समकालीन जनमत
शख्सियत

कॉमरेड ज़िया उल हक़, लाल सलाम

( 28 सितम्बर 1920 को इलाहाबाद के जमींदार मुस्लिम परिवार में पैदा हुए ज़िया –उल-हक़ आज अपने जीवन के सौ साल पूरे कर रहे हैं. नौजवानी में ही समाजवाद से प्रभावित हुए ज़िया साहब अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और बकायदा पार्टी के दफ़्तर 17 जानसेन गंज, इलाहाबाद में एक समर्पित होलटाइमर की तरह रहने लग गए. 1943 में बंगाल के अकाल के समय जब महाकवि निराला कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित राहत अभियान में अपना सहयोग देने पार्टी दफ्तर पहुंचे उस समय जि़या भाई ही पार्टी के जिला सचिव थे और निराला जी ने अपनी दस रूपये की सहयोग राशि उन्हें सौंपी.

अपने जीवन का एक हिस्सा ज़िया साहब ने पत्रकार के रूप में भी निभाया और दिल्ली रहे. इस रोल में भी वे बहुत कामयाब रहे. हो ची मिन्ह जैसी दुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ इंटरव्यू करने का मौका भी उन्हें  मिला. साठ के दशक से वे अपनी पार्टनर और शहर की मशहूर डाक्टर रेहाना बशीर के साथ इलाहाबाद में पूरी तरह बस गए. पिछली आधी शताब्दी से ज़िया साहब इलाहाबाद के वामपंथी और लोकतांत्रिक स्पेस की धुरी बने हुए हैं. अपने दोस्ताना व्यवहार के कारण वे जल्द ही सबके बीच ज़िया भाई के नाम से जाने गए. आज उनके सौवें जन्मदिन के मुबारक़ मौके पर समकालीन जनमत उन्हें बहुत मुबारक़बाद पेश करता है और उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए दुआ करता है.

इस मुबारक़ मौके पर हम ज़िया भाई के चाहने वाले तमाम युवा और बुजुर्ग साथियों के संस्मरण पेश कर रहे हैं जिन्हें उपलब्ध करवाने के लिए उनके बेटे और छायाकार सोहेल अकबर का बहुत आभार.

इस कड़ी में पेश है अली अहमद फ़ातमी का लेख. सं .)

_________________________________________________________________________________________________________  जब आंखें खुलीं, होश व हवास आए और इल्म व अमल के मैदान में क़दम रखा तो शहर इलाहाबाद में जिन चंद नामों के ग़ैर मामूली चर्चे थे और चारों तरफ़ जिनका हमीयत व इज़्ज़त से ज़िक्र होता था उन में से एक नाम कॉमरेड ज़िया उल हक़ का था। जिन्हें उर्फ़े आम में ज़िया भाई कहा जाता था। चुनान्चे हमने भी ज़िया भाई कहा। अब याद तो नहीं कि पहली बार उनको कब और कहां देखा लेकिन यह ज़रूर है कि ज़िया भाई ऐसे अफ़राद में इकलौते फ़र्द थे जो हर तरह की महफ़िलों में शिरकत करते समाजी, अदबी, सक़ाफ़ती। अकसर की तो वो सदारत करते। जल्द ही साफ़ अन्दाज़ा हो गया कि वो इलाहाबाद की ऐसी शख़्सियत हैं जिन से हर बड़ा-छोटा शख़्स, नौजवान, बूढ़ा सभी बे-तकल्लुफ़ हैं। मोहब्बत से पेश आते हैं इससे ज़्यादा वह ख़ुद मोहब्बत व शफ़क़त के ख़ज़ाने लुटाते हैं। कोई भी हो अगर वह ज़रा सा भी तरक़्क़ी पसंद है उन के लिए अज़ीज़ है और अगर ज़रा सा फ़अ्आल है तो वह उनके दिल के क़रीब है। सारी दूरियां, सारे फ़ासले मिट जाएंगे। यह बात मैं पूरे यक़ीन के साथ इसलिए कह रहा हूं कि मैं ख़ुद गुज़िश्ता पैंतालीस साल से उनकी मोहब्बत व शफ़क़त का असीर हूं। उन्होंने मुझे बेपनाह मोहब्बत दी है, रहनुमाई की है और कभी-कभी मैं किसी वजह से ख़ामोश हो जाता तो मुतहर्रिक और फ़अ्आल करने में उन्होंने कलीदी रोल अदा किया है।

