समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-24

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

अकेली औरत और मर्द समाज


दूसरी क़िस्त

जिस दिन मैंने नौकरी ज्वाइन की उसी दिन सुबह रामजी राय स्कूल छोड़े और शाम को स्कूल से मुझे लेने कोई और आया। उसी दिन रामजी राय 15 दिन के लिए मद्रास चले गए। एक कामरेड दो तीन दिन तक घर पर रहे, फिर चले गए। अकेले रहने पर डर लगता था, लेकिन सिर्फ चोर से। पार्टी और संगठन के लोगों के बीच कभी असुरक्षा महसूस ही नहीं हुई। स्कूल में 14 का स्टाफ था। टीचरों की आपस की लड़ाई से ही एक दूसरे की हिस्ट्री पता चलती गई। हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा चल रही थी। याद नहीं आ रहा है कि परीक्षा प्रबंधक का बेटा दे रहा था कि प्रेमलता टीचर का भतीजा। प्रबन्धक के साथ ही मैं और प्रेमलता जी झूंसी बच्चों के सेन्टर पर गए। मुझे नहीं पता था कि मुझे पेपर हल करने के लिए ले जाया जा रहा है। यही बताया गया था कि इसी प्रबंध समिति का एक और स्कूल है, वहां मीटिंग में जाना है। जब वहां पहुंचे तो परीक्षा शुरु हो चुकी थी। हमलोगों को अंदर नहीं जाने दिया गया। एक पेड़ के नीचे दोनों टीचर को बैठाकर पाल बाबू अंदर गए और संस्कृत का पेपर लेकर आए, और मुझसे कहे कि इसे हल करो। मैंने कहा कि प्रेम दीदी संस्कृत की टीचर हैं, उनसे कहिए। बोले कि वो नहीं कर पाएगी, तुम करो। मैंने कहा कि आप क्या कर रहे हैं। किसी को नकल कराकर परीक्षा दिलवाना ग़लत है। फिर धमकी भी मिली कि अभी मुझे परमानेंट होने में तीन महीने बाकी है। मैंने पेपर हल किया और एकदम चुप हो गई। फिर पाल बाबू प्रेम दी को उनके घर छोड़े, उसके बाद मुझे घर छोड़ने को कह रहे थे मैंने कहा कि मैं घर नहीं स्कूल जाऊंगी। पाल बाबू के साथ ही मैं स्कूल आई। उस दिन स्कूल की ही एक दाई ने कहा कि मैडम आप से एक बात कहना चाहती हूं, नाराज न होना। मैंने बोला कि बताइए आप क्या कहना चाहती हैं। दाई बोली कि मैडम गांव वाले आप को बहुत इज्जत से देखते हैं, आप कभी पाल बाबू के स्कूटर पर बैठकर स्कूल मत आइएगा। बस इतना इशारा मेरे लिए काफी था। उस दिन के बाद मैं कभी पाल बाबू के स्कूटर पर नहीं बैठी। मैं साइकिल से आती जाती थी और बाद में स्कूटी से, इसलिए कभी जरुरत भी नहीं पड़ी। नौकरी को एक साल पूरा हो गया लेकिन मेरा इंक्रीमेंट नहीं लगा। डर लगा रहता था कि पता नहीं क्या होगा।

