बंद दरवाज़ा
विनीता बाडमेरा की कहानी
सामान्य मनुष्यों के पास भी हजारों कहानियाँ होती हैं पर वह कहानी कह नहीं पाता,लिख नहीं पाता। कहानीकार उन्हीं की कहानियों को शब्दों में पिरोता है। वह एक प्रकार से उनका प्रवक्ता है। यहाँ कहन की कुशलता और संवेदना दोनों की ज़रूरत होती है। समस्याओं से भरी इस दुनिया में सबसे बड़ी समस्या मन की है। केवल बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति खुशहाल जीवन की शर्त नहीं है। भव्य, आलीशान इमारतों में भी हाहाकार मचा हुआ है, शून्य पसरा हुआ है। मकान का घर नहीं बनना एक वैश्विक त्रासदी है। यह कहने की बात नहीं, महसूस की जाने वाली व्यथा है। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि विनीता बाडमेरा प्रस्तुत कहानी “बंद दरवाजा” के रूपक के माध्यम से घर और मकान के बुनियादी अंतर को रेखांकित करते हुए दाम्पत्य प्रेम और न्युक्लियर फैमिली के गुणावगुणों पर गंभीर विश्लेषणात्मक कथा रचतीं हैं।
हालांकि, विनीता बाडमेरा का हिन्दी कथा जगत में प्रवेश भले ही कुछ वर्ष पूर्व हुआ लेकिन उनकी सधी हुई कलम की बानगी ‘एक बार ,आखिरी बार’ कथा संग्रह के प्रकाशन से देखने को मिली। इसके माध्यम से उन्होंने बन्द दरवाज़े को खोलते हुए हिन्दी कथा की भव्य दुनिया में प्रवेश किया। यहाँ अब विनीता का भी अलग रंग देखने को मिलता है जो बहुत हद तक अलग है इसका कारण यह है कि वह कम लिखतीं हैं परंतु उनकी कहानियों में गुणवत्ता की कोई कमी नहीं है।
प्रस्तुत कहानी में कथा नायक एक बंद मकान को देखता है और एक बार नहीं, अनेक बार देखता है। ऑफिस जाते,बाजार जाते, घर लौटते यह बंद मकान उसकी आँखों से ओझल नहीं हो पाता है और एक दिन जब बंद दरवाज़ा का ताला खुलता है तो इसकी आँखें भी खुल जातीं हैं। वह समझ लेता है कि ‘अपने घर’की अहमियत क्या है? स्त्री और पुरूष का प्रेम क्या है? आधुनिक दुनिया के बच्चे क्या हैं? समाज और परिवार में बुजुर्गों की स्थिति क्या है?
इसके पूर्व उसकी बेचैनी तब तक बनी रहती है ,जब तक वह घर के नेम प्लेट पर अपनी पत्नी शिखा का नाम अंकित नहीं करवा लेता। सबसे कौतुहल की बात यह है कि हर शहर में सैंकड़ों मकानों में ताला बंद है। हम बहुत हल्के में इसे लेते हैं लेकिन हर मकान का अपना इतिहास है। एक संवेदनशील कथाकार या कवि इन समस्याओं से दो-चार होता है और स्वयं को रोक नहीं पाता।
विनीता बाडमेरा की यह कहानी बहुआयामी है जो हमें उस मोड़ पर खड़ा कर देती है जहाँ से अपने पूर्वज और भावी पीढ़ी को एक साथ देख सकते हैं।
प्रिज्म में कई कोण होते हैं, उसी तरह यह कहानी बहुआयामी है। यह वर्तमान समय और समाज को साक्षी भाव से देखने की कहानी है। अनुभूति और सहानुभूति के संयोग से ही ऐसी कहानियाँ संभव होती हैं।
ललन चतुर्वेदी
बन्द दरवाज़ा
इन दिनों मन बहलाने की गरज़ से कभी-कभार वह अपने दोस्तों के साथ मोबाइल पर मैसेज -मैसेज खेलता है।
रात उसके पुराने दोस्त ने व्हाट्सऐप पर एक तस्वीर भेजी। वह तस्वीर किसी पुराने मकान की थी।ऐसा मकान जिसका रंग रोगन फीका पड़ा था। आस-पास की दुनिया कमज़ोर लग रही थी और इस बंद मकान के दरवाज़े पर बड़ा ताला लटका था।
उसका मन उस दरवाज़े और ताले पर अटक गया था। उसकी पत्नी शिखा कब की सो चुकी थी। और वह उस तस्वीर को न जाने कितनी ही दफ़ा जूम करके देखता रहा।घर का दरवाज़ा और वहां लगा ताला उसे रह-रहकर बेचैन करता रहा। उसकी नींद फिर कहीं खो गई।यह उसके साथ बचपन से होता आया है।कोई बात दिमाग में एक बार घर कर जाएं तो फिर उसकी मनोदशा ही बदल जाती है। सुबह जब सूरज उग रहा था, उसका मन न जाने कहां डूब रहा था। डूबते मन का कोई सहारा नहीं था। उसने खुद से पूछा-
“दरवाजा क्यों लगाया जाता है?”
