समकालीन जनमत
पुस्तक

‘ वैधानिक गल्प ’ में गल्प कुछ भी नहीं है

डॉ बृजराज सिंह

बचपन में स्कूल की किताबों में नैतिक शिक्षा का एक पाठ हुआ करता था, सिद्धार्थ और देवदत्त की कहानी वाला। जिसमें देवदत्त एक हंस को मार देते हैं, सिद्धार्थ उसे बचाते हैं। हंस पर किसका हक़ होगा, इस पर विवाद होता है। बात राजा तक जाती है, राजा न्याय करता है। कहानी का संदेश था कि बचाने वाला मारने वाले से बड़ा होता है। लेकिन अब यह बात उतनी ही पुरानी या महज़ कहानी लगने लगी है जितने पुराने बुद्ध हैं। अब कौन यक़ीन करेगा कि बचाने वाला बड़ा अर्थात् भगवान होता है, जब राजा मारने वालों के साथ खड़ा दिखता हो। पिछले कुछ वर्षों में हमने कितने ऐसे भगवान देखे हैं, जिन्हें शैतान बनाकर छोड़ दिया गया या फिर उन्हें ऐसी सजा दी गयी कि उनका हश्र देखकर दूसरा कोई भगवान बनने का ख़याल ही छोड़ दे।

अभी हाल ही की तो बात है आंध्र प्रदेश में एक डॉक्टर को अधनंगा करके सड़कों पर मारते-घसीटते हुए ले जाया जा रहा था। कुछ वैसा ही जैसा 70-80 के दशक की फ़िल्मों में खलनायक करता था। यह कौन कर रहा था-राज्य की पुलिस। संवैधानिक पुलिस। जिन्होंने इसे अपनी आँखों से नहीं देखा उनके लिए यह मात्र गप्प नहीं तो और क्या है। जिन्होंने देखा है वे भी इसे केवल एक फ़िल्मी दृश्य मानकर भूल गए होंगे या दो चार दिनों में भूल जाएँगे।

हमने न जाने कितनी सत्य घटनाएँ गल्प मानकर भुला दीं, और अनगिनत गप्प कथाओं को सत्य में परिवर्तित होते देखा है। आने वाली पीढ़ियाँ इस पर कितना विश्वास कर पाएँगी। यह सिर्फ़ एक वाक़या है, उत्तर प्रदेश में एक डॉक्टर दर्जनों बच्चों की जान बचाने की सजा अभी तक भुगत ही रहा है। और भी जगह-जगह कई लोग हैं। उन सबकी कहानियाँ सिद्धार्थ-देवदत्त की कहानी के निष्कर्ष से एकदम उलट हैं। वे भगवान होने या बनने की सजा भुगत रहे हैं।

हमारे समय में सत्य और गल्प का भेद ही मिट गया है। जो सत्य है वह गल्प की भाँति नमूदार होता है और जिसे अब तक गल्प समझते आए थे वह सत्य बनकर बारहा हमारे सामने खड़ा हो जाता है। अब गल्प से निकलकर जिसमें बुरे आदमी की जान सात गुफाओं के भीतर रहने वाले एक तोते में बसती है, जिस तक कोई नहीं पहुँच सकता, हमारे वास्तविक जीवन में घुस चुकी है।

यथार्थ को जितना सम्भव हो उतना नीचे (पाताल तक) पहुँचा दिया जा रहा है, और गप्प को धान के बीज की तरह छींट दिया जा रहा है। यही गप्प की फसल जब ‘वाट्सएप’ या ‘फ़ेसबुक’ जैसे माध्यमों से लहलहाने लगती है, तभी किसी को बच्चा चोर तो किसी को गोवंश तस्कर कहकर भीड़ के हवाले कर दिया जाता है। मज़े की बात यह है कि यह सब संवैधानिक शक्तियों के सदुपयोग (दुरुपयोग) के बल पर ही किया जा रहा है।