14 अगस्त को रात 10 बजे एक सीनियर टीचर को लेकर पाल बाबू मेरे यहां आए। तब मैं स्ट्रैची रोड पर सिंह साहब के मकान में रहती थी। उन्होंने कहा कि घर वाले इसको निकाल दिए हैं। मैं प्रेमलता के यहां लेकर गया था, लेकिन उसने अपने यहां रखने से मना कर दिया। एक दो दिन में कमरा खोज लेगी तब तक तुम अपने यहां रख लो। मैंने कहा ठीक है। दो कमरे मेरे पास थे ही कोई दिक्कत नहीं थी, और दिमाग साफ रहे तो एक कमरे में भी कोई दिक्कत नहीं होती। दरअसल पाल बाबू उस टीचर के तथाकथित गार्जियन बने हुए थे और अपने घर में ही उसको रखे थे। उस टीचर का भी क्या दोष। अकेली औरत को समाज भी जीने कहां देता है। घर वाले दोनों को घर से निकाल दिए थे। उस रात देर तक बात होती रही। बातचीत के दौरान पाल बाबू ने कहा कि तुम राय साहब को हड़काती क्यों नहीं हो कि नौकरी करें। कहो तो मैं उनसे बात करूं। मैंने कहा कि आप मत कहिएगा। वो नौकरी नहीं करेंगे। बोले कैसी औरत हो जो पति को अपने काबू में नहीं रख सकती? पत्नी का कहना तो उनको मानना चाहिए। फिर तो मेरा संयम टूट ही गया और मैंने बोल दिया कि आप कैसे पति हैं जो अपनी औरत का ध्यान नहीं रखते और अपनी पत्नी का कहना नहीं मानते। उसके बाद तो चुप ही हो गए। सुबह 15 अगस्त थी, सभी लोग स्कूल गए। लौटकर फिर मेरे यहां ही लोग आए। दो तीन दिन बाद सुलेमसराय में किराए का कमरा मिल गया और लोग चले गए। स्कूल का लिखा पढ़ी का काम करने के लिए पाल बाबू उसी टीचर के घर टीचरों को बुलाते थे। मैं भी जाती थी। उनका रवैया तो समझ में आ ही गया था। एक दिन बोले कि इसने जमीन ले रखा है, उसका घर बन जाए तो तुम भी उसके ऊपर बनवा लेना और दोनों जने साथ रहना। राय साहब तो ज्यादातर बाहर ही रहते हैं। मैंने कह दिया कि सुनिए, इसके घर के ऊपर घर बनवाकर रहना तो दूर की बात है, उस तरफ मैं फ्री का घर मिले तो भी नहीं रहूंगी जिस तरफ आप का आना जाना हो। इज्जत से बढ़कर पैसा नहीं है। चार महीने और मेरा इंक्रीमेंट नहीं लगा। हमारी प्रिंसिपल श्रीमती प्रकाश श्रीवास्तव अच्छी महिला थीं और उन्होंने भी मुझे सजग कर दिया था। इस प्रकार पाल बाबू की दाल न गली।

