जयप्रकाश नारायण
बात 1984 के सितंबर की है। इंडियन पीपुल्स फ्रंट का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन कोलकाता में होना तय हुआ था। सम्मेलन की तैयारी चल रही थी। नेशनल कमेटी की मीटिंग में तय हुआ था, कि हमें स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े व्यक्तित्वों को सम्मेलन में अतिथि के रुप में शामिल कराने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।
इसी क्रम में मुझे उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्रांतिकारियों से मिलने का कार्यभार मिला था।
इस दायित्व के निर्वहन के दौर में मैं खुशनसीब हूं कि मेरी मुलाकात कई ऐसे इतिहास पुरुषों से हुई, जिनके जीवन संघर्ष की यात्रा को किताबों में पढ़ कर हम लोग रोमांचित हुआ करते थे। हमें कभी भी यह उम्मीद नहीं थी, कि ऐसे महापुरुषों से हमें मिलने का भी मौका मिलेगा।
इसी तलाश में इटावा के साथियों के द्वारा मेरी मुलाकात दादा शंभूनाथ ‘आजाद ‘( ऊटी मद्रास बम कांड के नायक) से हुई। वे आईपीएफ के सम्मानित संरक्षक और सदस्य भी हुए। उनका एक पत्र लेकर मैं मेरठ गया और वहां मेरठ षड्यंत्र केस के महत्वपूर्ण नेता राजेंद्र पाल सिंह ‘वारियर’ के घर पर रुका। उनकी आत्मीयता और मोहब्बत का कोई जवाब नहीं था।
डा. गया प्रसाद कटिहार (भगत सिंह की टीम के नेता और अंडमान निकोबार में सजा काट चुके ) पहले से ही परिचित थे। जो एम-एल मूवमेंट के सक्रिय नेता थे। इसके अलावा मेरी जिन महान विभूतियों से मुलाकात हुई, उनमें भगतराम तलवार जी से मुलाकात खास तौर से महत्वपूर्ण थी ।
मैं पीलीभीत गया हुआ था। इंडियन पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश उपाध्यक्ष स्वतंत्रता सेनानी बृजबिहारी लाल जी पीलीभीत के महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट नेताओं में थे। जिन्हें पीलीभीत में ‘महाशय जी’ कहा जाता था। हम लोग भी उन्हें इसी नाम से बुलाया करते थे।
उनके द्वारा पता चला कि यहीं शहर में भगत राम जी रहते हैं । मैं यह सुनकर रोमांचित हो उठा। क्योंकि कक्षा नौ-दस की हिंदी की किताब में ‘एक असमाप्त यात्रा’ नाम से प्रो. विराज का आलेख मैं पढ़ चुका था। इसलिए मेरे अंदर भगत राम जी को लेकर एक आदर्शवादी श्रद्धा पहले से मौजूद थी।
मैंने महाशय जी के साथ भगतराम जी से मिलने की योजना बनायी। हम लोग पूरनपुर से पीलीभीत गये। कई अन्य लोगों से मिलते हुए शाम को भगतराम तलवार जी के घर पहुंचे।
महाशय जी और भगत राम जी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में लंबे समय तक साथ काम कर चुके थे। यह जानकारी मुझे वहां मिली। दोनों स्वतंत्रता सेनानी और वामपंथी नेताओं में आत्मीय और गहरा दोस्ताना संबंध था।
बृज बिहारी लाल जी के साथ मेरे जैसे नौजवान को देखकर भगत राम जी की उत्सुकता बढ़ी। उन्होंने मेरे बारे में जानकारी करनी चाही। महाशय जी ने बताया यह जयप्रकाश नारायण है। जो इंडियन पीपुल्स फ्रंट उतर प्रदेश के सचिव हैं। आपसे मिलने के लिए आए हुए हैं।
बड़ी गर्मजोशी के साथ उन्होंने मुझसे हाथ मिलाए और कामरेडाना अभिवादन किया। उन्होंने आग्रह किया कि आप लोग आज हमारे यहां रुकें।
उनका घर पीलीभीत शहर में छतरी चौराहे से टाउन हॉल के लिए चलिए, तो सड़क के बाएं तरफ पड़ता था। वह आधुनिक कॉलोनी का इलाका था। हम लोग रात में उनके यहां ठहरे। मुझे यह जानकर बेहद खुशी और आश्चर्य हुआ कि भगत राम जी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय परिषद सदस्य हैं।