ज़िया भाई से क़ुरबते ख़ास उस वक़्त हुई जब मैं एम.ए. का तालिबे इल्म (1973-74 ई.) था और एक अरसा के बाद अन्जुमने तरक़्क़ी पसंद मुसन्निफ़ीन की इलाहाबाद शाख़ क़ाएम हुई। मुझे याद है किसी तक़रीब के सिलसिले में कैफ़ी आज़मी, नियाज़ हैदर और अजमल अजमली इलाहाबाद तशरीफ़ लाए थे। उस्तादे मोहतरम प्रोफ़ेसर सयद मोहम्मद अक़ील के घर पर नशिस्त हुई थी जिस में अंजुमन की शाख़ का क़याम अमल में आया और अक़ील साहब सद्र बनाए गए और मैं जनरल सिक्रेट्री। मैं एम.ए. तक पहुंचते-पहुंचते कई अहम प्रोग्राम कर चुका यानी कि शहर के अदबी व सक़ाफ़ती हलक़ा में मेरा तअर्रुफ़ हो चुका था। यूनिवर्सिटी में बी.ए. के एक तक़रीरी मुक़ाबले में जिस के सदर एहतिशाम हुसैन थे, अव्वल आया था और शोबा में भी कई जलसे कर चुका था। एहतिशाम हुसैन की ही ईमा पर तारीख़ से उर्दू की तरफ़ आ गया था, बल्कि यह कहा जाए कि एहतिशाम साहब ही मुझे तारीख़ से उर्दू की तरफ़ लेकर आए थे तो ग़लत न होगा और यह मेरे लिए बहुत बड़ा एज़ाज़ था। बहरहाल अब बारी थी शहर और हिन्दी के अदीबों से मुताअर्रुफ़ होने की इसलिए कि अंजुमन से अमरकांत, शेखर जोशी , रवीन्द्र कालिया, ओ.पी. मालविया, अजित पुष्कल वग़ैरह वाबस्ता थे। उन सबसे तअर्रुफ़ हुआ और ख़ूब हुआ जो आज तक उनके ख़ानदानी अफ़राद से जारी है। ज़िया भाई उर्दू, हिन्दी के अदीबों और शायरों के दरमियान पुल की हैसियत रखते थे। इसलिए कि वह कम्युनिस्ट थे और पार्टी से बाक़ायदा मुन्सलिक थे और बतौर कम्युनिस्ट लीडर मुफ़क्किर व दानिशवर हर तबक़ा-ए-फ़िक्र में उनकी इज़्ज़त थी और क्यों न हो एक लम्बी मुद्दत से वह पार्टी के मिम्बर तो थे ही आलिमे ब-अमल थे, एक्टिविस्ट थे। उनकी अमलियत और फ़अ्आलियत का यह आलम था कि पार्टी का अख़बार ‘‘हयात‘‘ वह घर-घर तक़सीम करते थे। बाद में यह ज़िम्मेदारी नसीम अंसारी, फ़रमान रज़ा और राक़िम ने किसी हद तक तक़सीम कर ली। किसी अख़बार में कोई अच्छी ख़बर या कॉलम शाए होता वह उसका तराशा निकालकर उसकी फ़ोटो स्टेट करवाते और हम लोगों के दरमियान तक़सीम करते। अंजुमन के मैंने बड़े-बड़े जलसे किए। सयद मोहम्मद अक़ील, अमरकांत वग़ैरह तो यक़ीनन स्टेज की बड़ी ज़ीनत होते लेकिन स्टेज से नीचे पसे पर्दा ज़िया भाई का अहम रोल होता। वह अपने आप को एक कारकुन समझते, इससे ज़्यादा नहीं। उनका रोल उस वक़्त अहम होता जब हम किसी छोटे-बड़े जलसे की मिटिंग करते फिर वह उसमें इस तरह से दिलचस्पी लेते जैसे अपने ही बेटे की शादी की तैयारियां कर रहे हों। वक़्त से शिरकत करते जब कि उनके पास कोई सवारी न थी। उनकी अहलिया शहर की मशहूर डाक्टर थीं, डाक्टर रेहाना बशीर। मशहूर लाएब्रेरियन बशीर अहमद जिनका तअल्लुक़ अलीगढ़ से था उनके वालिद थे और रेहाना साहिबा ने अलीगढ़ से ही एम.बी.बी.एस. किया था। चूंकि उनकी शादी ज़िया उल हक़ साहब से इलाहाबाद में हुई इसलिए वह यहां आकर बसीं और एक बेहतरीन कामियाब डाक्टर के तौर पर पहचान बनाई। पता नहीं कि ब-वक़्ते शादी ज़िया उल हक़ क्या करते थे, इसलिए कि मेरे इल्म में है कि वो तालिबे इल्मी के ज़माने से ही कम्युनिस्ट पार्टी से वाबस्ता हो गए। हमावक़्ती कारकुन। संघर्ष किया, रूपोश हुए, देहली में पार्टी के दफ़्तर में रहे, सूखी सख़्त बेंच पर सोए, जेल गए और वहां की सऊबतों को बर्दाश्त किया। इन तमाम मुश्किलात  से वह कमज़ोर होने के बजाए पुख़्ता बल्कि पुख़्तातर हुए। डाक्टर रेहाना के बत्न से दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हुए। मैं जब उस घराने से मुताअल्लिक़ हुआ तो सोहेल और समीर की उम्र आठ-दस बरस की रही होगी। मेरे सामने बड़े हुए, जवान हुए और अब तो माशाअल्लाह बड़े-बुर्ज़ुग शादीशुदा और साहिबे औलाद हो चुके हैं।

