माना जाता है। धीरे-धीरे यह व्यवस्था व्यक्ति को यन्त्रवत् बना देती है, जहाँ उसके लिए सोचने-विचारने की गुजाइश ही नहीं बचती। इच्छा-आकांक्षाओं और कल्पना के लिए भी यहाँ कोई जगह नहीं होती। पीटर ग्रे का कहना है कि खेती के आगमन के बाद ‘बच्चों की शिक्षा का अर्थ था-उनकी इच्छाओं को तहस-नहस कर उन्हें अच्छा श्रमिक बनाना।’ इच्छाओं को तहस -नहस करने का मतलब है बच्चों को सीखने की क्रिया से विमुख करना। सीखने की क्रिया इच्छा के बिना सम्भव हो ही नहीं सकती। स्वतन्त्र परिवेश भी इसके लिए आवश्यक होता है। आधुनिक शिक्षा की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसमें रट्टा मारने और परीक्षा लेने को बच्चों के मस्तिष्क में ज्ञान रोपने की एकमात्र विधि समझा जाता है। यहाँ सीखने पर बल नहीं दिया जाता। बच्चों की इच्छाओं का अनादर और उन पर नियन्त्रण करने तथा दण्ड को शिक्षण-प्रक्रिया का अंग बनाने का परिणाम यह हुआ कि शिक्षा की समूची प्रक्रिया यान्त्रिक एवं अलोकतान्त्रिक हो गयी। इस शिक्षा-पद्धति ने लोगों के मन में खेलों के प्रति तिरस्कार का भाव उत्पन्न कर दिया। कुल मिलाकर आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में लीक से हटकर सोचने की प्रवृत्ति कुन्द हुई। मानव इतिहास द्वारा प्रदत्त विद्यालयों के आज के स्वरूप पर पीटर ग्रे ने अपनी निराशा व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘आधुनिक स्कूल के जिस रूप को आज हम जानते हैं, उसकी जड़ें प्रोटेस्टेंट सुधारों तक जाती हैं। इन सुधारकों की मान्यताओं के अनुसार हर ईसाई की यह धार्मिक जिम्मेदारी है कि बच्चों को पढ़ना सिखाये ताकि वह बाइबिल पढ़ सके। इसके अलावा बच्चों के दिमाग में चुनिन्दा मान्यताओं को रोपना भी उनकी धार्मिक जिम्मेदारियों में शामिल था।’ इस पद्धति ने आज्ञाकारिता के महत्व को स्थापित किया है।
शिक्षा का उद्देश्य यदि बच्चों के मन में सिर्फ़ धार्मिक मान्यताओं को रोपने तक सीमित होगा, तो इससे नवाचार को बढ़ावा नहीं मिल सकता। इसलिए एक आधुनिक, प्रगतिशील और लोकतान्त्रिक समाज के निर्माण के लिए शिक्षा को धार्मिक मान्यताओं से पृथक् रखने की आवश्यकता होती है। पीटर ग्रे की इस पुस्तक में शिक्षा के बारे में विवेकपूर्ण ढंग से सोचने का आग्रह मिलता है। धार्मिक ग्रन्थों की शिक्षा तर्क और विवेक को महŸव नहीं देती। पीटर ग्रे ने लूथर एवं अन्य सुधारवादी नेताओं को उद्धृत करते हुए लिखा है कि उन्होंने ‘सार्वजनिक शिक्षा को ईसाई धार्मिक कर्तव्य बताते हुए जोर दिया कि नर्क की लपटों से अपनी आत्मा को बचाने का यही एक रास्ता है।’ ऐतिहासिक घटनाएँ इस तथ्य का समर्थन नहीं करतीं। उस शिक्षा का क्या अर्थ, जो व्यक्ति को संकीर्ण एवं कट्टर बना दे। पीटर ग्रे कहते हैं कि ‘बच्चे तभी पढ़ना चाहते हैं, जब वे सचमुच पढ़ना चाहते हैं।’ इसका मतलब है पढ़ने के लिए इच्छा का होना ज़रूरी है। सीखने की चाहत नहीं होगी, तो शिक्षा पूरी नहीं हो सकती। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के मन में आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करना है। उसका कार्य बच्चों को भावनात्मक रूप से लचीला तथा अवश्यम्भावी दबावों एवं हताशाओं से उबरने में सक्षम बनाना है। इसी के साथ शिक्षा का यह भी दायित्व है कि वह बच्चों में अपने साथ दूसरों की खुशियों में शामिल होने की इच्छा पैदा करे। बच्चों को सामाजिक बनाने के लिए यह ज़रूरी है। बदलती दुनिया में खुद को ढाल पाने की क्षमता पर भरोसा दिलाना और लक्ष्य को हासिल करने का जुनून पैदा करना भी शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा बच्चों के भीतर तार्किक क्षमता, सही निर्णय लेने की सामथ्र्य तथा नैतिक मूल्यों का विकास करती है, साथ ही वह बच्चों को मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील भी बनाती है। यदि शिक्षा उपर्युक्त कार्यभार का समुचित निर्वहन नहीं करती, तो उसकी कोई अर्थवत्ता नहीं रह जाती। इसीलिए गाँधीजी ने शिक्षा को मनुष्य की आत्मा के चहुँमुखी विकास का साधन बताया है।
पीटर ग्रे का कहना है कि कि ‘शिक्षा का उद्देश्य जीवन में सार्थकता की खोज ही होता है और हर व्यक्ति को इसे अपने लिए स्वयं ईजाद करना पड़ता है।’ बच्चों में स्वयं से सीखने की क्षमता का विकास होना आवश्यक है। जब बच्चा स्वयं के प्रयास से सीखता है, तो इस प्रक्रिया में वह लीक से हटकर कई नयी चीजों के बारे में सोचता और ढूँढ़ता है। तब उसके भीतर अनुसंधान की प्रवृत्ति का विकास होता है। इसके लिए परिवार, समाज और संस्थाओं से पर्याप्त अवसर अपेक्षित है। उनका मानना है कि वातावरण का निर्माण करना समाज का, जबकि बच्चों की शिक्षा स्वयं उनका दायित्व है। जब तक बच्चे के भीतर सीखने की ललक नहीं होगी, वह कुछ भी नहीं सीख सकता। शिक्षा के लिए मातृभाषा सबसे अनुकूल माध्यम है। पीटर ग्रे कहते हैं कि ‘बच्चे चार वर्ष के होते-होते अपनी मातृभाषा में पारंगत हो जाते हैं। इस उम्र में वे बातचीत में शब्दों के अर्थों व व्याकरण के नियमों की बारीक़ जानकारी का प्रदर्शन करने लगते हैं।’ मातृभाषा के साथ उनकी आत्मीयता स्थापित हो जाती है। ऐसे में उन्हें किसी भी भाव-विचार को प्रकट करने में कठिनाई नहीं होती। ‘नोम चोम्स्की ने बहुत पहले बता दिया था कि बच्चे भाषा को समझने व गढ़ने की स्वाभाविक क्षमता के साथ पैदा होते हैं, लेकिन अलग-अलग भाषाओं के सहबद्ध और नियम अलग-अलग होने के कारण उन्हें स्पष्टतः सीखना ही पड़ता है।’ सीखना एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। बचपन के सीखने का अलग ही महŸव है। इसमें सहजता होती है। इस अवस्था में बच्चा अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप भाषा और क्रिया का व्यवहार करना सीखता है, जो जीवनपर्यन्त उसके साथ बना रहता है। ‘बच्चों के लिए चलने की भाषा सीखना भी एक खेल है।’ कोई बच्चों को चलना नहीं सिखाता। वे अपने प्रयास से चलना सीखते हैं। जब वे चलना सीख रहे होते हैं, तो उस दौरान वे आसपास की बहुत- सी चीजों के सम्पर्क में आते हैं। इस तरह सीखने की प्रक्रिया में वे अपने निकटतम परिवेश से भी परिचित होते जाते हैं।
