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वर्ण व्यवस्था व जाति के उच्छेद के लिए संघर्ष तेज करना होगा

11 दिसम्बर, 2021 को प्रलेस-जलेस-जसम द्वारा इलाहाबाद में आयोजित अमृत राय जन्मशती आयोजन में सर्वसम्मति से ´साहित्य-संस्कृति के आज के संयुक्त मोर्चे´ के विषय में पारित प्रस्ताव

“आजादी के आन्दोलन के दौरान के समाज-सुधार केवल ऊपरी ही रहे। भारतीय परिवारों की वास्तविक सामंती प्रभाव-श्रृंखलाएं वैसे ही बनी रहीं। धर्म एक नये रूप में आया, समाज-सुधार की बात केवल शाब्दिक हो गयी, और लोग सामंती प्रभावों का आदर्शीकरण करने लगे। केवल यत्र-तत्र उनका रूप बदल दिया गया, अर्थात उन प्रभाव-छायाओं की नए ढंग से व्याख्या की जाने लगी।”

“पुराने सामंती अवशेष बड़े मजे में हमारे परिवारों में अभी भी पड़े हुए हैं। पुराने के प्रति और नए के प्रति एक बहुत भयानक अवसरवादी दृष्टि अपनायी गयी है। खासकर मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों की हालत यही बनी हुई है, बल्कि और खराब हुई है। नया जीवन, नये मान-मूल्य, नया इंसान, परिभाषाहीन और निराकार हो गये। वे दृढ़ और व्यापक मानसिक सत्ता के अनुशासन का नया रूप धारण न कर सके। ” (नए की जन्मकुंडली : मुक्तिबोध)

अपने लिए एक अनुकूल अवसर पाकर आरएसएस-भाजपा ने आज हिंदुत्व आधारित अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाकर पूरे देश के विमर्श को ही बदल दिया है। बेशक, यह अवसर उसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने मुहय्या कराया है। लेकिन हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि इसके पीछे आरएसएस के निरंतर जारी वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान ने एक आधार तैयार करने में बड़ी भूमिका अदा की है।

आरएसएस-भाजपा देश की आजादी की 75वीं जयंती को अपने अवसर के रूप में देख रहे हैं और उन्होंने अभी से 2022 तक चलने वाले अपने अभियान के जरिए अपने एजेंडे को जोर-शोर से उठाना भी शुरू कर दिया है। विभाजन की त्रासदी को आधार बनाकर वे देश के भीतर मुसलमानों के खिलाफ नफरत और सीमा पर पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद भड़काने का स्थाई आधार विकसित करने में लग गये हैं। संविधान, संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा तो वे कर ही रहे हैं, यहाँ तक कि वे संविधान को भी अपनी डिजाइन के राष्ट्रवादी जामे में फिट करने की कवायद में लग गये हैं। इस सबका हमें जवाब भी देना होगा। हमें आजादी और इतिहास के सवालों को और गहराई तक ले जाना होगा।

‘साहित्य-संस्कृति में आज के संयुक्त मोर्चे´ के विषय में कुछ बिंदु :

1. श्री अमृत राय ने साहित्य के संयुक्त मोर्चे की जो संकल्पना पेश की, वह इतिहास के एक खास वैश्विक और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से जुड़ी हुई थी। आज वामपंथी और जनतांत्रिक साहित्यिक सांस्कृतिक शक्तियों का मोर्चा भारतीय किस्म के फासीवाद के खिलाफ बनना न केवल अवश्यम्भावी है, बल्कि दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी-गौरी लंकेश की नृशंस हत्याओं के खिलाफ यह बन भी चुका है। अवार्ड वापसी और सड़कों पर प्रदर्शन अखिल भारतीय स्तर पर हुए।
वामपंथी सांस्कृतिक ताकतें इसके वैचारिक केन्द्रक का काम कर सकती हैं। हम ऐसी हर किस्म की धार्मिक कट्टरता का विरोध करते हैं जो विवेक पर आस्था को तरजीह देते हुए लोकतांत्रिक संवादों की राह में बाधा खड़ी करती है। सभी तरह की विषमताओं के वर्गीय अंतर्य को उद्घाटित करना और सांस्कृतिक रचनाशीलता को उस दिशा में प्रेरित करना हमारा ही काम है।

2. साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ जो शक्तियां समाज में हैं, उनमें दलित-आदिवासी और दीगर वंचित समुदायों की साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर और अभिव्यक्तियाँ अत्यंत महत्त्व की हैं। साहित्य-संस्कृति के वाम-जनवादी मोर्चे में इनका भारी महत्त्व है। वाम हलकों में शुरू-शुरू में इन्हें लेकर जो भी स्थिति रही हो, लम्बे समय से इन ताकतों के महत्त्व का स्वीकार कायम है, लेकिन अभी भी वैचारिक काम बहुत प्रारम्भिक अवस्था में ही है। दक्षिणपंथ ने अलग-अलग दलित-आदिवासी-पिछड़े समूहों के मुस्लिम-विरोधी आख्यान तैयार किए हैं जिनकी काट बड़े वैचारिक और बौद्धिक प्रयासों की मांग करती है।

3. स्त्री प्रश्न सर्वाधिक पेचीदा है क्योंकि न केवल हिंदुत्ववादी राष्ट्रीय अस्मिता, बल्कि वंचित जातिगत अस्मिताओं के भीतर भी उसे विभाजनकारी मानने का चलन है, जिसके खिलाफ मुकम्मल काम करने की जरुरत है। इसके अतिरिक्त स्थापित वाम-जनवादी साहित्यिक सांस्कृतिक हस्तियों को लगातार स्त्री प्रश्न पर खुद की आत्मालोचना और परिष्कार करते रहने की जरुरत है।

4. जन-भाषाओं के साथ मानक हिंदी और अन्य भाषाओं में काम करनेवालों का अलगाव एक बहुत बड़ी चुनौती है। ये लगभग समानांतर धाराएं बनी हुई हैं। राहुल, नागार्जुन से लेकर गोरख पाण्डेय और रमाशंकर विद्रोही तक ने जो काम इनके बीच दूरी कम करने का किया, उसे काफी आगे ले जाना पड़ेगा। ये न होने से आज हम अनेक जनभाषाओं में अपसंस्कृति का प्रसार देखते हैं। भोजपुरी और पंजाबी में अश्लील गानों की भरमार इसका एक उदाहरण है। आदिवासी समाज की कितनी ही भाषाओं के बारे में हमारी जानकारी और समझ बेहद कम है। आजादी से पहले और कुछ समय बाद तक भी हिंदी का कम से कम उर्दू और पंजाबी, बांग्ला तथा मराठी साहित्य से जो गहन सम्बन्ध था, वह काफी हद तक क्षीण पड़ चुका है जिसे पुनर्जीवित करने की बहुत जरुरत है।

5. जनभाषाओं के साथ ही जुड़ा है, जन कलारूपों का भी सवाल। बिरहा, आल्हा, कजली, लावणी ही नहीं, हजारहा लोक कला रूपों में हमारा विविधवर्णी देश खुद को अभिव्यक्त करता है। इनके जनवादी स्वरूप को निखारना भी एक बड़ा काम है।

6. अमृत राय जी ने साहित्य के संयुक्त मोर्चे की बात वैचारिक धरातल पर उठाई है। आज पहले की रूपंकर कलाओं- नृत्य, नाटक, संगीत के साथ-साथ फिल्म और डिजिटल माध्यम भी जुड़ गए हैं। हमें संयुक्त मोर्चे की संकल्पना में इन सभी विधाओं के बीच रचनात्मक आवाजाही को सार्थक और जन चरित्री बनाना होगा।

