(ज्योतिराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827-28 नवम्बर 1890 के स्मृति दिवस पर उन्हें और उनके योगदान को याद कर रहें हैं सर्वेश कुमार मौर्य) संपादक
सर्वेश कुमार मौर्य
सत्ता द्वारा पोषित-पालित परम्परा का विरोध लगातार होता रहा है। भारत में बौद्धवाद और मध्ययुगीन एकेश्वरवादी भक्ति आन्दोलन इसके बड़े उदाहरण हैं।
इन आन्दोलनों ने सत्ता समर्थित वर्णवादी भेदभाव को नकारा। बुद्ध ने कर्म को महत्व दिया और संतों ने उसी परम्परा को बढ़ाते हुए ‘सबार ऊपर मानुस सत्य’ का मार्ग दिखाया।
मध्ययुगीन निम्नवर्गीय संतो ने एक वैचारिक सोच के तहत किस प्रकार एक स्वर से वर्णाश्रमी परम्परा का विरोध किया यह हमें संतों के संगठित स्वर गुरु ग्रंथसाहब में देखने को मिलता है।
प्रतिरोध की इसी जनपरम्परा में आधुनिक काल के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्वों ने योग दिया। महाराष्ट्र के महात्मा ज्योतिबा फुले इसी जनपरम्परा की महान विभूति हैं।
उन्होंने कर्मक्षेत्र में सत्यशोधक समाज व साहित्यक्षेत्र में ‘तृतीय रत्न’, ‘गुलामगीरी’, ‘किसान का कोड़ा’ आदि पुस्तकों के सृजन किया। हालांकि उन्हें शूद्रों-अतिशूद्रों के अस्मितावादी चिंतक के रूप में ज्यादा याद किया जाता है जबकि वे आधुनिक नवजागरणकालीन ऐसे चिंतक हैं जो किसानों और खेतिहर मजदूरों के प्रश्न को बार-बार उठाते हैं, जिसकी तरफ विद्वजनों का ध्यान कम ही गया है।
‘किसान का कोड़ा’ पुस्तक के ‘प्रास्ताविक’ में ज्योतिबा फुले ने लिखा, ‘‘शूद्र किसान के आज इस दीन अवस्था में पहुँचने के धार्मिक और राज्य सम्बंधी कई कारण हैं, उन तमाम कारणों में से कुछ कारणों का विश्लेषण करने के उद्देश्य से ही मैनें इस ग्रंथ को लिखा है।
शूद्र किसान-नकली और जुल्मी धर्म की मदद से, सभी सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों का वर्चस्व होने की वजह से, भट्टभिक्षुकों द्वारा और सरकारी यूरोपियन कर्मचारी के ऐशोआरामी होने की वजह से-ब्राह्मण कर्मचारियों द्वारा सताये जाते हैं।
इस ग्रंथ के अध्ययन से उनको उस शोषण से अपना बचाव करने की क्षमता प्राप्त हो, यही मेरा उद्देश्य है; इसलिए इस ग्रंथ का नाम भी ‘किसान का कोड़ा’ (शेतक-याचा आसूड) रखा गया है।’’(रचनावली-1 पृ 289) फुले आगे लिखते हैं, ‘‘दुनिया के तमाम देशों का इतिहास एक-दूसरे से तुलना करके देखने पर, यह निश्चित रूप से दिखाई देगा कि हिन्दुस्थान के अज्ञानी, अनपढ़, भोले-भाले शूद्र किसानों की स्थिति अन्य देशों के किसानों से बद्तर है। पशु से भी बुरी स्थिति में पहुँची है।’’ (पेज 291 रचनावली 1) और यह सब अविद्या से हुआ।
उन्होंने लिखा, ‘‘विद्या न होने से बुद्धि न रही, बुद्धि के न होने से नैतिकता न रही, नैतिकता के न होने से, गतिमानता न आई; गतिमानता के न होने से से धन-दौलत न मिली, धन-दौलत न होने से शूद्रों (शूद्र किसान) का पतन हुआ। इतना अनर्थ एक अविद्या से हुआ।’’ (रचनावली-1 पृ 289)
उपर्युक्त विस्तृत उद्वरणों की आवश्यकता का कारण फुले की केन्द्रीय चेतना की खोज-खबर है। असल में फुले खेतिहर समाज में धार्मिक-सांस्कृतिक शोषण से त्रस्त निम्नवर्गीय अज्ञानी निम्नवर्गीय अज्ञानी किसानों की चिन्ता के चिंता के चिंतक हैं।
