जन संस्कृति मंच इलाहाबाद इकाई ने 1 मार्च दिन शुक्रवार को घरेलू गोष्ठी के अंतर्गत ‘अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में भारत में समाजवाद का स्वप्न’ विषय पर बातचीत की। इस गोष्ठी में मुख्यवक्ता के रूप में गोपाल प्रधान ने समाजवाद को व्यख्यायित करते हुए कहा कि समाजवाद कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके बारे में किसी ने कुछ लिख दिया हो , जब कार्ल मार्क्स से समाजवाद के बारे में पूछा गया कि समाजवाद कैसा होगा ? तो, उन्होंने इसका उत्तर कभी नहीं दिया। कहा कि उस समय के लोग हमसे ज्यादा बुद्धिमान होंगे । वे अपने रहने लायक समाज बना लेंगे । यह बात उन्होंने इसलिए कही की समाजवाद कोई मार्क्स के साथ पैदा होने वाली चीज नहीं थी । समाजवाद का सपना पहले से मौजूद था ।
एंगेल्स ने अपनी किताब ‘काल्पनिक एवं वैज्ञानिक समाजवाद’ में बताया कि इसके पहले जो समाजवादी लोग थे, उनके तीन वर्ग थे जिसमें उन्होंने तीन लोगों सेंट साइमन , फूरियर का नाम लिया है । एंगेल्स ने इनकी आलोचना की है, लेकिन इसके कारण इनके प्रयासों को कम कर के नहीं देखना चाहिए , क्योंकि वह जो समय था पूंजीवाद पैदा हो रहा था, बड़े-बड़े शहर बन रहे थे , गांवों में तबाही फैलाकर मजदूर शहर लाये जा रहे थे, शहरों में कोई मुंसिपल सिस्टम नहीं था, भयानक गंदगी ,हैजा, टेम्स नदी बदबू करने लगी थी तो ऐसी अवस्था में ये जो समाजवादी थे इन्होंने अपने दिमाग में खाका बनाया कि ऐसा होगा समाजवादी समाज।
इसको लागू करने की जिम्मेदारी मजदूरों पर छोड़ दी गई तो एंगेल्स ने कहा कि यह काल्पनिक समाजवाद है । एंगेल्स ने इसका आधार थॉमस मूर की किताब “यूटोपिया” को बनाया ।
मार्क्स का कहना था, कि जो वैकल्पिक समाज है, वह इसी समाज से पैदा होगा । आज के समय के लोग ही वैकल्पिक समाजवाद का निर्माण करेंगे और इसीलिए वह जो समाज बनेगा, उस पर इस समय के भी बर्थमार्क रहेंगे।
दूसरी बात उन्होंने कही, कि यह एक मानसिक ऐय्याशी होगी कि आज के संघर्षों और सवालों को सम्बोधित न करते हुए एक काल्पनिक समाज की शुरूआत करें । आज के संघर्षों के जो सवाल हैं उनको प्रमुखता देनी होगी । यही लोग वैकल्पिक समाज बनाएंगे।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो वैकल्पिक समाज होगा वह हमारे दिमाग से नहीं पैदा होगा, जन संघर्षों से पैदा होगा । ये मार्क्स का नजरिया था।
गोपाल प्रधान ने आगे अपनी बात बढ़ाते हुए कहा, कि नये कार्यकर्ताओं के भीतर समाजवाद का जो सपना आ रहा है, वह उसी तरह नहीं है जो रूस को बनाते हुए देखे गए थे । क्योंकि यह भिन्न तरह के लोग हैं । आज के मार्क्सवादी कार्यकर्ता को जिन सवालों से जूझना पड़ रहा है, इसके कारण वे अंबेडकर की बात करते हैं, और यह भी सच है कि विवेकानंद की भी बात करने वाले लोग आ जाएं ।
गोपाल प्रधान ने विद्यार्थी संगठनों को सुझाव देते हुए कहा कि भाजपा सरकार ने बहुत लोगों को हथिया लिया है, इसलिए आप उन्हें छोड़ मत दीजिएगा ! कल को यह सम्भव है कि विवेकानंद को आदर्श मानने वालों की एक बड़ी फौज आप के पास आये । तो आप को उन्हें छोड़ना नहीं है।
यह एक तरह से नये किस्म के कार्यकर्ता हैं । इसलिए ये जो समाजवाद का सपना है, वह कहीं है नहीं, उसे बुना जाना है । इस संदर्भ में आप को ‘सेवन्स कलर्स ऑफ सोशिलिज्म’ पढ़ना पड़ेगा ।
इसमें बताया गया है कि समाजवाद का एक ही रूप नहीं है । रूस का समाजवाद अलग था, चीन का समाजवाद अलग था। जब गोर्वाच्योव आये तो उन्होंने दो नारे दिए पहला ग्रास्तनोस्त (राजनीतिक खुलापन),दूसरा पेरेस्त्रोइका ( अर्थव्यवस्था की पुनर्संरचना) । गोर्वाच्येव ने कहा कि यूरोप हमारा कॉमन होम है ।
चीन ने लगभग 1980 में अपने यहां निजी पूंजी को प्रमोट करना शुरू किया था । यह समय की शब्दावली में चीन ने कहा कि पेरेस्त्रोइका तो ठीक है लेकिन हम ग्रास्तनोस्त को स्वीकार नहीं करेंगे, अर्थात उस समय में भी समाजवाद एक तरह का नहीं था । सेवन्स कलर्स ऑफ सोशिलिज्म में समाजवाद की विविधता पर बात की गई है ।
गोपाल प्रधान जी ने कहा कि हर एक देश की एक तरह की विशेषता होती है और इसलिए हर देश का समाजवाद भी भिन्न किस्म का होगा । इस संदर्भ में उन्होंने भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाजवाद, क्यूबा, लैटिन अमेरिका , वेनेजुएला आदि देशों की बात की ।