एक बार ज़िया भाई ने बताया कि पार्टी की किसी ज़रूरत के तहत उन्होंने अपने वालिद का टाइप राइटर चुराकर बेच डाला। उनके वालिद एक अच्छे वकील थे और शहर के पुराने मुहल्ले शाहगंज में उनका मकान था, जिसे ज़िया भाई आज भी याद करते हैं और बताते थे कि यहीं वो पैदा हुए, इबतेदाई मज़हबी तालीम उसी घर में हुई और इक़बाल के तराने याद कराए गए। यह बताते-बताते वह अकसर इक़बाल का नग़मा ‘‘लब पे आती है दुआ….‘‘ दोहराने लगते। जिस वक़्त चन्द्रशेखर के क़त्ल का हादसा हुआ वह गवरमेंट कालेज, इलाहाबाद में पढ़ते थे। बताते थे कि सारे शहर में एक हंगामा बरपा था, हमें स्कूल से छुट्टी दे दी गई। रास्ते में हमें रोक दिया गया। हम रास्ता बदल-बदल के घबराए हुए किसी तरह घर पहुंचे।

यह तो मुझे याद नहीं कि ज़िया भाई कम्युनिस्ट पार्टी में किस सिन में शामिल हुए, लेकिन यह ज़रूर है कि वह नौजवानी में ही पार्टी में आ गए थे। तहरीके आज़ादी, मुल्क की तक़सीम, फ़सादात वग़ैरह को ज़िया भाई ने अपनी जवान आंखों से देखा। अपने ख़ानदान के ज़्यादातर अइज़्ज़ा को पाकिस्तान जाते हुए देखा लेकिन पार्टी से वाबस्तगी, वतन से मोहब्बत और ज़मीन से जुड़ाव ने उन्हें वतन से बाहर न जाने दिया। तक़सीम के बाद मुस्लिम लीग का भी इंतेक़ाल हो गया। मुस्लिम दानिशवरों के लिए या तो नेशनल कांग्रेस में जगह थी। इसलिए कि गांधी जी के क़त्ल के बाद जवाहर लाल नेहरु और अबुलकलाम आज़ाद बिलख़ुसूस नेहरु उनके आइडियल थे। या फिर ग़ाली तरक़्क़ी पसंदी और इश्तेराकियत की समझ उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ ले जाती। कम्युनिस्ट पार्टी वाक़ई उन दिनों ज़ोरों पर थी। कांग्रेस में उसका दबदबा न था लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता कांग्रेस के बाज़ ग़लत फ़ैसलों और रवइयों की वजह से कम्युनिस्ट कांग्रेस से अलाहेदा होते गए। कांग्रेस ने उसको मज़हब मुख़ालिफ़ पार्टी कहकर बदनाम करने की कोशिश की जिस में वह बड़ी हद तक कामियाब भी हुई। उस वक़्त हर कम्युनिस्ट मज़हब मुख़ालिफ़ या लामज़हब समझा जाता था। चुनांचे इबतेदा में मैंने भी ज़िया भाई को इसी नज़र से देखा था लेकिन मुझे याद नहीं कि इस लम्बी मुद्दत में उन्होंने कभी मज़हब के ख़िलाफ़ कुछ कहा-सुना हो। सच तो यह है कि मज़हब उन के अन्दर कहीं न कहीं मौजूद था और वह उसका दिल से एहतेराम करते थे। अलबत्ता नाम निहाद मज़हबी लोगों से उनकी अकसर तकरार हो जाती। एक बार अंजुमन रूहे अदब की किसी मिटिंग में मुफ़्ती फ़ख़रुल स्लाम से उनकी बहस हो गई लेकिन किसी को बोलने की हिम्मत नहीं हुई, इसलिए कि सभी ज़िया साहब का दिल से एहतेराम करते थे और ज़िया भाई भी ख़्वाह क़ब्रिस्तान का मामला हो या तालीमी मदरसा वग़ैरह का सभी तंज़ीमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते और तअव्वुन करते थे।