अपनी लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाओं-तृतीय रत्न 1855, ब्राह्मणों की चालाकी 1869, गुलामगीरी और किसान का कोड़ा 1883, में वे निम्नवर्गीय किसानों की दशा-दुर्दशा के कारणों की खोज-खबर लेते हैं, उनकी गुलामगीरी की शिनाख्त करते हैं और सत्तावर्ग के गठजोड़ ब्राह्मण+अंग्रेज (सामंतवाद और उपनिवेशवाद) की पोल खोलते हैं।
बहुत साफ शब्दों में उन्होंने लिखा कि,‘‘सरकारी गोरे अफसर आम तौर-पर ऐशोआराम में मदहोश रहते हैैं, जिसकी वजह से उनको किसानों की वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए फुरसत ही नहीं मिलती।
उनके इस गाफिल व्यवहार की वजह से सभी सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों का वर्चस्व होता है। इन दोनों कारणों से किसान इतने लूट लिए जाते हैं कि उनको पेट-भर की रोटी और बदन पर पूरा कपड़ा भी नहीं मिलता।’’ (रचनावली-1 पृ. 306) इसलिए फुले किसानों को चैतन्य करना चाहते हैं।
उनकी मानसिक गुलामी को खत्म करना चाहते हैं। ‘जिनको बेर की गाड़ किधर होती है ऐसे ड़रपोक खिलौनों’ में साहस और चेतना भरना चाहते हैं। (रचनावली-1 पृ. 203) अन्धा पीसता है और सारे पिसान कुत्ते खा जाते हैं।(रचनावली-1 पृ. 91) इसलिए उनका कहना है कि कर्म तो ठीक है लेकिन कर्मफल पर ध्यान जरूरी है। न कि कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचनः।
यह एक ऐसी मानसिक गुलामी है जिसका पालन-पोषण परिवर्द्धन-संवर्द्धन सत्तानश़ीन तबका लम्बे समय से करता रहा है। फुले इस बात को ठीक से समझते हैं, समझाते हैं और इससे निकलने की राह भी बनाते हैं। संभवतः इसीलिए आज की उत्पीड़ित दुनिया उन्हें अपना पथ-प्रदर्शक अगुआ मानती है।
फुले समस्या को अलगाकर, काटकर, अस्मितावादी तरीके से देखने के हामी नहीं रहे। वे पूरी दुनिया के उत्पीड़ित और गुलाम लोगों के साथ साझे की बात करते हैं, साझा दुख, साझा लड़ाई।
वे अपनी पुस्तक ‘गुलामगीरी’ को अमेरिका के संघर्षशील ब्लैक लोगों को समर्पित करते हैं और ‘साझी दुनिया’ की बात करते हैं । वे लिखते हैं, ‘‘अब उन गुलाम लोगों में और इन गुलामों में फर्क इतना ही होगा कि पहले प्रकार के गुलामों को ब्राह्मण पुरोहितों ने अपने बर्बर हमलों से पराजित करके गुलाम बनाया था और दूसरे प्रकार के गुलामों को दुष्ट लोगों ने एकाएक जुल्म करके गुलाम बनाया था। शेष बातों में इनकी और उनकी स्थिति समान है। इनकी स्थिति और उन गुलामों की स्थिति में बहुत फर्क नहीं है।’’(रचनावली-1 पृ. 140)
‘विमलकीर्ति’ ने लिखा कि ज्योतिबा फुले आधुनिक भारत में क्रांतिकारी समाज परिवर्तन के आंदोलन के मूल प्रर्वतक हैं यह बात सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाण की आवश्कता नहीं है। उनके साहित्य को पढ़ने से ही इस बात का पता चल जाता है कि उन्होंने किस तरह हिन्दू समाज के शूद्रादि-अतिशूद्रों (दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों) की समस्या को उजागर करने की कोशिश की है। उन्होंने किसानों के सवालों को उठाया। गांव देहातों में गांव के मुखिया, जमीदार, साहूकार, कुलकर्णी, ब्राह्मण, बनिया और पटवारी आदि लोग किसानों के अज्ञान का लाभ उठाकर किस प्रकार उनका शोषण करते हैं इस बात का विश्लेषण जितनी गहराई से फुले साहित्य में मिलता है उतना उनके समकालीन किसी भी समाज-सुधारक के साहित्य में नहीं मिलता ।
