( लेखक-आलोचक और बीएचयू के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रामनारायण शुक्ल नहीं रहे। प्रो रामनारायण शुक्ल लेखक व आलोचक के अतिरिक्त जनवादी आंदोलन के भी कर्ता धर्ता रहे हैं। पहले वे राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा से जुड़े थे। जब 1985 में जन संस्कृति मंच की स्थापना हुई, वे इस के स्थापना सम्मेलन में शामिल हुए। मंच का जो अध्यक्ष मंडल चुना गया, उसमें गुरशरण सिंह अध्यक्ष बनाए गए। पांच उपाध्यक्षों में शुक्ल जी भी शामिल थे। 1986 में जन संस्कृति मंच की उत्तर प्रदेश इकाई का पहला सम्मेलन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विज्ञान भवन में सम्पन्न हुआ था। शुक्ल जी उप्र इकाई के अध्यक्ष बनाए गए। हम उनके जनवादी आंदोलन के इस योगदान को याद करते हैं और जसम की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। प्रोफेसर रामनारायण शुक्ल की स्मृति में प्रो बलराज पाण्डेय ने यह लेख लिखा है। )
पहली बार शुक्लजी का नाम मैंने सन् 1977 में सुना था,जब सतीशचन्द्र कालेज में मेरी नियुक्ति हुई थी।वे वहां से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आ चुके थे, लेकिन कालेज ही नहीं,उस समय पूरे बलिया जिले में साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा,जो शुक्लजी को न जानता था। अपनी अध्यापन शैली, वक्तृता और सामाजिक सक्रियता से बलिया में उन्होंने जो दुर्लभ ख्याति अर्जित की थी, वह किसी के लिए सुखद ईर्ष्या का कारण बन सकती है।
शुक्लजी से मेरा प्रत्यक्ष परिचय भी सतीशचन्द्र कालेज, बलिया में ही हुआ था,जब वे अपनी टीम के साथ ‘गिरगिट’ नाटक का मंचन करने वहां गये थे। हमने प्रेमचंद पर उनका एक व्याख्यान आयोजित कराया था। उनका यह वाक्य मुझे आज भी याद है-प्रेमचंद मार्क्सवादी नहीं थे, मार्क्सवाद के प्रति उनके मन में आकर्षण था।
सन् 1984 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने के साथ ही शुक्लजी से मेरी घनिष्ठता अस्सी की चाय के साथ बढ़ी और वे इतने आत्मीय हुए कि प्रायः हर रोज पूर्वाह्न 10 बजे उनका मेरे अस्सी स्थित आवास पर आना अनिवार्य-सा हो गया था। तब तक उनका राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा बिखर चुका था। उनके काशी हिंदू विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के महासचिव पद की चमक भी धुंधली पड़ चुकी थी और उनके साथ काम करने वाले दर्जनों प्रतिभा संपन्न संस्कृति कर्मी इधर-उधर हो चुके थे। शुक्लजी अकेले पड़ गये थे, लेकिन अकेलेपन की किसी पीड़ा के साथ नहीं। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व मानों कह रहा हो-अब तक क्या किया/ जीवन क्या जिया/’दिया ज्यादा/’लिया बहुत-बहुत कम/मर गया देश……।
आंतरिक और बाह्य संघर्षों की जय-पराजय के साथ सन् 1984 के बाद शुक्लजी में यदि कुछ बचा रह गया था,तो वह था-उनका विराट अध्यापकीय व्यक्तित्व। संस्कृत साहित्य, पश्चिम के साहित्य से लेकर हिन्दी साहित्य के हर युग का वस्तुगत विश्लेषण जिस तार्किक ढंग से वे करते, वह किसी को चकित करने वाला होता। मुक्तिबोध और प्रेमचन्द के वे ‘मास्टर’ थे। जैसे ही उनकी कक्षा छूटती, बीस-पच्चीस विद्यार्थी उन्हें घेर लेते और विभाग स्थित कटहल के पेड़ के नीचे घंटों वाद-विवाद चलता। वे हिन्दी विभाग के सुकरात थे। छात्रों के लिए उनके निडर नेतृत्व में कभी सप्ताह भर विभाग में तालाबंदी तक हुई थी। उनका जीवन सकारात्मक संघर्ष की परिभाषा था। शुक्लजी ने आलोचनात्मक लेखन बहुत कम किया है। लेखक के रूप में प्रसिद्धि पाने की उनके मन में रत्ती भर भी इच्छा नहीं थी।एक बेचैन करने वाला उनका बहुत बड़ा सपना था-समाज को कैसे बदला जाय। मुक्तिबोध और प्रेमचंद इसीलिए उन्हें सर्वाधिक प्रिय थे। मुक्तिबोध पर डा.