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महामारी, युद्ध और वैश्विक शक्ति संतुलन- पांच

जयप्रकाश नारायण 

मंदी और महामारी के साथ पिछले दो दशक से श्रृंखलाबद्ध युद्धों  में उलझा अमेरिकी साम्राज्यवाद गहरे संकट में फंसा है। जिससे उसकी बादशाहत के लिए खतरा पैदा हो गया है।

अभी दुनिया महामारी के चौथे, पांचवें लहर के बीच से गुजर रही थी कि नाटो के संभावित खतरे को देखते हुए  रूसी तानाशाह पुतिन ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया।

उद्देश्य था कि दुनिया के बंटवारे में यूक्रेन रूसी खेमें में रहे। अगर ऐसा नहीं हो तो यूक्रेन को बफर जोन बनाए रखना चाहिए।

सोवियत संघ के विघटन के बाद पुतिन के शासन में रुस ने तकनीकी, बौद्धिक, वैज्ञानिक और ढांचागत विकास में कितनी प्रगति की है, इसकी स्पष्ट जानकारी तो नहीं है, लेकिन यह निर्विवाद है कि समाजवादी रुस के अंदर औद्योगिक और कृषि का मजबूत आधारभूत ढांचा था। इसके साथ ही दुनिया की सबसे शक्तिशाली अनुशासित सेना और मजबूत सैन्य ढांचा भी मौजूद था।

इसलिए ही सोवियत रूस  द्वितीय विश्व युद्ध में नाजी तानाशाह हिटलर की सेना को पराजित करने में सफल हुआ था।

विशेषज्ञों के अनुसार अभी उस दौर का इंफ्रास्ट्रक्चर रुस  में  मौजूद  है।
इस इंफ्रास्ट्रक्चर के अंदर मौजूद नौकरशाही प्रणाली का फायदा उठाते हुए पुतिन ने रुस में नये किस्म की तानाशाही कायम कर ली है।

तानाशाही स्वाभाविक रूप से आक्रामक  राष्ट्रवाद को जन्म देती है। जो अगल-बगल के छोटे-मोटे देशों पर धौंस-धमकी उसी तरह से जमाने की कोशिश करता है, जैसा कि विश्व साम्राज्यवाद करता रहा है।

सर्वप्रथम सीरिया में रूस समर्थक राष्ट्रपति असद को अस्थिर करने के लिए अमेरिका ने आईएसआईएस नामक इस्लामिक संगठन को खड़ा किया । उसे हथियारबंद कर के असद की सरकार को लीबिया, मिस्र आदि देशों की सरकारों की तरह खत्म करने का अभियान चलाया।

सीरिया में प्रायोजित गृह युद्ध को लोकतंत्र के लिए चल रहे युद्ध का नाम दिया । तो पुतिन  नाटो और अमेरिका के  धमकाने के बावजूद राष्ट्रपति असद के समर्थन में खड़े हो गए।  आईएसआईएस को ध्वस्त करने में सीरियाई सरकार की मदद करके रुस ने अमेरिका और उसके सहयोगियों को बहुत धीमी गति से ही सही चुनौती दे दी।

रुसी रणनीति का जवाब देने के लिए  अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ने पूर्व सोवियत संघ के देशों में अपना प्रभाव विस्तार करने का अभियान चलाया।
अमेरिका और नाटो की विस्तारवादी रणनीति और पुतिन के क्षेत्रीय महाशक्ति की आकांक्षा  यूक्रेन तक आते-आते युद्ध का रूप ले चुकी है।

इसे संभाला नहीं गया तो दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध  की तरफ जा सकती है। आज युद्ध के 60 दिन से ऊपर हो गये हैं। यहां  तक आते-आते नाटो और उसके सहयोगी देशों ने यूक्रेन में हथियारों के सप्लाई की मात्रा कई गुना बढ़ा दी है।

रूस के हमले का विस्तार और तीव्रता दोनों बढ़ा है। लक्षण दिख रहे हैं।  अमेरिका, यूके, फ्रांस, जर्मनी के नेतृत्व में नाटो के देशों ने कूटनीतिक गतिविधियां बढ़ा दी है। दुनिया के अन्य राष्ट्रों के साथ मिलकर ध्रुवीकरण का मंच तैयार किया जा रहा है।

जिसका पहला शिकार पाकिस्तान में इमरान की सरकार बनी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत दौरे पर हैं। खबरें आ रही हैं कि भारत तटस्थता की नीति छोड़कर अमेरिका के साथ जाने के लिए उत्सुक दिख रहा है।