मुझे याद है कि जब वह 1985-86 ई. में अंजुमन तरक़्क़ी पसंद मुसन्नेफ़ीन की गोल्डन जुबली तक़रीबात मनाई जा रही थी, जिसका आग़ाज़ जुलाई 1985 ई. में लन्दन से हुआ और मेरे उस्ताद प्रोफ़ेसर अक़ील साहब उसमें शरीक होने जा रहे थे तो वह हम लोगों को स्टेशन तक पहुंचाने आए थे और बार-बार ताकीद करते रहे कि वहां जो भी लिट्रेचर तक़सीम हो मेरे लिए भी लेकर आना। हम लोग जब वापस आए तो एक छोटा सा स्तेक़बालिया हुआ जिसमें उन्होंने भी शिरकत की और इस बात पर ज़ोर दिया कि इलाहाबाद में भी गोल्डन जुबली कांफ़्रेंस होनी चाहिए। और फिर 1986 ई. में हम सभी ने इलाहाबाद में भी तक़रीब का एहतिमाम किया। जिसमें ज़िया साहब ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस तक़रीब का सबसे अहम हिस्सा वह था जब हम उस मकान में गए जहां सज्जाद ज़हीर और उनके वालिद रहते थे और जहां प्रेमचंद, जोश वग़ैरह के ज़रिए अंजुमन की बुनियाद पड़ी थी। ज़िया भाई ने सज्जाद ज़हीर की किताब का वह हिस्सा पढ़ा जिस में उस जगह और उस नशिस्त का बतौर ख़ास ज़िक्र किया गया है। ज़िया भाई की दिलचस्पी और फुर्ती क़ाबिले रश्क होती। यही वाक़ेआ हमने उस वक़्त भी दोहराया जब हमने अंजुमन की तरफ़ से सज्जाद ज़हीर की सदी मनाई। यह एक बहुत बड़ा जश्न था, जिसमें उर्दू, हिन्दी के बड़े-बड़े अदीब व दानिशवर शरीक हुए। ज़िया भाई उस पूरी तक़रीब की मजलिसे स्तेक़बालिया के सदर थे और उन्होंने इफ़तेताही इजलास में जो ख़ुतबा-ए-स्तेक़बालिया पढ़ा था उसमें पूरी तारीख़ छुपी हुई थी। इसी तरह हमने जश्ने फ़ैज़, जश्ने अली सरदार जाफ़री भी मनाया। ज़िया भाई हर तक़रीब में पूरी तुन्दही के साथ मौजूद रहते। होता यह आया है कि किसी भी बड़ी तक़रीब के बाद हम अकसर महीनों ख़ामोश रहते, सुस्ताने में गुज़ारते। हमारा यह अमल ज़िया भाई को हरग़िज़ पसंद न आता, वह फ़ोन पर बातें करते। घर बुलाते और हमें जोश दिलाते। कुछ न कुछ करते रहने की तरग़ीब करते रहते। उनका घर, घर वाले, नौकर-चाकर सभी इसके आदी हो चुके थे। कौन है जो उनके घर नहीं आता जाता। पाकिस्तान से सिब्ते हसन आए तो उनके घर पर शानदार जलसा हुआ। कैफ़ी आज़मी जब भी इलाहाबाद आते ज़िया भाई को याद करते, कभी-कभी उनके घर भी जाते, कभी ज़िया भाई भी उनसे मिलने जाते। वह बाज़ाबता अदीब न थे, न ही शायर व दानिशवर लेकिन उर्दू, हिन्दी के बड़े-बड़े अदीबों शायरों को मैंने उनका एहतेराम करते देखा। अमरकांत हों या अक़ील साहब, ओ.