उन्होंने नारी की गुलामी के सवालों को उठाया। वे पंडा-पुरोहित वर्ग को धार्मिक शोषक वर्ग संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि शूद्रादि-अतिशूद्र तथा नारी वर्ग हिन्दूधर्म के धार्मिक गुलाम हैं। ज्योतिबा फुले की राय में यह सारे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक सवाल हिन्दू समाज व्यवस्था हिन्दू धर्म, पुरोहित वर्ग के कारण पैदा हुए हैं।
इसलिए वे इसी व्यवस्था में क्रांतिकरी परिवर्तन की अवश्यकता महसूस करते हैं। (रचनावली-1 पृ. 6)
विमलकीर्ति जी की सभी बातों से सहमत होने के बावजूद मैं इस बात से सहमत नहीं हो पाता कि फुले मूलगामी परिवर्तन की चेतना के चिंतक हैं, उनके सम्पूर्ण व्यवहार और साहित्य से ‘सुधारवादी सोच’ ही सामने आती है जोकि नवजागरण के उस दौर के अन्य चिंतकों में भी दिखाई देती है ।
फुले का चिंतन नवजागरण के अन्य चिंतकों से सिर्फ इस मामले में अलग है कि वे निम्मवर्गीय किसानों और खेतिहर मजदूरों को ध्यान में रखते हैं। लेकिन अंततः फुले उनकी स्थिति में सुधार ही चाहते हैं, वह भी व्यवस्थावादी तरीक़े से ही। यह तत्कालीन सोच की सीमा है।
वे किसी भी सशस्त्र जनविद्रोह, आंदोलन का समर्थन नहीं करते। वे 1857 के ‘गदर’ की निंदा करते हैं जिसकी मूलवर्ती चेतना किसान थे वे उस वक्त के किसी भी किसानी विद्रोह, विरोध-प्रतिरोध का समर्थन करते नहीं दिखते बल्कि वे बार-बार अंग्रेजों और अंग्रेज़ीराज की हल्की आलोचना करते दिखते हैं।
फुले अंग्रेजों को अपने हित चिंतक के रूप में देखते हैं। क्षत्रपति शिवाजी राजा भोसले का पँवाड़ा की प्रस्तावना में फुले ने लिखा कि ‘‘जगत्कर्ता भगवान सारी दुनिया का संचालन करने वाला और वही सभी का ज्ञानदाता भी है।
उसी को हम शूद्रों पर दया आई और उसने अपने परमप्रिय अंग्रेज संतान को राजा बनाकर हम क्षत्रियों को ब्रह्मराक्षसों के क्रूर पंजों से खींचकर बाहर लाने के लिए हिन्दुस्थान में भेजा है।
ये दयालु अंग्रेज लोग हम उत्पीड़ित अज्ञानी लोगों को जब से सही ज्ञान पढ़ाने लगे, तभी से ब्राह्मणों द्वारा रचे गए मतलबी रहस्य से स्वतंत्र होने का विचार हमारे मन में बार-बार आ रहा है।’’(रचनावली-1 पृ. 53)
फुले अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं।
गुलामगीरी में फुले ने लिखा कि ‘‘इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए।
इसीलिए ये लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं। ये लोग अंग्रेजों के इन उपकारों को कभी भूलेंगे नहीं। उन्होंने इन्हें आज सैकडों साल से चली आ रही ब्राह्मणशाही की गुलामी की फौलादी जंजीरों को तोड़ करके मुक्ति की राह दिखाई है।’’
नवजागरणकालीन फुले जैसे सुधारक अंग्रेजों को अपने हित चिंतक के रूप में देख रहे थे। ईसाई मिशनरियों, पादरियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर रहे थे। ऐसे समाज के लोग जो सदियों से उपेक्षा और दमन के शिकार थे, आखिरकार क्या करते?