दूसरा अनुभव तब हुआ जब मैं राजापुर पोस्टाफिस के पास वाले मकान में रहती थी। वहां पब्लिक शौचालय में जाना पड़ता था। मुझे साइटिका हुआ था। उमेश नारायन शर्मा के माध्यम से चितरंजन भाई और रामजी राय के साथ डा. एस. एम. सिंह को दिखाने गए थे। वहां एक वकील साहब मिले जो ट्रैफिक चौराहे से पास राजापुर वाली रोड पर रहते थे। वो लाठी लेकर चल रहे थे। उन्होंने भी बताया कि बहुत सही डाक्टर हैं, मैं तो बिस्तर पकड़ लिया था। अब मुझे बहुत आराम है। वकील साहब रामजी राय और चितरंजन भाई को जानते थे। शायद संकटा राय वकील के यहां होने वाली शनीचरी गोष्ठी में आते थे। बाद के दिनों में मैं अकेले ही दवा लेने जाती थी, अक्सर वो मिल जाते थे, तो बात चीत भी हो ही जाती थी। एक दिन ये पूछते- पूछते घर आ गए। मैं ऊपर रहती थी। मकान मालकिन की दो लड़कियां इनके साथ ऊपर मेरा कमरा दिखाने के लिए आने लगीं तो वकील साहब उन सबको भगाने लगे कि मैं चला जाऊंगा, तुम लोग नीचे जाओ। वो नीचे तो चली गईं लेकिन सभी बहनों को लेकर ऊपर आ गईं कि मीना दीदी के यहां आने वाला तो कोई ऐसा नहीं करता है कि भगाए, ऐसा कौन आ गया? उन लोगों के साथ समता भी थी। फिर मैंने लड़कियों को समझाकर नीचे भेज दिया। मैं चाय बनाने लगी तो वकील साहब समता को समोसा लेने के लिए भेज दिए। फिर सामान्य बातचीत होने लगी। उन्होंने कहा कि कैसे एक ही कमरे में आप रह लेती हैं। जब ये जाने कि पब्लिक शौचालय है, तो कहे कि छोड़ दीजिए इस कमरे को। मैंने कहा कि 150/- से ज्यादा मैं किराया नहीं दे सकती और यहां मकान मालकिन मेरा बहुत ख्याल रखती हैं। कहने लगे, मैं खोजता हूं कमरा आप के लिए। समता समोसा ले आई। चाय पीने के बाद मैंने बोला कि मुझे चंदा लेने जाना है, फिर कभी आइएगा। कमलकृष्ण राय यूनिवर्सिटी में अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे हैं न। सुनकर बोले कि राय साहब (रामजी राय) जो कर रहे हैं उन्हीं को करने दीजिए। आप ये सब मत करिएगा। फिर बोले कि आप जितना चंदा इकट्ठा करेंगी हमीं से ले लीजिएगा, बैठिए आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। समझ तो रही थी मैं लेकिन कुछ हो हल्ला करने पर मेरे ऊपर भी लोग शक करते कि अकेले रहती है, पता नहीं। मैंने उनसे कहा कि अच्छी बात है, आप भी ये रसीद लेते जाइए। दोनों जने करेंगे तो ज्यादा पैसा मिल जाएगा। किसी तरह उनको टरकाए। उनके जाते ही मैं कामरेड रामचेत जी के यहां जाकर सारी बात बताई। वो थोड़ी ही दूर पर रहते थे। उन्होंने कहा कि आइंदा आए तो समता को भेजकर मुझे बुला दीजिएगा। समता को भी समझा दिए थे कि ये आएं और कहीं भेजें तो तुम जाना मत। ये ठीक आदमी नहीं लगता है।
कुछ ही दिन बाद वकील साहब फिर आ धमके। शिवरात्रि का दिन था। उस दिन समोसा और गाजर का हलवा लेकर आए थे। बार बार समता को कहें कि तुम जाओ नीचे खेलो। समता को समोसा दिए कि मम्मी को खिलाओ। मैंने झूठ बोला कि मेरा व्रत है आज। कहे इसीलिए तो गाजर का हलवा भी लाया हूं। मैंने बोला व्रत में मैं बाज़ार का नहीं खाती हूं। फिर चाय पीते पीते मैंने पूछा कि चंदे की रसीद कुछ काटे आप? कहने लगे मेरे साथ चलिए तब न, बिना दूल्हे की बारात कैसे जाएगी। फिर कहने लगे मैंने आप के लिए ऊंचवागढ़ी में कमरा देख लिया है। चलिए मेरे साथ देख लीजिए। मैंने पूछा किराया कितना है? बोले 450/-। मैंने कहा कि इतना किराया मैं नहीं दे सकती। मैं यहीं ठीक हूं। कहने लगे आप जितना किराया देती हैं, उतना ही दीजिएगा बाकी मैं दे दूंगा। आप किसी को बताइएगा नहीं। सब्र का बांध टूटने ही वाला था। मैंने बात अनसुनी करते हुए कहा कि भाभी जी को लेकर नहीं आए। कहने लगे अरे! छोड़िए उनको। देहाती हैं, उनको क्या लेकर आएं। फिर तो मैंने उठाया चप्पल और बोली कि वो देहाती हैं और आप इंग्लैंड से आए हैं? मैं आपका घर देखी हूं और जाकर भाभी जी से आपकी सारी करतूत बताऊंगी। मैं कबसे आपको बर्दास्त कर रही हूं। क्या समझ रहे थे कि मैं अकेले रहती हूं तो आप कुछ भी बोलते जाएंगे। आज के बाद मेरे घर तो दूर इस गली में दिखाई दे दिए न तो हाथ पैर तोड़ दूंगी, किसी लायक नहीं छोड़ूंगी। उसके बाद वकील साहब ऐसे भगे, कि फिर कभी आने की हिम्मत नहीं किए। और मुझे भी ऐसे लोगों से निपटने की हिम्मत बढ़ी।