पी.मालविया हों या अजित पुष्कल और बहुत सारे दूसरे सभी के वह ज़िया भाई थे। जगत ज़िया भाई….! शायद इसीलिए यश मालविया ने जब उनपर एक अच्छी अवामी नज़्म कही जिसका उनवान था ‘‘ज़िया भाई।‘‘ उनके रोबदाब का यह आलम था कि एक बार अंजुमन की इलाहाबाद शाख़ में कुछ इख़्तेलाफ़ात हो गए और वह बढ़ते ही जा रहे थे कि कुछ लोगों ने ज़िया भाई को शामिल किया और दम भर में सारे इख़्तेलाफ़ात ख़त्म हो गए। इसी तरह एक बार अंजुमन के सेक्रेट्री सयद मोहम्मद अली काज़मी एक दावत पर अमरीका चले गए। कुछ मिम्बरान को यह नापसंद आया। इख़्तेलाफ़ात हुए। इस तनाज़े को भी ज़िया भाई ने ही ख़त्म किया। और मामलात भी थे जिसे ज़िया भाई ब-आसानी ख़त्म कर दिया करते थे और कहा करते थे कि ताक़त और अपने इत्तेहाद को कमज़ोर न करो, दुश्मन ताक़तवर है और मुक़ाबला सख़्त है।

एक बार हुकूमत की तरफ़ से फ़िराक गोरखपुरी पर बड़े सेमिनार का एहतिमाम हुआ। सेमिनार करने वाले बी.जे.पी. के लोग थे। बस ज़िया भाई को ग़ुस्सा आ गया कि यह लोग दिखावा कर रहे हैं और हमारे तरक़्क़ी पसंद शायर को हाईजेक कर रहे हैं। बावजूद इस के कि उस सेमिनार में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी शरीक हो रहे थे। ज़िया भाई उनका एहतेराम करते थे लेकिन बात अगर नज़रियात की आ जाए तो फिर सब भूल जाते थे। चुनांचे उन्होंने उस तक़रीब की मुख़ालिफ़त की और हम सभी को आमादा किया कि उस का बाइकाट करें और हम सभी ने सिर्फ़ उसका बाइकाट ही नहीं किया बल्कि जलसागाह के दरवाज़े पर जाकर एहतेजाज किया। पुलिस आ गई, वह हम लोगों को रोकने लगी, थोड़ी बहुत धक्का-मुक्की हुई, उसी वक़्त जोश में आकर ज़िया भाई ने तक़रीर की और उसी जगह पर ज़मीन पर बैठ गए। पुलिस की हिम्मत न पड़ सकी कि उनसे कुछ कह सके। उनको अंदाज़ा हो गया कि यह लोग ख़ालिस सियासी लोग नहीं हैं। अदीब हैं, दानिशवर हैं। इस एहतिजाजी जलसा में अक़ील साहब, ओ.पी.मालविया ने भी शिरकत की थी और पूरा एहतिजाज किया था।