यह स्वाभाविक था कि उन्होंने अंग्रेजियत में अपनी मुक्ति देखी, उन्हें अंग्रेज प्रगतिशील लगे। इस बात को ‘प्रभु वर्ग की भक्ति’ की तरह भी नहीं देखा जाना चाहिए जैसे कि कुछ विचारक देखते हैं।
यह एक सुधारवादी दृष्टिकोण था, जिसको ‘क्रांतिकारी’ या ‘प्रभुवर्ग की भक्ति’ में रेड्यूस कर देना दोनों ठीक नहीं है। ईसाई मिशनरियों ने एक विकल्पहीन समाज के सामने उम्मीदों और आशाओं के क्षितिज खोले। शायद यही कारण है कि कथित तौर पर निचली जातियों के धार्मिक सांस्कृतिक शोषण से त्रस्त लोग बहुतायत की संख्या में धर्म परिवर्तन की ओर उन्मुख हुए।
आगे चलकर यही ‘धर्म परिवर्तन’ चिंता का विषय बना। गांधी जी ने भी इसे महत्वपूर्ण सवाल माना। यहां तक कि यह ब्राह्मणों के बीच भी चिंता का विषय बना। इसी को विषय बनाकर 1927 में ‘चांद’ पत्रिका का ‘अछूत अंक’ निकला जिसमें यही चिंता जाहिर की गई और कहा गया कि यदि हिन्दू धर्म को बचाना है तो आंतरिक सुधार की जरूरत है तभी यह धर्म परिवर्तन की समस्या खत्म होगी।
फुले ने 1855 में ‘तृतीय रत्न’ नाम का जो नाटक लिखा उसी से आधुनिक दलित नाटक का आरम्भ माना जाना चाहिए। इसके दो प्रमुख कारण हैं।
पहला नाटक मध्यकालीन ईश्वर केन्द्रित दृष्टि का नकार करता है। दूसरा यह आधुनिकता और नवजागरण की तार्किक दृष्टि और चेतना से लिखा गया है। यह नाटक ब्राह्मणवादी षड्यन्त्रों का पर्दाफाश करता है।
इस नाटक में छोटे खेतिहर किसान के जागृति की कथा है। ब्राह्मण जोशी कुनबी स्त्री को होने वाले बच्चे की सारी अलबलाओं को दूर करने की एवज़ में उसका सब कुछ लूटने का षड्यन्त्र करता है।
वह उन्हें ग्रहों का भय दिखाता है। कुनबी और उसकी स्त्री दोनों को जाल में फंसता हैं। वे दोनों ज़मीन गिरवी रखकर कर्ज लेकर ब्राह्मण को भोज करवाते हैं।
नाटक के अगले हिस्से में पादरी साहब के समझाने पर उनकी आंखे खुलती हैं और उन्हें पता चलता है कि उनकी इस दुर्दशा का कारण अविद्या है।
दोनों नाटक के अन्त में सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले की रात्रि पाठशाला में जाने का निश्चय करते हैं।
यह नाटक धार्मिक पाखंड की विडम्बना को यथार्थवादी ढंग से दिखाता है, दर्शकों को जागरूक करता है।
पुरानी नाट्यशास्त्र की टेकनिक साधारणीकरण से अलग लाइन लेता है। यह नाटक डिटैचमेन्ट थियरी (पृथक्करण सिद्धान्त) को अपनाता है।
इस तरह यह नाटक दलित नाटकों की अलग धारा और वैचारिकी के निर्माण का भी आदिनाटक बन जाता है। पृथक्करण का यह सिद्धान्त दर्शकों को नाटक में मदहोश नहीं होने देता। बल्कि बिदूषक के माध्यम से बार-बार चैतन्य करता रहता है।
आप देखेंगे कि दलित नाटकों में बिदूषक, जोकर आदि की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। वह व्यंग्य करता है, खिझाता है और कभी-कभी तार्किक दृष्टि से व्यवस्था व सत्तानशीनों का विरोध भी करता है। बातें और प्रहार इस किस्म के होते हैं कि उन्हें हंसी ठहाके में हल्का मान लिया जाता है।
दरअसल यह व्यवस्था के सामने अपने प्रतिरोध को दर्ज कराने की ऐसी टेकनीक है जिसपर व्यवस्था का सेंसर कम चलता है।
