हमारे हिंदी समाज का ‘नाॅर्मल’ ‘एब्नार्मल’ से बना है। इसलिए, जब कभी मनुष्यगत मूलभूत और सामान्य बात-व्यवहार, कला रचना या किसी ऐसी चीज से हमारा सामना होता है; तो हमारी प्रतिक्रिया असामान्य हो जाती है। संस्कारों और मूल्यों या नैतिकता के स्तर पर हम उसे अजनबी, पराया और कभी-कभी या ज्यादातर आक्रमणकारी तक मान लेते हैं।
अभी प्राइम वीडियो पर आयी सीरीज़ ‘रसभरी’ के भीतर का समाज रसभरी को लेकर जहां खड़ा है, बाहर का समाज भी अपनी प्रतिक्रिया में लगभग वही खड़ा मिलता है।
हमारी असहजता किस बात को लेकर है, इस बात को जांचने बैठो, तो पता चलता है कि बहुत सारी सहज बातों को लेकर हम बहुत ज्यादा असहज हैं। ऐसे ही नैतिकता की खोल ओढ़े, खुद में सिमटा, सहमा, डरा, बंद कंदरा में बैठा समाज फासिस्ट नायकों का बैकबोन बनता है।
रसभरी की कहानी है मेरठ की। इस शहर के जीवन में उथल-पुथल मचती है एक स्त्री के प्रवेश से। यह है शानू, जो इंगलिश टीचर के रूप में आती है। एक टीचर के बतौर वर्क प्लेस पर स्त्रियों को ऑब्जेक्ट के तरह ट्रीट किये जाने या दुर्व्यवहार को लेकर वह बहुत, अवेयर, स्ट्रिक्ट और कांसस है। लेकिन इस शानू का एक दूसरा रूप भी है। यह है रसभरी। रसभरी अपनी देह आधारित प्रबल इच्छा/डिज़ायर को व्यक्त करने वाली, देह के आनन्द को जीने वाली स्त्री है। वह पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के साथ भी दैहिक सम्बन्ध बनाती है। लेकिन इस सम्बन्ध में वह निर्णायक और प्रभावशील है। अर्थात वह सेक्स ऑब्जेक्ट की बजाय सेक्स सब्जेक्ट के बतौर पेश आती है। अभी तक इस शहर के जीवन में स्त्री-पुरुष सेक्स संबंध और गॉसिप में, मजाक में पुरुष/मेल सब्जेक्ट था और स्त्री/फीमेल ऑब्जेक्ट। लेकिन रसभरी इसके उलट है। इसीलिए रसभरी जिससे शारीरिक संबंध बनाती है, वह शाॅक्ड होता है। देह सम्बंध में वह स्त्री द्वारा पराजित और शासित होकर भौचक हो जाता है। उसके लिए यह नया अनुभव है। इसके पहले उसका सामना इससे नहीं हुआ है। क्योंकि पितृसत्ता की सेक्स संबंधी जो व्यवहारिकता और नैतिकता है, उसमें सेक्स स्त्री के मान-मर्दन और उस पर विजय स्थापित करने का जरिया भी है। ‘मर्द होना’ जिसे कहा जाता है, वह यही है, इसी रूप में समाज में स्थापित है। बलात्कार के पीछे यही व्यवहार, नैतिकता संचालक रूप में रहती है। बलात्कार सेक्स करने की इच्छा मात्र से नहीं होता, बल्कि उसमें विजय और मान-मर्दन की इच्छा भी रहती है। क्योंकि यह डिनायल के बाद का एक्शन होता है। यानी कि, स्त्री की असहमति के बाद की पुरुष कार्रवाई। और यह जस्टिफाइड कहां से है, तो पितृसत्ता की स्त्री संबंधी व्यवहारिक नैतिकता से। यह एॅब्नार्मल बात है, लेकिन हमारे समाज का ‘नाॅर्मल’ इसी से बनता है। यह नॉर्मल एक दिन का नहीं है, सदियों का है। इसलिए बहुत से ‘सचेत’ भी इसका सामना होने पर असहज हो जाते हैं।
रसभरी के सामने सीरीज़ के अंदर के पात्र/चरित्र ही नहीं, बल्कि इसे देखने वाले ‘सचेत’ भी असहज हो सकते हैं।
जबकि, असहज तो इस बात पर होना चाहिए कि आखिर, ऐसी क्या बात है, कि पूरी दुनिया में सेक्सुअल रिलेशनशिप की इस स्थिति को जहां स्त्री प्रभावी हो या सेक्सुअल डिजायर/प्लीज़र को जाहिर करती हो, एक स्पिरिट, भूत प्रेत का ऐक्ट घोषित किया गया, माना गया, स्थापित किया गया। लोकमान्यता के नाम पर इस बात को जिंदा क्यों रखा गया कि भूत प्रेत आकर सेक्स करते हैं या किसी की आत्मा ऐसी स्त्रियों में प्रवेश कर गयी है, जो बदनाम स्त्री के रूप में जानी जाती थी और वह एक भली स्त्री के शरीर में आकर उससे भी वही काम करवा रही है!!