उनके यहां नैनीताल, पीलीभीत, लखीमपुर, बरेली और तराई के नक्सलवादी कार्यकर्ता भी शरण लिया करते हैं। मेरी कम्युनिस्ट प्रतिबद्धता ( मार्क्सवादी लेनिनवादी) उन्होंने पहले ही समझ लिया था।
एक आम धारणा दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों द्वारा जनमानस में बना दी गई है, कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस जब कोलकाता की नजरबंदी से फरार होकर काबुल के रास्ते जर्मनी पहुंचे थे, तो कम्युनिस्ट पार्टी ने हिटलर के साथ उनकी दोस्ती का विरोध किया था और कम्युनिस्ट नेता जी के विरोधी थे।
इसलिए मेरे अंदर भी यह धारणा थी कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कट्टर अनुयाई कम्युनिस्ट पार्टियों से नफरत करते होंगे। लेकिन यहां तो उल्टी दिशा थी।
यह सही है, कि हिटलर और मुसोलिनी उस समय मनुष्यता के लिए गंभीर चुनौती बन गए थे। इसलिए विश्व का लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध समाज जर्मनी, जापान, इटली गठजोड़ से घृणा करता था।
मेरे दिमाग में एक पूर्वाग्रह था, कि नेताजी के सबसे करीब के अनुयाई जो उनके नेतृत्व में आजादी के लिए जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे थे, उनके अंदर कम्युनिस्टों के प्रति विरोध भाव होगा।
क्योंकि कम्युनिस्टों ने नेताजी के सबसे गौरवशाली और कठिन संघर्ष के समय की उनकी भूमिका को लेकर के विश्व लोकतंत्र और मानवता की सुरक्षा के संदर्भ में आलोचनाएं की थी। लेकिन भगतराम तलवार जी से मिलते ही मेरी यह धारणा कपूर की तरह से काफूर हो गई, जब मुझे पता चला कि वह एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट नेता हैं।
मेरे मन में कुछ सवाल थे, जो मैंने उनके सामने रखे। बहुत ही शालीनता और तर्कपूर्ण ढंग से उस महापुरुष ने मेरे सवालों और जिज्ञासाओं को शांत करने की कोशिश की।
भगत राम जी ने बताया कि 1940-41 का समय बहुत ही तनाव, शंका और अनिश्चितता वाला समय था। सुबह-शाम दुनिया में समीकरण उलट-पुलट रहे थे। जो मित्र राष्ट्र एक समय तक हिटलर और मुसोलिनी को पूरा समर्थन और मदत दे रहे थे, पोलैंड पर जर्मनी के हमले के बाद उनका रुख बदल गया था।
मित्र राष्ट्रों की योजना थी कि इन फासिस्ट ताकतों को सोवियत संघ के साथ लड़ा दिया जाए और दुनिया में नवजात सोवियत कम्युनिज्म का गला घोंट दिया जाए।
इसलिए कई वर्षों तक आंतरिक नरसंहार और यहूदियों सहित प्रगतिशील कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों के कत्लेआम के बावजूद वे हिटलर का समर्थन करते रहे।
उस समय स्टालिन ने सोवियत संघ की कूटनीतिक और सामरिक स्थिति को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से राजनीतिक कदम उठाते हुए हिटलर के साथ अनाक्रमण संधि कर ली थी। जिसको लेकर कम्युनिस्ट विरोधी खेमे द्वारा अभी भी बहुत से सवाल उठाए जाते हैं।
भगत राम जी ने बताया, कि जब उनसे कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देशानुसार नेताजी को लेकर काबुल जाने के लिए कहा गया और निर्देश दिया गया कि इन्हें सोवियत दूतावास तक पहुंचा दिया जाए, तो मैंने जोखिम भरी कठिन रोमांचक यात्रा का दायित्व उठाने का फैसला किया। जिसमें किसी भी समय कुछ भी घटित हो सकता था।
हम लोग इस खतरे को गहराई से समझते थे। नेताजी एक पठान के भेष-भूषा में थे। मैं उनका सहायक हो गया। कई खतरों को पार करते हुए हम लोग अंततोगत्वा काबुल पहुंच गए।
उनका कहना था, कि उस समय की स्थिति को देखते हुए यह कठिन था, कि कैसे उन्हें सोवियत दूतावास तक पहुंचाया जाए और यह विश्वास दिलाया जा सके कि भारत के महान क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस मेरे साथ हैं।
