मार्च 2019 में जब पूरे देश का ध्यान आगामी लोकसभा चुनावों पर लगा था, मोदी सरकार ने चुपके से सभी राज्य सरकारों को भारतीय वन कानून 1927 में भारी संशोधन का एक प्रस्ताव भेज दिया. इसमें राज्यों से सुझाव की मांग कर जुलाई 2019 तक इसे कानून बना देने का संकेत दे दिया.
मोदी सरकार जानती थी कि यही समय है जब इस संशोधन पर न किसी की नजर जाएगी और न ही कोई बहस होगी. इस संशोधित वन कानून में अब तक देश की जनता खासकर आदिवासियों, वनवासियों, पहाड़ और जंगलों में सदियों से रहने वाले समुदायों को मिले परम्परागत वन अधिकारों को ख़त्म करने, उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित करने, उनके उत्पीड़न के लिए वन विभाग को असीमित अधिकार देने और अंततः जनता द्वारा हजारों वर्षों से पाले पोसे गए हमारे वनों को कारपोरेट लूट का अड्डा बनाने का प्रावधान किया गया है.
वन कानून में मोदी सरकार का यह संशोधन कहता है कि अब राज्य सरकार किसी भी सरकारी वन, सामुदायिक वन, निजी वन व अन्य किसी भी प्रकार की भूमि में आरक्षित वन गठित कर सकती है. यदि सरकार को पारस्थितिक, वानस्पतिक, पुष्प, जीव, सिल्वीकल्चर, ज्यूलाजिकल, भू-आकृति विज्ञान, हाइड्रोलाजिकल महत्व के लिए वहां ऐसा करना जरूरी लगे. जहां राज्य सरकार ने ऐसा वन गठित न किया हो, वहाँ केंद्र सरकार राज्य सरकार को इसके लिए समयबद्ध दिशा निर्देश दे सकती है.
यह संशोधन जनता, आदिवासियों और वनवासियों के वन अधिकारों पर रोक लगाता है. अब वन भूमि के रूप में दर्ज भूमि पर वही रह सकता है जिसके पास इसकी विरासत के सबूत या कोई सरकारी आदेश हो. पर उसे इस सब के बावजूद भी इस भूमि का पट्टा या भूमि अधिकार नहीं मिलेगा. वह उस सीमित जमीन पर फसल नहीं बो सकता. मकान, दुकान, टिनसेड नहीं बना सकता. घास, गिरी सूखी पत्तियों, गिरी लकड़ी, पेड़ की छाल, घास पत्ती सहित किसी भी वन उत्पाद का दोहन नहीं कर सकता. वन भूमि में आग नहीं जला सकता. वन भूमि में किसी भी प्रकार के पालतू जानवर को चराने के लिए ले जाना भी वन अपराध की श्रेणी में होगा. वन भूमि में ऐसी गतिविधियाँ अब गंभीर वन अपराध की श्रेणी में गिनी जाएंगी. राज्य या केंद्र सरकार गजट नोटिफिकेशन के जरिये जनता को अब तक मिले परम्परागत कानूनी और संवैधानिक वन अधिकारों पर कभी भी रोक लगा सकती है.
प्रस्तावित संशोधन कहता है कि रेंज स्तर का वन अधिकारी अब ऐसी किसी भी भूमि के लिए सर्च वारंट जारी कर वहाँ जांच कर सकता है. वह सीआरपीसी (CRPC) की धाराओं के तहत लोगों के लिए वारंट जारी कर सकता है और उन्हें गिरफ्तार कर सकता है. वन अपराध दिखने पर जरूरत पड़े तो उसे गोली चलाने का भी अधिकार दे दिया गया है. जबकि पहले कानून में प्रावधान था कि वन अपराध होने पर वन विभाग के अधिकारी पहले सम्बंधित ग्राम सभा से उस अपराध की पुष्टि करेंगे तभी वन अपराध दर्ज होगा.
पहले आम लोगों द्वारा वन अपराध होने पर न्यूनतम 50 रुपए से अधिकतम 500 तक जुर्माना और एक माह तक की सजा का प्रावधान था. इसे अब अलग-अलग धाराओं के अपराधों के लिए अलग-अलग जुर्माना और सजा का प्रावधान में बदला गया है. जो न्यूनतम 10,000 रूपए जुर्माना और एक माह की सजा से शुरू कर 50,000 रुपए जुर्माना और छः माह की सजा तक बढ़ा दिया गया है. दूसरी बार उसी अपराध में पकड़े जाने पर जुर्माना व सजा दोगुना हो जाएंगे. यानी एक साल की सजा और 1,00,000 (एक लाख) रूपए का जुर्माना भरना पड़ेगा.