रसभरी सीरीज इस मायने में महत्वपूर्ण है, कि वह इस मान्यता को खंडित कर देती है। नंद जो लड़का है, वह अपने तर्कशील दिमाग के बूते और मन की आशंकाओं को सुलझाने की चेतना के चलते इस नतीजे को पा लेता है कि शानू और रसभरी एक ही है। और, अंतिम दृश्य में शानू भी जाहिर कर देती है, कि यह वही है, कोई रसभरी नहीं। रसभरी तो बस अपने समाज के चाल-चलन, पाखंड के बीच शानू की इजाद की गयी ट्रिक है। वह लोक में स्थापित उन्हीं की मान्यताओं पर खेल जाती है।
लेकिन शानू को ऐसा क्यों करना पड़ता है, क्योंकि शुरू में ही जो कहा गया कि हमारे समाज का नाॅर्मल एॅब्नार्मल से निर्मित है। असहजताओं से बना सहज है। इसलिए रसभरी को जिंदा होना पड़ता है शानू के शरीर में! सीधे-सीधे शानू इस सत्य की वाहक क्यों नहीं हो पाती! कहीं ना कहीं तो समाज की बाउंड्रीज इसका कारण है। एक मिस मोरालिटी है जिसका पहरा है। ऐसा नहीं है कि रसभरी में यह जो दिखाया गया, पहली बार है। समाज में तो पहले से ही युवा विधवा स्त्रियों, सेक्सुअल रिलेशन में प्रभावी, निर्णायक स्त्रियों के संबंधों को भूतों के द्वारा स्थापित संबंध बताया जाता रहा है! अभी भी है यह। गांव में आज भी ओझा वगैरह इसी बल पर जीवित हैं। आज भी ऐसे ढेरों मामले प्रकाश में आते हैं, जिसमें कई अपनी पत्नियों के साथ भूत के सोने की बात करते हैं। या कोई कहता है कि रात में उनके पास भूतनी आती है और शरीर पर मैल चढ़ा जाती है। जिन स्त्रियों के साथ भूत नहीं सोता है और जो प्रभावी होती हैं, ऐसी स्त्रियों के बारे में कहा जाता है, कि वह मर्दों को खाने वाली है। इतना ही नहीं, बल्कि युवा प्रेम सम्बन्धों में अगर लड़की सेक्स रिलेशन में आक्रामक, प्रभावी और निर्णायक है, तो लड़का उसके चरित्र पर शक करता है और बहुत जल्दी ब्रेकअप कर लेता है या अगर सम्बन्ध आगे बढ़ाते भी हैं, तो वह सामान्य नहीं रहता। एक गलत बात दिमाग में बैठी है, कि ऐसी लड़कियाँ अच्छी नहीं होतीं। अर्थात यह हमारे समाज के भीतर-भीतर चलने वाली एक ऐसी सच्चाई है, जिसे रहस्यात्मक बना कर रखा गया है।
सन् 2000 के आसपास तीन फिल्में आयीं, जिनमें सिंगल वूमेन को सेंटर करके कहानी बुनी गयी। इन फिल्मों में भूत सेक्स संबंध बनाता है। एक फिल्म ‘हवा’ थी, जिसमें तब्बू ने लीड रोल किया था।
स्त्रियों के पास जो भूत आते हैं, उनके बारे में मान्यता है, कि वे रात के दो बजे आते हैं। उन फिल्मों में भी यह बात है। इसकी पड़ताल के क्रम में इस लोक मान्यता से परिचय हुआ कि रात के दो बजे स्त्री के लिए सारे मर्द उसके पति जैसे हो जाते हैं। इसमें उतरने पर पता चलता है, कि इस संबंध में गलत मान्यताओं का कितना बड़ा अंडरवर्ल्ड है, जो समाज की दिखने वाली जीवन गतिकी को रेगुलेट करता है।