“ सुरक्षा के लिए।” खुद ने ही ज़वाब दिया।
अनगिनत खबरों से भरे अखबार को उसने पढ़ने के लिए खोला। किन्तु कुछ मिनटों में ही उन खबरों को पढ़ने का उत्साह खत्म हो गया। जरा- सी देर बाद ही उसने अखबार को बंद कर दिया। इस बीच दरवाज़े ने बहुत सारे प्रश्नों को खोल दिया। उन खुले हुए प्रश्नों को देखने के लिए जैसे वह अधीर हो उठा। आख़िर उसके मन का दरवाज़ा भी तो बहुत दिनों बाद खुला है। क्या-क्या इस दरवाज़े से बाहर निकल कर उसके सामने आता है,वह इसकी प्रतीक्षा करने लगा।मन के दरवाज़े के खुलते ही उसने अपने कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया।
इस समय वह केवल खुद से ही बात करना चाहता था। उसने डबल बेड पर फैली चादर को समेटा और अखबार को वहीं कहीं करीने से रखा। फिर आलथी-पालथी लगा बेड पर बैठ गया। उसके भीतर से एक-एक करके कई प्रश्न बाहर आने लगे जैसे-
“ तो सुरक्षा किस से?”
“ अनजाने लोगों से।बाहरी आदमियों से।“
“क्यों?”
“ भई जान-माल की सुरक्षा करनी ज़रूरी है तो!”
“लेकिन जो मन के दरवाजे पर हलचल मची हो तो?”
वह उस प्रश्न का ज़वाब देता तभी फिर एक नया प्रश्न उछलता हुआ उसके सामने आ गया-
“ बहुत दिनों तक घर के बाहर दरवाज़े पर लगा ताला क्या कहता है?”
“कि कोई घर में रहता था लेकिन अब ….।”
अब के बाद उसके पास कोई शब्द नहीं थे। उसे याद आया कि ऐसा घर उसने भी देखा है, जहां दरवाज़े पर बहुत दिनों से ताला लटका है लेकिन कहां? दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी उस कहां का ज़वाब नहीं मिला।
तभी उसे अपने कमरे का दरवाज़ा खटखटाने की आवाज आई।
“ आपको एक कप चाय और चाहिए?”
“ यदि बना रही हो तो बना दो। तुम्हें पता तो है कि रोज़ सुबह मैं दो कप चाय पीता हूं।”
कहने को तो उसने कमरे के बाहर से पूछे गए सवाल का ज़वाब दे दिया पर उसका मन रोष से भर उठा।सब कुछ पता है परन्तु अंजान बनने की आदत आख़िर लोगों को होती क्यों है? और फिर शिखा उसकी पत्नी है।इतने सालों बाद भी उसे मेरी आदत के बारे में नहीं पता!उसने अपने क्रोध को भीतर ही दबा लिया था। वह चुप रहा। तभी फिर दरवाज़े के बाहर से एक प्रश्न और आया-
“ वह तो ठीक है किन्तु सुबह के समय दरवाज़ा बंद करने की ज़रूरत क्यों हुई?”
“दरवाज़ा बंद करने की ज़रूरत है इसलिए कि कुछ समय के लिए खुद की बात सुनी जाएं।” उसने धीरे से कहा और चाहा कि धीरे से कही बात सुन ली जाएं और न भी सुनी जाएं।
सुन लेना इसलिए चाहिए ताकि समझ आए कि कुछ निजी भी होता है।जिससे दुबारा ऐसा प्रश्न नही पूछा जाना चाहिए ।और न सुनना इसलिए कि कहीं निजी बात का अर्थ अनर्थ में न बदल जाएं। फिर इतनी-सी बात के लिए घर की शांति क्रांति मे तब्दील होना भी ठीक तो नहीं।
“ क्या हुआ आपको! पता नहीं क्या बड़बड़ा रहे हैं। चाय बना रही हूं। जल्दी कमरे से बाहर आ जाइएगा।”
उसने फिर किसी सवाल का जवाब नहीं दिया। या जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा।पर उसे लगा पत्नी ने अब खटखटाना और आवाज़ लगाना दोनों बंद कर दिया।
उसका मन बल्लियों उछलना लगा।वह कुछ देर पलंग पर बैठा रहा। लेकिन सोचने के क्रम में इस बार बाधा आ गई इसलिए घर से संबंधित कोई और सवाल ने उसके मन के दरवाज़े पर दस्तक नहीं दी।