रामविलास शर्मा के आरोपों का जवाब देते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ जनवादी समझ और साहित्य’ में लिखा है कि ” यदि मुक्तिबोध अस्तित्ववाद या रहस्यवाद के प्रबल आकर्षण से विद्ध होते तो अकेले में मुक्ति की तलाश करते, जन- संग- ऊष्मा और उनके लक्ष्य से तदाकार होने का सवाल ही न उठता। सच्चाई यह है कि मुक्तिबोध का मन जन शक्ति में घुलने- मिलने को छटपटाने लगता है और उसी से एकात्मक होने में मुक्ति का एहसास करता है। उनकी कुछ रचनाओं में रहस्य-सी जटिलता और दुर्बोधता अवश्य दिखाई पड़ती है,पर यह उनकी विशिष्ट प्रतीक पद्धति और मध्यवर्गीय जटिल द्वन्द्वों के विधान के कारण है, न कि उनके रहस्यवादी होने के कारण और उनकी इस विशिष्टता को नजरअंदाज किया भी नहीं जा सकता, निश्चित रूप से मुक्तिबोध का यह कमजोर पक्ष है।”
शुक्लजी का मानना था कि मुक्तिबोध व्यक्तित्व के जनतंत्रीकरण और गुणात्मक विकास में विश्वास रखते थे। शुक्लजी ने एक लेख में नामवर सिंह की ‘ दूसरी परंपरा की खोज ‘ के अंतर्विरोधों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है तथा कबीर और तुलसी को लेकर शुक्ल-द्विवेदी विवाद पर अपनी कलम चलाई है। उनका मानना था कि ” प्रेमचंद की रचनात्मक संवेदना, उनके प्रेरक स्रोत और जनपक्षधरता तथा गांधी की संवेदना, प्रेरक स्रोत और पक्षधरता में बुनियादी फर्क है। प्रेमचंद के समन्वय, सुधार और आदर्शवाद को गांधीवाद ने थोड़ा और गहरा जरूर बनाया,पर उसे कायम रखने में वह सफल न हो सका।”
डा.रामनारायण शुक्ल शब्द और कर्म में विश्वास करते थे। उनकी पक्षधरता स्पष्ट थी। वे एक बहुत बड़े जन-बुद्धिजीवी थे। बनारस के बौद्धिक, राजनीतिक और सामाजिक हलके में उनकी स्वीकार्यता थी। उनसे मिलने का मतलब होता था-किसी-न-किसी क्षेत्र का तर्कसंगत ज्ञान प्राप्त करना। बनारस में उन्होंने जन-जागरण के लिए चुनाव भी लड़ा था। अध्यापन के साथ अभिनय में उनकी गहरी रुचि थी। ‘ एक और द्रोणाचार्य ‘ का उन्होंने कई बार मंचन कराया था और उसमें अपने अभिनय से हमें प्रभावित किया था। ‘ बाणभट्ट की आत्मकथा ‘ के नाट्य रूपांतरण में भी हमने उनकी अभिनय-क्षमता को देखा है। मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस की तरह अपनी मुक्ति वे ज्ञान-दान में मानते थे। कभी चंद्रकला त्रिपाठी के आग्रह पर उन्होंने लंका स्थित मेरेआवास पर ‘अंधेरे में’ कविता की कई दिनों तक विस्तृत व्याख्या की थी।
उन्होंने अपने परिवार की कोई चिंता नहीं की। ब्रेन हैमरेज की खबर सुनकर अवधेश प्रधान और रामकली सराफ के साथ उनका समाचार जानने जब मैं अस्पताल गया, तो उन्होंने मुझसे यही सवाल किया कि पांडेजी, सतीशचन्द्र कालेज में मेरे बड़े बेटे की नौकरी हो जायेगी न ? मेरे पास एक झूठा दिलासा देने के अलावा और कुछ भी नहीं था। उन्होंने अपने बेटे-बेटी के साथ भाई के बेटे-बेटी को साथ रखकर पढ़ाया-लिखाया, शादी-विवाह संपन्न कराया, लेकिन सबके बावजूद अंत-अंत तक उनका पारिवारिक जीवन संघर्षों में ही बीता। हाल के कई वर्षों से वे बिस्तर पर पड गये थे। उनकी पत्नी और मंझले बेटे ने उनकी खूब सेवा की। इसी चार अप्रैल को अवधेश प्रधान, मैं और रामकली सराफ उनसे मिले थे। दरवाजे पर आहट पाकर उन्होंने शायद अपनी पत्नी से कहा था-कोई आया है। हम अन्दर गये। पत्नी ने परिचय कराया, हमारे प्रणाम के उत्तर में उन्होंने कहा-कल्याण हो, कल्याण हो। मैंने गौर किया कि उनके समूचे बायें अंग में कोई हरकत नहीं है, लेकिन उनका दिमाग सक्रिय था। दो माह पहले ही बड़े बड़े बेटे की मृत्यु से आहत उनकी पत्नी आंसू भरी आंखों से शुक्लजी को देखे जा रही थीं–कहते हुए कि अब कितना सहा जाय !!
सादर नमन।