इसी तरह से जब हम 1986 ई0 में अंजुमन की गोल्डन जुबली तक़रीबात मनाने का इंतेज़ाम कर रहे थे, उन्हीं दिनों कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म को लेकर एहतिजाजी मुज़ाहिरे हो रहे थे और हमारी तक़रीब में कैफ़ी आज़मी शिरकत करने आ रहे थे। चुनांचे हमारी तक़रीब की भी मुख़ालिफ़त होने लगी। कुछ नादान लोगों ने शहर इंतेज़ामिया को ख़बरदार कर दिया। चुनांचे एक दिन मुझे और अक़ील साहब को डी.एम. ने याद किया। हमने जब ज़िया भाई को इत्तेला दी तो वह भी चलने को तैयार हो गए। हम मना करते रहे लेकिन तैश में आ गए। कहने लगे देखते हैं कौन हमारी तक़रीब को रोकता है। हम चार-पांच लोग डी.एम. से मिलने गए और सारी तफ़सीलात बताई। ज़िया भाई ही बोलते रहे। डी.एम. समझ गए और बोले आप अपनी तक़रीब कीजिए हमें शहर का नज़्म व ज़ब्त तो देखना ही है। तक़रीब हुई शानदार तरीक़े से हुई। कैफ़ी आज़मी ने शिरकत की और जोश  से भरी उम्दा तक़रीर की जब कि वह बहुत अच्छे मुक़र्रिर न थे।

( सोफ़े और कुर्सियों पर बायें से दायें बैठे हुए : अली अहमद फ़ातमी, कैफ़ी आज़मी और खड़े होकर पाठ करते ज़िया भाई 

   नीचे जमीन पर बैठे हुए वामिक़ जौनपुरी और प्रो. अकील रिज़वी , फ़ोटो क्रेडिट : ज़िया भाई का निजी संग्रह )

 

गांधीवादी मुफ़क्किर प्रोफ़ेसर बनवारी लाल शर्मा जब भी गांधी भवन या अपने घर पर कोई नशिस्त वग़ैरह करते, ज़िया भाई उसमें ज़रूर शिरकत करते। ज़िया भाई उनकी बेहद क़द्र करते थे। 1992 ई0 में मस्जिद की शहादत के बाद जब माहौल में बेहद तनाव था और किसी वक़्त भी कोई हादिसा हो सकता था, प्रोफ़ेसर शर्मा ने गांधी भवन और आज़ादी बचाओ तहरीक की तरफ़ से एक बहुत बड़े अमन जुलूस की तैयारी की। हम सभी उसमें शरीक हुए। जुलूस बहुत लम्बा था, उसने शहर के बड़े हिस्सों को कवर किया। ज़िया भाई पूरे जुलूस में पैदल चलते रहे, ज़रा भी थके नहीं। उनके जोश को देखकर औरतें भी उनके साथ-साथ चलती रहीं। वह एक बेहद कामियाब, पुर-असर जुलूस था जिसके पैग़ामात दूर-दूर तक गए।