फुले के इस नाटक में विदूषक बहाने से बहुत सी बातें करते हैैं । वह बीच- बीच में आकर जोशी की सीमाओं और षड्यन्त्रों खुलासा करता है,‘‘यदि जोशी लोगों को (अपने अलौकिक ज्ञान) मौत से बचा सकते हैं तो अंग्रेज सरकार को सारी दवाएं, इलाज एक ओर रख देने चाहिए, सारे अस्पताल बन्द कर देने चाहिए और वह सारा काम जोशी को साैंप देना चाहिए या नहीं?’’(रचानावली-1 पृ. 14) एक अन्य जगह वह जोशी को साहूकार से भी खतरनाक बताता है, ‘साहूकार भी कर्ज देकर सुविधा से किस्त के हिसाब से पैसा वसूल करते हैं, लेकिन जोशी जैसे लोग यमराज की तरह पीछा करके बड़ी बेसब्री लेते हैं कि नहीं?’(रचानावली-1 पृ. 30)
एक ओर नाटक में पादरी व अंग्रेज सरकार की प्रशंसा है तो दूसरी ओर सख़्त चेतावनी भी। तृतीय रत्न में विदूषक कहता है कि-‘‘ब्राह्मणों ने शूद्र-अतिशूद्र जातियों पर जो शिक्षाबन्दी लगाई थी उसको समाप्त करके उनको शिक्षा का मौका प्रदान कर के होशियार बनाने के लिए भगवान ने इस देश में अंग्रेजों को भेजा है। शूद्र अतिशूद्र पढ़कर होशियार होने पर वे लोग अंग्रेजों का अहसान नहीं भूलेंगे और फिर वे लोग पेशवाही से भी सौ गुना अंग्रेजीराज को पसन्द करेंगे।’’(रचानावली-1 पृ0 47) साथ में यह चेतावनी भी देता है-‘‘लेकिन आगे यदि मुगलों की तरह अंग्रेज लोग इस देश की प्रजा का उत्पीड़न करेंगे तो शिक्षा पाकर होशियार हुए शूद्र-अतिशूद्र लोग पहले के जमाने में हुए जवां मर्द शिवाजी की तरह अपने शूद्रादि-अतिशूद्रों के राज की स्थापना करेंगे और अमेरिका के लोगों की तरह अपनी सत्ता खुद चलाएंगे लेकिन ब्राह्मणों, पण्डों की वह दुष्ट और भ्रष्ट पेशवाही को अब आगे इस देश में कभी भी आने नहीं देंगे।’’(रचानावली-1 पृ0 47)
उपर्युक्त उद्धरण में एक ओर शूद्र-अतिशूद्र जातियों की दशा का वर्णन है तो दूसरी तरफ चेतावनी के साथ वर्तमान अंग्रेजी सरकार का तथा पेशवाई राज का भी इतिहास-वर्तमान प्रश्नांकित है।
इसी उद्धरण में हम यह भी देखते हैं कि इतिहास में अपनी जड़ों की तलाश है तो वर्तमान विश्व में उत्पीड़ितों से अपनी एकता का प्रदर्शन भी।
सामान्यतः स्त्रियों को समाज में ज्यादा रूढ़िवादी आडम्बरयुक्त और पिछड़ी सोच का माना जाता है लेकिन फुले का यह नाटक स्त्री को पुरूष के मुकाबले ज्यादा तार्किक, तेज और कहने वाला दर्शाता है। नाटक की शुरूआत में ही स्त्री खिन्न होकर जोशी से कहती है ‘जाइए पंडितजी ब्राह्मणों का चीमड़पन बड़ा ही खतरनाक।
हम लोगों को आपके पेट की चिंता कब तक करनी चाहिए। आप लोगों को कुछ न कुछ काम तो करना ही चाहिए।’ (रचानावली-1 पृ0 13)
धार्मिक-सांस्कृतिक शोषण की जिस परम्परा का पर्दाफाश यह नाटक करता है उसी परम्परा का तार्किक व व्यवस्थित खण्डन आगे चलकर प्रेमचंद की रचनाओं सवा सेर गेहूं, गोदान आदि में मिलता है। खेतिहर समाज में सक्रिय शोषक-शक्तिओं की पहचान नाटक करता है।
नाटक संवेदना और चेतना के धरातल पर जागरूक करता है। अपने सम्पूर्ण अर्थों में यह नाटक आधुनिक दलित नाट्य परम्परा का पहला नाटक तो है ही साथ ही साथ वह उन नाट्य प्रवृत्तियों का आधार भी, जो आगे चलकर विकसित हुई।
आज जब हम फुले को याद करें तो उनकी सीमाओं और उपलब्धियों के प्रति आलोचनात्मक होकर याद करें। यही फुले के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(डॉ. सर्वेश कुमार मौर्य समकालीन आलोचना का चर्चित नाम हैं और NCERT, मैसूर, में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।)
संपर्क: drsarveshmouryancert@gmail.com
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