वह कुंडी खोलकर सीधा किचन में आ गया।पत्नी ने उसे चाय का कप पकड़ाया और वह वहीं खड़े-खड़े ही जल्दी -जल्दी चाय पीने लगा। चाय पीते हुए उसने एक बार पत्नी को गौर से देखा ।पत्नी नाश्ते की तैयारी में व्यस्त थी। उसे लगा कि कहीं अनजाने में उसने उसका दिल तो नहीं दुखाया। वह उसका चेहरा देखता रहा। लेकिन पत्नी के चेहरे के हाव-भाव से ऐसा कुछ प्रतीत नहीं हुआ। अब वह आश्वस्त हो गया कि उसकी पत्नी शिखा उससे नाराज नहीं है।
घड़ी पर नज़र गई तो देखा नौ बज रहे हैं। शेविंग बनाने से लेकर नहाने तक का सारा काम हाल-फिलहाल बाकी था। दस बजे ऑफिस के लिए उसे किसी हाल में निकलना ही था।
वॉश बेसिन के सामने खड़े होकर शेविंग बनाते ख़्याल आया कि अभी चार साल और है रिटायरमेंट में। फिर चार साल बाद वह अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जिएगा। ‘अपनी जिंदगी’ शब्द पर वह मुस्कुराया। और इसी मुस्कुराहट के साथ उसने टॉवल उठाया और नहाने चला गया।
भागते-भागते किसी तरह वह तैयार होकर नाश्ता करने ही लगा था कि शाम के लिए पत्नी ने उसे सब्जी का थैला पकड़ा दिया। पत्नी जानती है कि ऑफिस के पास सब्जी मंडी, डेयरी तथा और भी कई दुकानें है। इसलिए लौटते समय वह अकसर सब्जियां, दूध, ब्रेड आदि भी ले आता है।
अब शाम को छ:बजे तक उसका समय ऑफिस के लिए है। फिर वही घर ।एक- सी दिनचर्या।यह सोचते-सोचते स्कूटर चला ही रहा था कि एक जगह पर उसकी सोच को जैसे कुछ क्षणों के लिए विराम मिला हो।
ऑफिस के रास्ते में ही एक घर उसे दिखाई दिया। यह घर बंद था।इसके दरवाज़े पर मोटा ताला लगा था। अचानक उसको अपने सामने रात के भेजे व्हाट्सएप की तस्वीर दिखाई देने लगी।मन जैसे खिन्न हो गया । शर्ट की जेब से मोबाइल निकाल समय देखा तो स्कूटर ने स्पीड पकड़ी।उसने खुद को दिलासा दिया कि शाम को जब घूमने जाएगा तो एक बार वह अवश्य ही इस घर को दुबारा देखेगा।
शाम को घर लौटने से पहले वह ऑफ़िस के नज़दीक सब्जी मंडी गया। अकसर वहां से सब्जियां लेने के कारण लगभग सारे सब्जी वाले उससे परिचित थे। इतने परिचित कि कई बार वे धनिया मिर्च भी मुफ्त में दे देते। और तो और कई बार वे उससे अधिक सब्जी और फल खरीदने का आग्रह भी करते।वह उनके आग्रह को नहीं टाल पाता। लेकिन इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ता, जब शिखा उस पर गुस्सा होती। आज वह जल्दी में था।उसने कुछ ही सब्ज़ियां खरीदी। सब्जी वाले उसकी जल्दबाजी समझ नहीं सके। उन्होंने उसे धनिया मिर्च लेने का आग्रह भी किया। किन्तु उसने उनके आग्रह पर कोई ध्यान नहीं दिया।
पर ये क्या सब्जियां खरीदते हुए भी मन में उस बंद घर का ख्याल फिर से आने लगा। वह सोचने लगा कि ईंट, पत्थर, सीमेंट और बजरी से मिलकर जब घर बना है तो इस घर में लोग भी कभी रहते होंगे। लोग रहते होंगे तो स्वाभाविक है भूख भी लगती होगी और भूख लगती होगी तो खाना भी बनता ही होगा । सब्जियां , आटा, दाल-चावल सभी कुछ आता होगा। आवाज़े लगती होंगी। कोई खाने की टेबल पर इंतज़ार भी करता होगा। हंसी-ठहाके गुंजते होंगे। मनुहार से खाना -खिलाना होता होगा। लेकिन अब जब ताला ही लगा है तो…।
उदासी ने फिर उसे घेर लिया। बमुश्किल उसने सब्जियां थैले में रखी।सब्जी वाले को रुपए दिए और घर पहुंचा।
“ चाय?”
“ नहीं।”
“क्यों?”
“मन नहीं है। ऑफिस में दो-तीन दफ़ा पी ली थी। अब एसीडिटी हो रही है।”
मन नहीं है यह सच था।एसीडिटी होने की बात झूठ थी पर न जाने कैसे उसने बड़ी सफाई से झूठ बोला उसे खुद पता नहीं था। थोड़ी देर बाद ही वह अपने कमरे से कुर्ता पायजामा पहन बाहर आया । पैरों में स्लीपर डाली।
पत्नी ने घड़ी की ओर देखा। उसको देखा।
“ आज जल्दी ?”