चंदन पाण्डेय का नया उपन्यास ‘ वैधानिक गल्प ’ इन्हीं सब कथा कहानियों के बीच छपकर आया है। हमेशा की तरह चंदन के इस उपन्यास में भी कथावस्तु बहुत ही छोटी है, लेकिन डिटेलिंग्स इतनी ज़बरदस्त कि पढ़ने वाले के ज़ेहन में एक-एक शब्द उतरता चला जाता है। एक क़स्बेनुमा शहर के एक बहुत ही मामूली से जीव-एक एडहॉक टीचर रफ़ीक, के अचानक ग़ायब हो जाने की कहानी है। उसकी पत्नी का पूर्व प्रेमी उसकी खोज में वहाँ आता है। यह मामूली सी लगने वाली बात तब अचानक से महत्वपूर्ण और रहस्यमयी हो जाती है, जब उसमें दद्दा का प्रवेश होता है। यह पूरा इलाक़ा दद्दा का है। दद्दा की पलक झपकते ही कुछ भी हमेशा के लिए ग़ायब हो सकता है। उस क़स्बे नुमा शहर में रफ़ीक की हैसियत यूँ तो कुछ भी नहीं है लेकिन वह प्रेम, भाईचारे और प्रतिरोध की अलख जगाते हुए नयी पीढ़ी को प्रशिक्षित करने लगते हैं। इस सबके बीच वे जब बचाने वालों की ओर जाकर खड़े हो जाते हैं तब उनका ग़ायब होना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अब उनका सामना मारने वालों से है। वे क़स्बे की शांति और वैधानिकता के लिए ख़तरा बन जाते हैं।

ख़तरा इसलिए कि वे मारने वालों और बचाने वालों की शिनाख्त अपने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से करने लगे थे। अचानक से यह बेहद मामूली और औक़ात विहीन व्यक्ति इलाक़े के सबसे ताकतवर व्यक्ति के लिए ख़तरा बना जाता है।

अब मारना भी केवल व्यक्तिगत लाभ-हानि तक या हिंसक-वृत्ति की तुष्टि तक सीमित नहीं रह गया है। अब किसी को मारना भी राजनीतिक लाभ का बोनस है। नियाज़ को मारने की कोशिश उसी राजनीतिक लाभ का एक प्रयास भर है। नियाज़ की जगह और कोई भी हो सकता था लेकिन उसे कोई अख़लाक़ या पहलू खान होना चाहिए। दुर्भाग्यवश नियाज़ बच जाता है क्योंकि उसे एक भगवान अमनदीप मिल जाता है। सबको बचाने के लिए भगवान मिल जाएँ ऐसा वादा किसी संविधान की किताब में नहीं किया गया है।

वैसे भी इतने भगवान कहाँ से लाया जाय कि हर अकील, अजमल, अज़हर या किसी अकीरा, शगूफ़्ता आदि को एक-एक भगवान मिल जाए। इसलिए जो भगवान की खोज कर रहा है उसे ग़ायब कर देना होगा। अमित, दद्दा का उत्तराधिकारी है। उसका अपना भविष्य इस बात पर टिका है कि वह किसी नियाज़ को मार दे। नियाज़ की राजनीतिपूर्ण हत्या करनी होगी, तभी अमित सच्चे अर्थों में दद्दा की गद्दी सम्भाल पाएगा। लेकिन अमनदीप सारा खेल ख़राब कर देता है। चलो अमनदीप को तो भुलाया जा सकता है, फिर से किसी नियाज़ को ढूँढा जा सकता है। लेकिन इस रफ़ीक का क्या करें। क्योंकि रफ़ीक उस पूरी योजना को बेनक़ाब कर रहा है। लोगों के बीच ले जा रहा है। वह अमनदीप को भगवान कह रहा है, जबकि इलाक़े के भगवान तो दद्दा हैं। नाटक कर रहा है। एक बार नाटक कर लिया, चलो छोड़ भी दें, लेकिन अब यह 15 अगस्त को करना चाह रहा है, उससे भी आगे इसका मन इतना बढ़ गया है कि वह इस नाटक को हज़ारों की भीड़ के सामने दोल मेले में मंचन करना चाह रहा है। इसे तो ग़ायब करना ही पड़ेगा, इसे ग़ायब तो होना ही था। कितने पानसारे, दाभोलकर, गौरी लंकेश आदि को ग़ायब होना पड़ा तो रफ़ीक को क्या छोड़ दिया जाता।

एक रफ़ीक को छोड़ देने से कई अमनदीप (भगवान) पैदा हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए कुछ ऐसी तरकीब निकालनी पड़ेगी जिसे देश का विधान भी स्वीकृति देता हो। फिर लव जिहाद का संविधान निर्मित किया जाता है, जिसमें रफ़ीक को तो फँसना ही था।