‘रसभरी’ इस मामले में पीछे बनी फिल्मों से इसलिए भी भिन्न है, कि इसमें इन मान्यताओं को ढहाया गया है। लेकिन, रसभरी सीरीज़ इसके बहाने कुछ और बातें कहती है।
एक तो इस सीरीज का जो सेन्ट्रल आइडिया है, वह 2012 के दिसम्बर मूवमेंट से निकला लगता है। इस आंदोलन ने स्त्री मुक्ति या आजादी का बिल्कुल नया चार्टर तैयार किया। यह बहुत व्यापक था। रसभरी में उसमें से एक लिया गया है। हालांकि, अब यह बात पूरी दुनिया में बहस के केंद्र में आ गयी है, कि स्त्रियां भी सेक्सुअल डिजायर रखती हैं/रख सकती हैं और उसे जीती हैं/जी सकती हैं; पुरुष समाज को यह सत्य स्वीकार कर अपना नया व्यवहार सीखना/बनाना होगा। यह बात देह की स्वतंत्रता से आगे बढ़ी हुई है। यह बात अकेले की देह सम्बन्धी आजादी के साथ नहीं आ रही है, बल्कि समूची सामाजिक जीवन गतिकी का सत्य/अनिवार्य हिस्सा बनकर आ रही है। रसभरी में शानू नहीं बदलती, नंद बदलता है। पूरी सीरीज में नंद के चरित्र का जो ग्रैजुअल डेवलपमेंट है, वह बहुत मानीखेज है। नन्द उस अवस्था में है, जिसमें देह का आकर्षण जितना प्रभावी, निर्णायक होता है, उतना ही देह आधारित नैतिकता भी। नंद के भीतर इसका द्वंद्व है। नंद के भीतर डाउट है। इसलिए, नंद स्त्री देह के वास्तविक सत्य तक पहुंचता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात इस सीरीज की यह है, कि उसमें देह की नैतिकता की शिकार स्त्रियां केंद्र में हैं। इसकी लीडर है नंद की मां पुष्पा। इन स्त्रियों को देखिए! खुद के लिए तैयार की गई बाउंड्रीज को मजबूत करती, अपने इर्द-गिर्द बुने जाले को और सघन करती, अपने पतियों को सवालों से परे कर देवत्व प्रदान करती और अंत में सब कुछ की जिम्मेदार एक स्त्री को मानते हुए, स्त्री को अपना दुश्मन घोषित करते हुए; उस पर हमला करती। ये स्त्रियाँ कौन हैं!!
अपने भीतर की प्रबल दैहिक इच्छाओं के उभर आने से डरती, उन्हें दबाती, पतियों की दया पर निर्भर, उनके खंडित देवत्व को पूजती और अंततः अपने ही भीतर की एक स्त्री को डायन/कुल्टा बताती, उस पर हमला करती। पुरुषों की बनायी नैतिकता, वर्चस्व की प्राण-प्रण से रक्षा करती।
तीसरी और आखिरी बात इस सीरीज को लेकर यह, कि इसमें स्त्री सेक्सुआलिटी को डील करते हुए कहीं भी फूहड़पन/सस्तापन नहीं आया है। कैमरे का एंगल कहीं भी ऐसा नहीं है, जो कथ्य की गंभीरता को तोड़े या कम करे। आखिर के एपिसोड में जब रसभरी नन्द की प्रेमिका प्रियंका को चूमती है, तो वह आत्मीय, अलौकिक सा हो जाता है, जबकि है वह नितांत फिज़िकल और रसभरी की सेक्सुअल डिज़ायर का ट्रांसफर। विचार को भौतिक बनाने में जो बेहतरीन कला-कौशल हो सकता है, वह इस सीरीज़ में दिखता है।
कुल मिलाकर यह हिन्दी भाषी कस्बाई या छोटे शहरों के समाज में स्त्री-देह सम्बन्धी सोच को सामने लाने वाली एक महत्वपूर्ण और बहसतलब सीरीज़ है।