“ हां।”
और बिना दूसरे प्रश्न की प्रतीक्षा किए वह घर के दरवाज़े के बाहर आ गया। पिछले दो सालों से उसकी डायबिटीज बढ़ गई थी। डॉक्टर ने उसे रोज पांच किलोमीटर घूमने के लिए कहा था। उसने डॉक्टर की सलाह मान ली। शाम के समय घूमने की आदत बना ली। अब इस आदत के कारण कोई भी मौसम उसे शाम के समय घर पर नहीं रोक सकता। कई बार वह तेज बारिश में भी छाता लेकर घूमने आया है। उसने एक दो बार पत्नी को भी साथ घूमने के लिए कहा। वह आई भी पर नियमित आना उसके लिए संभव नहीं हो पाया । आज भी यही था। पत्नी सोफे पर बैठी कपड़े समेट रही थी। वह जानता था कि उसकी व्यस्तता अलग है इसलिए वह अकेला ही घूमने के लिए चल पड़ा। पर आज वह रोज की अपेक्षा कुछ जल्दी घर से निकला।उसकी जल्दबाजी का कारण था । और यह कारण उसे उकसा रहा था, उस रास्ते पर चलने के लिए जहां वह घर था, जिसका दरवाजा बंद था।
मन में उस घर को लिए कितने ही विचार उसके आस-पास मंडराने लगे और वह उन विचारों के साथ उस घर के पास पहुंच गया।उसने देखा घर के दरवाजे पर बड़ी -सी नेमप्लेट लगी थी । नेमप्लेट पूरी तरह मिट्टी से सनी थी। लेकिन फिर भी उस पर घर के मालिक का लिखा नाम, श्याम दास त्रिपाठी चमक रहा था। श्याम दास त्रिपाठी के नीचे ही सविता त्रिपाठी भी था। उसने अनुमान लगाया कि सविता त्रिपाठी अवश्य इस घर की मालकिन होंगी।
सहसा उसको अपने घर लगी नेमप्लेट दिखाई दी।जिस पर उसका नाम अनुराग मितल लिखा था। वह चाहता तो उस नेमप्लेट पर अपने नाम के साथ ही शिखा मितल भी लिखवा सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।अपनी इस घटिया सोच पर उसे बहुत दुःख हुआ।वह खुद के सामने ही जैसे शर्मिंदा हो उठा।
बहुत देर तक नेमप्लेट को घूरते देख उसे लगा कि कोई यह न समझे कि वह किसी तरह इस मकान में सेंध लगाना चाहता है। उस घर से आगे बढ़ा और थोड़ी देर बाद आस-पास टहलता हुआ घर लौट आया।
“जल्दी लौट आए?”
“हां।”
“क्यों?”
“बस मन ठीक नहीं है।”
“ आख़िर आपके मन को क्या हुआ है?” पत्नी ने कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा।
उसके भीतर जैसे कुछ पिघला।वह पत्नी के हाथ को पकड़ कर चूमने लगा। परन्तु कुछ कह नहीं पाया।
पत्नी उसकी मनोस्थिति समझ नहीं पा रही थी। वह पत्नी को अपनी मनोस्थिति समझा नहीं पा रहा था। यकायक उसने अपने दोनों हाथों से पत्नी का कंधा पकड़ा और उसे सोफे पर बिठाया।
“ क्या हम नेमप्लेट बदल लें?”
“क्यों अच्छी भली तो है?”
वह जाने क्यों सच बोलने से कतराने लगा।
“पुरानी भी हो रही है।रंग देखो।धूप से कैसा फीका पड़ गया है।”
“ ठीक है। जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।”
उसका मन हुआ कि चिल्ला कर कहें –
“मेरी मर्ज़ी । हमेशा मेरी ही मर्ज़ी। तुम्हारी मर्ज़ी का क्या?”
पर वो पचा गया।उगल नहीं पाया। यह ही तो आख़िर पुरुषोचित गुण है।सब कुछ साफ़ और स्पष्ट कहना पुरुषों ने अभी भी नहीं सीखा। कुछ छुपाना, कुछ दबाना और कुछ ही बताना उन्हें आता हैं।
रात का खाना खाकर उस दिन उसने पत्नी के साथ बैठ नेटफ्लिक्स पर फिल्म देखने का निश्चय किया।पर कम्बख़त नींद ने उसे घेर लिया।
दूसरे दिन छुट्टी थी।उसने नेमप्लेट के लिए बाजार जाने का निश्चय किया। पत्नी घर के काम में व्यस्त थी।वह स्कूटर पर अकेला ही चला जा रहा था। उसने स्पीड धीमी ही रखी ताकि फिर से उस बंद दरवाज़े पर जंग लगे ताले वाले मकान को देख सके।
इस बार उसने देखा कि वहां आम का बहुत बड़ा पेड़ था।जिस पर खूब केरी लटक रही थी। उस आम के पेड़ के आसपास परिंदों के झुंड के झुंड मंडरा रहे थे।
इसके अलावा मधुमालती का पेड़ भी था।मधु मालती के खूबसूरत फूलों के गुच्छे लटक रहे थे।आम और मधुमालती के पेड़ की सूखी पत्तियां उस बड़े आंगन वाले घर में फैली थी।
वहीं आंगन में कपड़े सुखाने के लिए कोई तार लगा था और उस पर कोई कपड़ा सूख रहा था।बहुत दिनों से सूखने के कारण उस कपड़े ने अपना रंग खो दिया था।
उसने सोचा , यहां पर न जाने कितने ही रोजमर्रा के पहने जाने वाले कपड़े, ऑफिस के कपड़े,बेडशीट्स, पर्दे और भी कितनी ही तरह के कपड़े कभी सूखते होंगे।वे सब कपड़े यहां रहने वाले ने हटा लिए होंगे लेकिन यहां से जाने से पहले यह कपड़ा उनसे छूट गया होगा। यह छूटा कपड़ा अपने उठाए जाने वाले हाथों की प्रतीक्षा कर रहा होगा।
अब उसने स्कूटर आगे बढ़ाया। स्पीड थोड़ी तेज की। बाजार पहुंचा।नेमप्लेट वाले की दुकान पर उसने एक से एक शानदार नेमप्लेट देखी।एक सुंदर नेमप्लेट को चुनकर इस बार उसने अपने नाम के साथ पत्नी का नाम शिखा मित्तल भी लिखवाने की बात कही।
ऐसा करने से उसके मन का संताप कुछ कम हुआ।वह घर पहुंचा तो शिखा दिन के खाने के लिए उसकी प्रतीक्षा करती मिली।
“ हाथ धो, कपड़े बदल कर जल्दी आ जाओ।खाना तैयार है।”
“ तुम खा लेती।”
“ सप्ताह का एक दिन ही तो साथ खाने को मिलता है और वो तुम्हारे बिना!”