जो अमेरिका के साथ भारत के रणनीतिक रिश्ते का स्वाभाविक परिणाम है।
अमेरिका अभी भी वैज्ञानिक, शैक्षणिक, तकनीकी दृष्टि से रूस, चीन जैसे देशों से बहुत आगे है। वहां विज्ञान, टेक्नोलॉजी, शिक्षा और अनुसंधान  का ढांचा बहुत मजबूत तथा शक्तिशाली है।

जहां तक पहुंचने में चीन को अभी लंबी यात्रा तय करनी है। इसलिए चीन, ईरान, उत्तर कोरिया आदि देश इस युद्ध में सीधे भाग न लेते हुए भी रूस के साथ दिख रहे हैं।

सैन्य विशेषज्ञों का आकलन है कि चीनी आर्थिक महाशक्ति के सहयोग बिना पुतिन  युद्ध में न उलझते।
ये देश अवश्य चाहते हैं कि नाटो की पकड़ उनके आसपास के मुल्कों पर पर न रहे।

द्वितीय विश्व युद्ध की तरह राष्ट्रों का ध्रुवीकरण अभी स्पष्ट नहीं हुआ हैं। जिससे यह कहा जाए कि दुनिया दो खेमों में बंट गई है।

ऐसी खबरें आ रही है कि चीन, यूक्रेन के साथ भी अपने रिश्ते को बनाए हुए हैं क्योंकि यूक्रेन हथियारों के बड़े बाजार के साथ प्राकृतिक गैस और तेल के भारी भंडार वाला देश है।

अमेरिका ने जहां प्रत्यक्ष रूप में पुतिन के रूस के खिलाफ प्रचार अभियान चला रखा है ।वही कोरोना महामारी को केंद्र कर चीन के खिलाफ भी शंकाएं और भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहा है।

साम्राज्यवादी सूचना एजेंसियां और मीडिया लगातार चीन की ऐसी छवि बना रही हैं कि महामारी को चीन नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। चीन प्रभावित मरीजों के साथ क्रूरता भरा व्यवहार कर रहा है।

साफ बात है  अमेरिकी मॉडल के लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को श्रेष्ठ बताने और चीन को एक तानाशाह और  बंद राष्ट्र  सिद्ध करने की कोशिश हो रही है।

जिसे युद्ध के एक अंग के रूप में ही देखा जाना चाहिए। क्योंकि युद्ध पहले मनुष्य के मस्तिष्क की दुनिया में ही लड़े जाते हैं।

आर्थिक रूप से लगातार पिछड़ता महाबली अमेरिका ठहरे हुए यूरोपीय यूनियन के देश अपने वैश्विक महाशक्ति के चरित्र को बचाए रखने के लिए तथा पूंजीवादी व्यवस्था की प्रासंगिकता को अक्षुण्ण रखने के लिए युद्ध ग्रस्त दुनिया की अंधी सुरंग से ही गुजारना चाहते हैं।

पिछले 75 वर्षों का इतिहास देखें तो अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया के किसी न किसी कोने में युद्ध  लड़ा जाता रहा है। युद्ध और विश्व में तनाव अमेरिकी अर्थव्यवस्था और महाशक्ति का बुनियादी आधार है। मंदी से निजात पाने के लिए साम्राज्यवादी मुल्क युद्ध की ही तरफ जाने के लिए बाध्य है।

ऐसा लगता है कि चीनी रणनीति दुनिया में २०५० को ध्यान में रखकर बनाई गई थी।(याद रखें स्टालिन कालीन रूस की तैयारियों को) लेकिन महामारी और महामंदी  के कारण तेजी से बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य ने चीन को रणनीतिक दिशा को बदलने और लक्ष्य को आगामी 10-15 वर्षों में पूरा करने के लिए मजबूर कर दिया है।

चूंकि असाध्य मंदी और अनियंत्रित महामारी ने विश्व के बहुत बड़े भूभाग  में दरिद्रीकरण का विस्तार किया है।
प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट तेज हुई है। उदारीकरण से राष्ट्रों के अंदर  इंफ्रास्ट्रक्चर के ढहने और दैत्याकार बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी से विश्व अंदर ही अंदर खदबदा रहा है।