ज़िया भाई पार्टी के दफ़तर में पाबंदी से शिरकत करते। यौमे मई में शिरकत करते। गांधी भवन, स्वराज विद्यापीठ के जुलूस में शिरकत करते। अकसर तो मुझसे ही कहते कि इसमें शिरकत करो और मुझे अपने साथ ले चलो। पहले तो मैं अपनी स्कूटर पर, बाद में जब कार हो गई तो फिर कार में बैठाकर अपने साथ ले जाता और पहुंचाता था। मुझे उस अमल में यक गुना मसर्रत और सुकून हासिल होता। तरक़्क़ी पसंद मौज़ुआत पर मेरी किताबें आने लगीं। प्रेमचंद, फ़ैज़, मजाज़, अली सरदार जाफ़री वग़ैरह। वह बहुत ख़ुश होते और इसरार करते कि मख़दमू पर भी एक किताब लिखो, अफ़सोस कि मैं यह काम न कर सका। अलबत्ता जब मैंने सज्जाद ज़हीर पर किताब लिखी और उनको एक नुसख़ा पेश किया तो वह दो-तीन मिनट तक ख़ामोश रहे और फिर जज़बाती अंदाज़ में बोले ‘‘यह तुमने बड़ा अच्छा किया कि बन्ने भाई पर किताब लिख डाली। लोगों को ठीक से पता नहीं है कि बन्ने भाई क्या चीज़ थे। मुझसे बड़ी मोहब्बत करते थे।‘‘

इसी तरह जब बनवारी लाल शर्मा का इन्तेक़ाल हुआ तो बोले ‘‘इलाहाबाद वालों को पता नहीं कि उन्होंने क्या क़ीमती हीरा खो दिया है।‘‘ उन्हें मालविया जी की भी रेहलत का अफ़सोस था। अब वह ख़ुद अरसे से बिस्तरे अलालत पर हैं। सौ साल की उम्र होने जा रही है। लोगों को पता नहीं कि इस बिस्तर पर सिर्फ़ एक जिस्म नहीं, एक तारीख़ लेटी हुई है। एक नज़रिया का दबिस्तान, जो रफ़्ता-रफ़्ता क़ब्रिस्तान जाने की तैयारी कर रहा है। उनके दोनो बेटे अपने बूढ़े मां-बाप की ख़िदमत में हमातन मसरूफ़ हैं।

सारा शहर ज़िया भाई को याद करता रहता है। मैंने भी तक़रीबन पचास बरस उनकी मईयत में गुज़ारे हैं। इश्तेराकियत व फ़आलियत के सबक़ सीखे हैं। अब जबकि अमरकांत, सयद मोहम्मद अक़ील, ओ.पी. मालविया, बनवारी लाल शर्मा वग़ैरह नहीं हैं शहर रफ़्ता-रफ़्ता वीरान सा होता जा रहा है। ऐसे में ज़िया भाई का दम ग़नीमत तो है, लेकिन ज़िन्दगी भर हरकत व अमल, फ़िक्र व नज़र में डूबा रहने वाला शख़्स, हम लोगों को मोहतरिक करने वाला शख़्स आज ख़ुद बेहिस व बेहरकत हो चुका है। यह ज़िन्दगी की एक हक़ीक़त है जिसे हम सब को तसलीम करना ही पड़ता है लेकिन यह भी एक हक़ीक़त है कि उन्होंने ज़िन्दगी भर काम किया। जद्दोजेहद की। पार्टी का काम किया। सैकुलरिज़्म के लिए हमेशा लड़ते रहे और मुल्क व मोआशरे का हसीन ख़ाब लिए ज़िन्दगी की एक तल्ख़ हक़ीक़त से दो-चार हैं।

ज़िया भाई आप को सलाम और लाल सलाम ।

 

( प्रो. अली अहमद  फ़ातमी  उर्दू के जाने माने आलोचक हैं। प्रगतिशील आंदोलन के सक्रिय कर्ता- धर्ता की हैसियत से ज़िया भाई के नजदीकी सहयोगी भी रहे हैं। इलाहाबाद विश्विद्यालय से हाल ही में अवकाश  प्राप्त  करके  फ़ातमी साहब साहित्य संस्कृति की दुनिया में हमेशा की तरह सक्रिय हैं।  aliahmad.fatmi@gmail.com  )  

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