भगत राम जी पख्तो और बलूची भाषा बोल लेते थे, इसलिए उन्हें अपनी बात कहने में दिक्कत नहीं थी।
उन्होंने बताया, चूंकि उस समय विश्व की राजनीतिक स्थिति बहुत जटिल थी। सभी देश बहुत ही सावधानी और सतर्कता के साथ एक-एक घटनाओं पर नजर रखे हुए थे। किसी भी तरह की कोई छोटी सी चूक किसी भी राष्ट्र के लिए भयानक दुःस्वप्न में बदल सकती थी।
काबुल के चप्पे-चप्पे पर सभी बड़े राष्ट्रों के जासूस सक्रिय थे। उनकी नजरें लगी हुई थी। इसलिए किसी अनजान व्यक्ति का किसी देश के दूतावास पहुंचना उस समय कठिन काम था।
उस समय काबुल दक्षिण पूर्व एशिया और भारत के साथ यूरोप के संपर्को का मिलन स्थल था। इसलिए यहां सभी देश ज्यादा सतर्कता बरत रहे थे। हर क्षण जोखिम भरा था।
सोवियत संघ विश्व साम्राज्यवाद और हिटलर के बढ़ती ताकत के इर्द-गिर्द घिरा हुआ था। उस समय स्टालिन की समझ थी कि हिटलर पर कभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए सोवियत राजदूत और दूतावास हर तरह की सतर्कता बरत रहे थे।
लगातार एक हफ्ते तक दूतावास के बाहर खड़े रहने के बावजूद भी कोई लिंक सोवियत दूतावास से नहीं बन पा रहा था। उन्होंने कहा कि एक दिन मैंने सोवियत राजदूत की गाड़ी को देखकर तेजी से हाथ मिलाते हुए रुकने के लिए कहा। नेताजी जो थोड़ी दूर पर पठान के भेष में खड़े थे। उनकी तरफ इशारा करते हुए बताया कि मेरे साथ भारत के महान नेता सुभाष चंद्र बोस है। उनका कहना था कि राजदूत की गाड़ी थोड़ी देर तक रुकी। उन्होंने मुड़कर देखा ।लेकिन फिर वह गाड़ी दूतावास की तरफ बढ़ गई।
भगत राम जी ने कहा, यह हम लोगों के लिए निराशा का समय था। उम्मीदें लगभग खत्म होती जा रही थी। किसी भी समय पकड़े जाने का खतरा था।
उसी समय भारतीय रेडियो से खबर आई की मशहूर भारतीय नेता सुभाष चंद्र बोस नजरबंदी से फरार हो गए हैं। उस खबर में यह भी संकेत था कि उनके पश्चिमोत्तर भारत और अफगानिस्तान के रास्ते पर होने की संभावना है। इसलिए सतर्कता बढ़ा दी गई थी।
भारत सरकार के जासूस चप्पे-चप्पे पर सक्रिय हो गए थे। रात में जहां वे लोग लोग ठहरे थे। वहां रहना संभव नहीं था। स्थान बदलना पड़ा। भारतीय जासूस लगभग करीब पहुंच गए थे।
रात में गंभीर चिंतन मनन करने के बाद तय हुआ किसी तरह काबुल छोड़ दिया जाए और जो भी रास्ता बने उस रास्ते से यूरोप की तरफ बढ़ा जाए। पहले पैदल ही चलने का विचार आया। अन्य रास्ते तलाश करने की कोशिश हुई। फिर यह समझ बनी कि किसी तरह सोवियत सीमा में दाखिल हो जाएंगे तो गिरफ्तारी के बाद अंततोगत्वा मास्को पहुंच जाएंगे ।
लेकिन समय बड़ी तेजी से भाग रहा था । हम लोग अपने उद्देश्य में सफल होते नहीं दिख रहे थे। इसी मन: स्थिति में निर्णय हुआ कि अगर संभव हो तो जर्मन दूतावास से संपर्क किया जाए।
सुबह होते ही हम लोगों द्वारा जर्मन दूतावास से संपर्क करने की कोशिश हुई। हम दोनों लोग दूतावास के बाहर जाकर थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े हो गए। मैंने जर्मन राजदूत को देखते ही हाथ देकर जोर से आवाज दी। राजदूत रुके और मेरी तरफ देखे। मैंने जोर से आवाज देखकर उनसे बताया कि मेरे साथ भारत के महान नेता सुभाष चंद्र बोस हैं। उन्होंने गौर से देखा और सहमति व्यक्त की।
सामान्य औपचारिकता के बाद हम लोगों ने एक दूसरे को नम आंखों और धड़कते दिल से अभिवादन किया। नेताजी जर्मन दूतावास में पहुंच गए । जहां उनके सुरक्षित पहुंचने की खुशी थी वही सोवियत संघ न पहुंच पाने का एक कष्ट भी था ।