पहले जंगल से सूखी जलावनी लकड़ी का गठ्ठर पकड़े जाने पर जो 50 रुपए का जुर्माना भरना होता था, अब वह 10,000 रुपया कर दिया गया है. जंगलों में आग लगाने पर अब तक वन विभाग व पुलिस को सूचित करने की जिम्मेदारी जनता की थी. अब उसमें राजस्व विभाग को भी जोड़ा जा चुका है. वन भूमि में जमीन को तोड़ना, खोदना, वनस्पति को नष्ट करना और मिट्टी की क्वालिटी को खराब करना भी वन अपराध की श्रेणी में होगा. यानी अब घरों की लिपाई के लिए लाई जाने वाली मिट्टी पर भी रोक लग जाएगी.
संशोधन में प्रावधान है कि जिन लोगों के वन अधिकार सरकार ख़त्म करेगी वे अब न कोई अपील कर सकते हैं और न ही उनकी कहीं कोई सुनवाई होगी. सरकार को इसका कारण बताने के लिए भी बाध्य नहीं किया जा सकता है. लोगों या समुदायों के अधिकारों को ख़त्म करने का आदेश जिला वन अधिकारी (डीएफओ) दे सकता है. इसके खिलाफ फारेस्ट कंजरवेटर के पास अपील करने का अधिकार जरूर है. पर कंजरवेटर का आदेश अंतिम होगा और उसके आदेश को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
यानी वन अपराधों के मामले में डीएफओ को मजिस्ट्रेट और कंजरवेटर को सुप्रीम कोर्ट जैसी पावर दे दी गयी है. अब वन विभाग ही आपके खिलाफ अपराध दर्ज करेगा और वही आपको न्याय देने वाली संस्था भी होगा. मगर किसी कम्पनी या संस्था से वन अपराध होने पर स्थल पर मौजूद अधिकारी दंड का भागी होगा. पर यह साबित कर दिया जाय कि वह अधिकारी इस अपराध से अनजान था तो उसको सजा व दंड में छूट पाने का अधिकार होगा. इस तरह से वन अपराध के मामले में आम जनता को अपराधी ठहरा कर सजा देने और कारपोरेट कम्पनियों को खुला संरक्षण देने का प्रावधान किया गया है।
प्रस्तावित प्रारूप वनों की नई परिभाषा भी बताता है. जैसे (1) कोई भी ऐसी भूमि जिसे केंद्र या राज्य सरकार ने जंगल के रूप में नोटिफाइड किया हो, वह निजी या सामूहिक भी हो सकती है. (2) ग्राम सभा, वन पंचायत, समुदाय द्वारा संचालित ग्राम वन जो अब सरकार की सूची में आ गए हैं. (3) वन पंचायतों को अब वन कानून या सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत कराना अनिवार्य होगा. (4) वन पंचायतें फिर से संयुक्त वन प्रवंधन समिति (जे एफ एम) के माध्यम से संचालित होंगी. (5) वनों में अब उत्पादक जंगल एक नई श्रेणी होगी. जिनमें किसी ख़ास समय तक के लिए सरकार कंपनियों या संस्थाओं को लकड़ी, प्लाइबुड, जड़ी-बूटी, मछली सहित तमाम वन उत्पादों के व्यवसायिक उत्पादन और दोहन की इजाजत देगी. इसके लिए बैंक ऋण या जंगल को गिरवी रखने की इजाजत नहीं दी जाएगी. (6) आदिवासी समुदायों को अपनी परम्परागत झूम खेती की इजाजत अब नहीं होगी. इसके लिए सरकार एक कमेटी का गठन करेगी जो ज्यादा जरूरी होने पर सीमित रूप में झूम खेती के लिए जमीन को चिन्हित करेगी.
मोदी सरकार ने एक साल पहले ही वन कानून की धारा 2 (7) में बदलाव कर बांस को वन उत्पाद की श्रेणी से बाहर कर दिया था. अब नए संशोधन में इसे व्यावसायिक उत्पाद घोषित कर कारपोरेट द्वारा उसके व्यापक दोहन का रास्ता खोल दिया गया है. भारत में इस समय बांस की 125 किस्में उगाई जाती हैं. भारत में अभी 113.6 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में बांस उगाया जाता है. लगभग 135 लाख टन बांस के उत्पादन का बाजार भाव अभी 5 हजार करोड़ रूपए का है. इसे अब 50 हजार करोड़ रुपए तक पहुंचाने का लक्ष्य है. कारपोरेट के हाथ में बांस उत्पादन व दोहन का काम हस्तांतरित होने के बाद आदिवासी-वनवासी अपनी जरूरतों के लिए जंगलों से बांस नहीं ला पाएंगे.