लेकिन इसके उलट महामारी और मंदी में कारपोरेट पूंजी के विकास की गति कई गुना बढ़ गई है। जिस कारण वैश्विक असमानता में भारी उछाल आया है। साथ ही मानव जीवन की स्थितियां बदतर हुई है।
जिससे उसके गर्भ में विस्फोटक क्रांतियों के लक्षण दिखने लगे हैं । पूंजीवादी व्यवस्था जीवन की जिजीविषा खोती जा रही है।

पूंजीवाद समय-समय पर अपने संकट को हल करने के लिए जिन नीतियों को अपनाता है उसमें युद्ध के द्वारा राष्ट्रों का बंटवारा प्रमुख है।

इसलिए अभी उसके मौत की घोषणा तो नहीं की जा सकती । लेकिन आज के दौर में वह असाध्य संकट से ग्रसित  है।

मानव विनाश के सारे संसाधन उसके पास तैयार हैं। पर्यावरण से लेकर प्राकृतिक संसाधनों के छीजते जाने और  लोकतांत्रिक मूल्यों  के दायरे के सिकुड़ने से दुनिया में नये तरह का वातावरण बना है।

आप देख सकते हैं एक समय लोकतंत्र का मॉडल कहा जाने वाला भारत आज किस तरह से लोकतंत्र के कब्रगाह में बदलता जा रहा है।

आर्थिक और लोकतांत्रिक मापदंडों पर बिछड़ता  हुआ ब्राजील, नष्ट होता हुआ श्रीलंका सहित अनेक देशों में दक्षिणपंथी तानाशाही ने वैश्विक संकट को बहुत गहरा कर दिया है।

विकासशील देशों में  कारपोरेट और दक्षिणपंथी राजनीति का गठजोड़  नग्न रूप से सक्रिय है। जो इन देशों में भी नई हलचल को जन्म दे रहा है।
अगर आप भारत को ध्यान में रखें तो सत्ता पर काबिज पार्टी के साथ गैर संवैधानिक व्यापक प्रभाव वाला सांगठनिक ढांचा के रहते हुए भी भारतीय कारपोरेट जगत आनंद की नींद नहीं सो पा रहा है।
वह भारत में सभी तरह के लोकतांत्रिक मूल्यों, संस्थाओं, आधुनिकता के अवशेषों को खत्म करने में लगा है।

इसलिए महामारी और युद्ध के इस दौर में दुनिया नये परिवर्तन के दरवाजे पर खड़ी है।
हम जानते हैं अंधकार का यह दौर भी खत्म होगा। लेकिन लोकतांत्रिक देशों और नागरिकों की कोशिश होनी चाहिए कि यह दौर बीतते-बीतते मनुष्यता को न्यूनतम क्षति से गुजरना पड़े।

शांति और सद्भाव की सारी कोशिशों के बावजूद भी यूक्रेन में जो मानवीय प्राकृतिक भौतिक ढांचागत विध्वंस चल रहा है, वह 21वीं सदी के माथे पर सबसे बड़ा कलंक है।

विश्व में उभरती हुई  नई आर्थिक शक्तियां चीन, वियतनाम, बांग्लादेश जैसे मुल्कों ने महामारी के विकट काल में भी  नई संभावनाएं  को जिंदा रखा है।
दुनिया के शक्ति संतुलन में सुनिश्चित बदलाव दिख रहा है। इस परिवर्तन की अगुवाई करने के लिए आर्थिक महाशक्ति चीन और उसके सहयोगी राष्ट्रों की मिली-जुली कोशिश जारी है।

हमारा देश इस लड़ाई में फिसड्डी साबित हुआ है। बल्कि मोदी सरकार की नीतियां आत्मघाती होती जा रही हैं।

मानव सभ्यता के राजमार्ग पर उलटी दिशा मुंह किए  हमारे देश के शासक वैश्विक महाशक्ति और विश्व गुरु की मानसिक बीमारी से ग्रसित हो पीछे छूटते जा रहे है।

वहीं हमारा पड़ोसी देश चीन वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनकर इस प्रतिद्वंदिता में बहुत आगे निकल चुका है।

शायद माओ ने कहा था कि 21वीं सदी एशिया की सदी होगी। महामारी और यूक्रेन युद्ध ने इसके लिए भौतिक परिस्थितियां तैयार कर दी है। देखना है इस तूफानी काल में दुनिया की सबसे प्राचीन गौरवशाली एशियाई सभ्यता क्या एक बार पुनः दुनिया को लोकतांत्रिक और आधुनिक समतामूलक विश्व के निर्माण  का नेतृत्व  कर सकती है।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

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