7. धरती के अस्तित्व और धरती पर मानव जीवन के अस्तित्व को लेकर आज से ज्यादा चिंताजनक स्थिति कभी भी नहीं आई थी। यह सवाल जितना दार्शनिक लगता है, उससे कहीं ज्यादा व्यावहारिक है, लेकिन जन-चेतना में, खासतौर पर हमारे देश में यह प्रश्न अधिक गहरे नहीं पैठ सका है। सिर्फ वे आदिवासी समूह, जो बड़ी-बड़ी बाँध परियोजनाओं, जल-जंगल-जमीन के अबाध दोहन से नष्ट हुए जाते हैं, अभी ये उनका ही सवाल बना हुआ है। पर्यावरण के प्रश्न सिर्फ सरकारों के लिए नहीं छोड़े जा सकते। वे तो कॉर्पोरेट हित में कुछ भी करेंगी। पश्चिमी देशों ने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। उपनिवेशवाद से लेकर अब तक वे उपनिवेशित मुल्कों के प्राकृतिक संसाधनों का अबाध दोहन करते रहे हैं लेकिन उससे होने वाले नुकसान की भरपाई में कोई हिस्सा उठाने को तैयार नहीं हैं। उनके इस रवैये का विरोध करते हुए भी अपने शासकों के पर्यावरण विरोधी क्रूर रुख को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विकास के नाम पर हवा, पानी और जमीन को जहरीला बनाने वाली परियोजनाओं का विरोध करने वाली ताकतों के साथ एकजुटता इस नाते बेहद जरूरी है। पश्चिमी देशों में तो न केवल लेफ्ट-ग्रीन पार्टियां सक्रिय हैं, बल्कि जनता के द्वारा ये प्रश्न आंदोलन की मार्फ़त भी उठाए जाते हैं।

8. एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह भी है कि हम कबीरपंथी, दादूपंथी, बहाई, सूफी से लेकर गैर-धार्मिक आध्यात्म की बहुतेरी अभी भी ज़िंदा धाराओं और संस्थाओं के साथ किस तरह के सम्बन्ध विक्सित करें। जिस वक्त सनातन धर्म को ही हथियार बनाकर फासीवाद अपनी जड़ें मजबूत करता जा रहा है, उस समय इस समानान्तर धाराओं की अंतर्वस्तु में जो भी लोकतांत्रिक सरोकार कायम हैं, उन्हें लोकतंत्र की रक्षा में किस तरह लगाया जाए ?

9. LGBTQ+ समूह की जेंडर जस्टिस की मांग के साथ एकता स्थापित करनी होगी। अतिशय अल्पसंख्या के हितों की बात उठाकर इसने लोकतंत्र के बुनियादी स्वरूप की समझ को गहरा किया है। फासीवाद का विरोध करते हुए ही आगामी लोकतांत्रिक समाज के खाके का निर्माण करने के लिहाज से भी इस आंदोलन के साथ संवाद और सहकार समय की जरूरत है।

10. मुख्य धारा की मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए भाजपा-आरएसएस लगातार झूठ, नफरत को बहुत ही सुनियोजित और संगठित तरीके से प्रचारित कर रहे हैं। पिछले पांच-सात वर्ष के दौरान किसानों, मजदूरों, नौजवानों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों के आंदोलन को मीडिया ने दबाने की कोशिश की। इक्का-दुक्का मीडिया संस्थानों व स्वतंत्र मीडिया समूहों को छोड़ दिया जाय तो मुख्यधारा की मीडिया ने अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, धार्मिक पाखंड, मुस्लिम विरोध, पाकिस्तान विरोध, वामपंथ विरोध को अपना दैनिक एजेंडा बना लिया है।

इसके बरक्स वैज्ञानिक चेतना और अंधश्रद्धा निर्मूलन के संगठन, व्यक्तियों आदि के साथ हमें एकता कायम करनी होगी। कुसंस्कार, अतार्किकता, पाखण्ड, ज्ञान-विरोध, साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष तेज करना होगा और कलबुर्गी, पानसरे, गौरी लंकेश आदि को आइकन बनाकर सामने लाना होगा।

हमें वर्ण व्यवस्था व जाति के उच्छेद के लिये संघर्ष तेज करना होगा। साथ ही विरासत, परम्परा और शिक्षा के भगवाकरण के विरोध में चल रहे संघर्ष में प्रभावी हस्तक्षेप करना होगा। हमें अन्य संगठनों- छात्र, ट्रेड यूनियन, किसान, महिला आदि के साथ मिलकर कार्य करना होगा और नई पीढ़ी से अधिकाधिक संवाद का रास्ता ढूंढ निकालना होगा।

यदि इस प्रस्ताव पर हम सभी लोग सहमत हैं/हो सकें तो इन सभी बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्ति और आलोचना की आजादी तथा साम्प्रदायिक फासीवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद के खिलाफ यह आयोजन और इसमें शामिल हम सभी भारत की सभी भाषाओं में काम करने वाले लेखकों और कलाकारों का एक अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने का आह्वान करते हैं।

प्रगतिशील लेखक संघ

जनवादी लेखक संघ

जन संस्कृति मंच 

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