खाने के लिए शिखा का यूं इंतजार करना उसे बहुत अच्छा लगा।कोई घर पर इंतज़ार करता है।फिक्र करता है ।राह देखता है। हमारे लिए बेचैन होता है । वह जानता है कि इन बातों के मायने हैं। खाना खाते हुए नज़र बचा कर उसने शिखा को देखा।उसे लगा कि एक उम्र साथ रहने के बाद पति-पत्नी में प्रेमी-प्रेमिका जैसा प्रेम फिर जन्म लेने लगता है ।और यह प्रेम शादी से पहले वाले प्रेम से भिन्न होता है। वह मंत्रमुग्ध -सा शिखा को देखता रहा।
शिखा खाना खाते हुए अचानक बोली-
“घर के मायने होते हैं जनाब।कोई इंतज़ाम करता है। कोई इंतज़ार। फिर इंतज़ाम और इंतज़ार दोनों से ही तो मकान घर बनता है।”
उसे शिखा की यह बात बहुत पसंद आई। मन किया कि शिखा ऐसा कुछ -कुछ बोलती रहे। पर अब वह चुप थी। बेटा जब से मेडिकल की पढ़ाई करने रायबरेली गया है,शिखा उसकी अधिक फिक्र करने लगी है। फ़िक्र तो वह पहले भी करती थी लेकिन हमेशा मां,पत्नी पर भारी पड़ती है।पति से पहले बच्चे का नाम,उसकी पसंद ही जुबान पर आती है। इसलिएशिखा का भी पूरा ध्यान बेटे पर रहता था। अब जब बेटा यहां नहीं है तो वह जानता है कि पत्नी की सारी परवाह का केन्द्र ही वह है।
खाना ख़त्म कर वह ड्राइंगरुम में चला आया।आज वह अपने घर की हर चीज को इत्मीनान से देखने लगा। उसने और शिखा ने किस तरह घर के एक-एक सामान को बसाया था! मकान को घर बनाया था! शुरुआती दिनों में तनख़्वाह कम थी।शिखा कैसे रोजमर्रा की ज़रूरी सामानों में से भी पैसे बचा लेती। उसे घर सजाने का शौक था। इसलिए वह उन बचाए पैसों से कभी पर्दे , कभी बेडशीट्स, कभी टेबल लैंप खरीद लाती। जब कभी बोनस मिला तो भी उसने अपने लिए कुछ नहीं चाहा। और इसी बोनस में कुछ रुपए अपनी तरफ से जोड़ कर कभी सोफा तो कभी टीवी और कभी फ्रिज खरीदने की बात कही।
कितने सालों से तिनका-तिनका जोड़ा और तब यह घोंसला ऐसा बना। आज जब आने वाले घर की तारीफ़ करते हैं तो वह फुल कर कुप्पा हो जाता है। वह कई बार हैरान होता है कि कम पैसों में भी घर चलाने का हुनर ये औरतें भला कैसे जानती हैं! उसकी मां और चाची में भी यह हुनर था पर तब उसकी उम्र इतना समझना नहीं जानती थी। अब जब पीछे मुड़ कर वह देखता है तो हैरान होता है पापा की कितनी कम तनख्वाह में मम्मी ने उनके दो भाईयों और तीन बहनों की शादियां की। फिर बूढ़े और बीमार दादाजी का ख्याल रखा । इसलिए जरूरत पड़ने पर उन्हें अस्पताल ले जाने और दवाईयों के खर्चा उठाने के लिए उन्हें कभी परेशानी नहीं हुई।
अब फिर ख्यालों में उस बंद घर का चित्र उसके सामने आकार लेने लग गया। उस घर में जिस तरह नेमप्लेट लगी है शायद पति -पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा होंगे। दोनों नौकरीपेशा होंगे तो जाहिर है तनख़्वाह भी अच्छी होंगी। तनख़्वाह अच्छी होगी तो सुविधा के और भी कई सामान होंगे।स्वाभाविक है कि पैसों से सुविधा खरीदी जा सकती है लेकिन पैसों से सुख ? इस बात का ज़वाब उसके पास नहीं था। उसने इस बात को इस समय अपने दिमाग से बाहर ही रखा क्योंकि उसे पता था यह छोटी-सी बात उसकी नींद लेकर भाग सकती है।
मन बदलने के लिए उसने अपनी खिड़की पर लगे नीले पर्दे को हटाया। बाहर छोटा सा बगीचा था और कुछ गमले । बगीचा छोटा ज़रुर है किन्तु व्यवस्थित था । वह जानता था कि इस बगीचे को व्यवस्थित रखने में सिर्फ शिखा का हाथ है।
अपने छोटे बगीचे को देखते-देखते ही उस बंद दरवाज़े वाले घर का बड़ा बगीचा भी उसके सामने आ खड़ा हुआ। उस घर में एक झूला भी था और यह झूला उसे और आकर्षित करता था। वह सोचने लगा कि-
“तो क्या दोनों पति-पत्नी कभी उस झूले पर बैठते होंगे?”
“ जब वे वहां बैठते होंगे तो उनके बीच कौन-सी बातें होती होंगी?”
“ हो न हो वे दोनों यहां बैठे घर- परिवार की बातें करते होंगे। सुख-दुख जीते होंगे।”
“ तो क्या झूला, बगीचा, और पूरा घर ही अपने संभालने वाले के लिए उदास होता होंगा?”
दीवारें इंतजार करती होगी किसी के देखें जाने का। कुर्सियां इंतजार करती होगी किसी के बैठे जाने का और किचन भी तो इंतजार करता होगा कि कोई यहां आकर मसालेदार खाना बनाएं।
बिना किसी आदमियों के ये खाली घर ज़रुर चुपके-चुपके रोता होगा। प्यार भरे स्पर्श के लिए तरसता होगा। और राह तकता होगा यहां रहने वालो की।
उस घर में कुछ छिपाने और कुछ बताने की गरज से पर्दे भी तो लगे होंगे। वो कौन-से रंग के होंगे? वहां अतिथियों के बैठने के लिए कुर्सियां भी हो सकती हैं और टेबल भी। पता नहीं कौन-से अखबार की सुर्खियां वे अपनी चाय की चुस्कियों के दौरान पढ़ते होंगे!
वह समझ ही नहीं पा रहा था कि आख़िर उस बंद घर के बारे में इतना क्यों और कैसे सोच रहा है!पत्नी उसकी मनोदशा न समझ पाने से बेचैन थी।पर उसने ज्यादा कुरेदा नहीं। क्योंकि उसने सुना था कि-
“सबका अपना व्यक्तिगत भी कुछ होता है ।“ और वह उस व्यक्तिगत में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी।
थोड़ी देर यूं ही पौधों को निहारने के बाद वह जाकर बिस्तर पर लेट गया। थकी और उदास आंखें विश्राम करने लगी।
अब उसका यह रोज़ का नियम बन गया था कि वह घर से ऑफिस जाएं बाजार जाएं या शाम के समय घूमने किन्तु उसे उस घर को देखना ही है।
उस घर को देखते हुए एक और खास बात पर उसका ध्यान गया। उस घर के बाहर कहीं भी घर को बेचने के लिए कोई विज्ञापन नहीं था। इसलिए जाहिर था सम्पर्क करने के लिए इस मकान के मालिक का फ़ोन नंबर भी नहीं था। किन्तु फिर यह मकान लंबे समय से बंद क्यों? यह प्रश्न उसे चैन नहीं लेने देता।
ऑफिस जाते हुए वह अपने स्कूटर की स्पीड धीमी रखता और उस घर को देखता। उस घर में रहने वालों की कल्पना करता।
शाम को टहलने जाता तो उस घर को देखता ।वहां फैले पेड़ के सूखे पत्तों को देखता। पेड़ पर चढ़ती -उतरती गिलहरियों को देखता।उस सूखते मटमैले बदरंग कपड़े को देखता। पुराने टूटे गमलों में लगे सूखे पौधों को देखता।
ऐसा करते उसे कई दिन हो गए । आज भी उसकी ऑफिस की छुट्टी थी।वह नई नेमप्लेट लेने के इरादे से घर से निकला। उसकी नज़र उस बंद दरवाज़े वाले मकान पर पड़ी। उसने देखा वहां सूखे पत्तों का कचरा नहीं था। मिट्टी भी नहीं थी और न ही वह मटमैला कपड़ा ही था। उसकी आंखें चमक उठी। और तो और उस बड़े गेट पर ताला भी नहीं था।
वह स्कूटर से नीचे उतरने का सोच रहा था। तभी कोई औरत जिसकी उम्र लगभग 35-40के आस पास होगी उसे दिखाई दी। उसके कपड़े देख उसने अनुमान लगाया कि यह अवश्य यहां की घरेलू सहायिका होगी । और इस मकान के मालिक ने ही उसे घर की सफाई करने के लिए कहा होगा। तो हो सकता है कि इस घर के मालिक चंद दिनों में आने वाले हो ।
इन सारे प्रश्नों का उत्तर वह आख़िर किससे पूछे । घरेलू सहायिका ने एक बारगी उसे देखा पर वह नज़र बचा कर वहां से चला गया। बाजार पहुंचा तो नेमप्लेट वाले दुकानदार ने बहुत खूबसूरती से दोनों के नाम नेमप्लेट पर लिख रखे थे। वह जल्द से जल्द घर पहुंच कर इस नेमप्लेट पर शिखा की प्रतिक्रिया देखना चाहता था। उसने स्कूटर की स्पीड बढ़ाई ।घर पहुंचा। शिखा बाहर पौधों को पानी पिला रही थी। उसने नेमप्लेट दिखाई तो वह भावुक हो गईं। दोनों ने उस दिन नेमप्लेट के बारे में अधिक कुछ नहीं कहा । दोनों चुप्पी साधे रहे । उनकी आपस की यह चुप्पी बहुत कुछ कह रही थी।
रात शिखा ने उसके कंधे पर सिर टिकाया और सो गई।उसे लगा जैसे उसके कंधे का भार हल्का हो गया। किन्तु इतनी-सी बात इतनी देर से समझ आई, इस बात का उसे अभी भी मलाल था। नींद उसकी आंखों से दूर थी।उसने मोबाइल पर ही गाना लगा दिया –
“ ये तेरा घर, ये मेरा घर।
किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले
मेरी नज़र ,तेरी नज़र।
ये घर बहुत हसीन है।”
सोती हुई शिखा पर उसको प्यार उमड़ आया। वह उसके बालों में अपनी अंगुलियां फिराने लगा । कब नींद ने दस्तक दी उसे खबर नहीं ।लेकिन यह क्या सपने में भी उसे वही ताला लगा घर नज़र आया। उस घर में छोटे-छोटे दो बच्चे नज़र आए। बच्चों के स्कूल के बैग दिखाई दिए। उनके खिलौने इधर-उधर फैले दिखने लगे। दीवार पर बच्चों के साथ उनके माता-पिता की तस्वीर दिखाई दी।उस तस्वीर में सभी के मुस्कुराते चेहरे थे।
उसकी नींद टूट गई। टूटी नींद में वह सोचने लगा कि तस्वीर में मुस्कुराना और वास्तविक जीवन में खुश होना दोनों अलग क्यों है! आख़िर आदमी हमेशा खुश क्यों नहीं रह सकता है? इस प्रश्न ने फिर उसे उदास कर दिया।
सुबह जब उठा तो उसका सिर भारी था। लेकिन वही घर फिर उसे अपने पास बुलाने लगा। तैयार हो ऑफिस के लिए जल्दी निकला । एक बार फिर उस घर को देखने की ललक हो आई थी।
स्कूटर की स्पीड धीमी की । उसने देखा कि घर के दरवाजे पर आज भी ताला नहीं लटक रहा था। अब उससे रहा नहीं जा रहा था ।वह इस घर को और देखना चाहता था।पूरा देखना चाहता था। फिलहाल अपनी इच्छा को उसने दबा दिया। किन्तु जैसे ही वह शाम को घूमने निकला सुबह की इच्छा बलवती हो गई।वह खुद को रोक नहीं पाया । गेट पर लगी डोरबेल बजाने की सोचने लगा । वह यह भी भली-भांति जानता था कि यूं किसी अजनबी के घर जाना ठीक नहीं है। और घर का मालिक भी किसी अजनबी के लिए घर का दरवाजा नहीं खोलेगा।पर अपनी जिज्ञासा का क्या करें! मजबूर और मायूस हाथों ने आख़िर डोरबेल पर हाथ रख ही दिया ।
डोरबेल जैसे ही बजी सत्तर बहतर वर्ष के सफेद बालों और झुर्रियों भरे चेहरे वाले एक वृद्ध मेन गेट पर आए।
उन्होंने दरवाजा खोला । उनके चेहरे पर अपरिचित होने के भाव साफ नज़र आ रहे थे । उसने अपनी बात कही-
“ क्या मैं यह घर देख सकता हूं?”
“ पर आप कौन?”
‘आप कौन’ के प्रश्न पर उसने अब तक जो महसूस किया ,सब उस वृद्ध को बता दिया।
वृद्ध ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। कोई भरोसे की डोर जैसे उन्हें बांध रही थी। वह वृद्ध के चेहरे पर आते-जाते भावों को समझने का प्रयास कर रहा था।
उन्होंने उसे घर के भीतर चलने को कहा। वह जैसे ही घर के भीतर आया तो उसकी नज़र ड्राइंगरुम में व्हीलचेयर पर बैठी एक वृद्धा पर गई। वृद्धा के सांवले चेहरे पर झुर्रियों का डेरा था। उसके बाल सफेद और घुंघराले थे। आंखों पर चश्मा था।चश्मा लगी आंखें जैसे कुछ बोलना चाह रही थी।
उसने उन्हें नमस्ते कहा।प्रतियुत्तर में वृद्धा ने भी हाथ जोड़ अभिवादन किया।
किचन में घरेलू सहायिका शायद खाना बना रही थी। खाने की खुशबू उसके नथुने में दौड़ने लगी। वह सोच रहा था कि कितने दिनों तक चूल्हा उदास पड़ा होगा। एकाएक दीवार पर नज़र गई तो देखा कि वाकई वहां एक तस्वीर थी और उसमें दो बच्चे और ये वृद्ध दंपति थे। तस्वीर उस वृद्ध दंपति के युवा दिनों की थी।
तभी उसकी तंद्रा टूटी । वृद्ध एक ट्रे में पानी का गिलास लिए खड़े थे। उन्होंने उसे पानी का गिलास पकड़ाया।उसकी जिज्ञासा अभी भी शांत नहीं हुई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अपने मन में उठ रहे प्रश्नों को कैसे बाहर लाएं!आख़िर इतने महीने इस मकान के बंद रहने का कारण क्या था! यह बात वह उन दोनों से किस तरह पूछे!
फिर भी उसने हिम्मत जुटाई और बहुत कम शब्दों में बस इतना ही पूछा-
“ यह घर लंबे समय से क्यों बंद था?”
वृद्धा की आंखें डबडबाई। उसने अपना चश्मा उतारा। हाथ में पकड़े रुमाल से आंसू पोंछे। कुछ देर तक तक वह वहां लगी लंबी -चौड़ी खिड़की के बाहर देखती रही। जब खिड़की को देखती आंखें थक गई तो उसकी निगाहें वृद्ध की आंखों से टकराई। दोनों खामोश रहे। उसे यह खामोशी बोझिल लगने लगी। अपने इस प्रश्न के पूछे जाने पर उसे पछतावा हुआ किन्तु अब कुछ बदला नहीं जा सकता था। जुबान से तीर निकल चुका था। उसका मन वहां से लौटने को हुआ तभी वृद्धा ने आहिस्ता से जैसे एक-एक शब्द को पकड़ते हुए कहा-
“ इस उम्र में अपनी संतान के साथ और उसके पास जा कर रहने का मोह था इसलिए गए।”
यह कह वृद्धा जैसे थक गई हो। वृद्ध ने उसे भी पानी का गिलास पकड़ाया। उसने देखा कि वृद्ध की आंखें डबडबाई। वे तुरंत दूसरे कमरे में चले गए। वह घर का मुआयना करने लगा। कुछ मिनटों में ही वृद्ध जब कमरे में लौटे तो उन्होंने उसे दीवार की तरफ संकेत करते हुए वही तस्वीर दिखाई। उसे अपने स्वप्न में देखी तस्वीर की याद आई। वृद्ध कुछ देर खामोश रहे फिर जैसे हिम्मत जुटाते हुए बोले-
“ ये तस्वीर हमारे पुराने दिनों की है। उन दिनों जब हम जवान थे। जब हम किसी काम के लायक थे। हमारे साथ बात करने के लिए सबके पास समय होता था। इस तस्वीर में जो बच्चे हैं वे बड़े हो गए। इतने बड़े कि हम उनके सामने छोटे लगने लगे।उनकी बातों के मायने बदल गए। उनका समय बहुत व्यस्त समय है ।उनके कदम जवां कदम हैं। वे भाग रहे हैं। हम उनके साथ भाग नहीं सकते। उनकी दुनिया अलग दुनिया है । बहुत अलग दुनिया। और उस दुनिया में हम फिट नहीं बैठते।”
“ आपका घर आपके बिना अनाथ था?” उसने आहिस्ता से कहा।
“ नहीं साहब।हम इस घर के बगैर अनाथ थे।”
“ दुबारा इस घर से मत जाना अंकल।“ किचन से बाहर आती घरेलू सहायिका ने कहा।
“ अब तो इस घर से सीधा श्मसान जाएंगे बेटा।”
इतना कह वे बुजुर्ग उदास हो गए। वह उन दोनों को सांत्वना देना चाहता था। किन्तु उसके सारे शब्द चुक गए थे। अब यहां बैठना उसके लिए कठिन हो गया। उसने अपने मन पर घर लौटने का दबाव महसूस किया। उसके पैर अपनी जगह से उठ गए। उन दोनों को उसने प्रणाम किया। और वहां से जाने की इजाजत मांगी। किन्तु उनकी आंखें दीवार पर लगी तस्वीर को एकटक देखती रही।
वह कमरे से बाहर आया। गलियारे में अंधेरा गाढ़ा होने लगा। मेन गेट तक पहुंच उसने पीछे मुड़ कर देखा। बुर्जुग आम के पेड़ के पास खड़े थे। उसका गला रुंध गया। वह तेज कदमों से मुख्य सड़क पर आ गया।
कुछ तेज कुछ धीमे कदमों से वह बमुश्किल घर पहुंचा। बुरी तरह हांफते हुए उसने बेल बजाई। पत्नी ने दरवाजा खोला उसकी स्थिति पर हैरान हुई। भागती हुई उसके लिए पानी का गिलास लेकर आई।
“ क्या हम भी कभी हमारे घर के बिना अनाथ हो सकते हैं?”
उसका मन हुआ कि पत्नी से यह प्रश्न पूछे।पर उसकी हिम्मत नहीं हुई।
कहानीकार विनीता बाडमेरा
शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर ।
2023 में राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से पहला कहानी संग्रह ‘एक बार आख़िरी बार’ प्रकाशित।
चार साझा कहानी एवं कविता संग्रहों में रचनाएँ संकलित।
कई पत्र-पत्रिकाओ में कहानी और कविताएँ प्रकाशित।
17 वर्षों तक अध्यापन के बाद सम्प्रति व्यवसाय में संलग्न।
संपर्क : मोबाइल -9680571640
ईमेल-vbadmera4@gmail.com
पता-
विनीता बाडमेरा
बाड़मेरा स्टोर
कमल मेडिकल के सामने
नगरा, अजमेर
राजस्थान -305001
टिप्पणीकार ललन चतुर्वेदी (मूल नाम ललन कुमार चौबे), जन्म तिथि : 10 मई, 1966। मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में। नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में। शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.,यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण
प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य) एवं ईश्वर की डायरी (कविता) पुस्तकें
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं एवं प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएँ एवं व्यंग्य निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में सहायक निदेशक (राजभाषा) पद पर कार्यरत। लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच वर्षों से बेंगलूर में निवास ।
संपर्क: lalancsb@gmail.com
मोबाइल: 9431582801