तीसरा अनुभव हुआ हमारे बड़े वाले जेठ आए हुए थे, उनके कोई मित्र सी.आर.पी.एफ.में थे। तेलियरगंज में रहते थे। शायद उनकी पत्नी मिलिट्री अस्पताल में भर्ती थीं। मिलिट्री अस्पताल मेरे स्कूल के रास्ते में ही पड़ता था। भाई साहब के साथ मैं अस्पताल के गेट पर पहुंची तो वे बाहर ही खड़े इंतजार कर रहे थे। हम लोग अंदर मरीज से मिले। फिर मैं वहीं से स्कूल चली गई। शाम को स्कूल से आ रही थी तो वो सज्जन अस्पताल के सामने रोड पर खड़े थे। इशारा करके रोके। मैंने पूछा क्या हुआ। बोले-कुछ नहीं, सुबह आप मरीज को देखने गईं मुझे बहुत अच्छा लगा। यही कहने के लिए रोके थे। हम सोचे क्या हो गया। मैं घर आई तो भाई साहब से बताई। वे कहने लगे एक महीने से अकेले परेशान है। हम लोगों का जाना उसे अच्छा लगा होगा। तुम्हारे स्कूल के रास्ते में ही है। जब तक अस्पताल में हैं, कभी कभी चली जाया करना। अच्छा आदमी है। मैं एक दो बार गई भी। एक दिन बोले, मैं कैंटीन से कुछ सामान लेने जा रहा हूं तब तक यहां रुक सकती हैं क्या? आप को भी कैन्टीन से कुछ मंगाना हो तो बताइए, लेते आऊंगा। मैंने भी कह दिया कि 3 लीटर का कुकर लेना था लेकिन पैसा मैं कल दे पाऊंगी। आधा पौना घंटे बाद आए, कहे कि कुकर कल सुबह मिल पाएगा। उसके बाद वे रोज मेरे घर आने के टाइम सड़क पर खड़े रहते थे। एक दो दिन तो मैं रुकी लेकिन बस यही कहते कि आप से कुछ कहना चाहता हूं और कहते नहीं थे। उनके बात करने का ढंग मुझे ठीक नहीं लग रहा था। उसके बाद मैं रुकती नहीं थी, लेकिन वो खड़े रहते थे। एक दिन वो घर आ गए। कोई दरवाजा खटखटाया तो समता दरवाजा खोली। तो वे हमको पूछे। समता पहचानी नहीं, मेरे पास आई कि -कोई आया है, आपको बुला रहा है। मैं अंकुर को अंदर सुला रही थी। उस समय लाइट नहीं थी। मैं गई और इनको देखकर मैंने समता से कहा कि चाय बना दो। फिर उनसे मरीज का हाल खबर पूछने लगी। बोले कि डिस्चार्ज होकर घर आ गई हैं। बहुत दिनों से आपसे मुलाकात नहीं हुई, इसलिए मैं आपसे मिलने आ गया। आपसे कुछ बात करनी थी। हम लोग चाय पीने लगे तो समता से पूछने लगे कुछ खाओगी बिटिया, मैं कुछ लाया नहीं। समता को 10/- देकर कहने लगे तुमको जो अच्छा लगे लेकर खा लो। समता को मैंने इशारा किया कि न लो पैसा, लेकिन उसने पैसा लिया और बोली कि मैगी लाती हूं। उसके जाने के बाद ये फिर कहने लगे, मुझे कुछ बात करनी है आप से। मैंने पूछा- क्या बात करनी है बोलिए तो। आप समझ नहीं रहीं हैं, दरअसल मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं। कई बार सुनने के बाद मैंने कहा कि आपकी हिम्मत नहीं है कि आप हमसे कुछ कह सकें और मैं समझ रही हूं कि आप हमसे क्या कहना चाहते हैं। आप हमारे बाप के उम्र के हैं, आपको शर्म नहीं आ रही है कि आप क्या कर रहे हैं। आप क्या समझे थे कि अकेली हूं, जो चाहेगें कहेंगे। हमारे जेठ के मित्र हैं तो क्या समझे कि कुछ भी कह लेंगे। अभी मैं मारना शुरू करुंगी, तो बिना कारण पूछे पूरा मुहल्ला आप को इतना धुनेगा कि आप सोच भी नहीं सकते। इसलिए चुपचाप निकल जाओ और आज के बाद गली में दिखाई दे दिए तो बच नहीं पाओगे और तुम्हारी नौकरी भी जाएगी। इसे धमकी न समझना, अभी तुम जानते नहीं हो हमको। इसके बाद वे चुपचाप निकल गए और दुबारा कभी नहीं आए।