वेनेजुएला के समाजवाद पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि वेनेजुएला यह मानता था कि हमारा समाजवाद 21वीं सदी का समाजवाद है। सोवियत का समाजवाद 20वीं सदी का समाजवाद था । उन्होंने वेनेजुएला के आदिवासी समुदायों के विद्रोह और रूस का सोवियत शब्द जो सेना में विद्रोह के कारण बना था , यहाँ की पंचायत व्यवस्था से मिलता जुलता शब्द था । वेनेजुएला में सरकार ने लोकल कम्यूनिटी को महत्व देते हुए उनके आधार पर समाजवाद का निर्माण शुरू किया । इस संदर्भ में मार्क्स ने कहा था कि ‘राज्य मुरझा गया’, राज्य यानी जो शासन करने वाला तंत्र है उसकी जरूरत क्रमशः समाप्त होनी चाहिए। बुनियादी अन्तर्विरोध भी यही है कि समाज पहले पैदा हुआ है, राज्य बाद में। महाभारत में भी यह उदाहरण मिलता है । इसलिए यदि राज्य नहीं रहेगा, समाज भी नहीं रहेगा ऐसा नहीं है । राज्य की अनिवार्यता एक आधुनिक दिमाग की सोच है । राज्य नहीं होगा तो शासन नहीं होगा, यह बात सही नहीं है, ऐसा मार्क्स का मानना था ।
अब सवाल यह आता है कि आखिरकार पूंजी का शासन खत्म कैसे होगा ? इस सन्दर्भ में गोरख जी की कविता ‘पूंजी के रजवा’ को याद किया । इस सवाल के जवाब में उन्होंने रणधीर सिंह की किताब का हवाला देते हुए कहा कि सोसाइटी में कूपन्स की अवधारणा को लाना होगा, क्योंकि जो करेंसी है यह मध्यस्थता करने वाली बनती है फिर इसका अपना व्यक्तित्व बन जाता है , इसकी प्रभुता को समाप्त करना होगा । इसी क्रम में उन्होंने क्यूबा का उदाहरण देते हुए इस पर विस्तार से बात करते हुए कहा कि अलग-अलग देशों का समाजवाद अलग-अलग तरीके का होगा ।
समाजवाद कैसे आएगा ? यूटोपिया से इसका सम्बंध जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि राज्य के खर्च पर सार्वजनिक सुविधाओं में अधिकाधिक बढ़ोत्तरी करनी पड़ेगी । राहुल सांकृत्यायन के उपन्यास ‘बाईसवीं सदी’ का जिक्र करते हुए कहा कि सांकृत्यायन एक मात्र भारतीय विचारक थे, जिन्होंने अपनी किताब ‘बाईसवीं सदी’ में समाजवाद की कल्पना की थी । इसमें उन्होंने कोई किचन नहीं होगा, सब एक साथ खाना खाएंगे, ट्रेन का टिकट नहीं होगा, आदि बातों पर विस्तार से लिखा है । समाजवाद का जो मॉडल था, वह यह था कि सार्वजनिक सुविधाओं की बढ़ोत्तरी और सम्पत्ति पर सब का हक , हक का अर्थ संपत्ति को बाटना नहीं था, बल्कि यह था कि सम्पत्ति से उत्पन्न सुविधाएं सब को मिलेंगीं ।
आगे उन्होंने कहा कि पहचान के सवाल के साथ तीन आंदोलन उठे, पर्यावरण, स्त्री और ब्लैक । तीनों की मांगें अलग-अलग थी। जिसमें बाद में बुर्जुआ वर्ग भी शामिल हो गया और ट्रेड यूनियन के नेता दलितों की मांग को और स्त्रियों की मांग से ख़फ़ा हो गए । इससे नए मार्क्सवादी कार्यकर्ता सामंजस्य नहीं बना पाए । पूंजीवाद लोकतंत्र को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है , मार्क्सवादी भी इसके कारण माने गए। पूंजीवाद नस्लवाद को बढ़ावा देती है और गुलामी आधुनिकता की देन है। पर्यावरण के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि मार्क्स मनुष्य को प्रकृति का अंग मानते थे, आगे उन्होंने डेविड हार्वे की किताब पर विस्तार से बात की।
अंत में उन्होंने पूंजी और युद्ध का सम्बंध बताते हुए कहा कि शांति एक क्रांतिकारी चीज है । युद्ध का सम्बंध पूंजी से है। महामंदी द्वितीय विश्वयुद्ध से खत्म हुई । युद्ध पूंजीवाद को जीवन देता है । उन्होंने युवाल नोआ हरारी की किताब सेपियंस पर बात रखते हुए कहा कि हमें अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद को अपनाना होगा । अंतर्राष्ट्रीयता , शांति, पर्यावरण और दलित ,स्त्री समर्थन की भागीदारी के साथ समाजवाद की कल्पना की जा सकती है ।
इस गोष्ठी में समकालीन जनमत के सम्पादक के के पांडे, कवि रूपम मिश्र, प्रो विवेक , डॉ प्रेम शंकर सिंह, प्रतिमा सिंह(रानी), रेखा पांडेय, विवेक सुलतानवीं , शिवानी, पूजा , किरण राजभर, मंजू सिंह, रीमा यादव, भानु कुमार, कवि धुरिया, शिवम, अनुरूद्ध आदि उपस्थित रहे।
रिपोर्टिंग
कवि धुरिया
इलाहाबाद विश्वविद्यालय