लेकिन केवल रफ़ीक को ग़ायब कर देने से भी बात नहीं बनेगी, क्योंकि उसने बहुतों को इस वायरस से संक्रमित कर दिया है। वे बच गए तो फिर पनप जाएँगे। और वह जानकी, वह तो बुरी तरह से संक्रमित है। इन्हें सचाई के कीड़े ने काट रखा है। ये ‘ब्लडी लिबरल्ज़’ इन सबको ग़ायब कर देना होगा। फिर गढ़ा जाता है एक नाटक, असली पात्रों और दृश्यों द्वारा, कथा से बाहर। देवदत्त और उसके साथियों द्वारा, सिद्धार्थ और उसके साथियों के ख़िलाफ़। और हाँ यहाँ हारना सिद्धार्थ को ही था क्योंकि देवदत्त का नाटक संवैधानिक है, वही ‘अच्छे दिनों’ का यथार्थ है। उसके साथ राज्य और न्याय की सारी शक्तियाँ हैं। नाटक लिखा जाता है ‘लव जिहाद’ का। इसमें जिहादी बनाया जाता है रफ़ीक। यही रफ़ीक ग़ायब होता है। इसे सियासी बनाने के लिए जानकी को ग़ायब किया जाता है। रफ़ीक की पत्नी अनसूया ऐसी बेबस और लाचार जनमानस की प्रतिनिधि है जिसके पास न तो कोई राजनीतिक संरक्षण है या न ही कोई संवैधानिक अधिकार, इसीलिए थाने का सिपाही उसकी सात माह के गर्भ को अपने डण्डे से छूता है। यही इस देश की 80 प्रतिशत जनता का सच है।

एक पाठक के तौर पर इस उपन्यास का अंत बेहद अप्रत्याशित है। अंत के दो पृष्ठ तो मुझे कई बार पढ़ना पड़ा। कोई क्लाईमेक्स नहीं, अचानक से कथा ख़त्म, सारे दृश्य ग़ायब, न कोई विधान, न कोई संविधान। जैसे तेज चलती ट्रेन के डब्बे अचानक से इंजन से कट जाएँ, इंजन आगे चला जाए और डब्बे वहीं छूट जाएँ, डब्बे में सवारियाँ भी हैं। ज़ाहिर है सवारियों को भी वहीं रह जाना होगा। उपन्यास के अंत में पाठक को भी कुछ ऐसा ही महसूस होता है। ऐसी कहानियों को क्लाईमेक्स तक पहुँचना ही नहीं था, न तो नाटक में, न उपन्यास में न ही हमारे वास्तविक जीवन में। हमारे आसपास जो कहानियाँ हैं उनमें भी रफ़ीक वापस नहीं आता, न ही यह पता चलता है कि वह कहाँ है। जेएनयू का छात्र नजीब कहाँ ग़ायब हो गया आजतक किसी को ख़बर है क्या? नहीं न, तो फिर रफ़ीक का पता कैसे मिल सकता है। जब घटनाएँ उसी तरह अनवरत चल रही हैं तो उपन्यास किसी मुक़ाम पर कैसे पहुँच सकता है। उपन्यास से कथा निकलकर हमारे वास्तविक जीवन में बीज की तरह फैल जाती है। जैसे किसान धान के बीज छींट देता है, वैसे ही कथाकार भी दुनिया में अपनी कथा को छींट दिया है। जैसा अनिश्चित हमारा जीवन है, वैसी ही अंतहीन कथा।

यह हमारे चारों तरफ़ बिखरी साज़िशों, बेइमानियों, नफ़ीस हत्याओं, प्रतिरोध के समवेत स्वरों की हार, वैधानिक संस्थाओं का नैतिक पतन, राजनीति में हिंसा की पवित्रता, लोकतंत्र में जन अधिकारों का सिमटता दायरा और एक सामान्य नागरिक की ख़िलाफ़त में लोकतंत्र के चारों स्तंभों का संयुक्त मोर्चा और उनके सबल षड्यंत्र एवं एक नागरिक के तौर पर हमारी बेबसी आदि ऐसी अनेक कहानियों का समुच्चय है। उपन्यास पिछले पाँच छः वर्षों के सांस्कृतिक अवनति और हमारी भाषायी क्षति को भी बहुत ही संजीदगी के साथ अभिव्यक्त करता है।

(कथाकार चंदन पांडे का उपन्यास ‘ वैधानिक गल्प ’ हाल में प्रकाशित हुआ है. समीक्षक डॉ बृजराज सिंह,  आगरा के दयालबाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट में हिंदी प्राध्यापक हैं )

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