परिवेश और सीखने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। बच्चे का परिवेश उसके सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। ‘छोटे बच्चों की खोज का बुनियादी लक्ष्य वह सब सीखना होता है, जिससे वे अपने परिवेश को नियन्त्रित कर सकें।’ इससे उनके भीतर आत्मविश्वास पैदा होता है। सीखना तभी सफल कहा जा सकता है, जब उसमें आत्मविश्वास भरा हो। सीखने की समूची प्रक्रिया में लोकतान्त्रिक सामाजिक वातावरण की आवश्यकता पर बल देते हुए पीटर ग्रे कहते हैं कि समूह में खेले जाने वाले खेल सामाजिक और नैतिक शिक्षा का आधारभूत प्राकृतिक ढंग होते हैं। खेलों से सामुदायिक भावना का विकास होता है, जो व्यक्ति एवं समाज दोनों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है। इससे व्यक्ति के भीतर नागरिक भावना विकसित होती है और वह स्वयं से ऊपर उठकर समाज के बारे में सोचता है। ‘खेल एक अवधारणा है जो हमारे दिमाग़ को तब अन्तर्विरोधों से भर देती है, जब हम इसके बारे में गहराई से सोचने की कोशिश करते हैं।’ बच्चे के सामने और उसके आसपास अनेक प्रकार की स्थितियाँ और प्रादर्श होते हैं। उसके सामने चयन की भी समस्या होती है। इसलिए पीटर ग्रे जब कहते हैं कि मनुष्य को जानवरों की अपेक्षा कहीं अधिक सीखने की आवश्यकता है, तो वे इसी जटिलता की तरफ संकेत कर रहे होते हैं। सार्वभौमिक और विशिष्ट कौशलों को सीखना इतना सरल नहीं होता। इसके लिए मनुष्य को जैविक रूप से तैयार होना पड़ता है। इस सन्दर्भ में पीटर ग्रे कहते हैं कि ‘बच्चे जैविक रूप से इस तरह तैयार होकर जन्म लेते हैं, ताकि वे अपनी मातृसंस्कृति में एक सफल वयस्क बनने के लिए ज़रूरी कौशल सीख सकें।’ आवश्यकता होती है बच्चे के भीतर छिपे कौशल को उभारने अथवा उन्हें उभरने के लिए समुचित अवसर प्रदान करने की। खेल सिर्फ़ शारीरिक नहीं होते। उनके कई प्रकार होते हैं और वे विभिन्न स्तरों पर खेले जाते हैं। पीटर ग्रे ने खेलों को शारीरिक के अतिरिक्त रचनात्मक, भाषाई, काल्पनिक या नकली, सामाजिक तथा औपचारिक नियमों वाले खेल के रूप में वर्गीकृत किया है।
बच्चे के भागने, उछलने, जूझने, बनाने, किलकारी भरने और तुतलाने को सीखने की प्रक्रिया के अन्तर्गत ही रखकर देखना चाहिए। नयी सम्भावनाओं पर विचार करना, भाषाई दक्षता में तदनुरूप विकास करना, अपनी क्षमता का अभ्यास करना, समझौता करना, सुलह करना तथा दूसरों की जरूरतों को स्वीकार करना भी सीखना ही है। वस्तुतः ‘हम तीव्र सामाजिकता वाली प्रजाति हैं। सहयोग और साझेदारी के दम पर ही हमारा अस्तित्व है और सामाजिक खेल बच्चों में इस सामाजिकता का बीजारोपण करते हैं।…इस कौशल को पढ़ाया नहीं जा सकता। इसे केवल अनुभव से ही हासिल किया जा सकता है और बच्चों को यह अनुभव मुख्य रूप से खेलों से ही मिलता है।’ खेल कौशल अर्जित करने के लिए प्रकृति का एक माध्यम है। यह बच्चे को वयस्क के रूप में तैयार करना सुनिश्चित करता है। यही नहीं, धरती में जीवन को उपयोगी बनाने में भी यह सहायता करता है। खेल अपनी परिभाषा में ही स्वनियन्त्रित एवं स्वनिर्देशित होता है। जब बचपन की स्वतन्त्रता आजीविका के निर्माण काल में रूपान्तरित होकर व्यक्ति को खेलों से विमुख करती है, तो इससे मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। स्वयं पर नियन्त्रण न होना भी चिन्ता एवं अवसाद को जन्म देता है।’ दुश्चिन्ता एवं अवसाद की स्थितियाँ आत्महत्या की ओर प्रेरित करती हैं। ऐसे में खेल व्यक्ति को न सिर्फ़ अवसाद से मुक्ति दिलाने में सहायता करते हैं, बल्कि वे उसे सामाजिक भी बनाते हैं। व्यक्ति का सामाजिक होना भी उसका एक महत्वपूर्ण दायित्व है।
पीटर ग्रे मानव मनोविज्ञान को गहराई से समझते हैं। खेल को सीखने का प्रमुख माध्यम बताना मनोवैज्ञानिक सत्य है। इसीलिए इस पुस्तक में उन्होंने खेलों के साथ उन्मुक्त जनतान्त्रिक वातावरण के निर्माण पर खास जोर दिया है। यही नहीं, पीटर ग्रे इस बात अफसोस जाहिर करते हैं कि हमने बच्चों के लिए एक खराब दुनिया बनायी है। युवाओं में आत्ममुग्धता के बढ़ने तथा रचनात्मक सोच एवं समानुभूति में कमी को वे एक गम्भीर समस्या के रूप में देखते हैं। पीटर ग्रे हमें अपनी प्राथमिकताओं में जाँच-पड़ताल करने का सुझाव देते हैं। पड़ोसियों से जान-पहचान बढ़ाने, बच्चों के खेलने की जगहों को फिर से स्थापित करने तथा स्कूलों में हस्तक्षेप की कम से कम आवश्यकता पर वे जोर देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि ज्यादा स्कूल होने की बजाय बेहतर स्कूल होना ज़रूरी है। इस तरह पीटर ग्रे शिक्षण संस्थाओं की संख्या की अपेक्षा उनकी गुणवत्ता को सुनिश्चित करने को अधिक महŸव देते हैं। उनके इस विचार से असहमत होने का कोई कारण है। पीटर ने भले ही अपनी धारणाएँ यूरोप और अमेरिका को केन्द्र में रखकर बनायी हों, किन्तु भारतीय सन्दर्भ में भी उनके विचार पूरी तरह से सही लगते हैं। भारत जैसे विकासशील देश में भी गुणवत्ता का अभाव बड़ी चुनौती है। सरकारें अपने राजनीतिक लाभ के लिए संस्थाएँ तो खोल देती हैं, लेकिन वे संस्थाएँ मानक और गुणवत्ता की दृष्टि से निम्न कोटि की होती हैं। इससे शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की कोई सम्भावना ही नहीं बन पाती। पीटर ग्रे का मानना है कि बच्चों का पालन-पोषण प्राकृतिक ढंग से होना चाहिए। उनके विचार में बच्चों को उनके माता-पिता से लगाव के साथ समुदाय से जुड़ाव होना भी उतना ही ज़रूरी है। यदि इस तरह से बच्चे का पालन-पोषण होता है, तो उसमें माता-पिता, समुदाय और प्रकृति तीनों के प्रति संवेदनशीलता विकसित होती है।
पीटर ग्रे बच्चों की सहज बुद्धि और निर्णय-क्षमता पर भरोसा रखने की बात करते हैं, साथ ही उनकी इच्छा-आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशीलता को भी आवश्यक बताते हैं। बच्चों का माता-पिता के साथ विशेष लगाव का कारण जैविक होता है, लेकिन उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास समाज के साथ उनके बहुस्तरीय लगाव से ही सम्भव हो पाता है। ऐसा बच्चों की मूलभूत बनावट में निहित होता है। इस तरह पीटर ग्रे सामाजिक सम्बन्धों की अनिवार्यता पर खासा जोर देते हैं। सामाजिक सम्बन्ध बच्चों को उनके माता-पिता की अनुपस्थिति में सम्बल प्रदान करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि ‘बच्चे का अपने माता- पिता के साथ जरूरत से ज्यादा अनन्य सम्बन्ध न केवल बच्चे के साथ अन्याय है, बल्कि माँ के लिए भी बोझ बन सकता है।’ बच्चों का स्वस्थ मानसिक-सामाजिक विकास पीटर ग्रे की चिन्ता का केन्द्र-बिन्दु है। जब वे शिकारी संग्राहक समाज में बच्चों के पालन-पोषण एवं विकास की प्रक्रिया को सहज-स्वाभाविक बताते हैं, तो इसका प्रमुख कारण उस समाज में पायी जाने वाली सामुदायिक भावना ही है। सामुदायिकता प्रत्येक बच्चे की देखभाल की साक्षी होती है। सामुदायिक परिवेश में बच्चा कभी स्वयं को अकेला अनुभव नहीं करता। वह असुरक्षाबोध से मुक्त रहता है। उसे सार्वजनिक सुरक्षा के वातावरण में विकसित होने का अवसर मिलता है। यह वातावरण बच्चों के भीतर निहित समस्त सम्भावनाओं को स्वाभाविक ढंग से उभरने देता है। पीटर ग्रे इस स्वाभाविकता को सीखने के लिए सबसे आवश्यक कारक मानते हैं।
पीटर ग्रे की पुस्तक ‘शिक्षा का अर्थ’ को पढ़ते हुए हमें एक ऐसे शिक्षा मनोवैज्ञानिक के विचारों से परिचित होने का अवसर मिलता है, जिसकी चिन्ता सिर्फ़ अकादमिक नहीं है। पीटर ग्रे की चिन्ता में समूचा मानव समाज समाहित है। वे शिक्षा की चुनौतियों पर बात करते हुए व्यक्ति, परिवार, समाज, परिवेश और प्रकृति के अन्तर्सम्बन्धों की गहरी पड़ताल करते हैं। वे बच्चों को ऐसी शिक्षा देने की वकालत करते हैं, जिसे प्राप्त करके वे न सिर्फ़ अपने बारे में, बल्कि समाज और प्रकृति के बारे में संवेदनशील बन सकें। उनमें ऐसी चेतना विकसित हो सके, जो उन्हें आत्मनिर्भर, स्वतन्त्रचेता और सामाजिक बनाये। कहने का अर्थ यह है कि पीटर ग्रे अनावश्यक नियन्त्रण, रोक-टोक तथा तोतारटन्त परिपाटी से अलग शिक्षा का ऐसा स्वरूप निर्मित करने पर जोर देते हैं, जिसमें बच्चों के सर्वांगीण विकास की सम्भावनाएँ निहित हों। इसके लिए उन्होंने खेल-खेल में सीखने की क्रिया को सर्वाधिक उपयुक्त और महत्वपूर्ण माना है।
सम्पर्क: गली नं.4, लक्ष्मीधाम काॅलोनी, न्यू माधो नगर, सहारनपुर-247001 मोबाइल 9411038585
समीक्षित कृति-
शिक्षा का अर्थ: लेखक-पीटर ग्रे
नवारुण प्रकाशन, वसुन्धरा, ग़ाजि़याबाद
प्रथम सं. 2022, मूल्य 100 रूपये

(राम विनय शर्मा, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, महाराज सिंह काॅलेज, सहारनपुर. चार आलोचनात्मक पुस्तकें और विभिन्न पत्रिकाओं में सौ से अधिक लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित। इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए अध्ययन सामग्री का लेखन।)

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