चौथा अनुभव, मई-1984 की बात है, अंकुर होने वाले थे। छठा महीना चल रहा था। स्कूल में आठवीं क्लास की बोर्ड की परीक्षा चल रही थी। सेन्टर बम्हरौली पड़ा था। मैं राजापुर रहती थी। वहां से सेंटर 14 कि.मी. दूर था और सेन्टर पर 6.45 पर सुबह पहुंचना होता था। 7 बजे से 9 बजे तक परीक्षा होती फिर शाम में 3 से 5 बजे तक। समता की परीक्षा हो चुकी थी। मैं सुबह पांच सवा पांच बजे साइकिल से निकलती तब समय से सेंटर पर पहुंच पाती थी। समता के लिए लौटना पड़ता था नहीं तो उधर धूमनगंज पी ए सी में एक परिचित का परिवार रहता था, मैं वहीं रुक जाती। मैंने तय किया कि शनिवार को रात में ट्रेन पकड़ लूंगी और समता को नानी के यहां छोड़कर उसी दिन लौट आऊंगी। शनिवार को मैं बाम्बे जनता पकड़ने गई। ट्रेन लेट हो गई 11.40 पर इसको आना था आई 2.30 बजे। प्लेटफार्म नम्बर चार पर ही बाम्बे जनता आती थी। मेरे पास एक छोटा सा एयरबैग था। समता को लेकर मैं बेंच पर लेट गई। बहुत कम यात्री प्लेटफार्म पर थे। एक चाय का स्टाल खुला था बाकी सब दुकानें बन्द हो चुकी थी। एक 40-45 साल का आदमी हाफ बाहीं का कुर्ता, पजामा पहने प्लेटफार्म पर इधर से उधर टहल रहा था और बार बार मुझे देख रहा था। मुझे भी नींद नहीं आ रही थी। मेरी भी नजर उसी आदमी की तरफ जा रही थी कि अब तो नहीं देख रहा है, लेकिन वह हमें ही देख रहा था। बीच बीच में गायब भी हो जाता था। जब एनाउन्स हुआ कि अभी एक घंटा बाद ट्रेन आएगी तो फिर वो आदमी गायब हो गया और गाड़ी आने से पहले फिर आ गया। उसके बाद एनाउन्स हुआ कि बाम्बे जनता प्लेटफार्म नम्बर चार पर न आकर प्लेटफार्म नम्बर एक पर आएगी। मैं प्लेटफार्म नं एक पर जाकर 4 सीटर कुर्सी वाले बेंच पर बैठ गई। एक यात्री वहां पहले से भी बैठा था। थोड़ी देर बाद वो आदमी यहां भी आ गया और मेरे बगल में बैठ गया। फिर वो बीड़ी जलाया और धुंआ मेरे मुंह पर छोड़ने लगा, तो मैंने टोका कि भाई साहब धुंआ उधर छोड़िए नहीं तो आपके ऊपर ही उल्टी कर दूंगी। ये सुनकर बगल में बैठा यात्री बोला आप इधर बैठिए, मैं बीच में बैठ जाता हूं। वो बीच में बैठ गए तो फिर वह आदमी गायब हो गया। उसके जाने के बाद मैंने बगल में बैठे आदमी से उसके बारे में बताया कि प्लेटफार्म नंबर चार से ही मेरे ऊपर नजर बनाए हुए हैं। उसकी हरकत देखकर उन्होंने बताया कि ये लोग और कुछ नहीं करते हैं, ये लोग गैंग को सिर्फ सूचना दे देते हैं कि फलां बोगी में एक औरत अकेले जा रही है। फिर गैंग वाले जो करें। जैसे ही गाड़ी प्लेट फार्म पर आई वो आदमी फिर आ गया और लगातार मुझ पर नजर बनाए रखा था। मैं भी सामने के डिब्बे में चढ़कर अंदर ही अंदर उस डिब्बे के दूसरे गेट के पास बैठी और उसको देखती रही और जैसे ही गाड़ी खुलने को हुई तो वो आदमी इस डब्बे में चढ़ने के लिए बढ़ा, तो मैं ट्रेन से उतरकर अगले डिब्बे में चढ़ गई और फिर भीतर भीतर अगले गेट के पास जाकर बैठ गई। जब मुगलसराय से गाड़ी चल दी तब मैं निश्चिंत हो गई। 7.30 तक जमानियां उतर कर, 10 बजे तक अपने गांव पहुंच गई। फिर 12 बजे दोपहर में ही चल दी और 3.30 बजे जमानियां से अपर इंडिया ट्रेन पकड़कर 10 बजे रात तक प्रयाग स्टेशन पहुंच गई। सुबह 5 बजे बम्हरौली के लिए निकल ली और दो दिन उधर ही रुक गई। परीक्षा समाप्त हो गई तब कमरे पर आई।
ऐसी घटनाएं इस समाज में महिलाओं के साथ होती रहतीं हैं। कोई जरुरी नहीं कि अपरिचित लोग ही उन्हें परेशान करें। समाज में महिलाओं, बच्चियों को जिनके साथ सुरक्षित रहने की मान्यता है, जब वे वहीं असुरक्षित हैं, तो बाकी जगहों का क्या कहा जाय। कुछ तो घटनाएं ऐसी भी होती हैं जो ताजिंदगी आप नहीं भुला सकते। एक तरफ असुरक्षा है तो दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति नजरिए का सवाल भी है। यह नजरिया पार्टी संगठनों के पुरुष साथियों के अंदर भी मौजूद है। जब तक स्त्रियों के प्रति समाज का नजरिया ही न बदल जाय, तब तक महिलाओं का हर तरह से शोषण होता रहेगा।

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