यह दर्द भगत राम जी के बात में साफ झलक रही थी। आगे उन्होंने कहा कि उसके बाद मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि बाद में क्या हुआ। जब जर्मन रेडियो से नेताजी का भारत के नाम संदेश प्रसारित हुआ तो मैं वापस पेशावर लौट आया था और यह जानकर प्रसन्नता हुई कि नेताजी सुरक्षित स्थान पर पहुंच गए हैं।
यह ऐसा समय था, जिस समय दुनिया में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष उफान पर थे। समाजवादी क्रांति की लहरें उपनिवेशों और पूंजीवादी देशों में उछाल मार रही थी। दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी थी हिटलर मुसोलिनी और तेजो का विश्व विजय अभियान तेजी से आगे बढ़ रहा था।
इस समय क्रूर वित्तीय पूंजी के गर्भ से निकला हुआ फासीवाद वास्तविक वैश्विक संकट बन मानव सभ्यता के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रहा था।
जिस कारण वे व्यक्ति और संगठन’ जो आजादी और बराबरी के लिए संघर्षरत थे’ फासीवाद के उभार से चिंतित हो उठे। इटली और जर्मनी से मानव संहार और क्रूरता की आने वाली खबरें दुनिया को हिला के रख दे रही थी।
दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, कम्युनिस्ट विचारको की या तो हत्याएं हो रही थी या वह किसी तरह चोरी-छुपे इन देशों से भागकर अन्यत्र शरण ले रहे थे या यंत्रणा शिविरों में दिन काट रहे थे।
इसलिए औपनिवेशिक देशों में स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे कम्युनिस्टों सहित अन्य दलों को दोहरी जटिलता का सामना करना पड़ रहा था। एक तरफ उन्हें अपने देश में आजादी के लिए लड़ना था, दूसरी तरफ मानवता के विनाश के खतरे को भी गंभीरता से लेना पड़ रहा था ।
औपनिवेशिक देशों में कई कम्युनिस्ट पार्टियां इस दोहरे अंतर्विरोध को सही ढंग से न हल कर पाने के कारण संकट में फंस गई थी । भारत में भी ऐसा ही हुआ। यह एक अलग बहस का विषय है।
यहां एक ऐतिहासिक घटना का संदर्भ संज्ञान में लेना चाहिए। तत्कालीन बिहार के रामगढ़ में कांग्रेस का महाधिवेशन था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महान किसान नेता स्वामी सहजानंद दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे, कि कांग्रेस समझौता करने की तरफ बढ़ रही है।
इसलिए रामगढ़ में ही कांग्रेस के सम्मेलन के समानांतर स्वामी सहजानंद के प्रयास से समझौता विरोधी सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन की अपार सफलता ने कांग्रेस के अधिवेशन की चमक को फीका कर दिया था। समझौता विरोधी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष स्वामी सहजानंद और अध्यक्ष नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे।
इसी सम्मेलन में अपने दिए गए भाषण के कारण स्वामी सहजानंद को तीन साल की कठोर कारावास की सजा मिली थी।
जब वह जेल में थे, तो किसी स्रोत से उन्हें पता चला कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस विदेश भागकर जर्मनी पहुंच गए हैं। हिटलर और मुसोलिनी के विश्व विजय की तरफ बढ़ रहे कदमों की खबर और बर्बरता की सूचनाएं जेलों में भी पहुंच रही थी ।
स्वामी सहजानंद जी का लिखना है, कि वे लोग जेल में इस बात को लेकर गंभीर चिंतित थे। क्या नाजीवाद और फासीवाद मानवता की हत्या कर देगा और दुनिया को गुलाम बना देगा।
उन्होंने लिखा, कि मैं स्वयं सोचने लगा था कि इस समय हिटलर और मुसोलिनी के खिलाफ संघर्ष दुनिया का प्रधान संघर्ष है। इसलिए सभी फासीवाद विरोधी शक्तियों को मिलकर व्यापक फासीवाद विरोधी मोर्चा बनाना चाहिए ।