इसी तरह अब टिम्बर की परिभाषा को भी बदला जा रहा है. पहले जो पेड़ गिरे या गिराए गए उन्हें टिम्बर कहते थे. अब इसके साथ उखाड़े और आरी से काटे गए टुकड़ों को भी टिम्बर की श्रेणी में रखा गया है.
नए वन कानून का उद्येश्य वनों का संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण, वन्य जीव संरक्षण और जैव विविधता का संरक्षण करना बताया जा रहा है. जबकि 1927 के वन कानून का उद्द्येश्य वन उत्पाद पर टैक्स (चुंगी) और उन उत्पादों की निकासी को नियंत्रित करने से सम्बंधित था. इसके अलावा 1878 और 1927 के वन कानूनों में वन आच्छादित क्षेत्र की व्यवस्था, वन्य जीवों की सुरक्षा भी शामिल थी.
नए कानून के प्रारूप की अन्य मुख्य बातें भी खतरनाक हैं. अब वन क्षेत्र से निकलने वाले वन उत्पादों व पानी के इस्तेमाल पर 10% अतिरिक्त “वन विकास टैक्स” देना होगा. वनों के संवर्धन के लिए इसका एक अलग कोष बनेगा. अगर वनों के प्रवंध और संरक्षण में लोगों की आबादी के कारण असर पड़ रहा हो तो राज्य सरकार इन लोगों को ऐसी भूमि से हटा सकती है या अन्यत्र स्थानांतरित कर सकती है. जरूरत पड़े तो उन्हें मुआवजा देकर वन क्षेत्रों से बेदखल कर सकती है. वनाधिकार कानून में मिले पट्टों के अलावा अब वन भूमि में कोई नया पट्टा नहीं दिया जाएगा.
अब तक फारेस्ट सटेलमेंट अधिकारी के सम्मुख पेश शिकायत पर तीन माह के नोटिस पर मुआवजा देना होता था. पर अब इस अवधि को 6 माह तक बढ़ा दिया गया है. पहले विस्थापित किया जाने वाला व्यक्ति या समुदाय अगर फैसले या मुआवजे से संतुष्ट न हो तो अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता था. पर अब अगर आपने सरकार द्वारा तय मुआवजा नहीं लिया तो भी आपको उस स्थान से हटा दिया जाएगा.
संशोधित प्रारूप में प्रावधान है कि जंगल की क्षति को बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें नोटिफिकेशन के माध्यम से एक नई अथारिटी बनाएंगे. इस सम्बन्ध में राज्य सरकार व केंद्र सरकार के कानूनों में टकराव की स्थिति में केंद्र सरकार के कानून लागू होंगे. केंद्र सरकार एक राष्ट्रीय वानिकी बोर्ड बनाएगी. प्रधान मंत्री जिसके अध्यक्ष और वन मंत्री उपाध्यक्ष होंगे. केंद्र इसमें अन्य सदस्य नामित करेगा. पर प्रारूप के अनुसार इसमें वनों पर निर्भर समुदायों और आदिवासियों को सीधे प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाएगा. वन कानूनों में इस सुधार के लिए वर्ष 2010 में एम बी शाह कमेटी ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. 22 मार्च 2011 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने वन अधिकारियों को मिले उन अधिकारों को कम कर दिया था जिसके बल पर वे आदिवासियों और वन समुदायों का अनावश्यक उत्पीड़न कर रहे थे.
वर्ष 2015 में टी एस आर सुब्रमण्यम कमेटी ने भी अपनी एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी. इन्पेक्टर जनरल फारेस्ट नोयाल थॉमस द्वारा भी इस सम्बन्ध में सरकार को इनपुट दिए गए. कुल मिलाकर कहा जाए तो वन कानून 1927 में मोदी सरकार द्वारा लाया गया यह संशोधन वनों से जनता के परम्परागत कानूनी और संवैधानिक अधिकार ख़त्म करने और वनों को कारपोरेट की लूट का चारागाह बनाने का दस्तावेज है.
( लेखक “ अखिल भारतीय किसान महासभा ” के राष्ट्रीय सचिव और “ विप्लवी किसान संदेश ” पत्रिका के सम्पादक हैं )