उन्होंने आगे लिखा, कि जेल में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का एक पर्चा मिला। जिसमें आवाहन किया गया था, इस समय फासीवाद के खिलाफ संघर्ष विश्व जन गण का प्रधान संघर्ष है। इसलिए फासीवाद के खिलाफ प्रगतिशील शक्तियों को पूरी ताकत झोंक देना चाहिए।
उन्होंने कहा की इस पर्चे से मेरे स्वतंत्र विचारों को एक मजबूत समर्थन मिला और मैंने उसी समय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने का फैसला किया।
याद रखें के अंतिम समय में नेता जी सुभाष चंद्र बोस का भारत की जनता के नाम संबोधन था, वह स्वामी सहजानंद को केंद्रित करके दिया गया था। जिसमें यह उम्मीद जाहिर की थी, कि स्वामी जी जब तक भारत के किसानों की अगुवाई करते रहेंगे, भारत में क्रांति अवश्य संभव होगी ।
तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर 42 के घटनाक्रम को लेकर लगातार हमले हो रहे थे। इस हमले के मध्य में ही स्वामी सहजानंद ने सीपीआइ की सदस्यता ली।
मैंने भगतराम से आखिरी सवाल पूछा कि 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी ने धुरी राष्ट्रों के साथ नेता जी के जाने के फैसले की निंदा की थी, तो आपने कम्युनिस्ट पार्टी में आने का फैसला क्यों किया।
उनका कहना था, कि वह परिस्थित जन्य घटना थी। नेताजी किसी भी तरह से फासीवाद के समर्थक नहीं थे। उनकी प्रतिबद्धता भारत की आजादी के साथ-साथ समाजवादी समाज बनाने की थी।
जब उन्हें लगा कि जापान के अंदर साम्राज्यवादी विस्तार का नजरिया काम कर रहा है तो उनके संबंध जापान से खराब होने लगे थे। और अंत में जानकारी मिलती है कि वह स्वतंत्र होकर आजाद हिंद फौज का संचालन करने की योजना बनाने लगे थे।
इसलिए उनका मानना था कि नेताजी मार्क्सवाद में गहरी आस्था थी और वह दुनिया की मुक्ति के लिए सिर्फ और सिर्फ समाजवादी विचारों के कायल थे । दूसरा उन्होंने मुझसे कहा कि उनके साथ काम करने वाले अधिकांशतः लोग बाद में वामपंथी विचारों के साथ काम करते रहे।
भगत राम जी ने जोर देकर कहा कि आपको नेताजी के अनुयायियों में ढूंढने में भी कोई दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नहीं दिखेगा। वह भारत में हिंदू महासभा या किसी भी कट्टरपंथी धर्म आधारित राष्ट्रवादी विचारधारा के कटु आलोचक और विरोधी थे।
अगर वह होते तो भारत में हिंदुत्व की ताकतों से लड़ने वाले पहले योद्धा होते। उन्होंने नाम लेते हुए बताया कैप्टन लक्ष्मी सहगल से लेकर बंगाल के कई बड़े नेता जो नेताजी के साथ काम कर चुके थे ।
बाद में या तो सीपीआई में गए या फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्य बने। जो वामपंथी राजनीतिक पार्टी है। जिसका समाजवाद के सिद्धांतों पर गहरा यकीन है ।
आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 126 वी जयंती पर उन्हें नमन करता हूं। मुझे नेता जी के भारत से विदा लेते समय आखिरी क्षणों में काबुल में उनके साथ रहने वाले भगत राम तलवार जी से मिलने पर फक्र है । उसके साथ हुई बातचीत और उनसे मिलने का सौभाग्य पाने पर गौरवान्वित महसूस करता हूं ।
आज नेता जी के विचारों, संघर्षों की महान परंपरा को विकृत करने के कारपोरेट-हिंदुत्व फासीवादी गठजोड़ के षड्यंत्र के खिलाफ संघर्ष में भगत राम जी से मिली प्रेरणा मेरे लिए मार्गदर्शक का काम करती रहेगी!
(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)
फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार