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प्रेमचंद का यह जो ‘हिन्दू पाठ’ है

रविभूषण, वरिष्ठ आलोचक

इस वर्ष प्रेमचंद को नेताओं और संघ परिवार ने कुछ अधिक याद किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ से प्रेरित हुए और कहानी के मुख्य किरदार हामिद ने उन्हें प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के लिए प्रेरणा दी ‘मुंशी प्रेमचंद की कहानी मुझे आज भी प्रेरणा देती है कि जो काम हामिद कर सकता है वह देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं कर सकता है ?’ राष्ट्रपति रामनाथ कोंविद ने प्रेमचंद की 138 वीं वर्षगांठ, 2018 पर उनके प्रति श्रद्धांजलि प्रकट की और एक ‘ट्वीट’ में प्रेमचंद को एक बड़ा लेखक और उपन्यासकार कहा, जिनकी मर्मस्पर्शी कहानियां किसानों, गरीबों और सामानय जनों पर केन्द्रित हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और संस्कृति राज्यमंत्री डाॅ महेश शर्मा को भी इस वर्ष प्रेमचंद याद आए।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर प्रेमचंद के साम्प्रदायिकता संबंधी लेख के हिस्से को ट्वीट किया। ‘हिन्दुस्तान के महानतम लेखक मुंशी प्रेमचंद की याद को प्रणाम’ करते हुए राहुल गांधी ने साम्प्रदायिकता वाले लेख ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’, ‘जागरण’ 15 जनवरी 1934 का एक अंश उद्धृत किया: ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में आने में शायद लज्जा आती है। इसलिए वह गधो की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।’

प्रेमचंद को पढ़ना अच्छी बात है, पर उन्हें समझना, उनके वैचाारिक विकास से परिचित होना अधिक आवश्यक है क्योंकि उसके बिना प्रेमचंद का संकीर्ण, खंडित, एकांगी और मनोनुकूल पाठ ही किया जा सकता है। प्रेमचंद पर शोधग्रन्थ से लेकर अब तक कई पुस्तकें लिखने वाले कमल किशोर गोयनका पिछले पचास वर्ष से उनका अपना पाठ कर रहे हैं जो प्रेमचंद को समझने में सहायक नहीं है। अब प्रेमचंद का एक ‘हिन्दू पाठ’ करने के लिए और पाठकों को दिग्भ्रमित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुल कर सामने आ गया है। साप्ताहिक पत्र ‘पांच्यजन्य’ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुखपत्र है। संघ प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय ने लखनऊ में मकर संक्रान्ति के दिन 14 जनवरी 1948 को इस पत्रिका की शुरुआत की थी। इसके पहले संपादक अटल बिहारी वाजपेई थे जो बाद में प्रधानमंत्री बने।

1977 से इसका प्रकाशन नियमित रूप से दिल्ली से होता है। इस पत्रिका के अक्टूबर 2015 की आवरण कथा ‘इस उत्पात के उस पार’ थी जिसमें दादरी घटना, 28 सितम्बर 2015 की रात्रि, को उचित सिद्ध किया गया था। भीड़ लीचिंग में 52 वर्षीय अखलाक की हत्या हुई थी। ‘पांच्यजन्य’ के वर्तमान संपादक हितेश शंकर हैं जिन्होंने युवा पत्रकार प्रशांत राजावात को स्पष्ट रूप से यह कहा था कि हम पत्रकार नहीं, प्रचारक हैं और उनकी पत्रकारिता ‘एकपक्षीय’ हैं।

इस वर्ष कालजयी लेखक प्रेमचंद की जयन्ती पर ‘पांच्यजन्य’ का विशेष आयोजन, 5 अगस्त 2018 प्रेमचंद को भगवा रंग में रंगने के लिए है। इस अंक के संपादकीय का शीर्षक ‘राजनीति दांव-पेंच’ है। अवरण पर प्रेमचंद की छवि के साथ उन्हें ‘कलम राष्ट्रवादी ’ कहा गया है – ‘कुछ लोग अपने हितों को पोसने के लिए कथा सम्राट को वामपंथी खांचे में बंद करने की कोशिश करते हैं। किन्तु प्रेमचंद के लेखन में सदा गूंजता है राष्ट्रप्रेम।’ पूरी तैयारी के साथ यह पत्र प्रेमचंद को राष्ट्र , राष्ट्रीयता, धर्म, हिन्दू की संघी परिभाषाओं में, संघ की विचारधारा के अनुकूल उन्हें ‘प्रतिष्ठित’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।

प्रेमचंद के ‘गंभीर अध्येता’ माने जाने वाले कमल किशोर गोयनका का इंटरव्यू इस अंक में है जिसमें कुद उदाहरणों से यह साबित करते हैं कि प्रेमचंद की ‘मूल आस्थाएं हिन्दू आस्थाएं हैं। उनकी मूल आस्था भारतीय है’ अर्थात जो हिन्दू है, वही भारतीय है। जिस सतीश पेडणेकर ने यह इंटरव्यू लिया है, उनका प्रेमचंद पर एक लेख भी है – ‘आर्य समाज के सिपाही ’। अभी तक प्रेमचंद को सभी ‘कलम का सिपाही ’ ही समझते थे। अब पाठकों को यह समझाया जा रहा है कि वे ‘आर्य समाज के सिपाही’ थे।

प्रेमचंद को अपने लाभार्थ ‘हिन्दूवादी’ सिद्ध करने के लिए उन्हें आर्य समाज से आरम्भ से अन्त तक गलत ढ़ंग से जोड़ा गया है। प्रेमचंद के देशप्रेम और संघ परिवार के देश प्रेम में जमीन-आसमान का अन्तर है। प्रेमचंद की ‘भारतीयता’ को उनके ‘हिन्दू होने का पर्याय’ नहीं माना जा सकता है। सम्पादकीय का आधा से अधिक हिस्सा कांग्रेस पार्टी और गठबन्धन पर है। आगामी लोकसभा चुनाव के पहले संघ परिवार और भाजपा कोई क्षेत्र अपनी घुसपैठ से छोड़ना नहीं चाहती।

‘पांच्यजन्य’ का यह अंक प्रेमचंद की प्रगतिशील छवि को विकृत करता है। प्रेमचंद का लेखन 1902-03 से लेकर 1936 तक का है। लगभग 13 हजार पृष्ठों में फैले उनके समस्त साहित्य का गंभीर अध्ययन आसान नहीं है। संघ परिवार की मंशा साफ है। वह अपने विचारों के साथ प्रेमचंद को खड़ा कर प्रेमचंद के समस्त प्रगतिशील साहित्य पर उनके रचना कर्म पर धुंध पैदा करने की कोशिश कर रहा है।

अनन्त विजय का लेख ‘वामपंथ का शिकार बने प्रेमचंद’ में सिनेमा और साहित्य पर विचार है। शीर्षक कुछ, लेख कुछ का शानदार उदाहरण है यह लेख। ‘पांच्यजन्य ब्यूरो’ का लेख है ‘साहित्य का रंग: खूनी लाल नहीं, सर्वहितैषी भगवा’।

प्रेमचंद ने विवेकानन्द की एक संक्षिप्त जीवनी मई 1908 में ‘जमाना’ पत्रिका में लिखी थी जो बाद में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई। इस लेख को आधार बनाकर यह समझाया गया है कि प्रेमचंद ने विवेकानन्द से प्रेरणा प्राप्त की। इस लेख में विवेकानन्द को ‘हिन्दुत्व के वैश्विक योद्धा’ कहा गया है। सच्चाई यह है कि विवेकानन्द का ‘हिन्दू धर्म’ संघ के ‘हिन्दुत्व’ के साथ नहीं है। प्रेमचंद के ‘साहित्य-नवनीत’ की बात करने वालों के दिमाग में पहले से गोलवलकर का ‘विचार-नवनीत’ मौजूद रहता है। जो आज ‘हिन्दू संस्कृति’ की बात कर उससे प्रेमचंद को जोड़ने के लिए व्याकुल हैं, उन्हें प्रेमचंद को पढ़ना भी चाहिए। प्रेमचंद ने लिखा है – ‘मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई संस्कृति नहीं है……अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति…….संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं….वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढ़ोंग है, निरा पाखण्ड ……यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं’ (सांप्रदायिकता और संस्कृति, 15 जनवरी 1934 )।

गोयनका लम्बे समय से प्रेमचंद को ‘भारतीयतावादी या हिन्दुत्ववादी लेखक’ के तौर पर पेश करते रहे हैं। उनका एक सूत्री कार्यक्रम प्रेमचंद को हिन्दूवादी रंग में रंगने का रहा है जिसमें उन्हें आज तक असफलता ही मिली है। पहले खुल कर संघ उनके साथ अधिक नहीं था। अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेमचंद का खुलकर संघी पाठ कर रहा है। यह एक एजेंडे के तहत है। अमित शाह पश्चिम बंगाल में भाजपा और हिन्दुत्व के पक्ष में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, स्वामी विवेकानन्द, राजनारायण बसु, आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय, रामानन्द चट्टोपाध्याय, रेजाउल करीम, उपेन्द्र नाथ बंद्योपाध्याय को प्रस्तुत करने में लगे हैं।

प्रेमचंद को गलत ढ़ंग से प्रस्तुत कर संघ परिवार अपने पक्ष में हिन्दी मानस को निर्मित करने में लगा है। यह हमला एक साथ प्रेमचंद और पाठकों के मानस पर हमला है। प्रेमचंद के सामने हमेशा ‘समानता का ऊँचा लक्ष्य’ था। उन्होंने यह साफ लिखा है कि ‘धर्म और नीति का दामन पकड़ कर वहां उस लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता’। वे पूंजीवादी सभ्यता – ‘महाजनी सभ्यता’ के विरोधी थे। प्रेमचंद के प्राचीन अध्येता गोयनका ‘महाजनी सभ्यता’ द्वारा व्यक्त आक्रोश को ‘सामाजिक’ न मानकर ‘व्यक्तिगत’ मानते थे। सवाल करते हैं ‘रहस्य’ कहानी ‘महाजनी सभ्यता’ से कहां मिलती है ?

‘पांच्यजन्य’ के इस अंक में एक सज्जन का लेख ‘शब्दों में गूंजती संस्कृति’ है। इस नये अध्येता ने प्रेमचंद पर लिखते हुए दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ का स्मरण किया है। इनका सदविचार है कि प्रेमचंद ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ हैं। ‘सोजे वतन’ से चला उनका राष्ट्रवाद ‘गोदान’ में गाय की महत्ता कहते सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्याख्या भी कर जाता है। इस लेखक ने न तो प्रेमचंद को सही ढ़ंग से पढ़ा है, न समझा है। प्रेमचंद ने ‘राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता’ लेख, जागरण, 27 नवम्बर 1933, में यह कहा है ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी।’ प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता, धार्मिक कट्टरता का सदैव विरोध किया जिसे संघ परिवार अपनी शक्ति मानता है।

‘पांच्यजन्य’ के इस अंक में प्रेमचंद की ‘लींचिंग’ की गयी है। यह प्रेमचंद के अध्ययन-मूल्यांकन की हिन्दू दिशा है। प्रेमचंद ने हिन्दू सम्प्रदायवाद का सदैव विरोध किया था। उन्होंने घार्मिक कट्टरता का विरोध किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। हिन्दुओं को अधिक ‘राजनीतिक सहिष्णुता’ से काम लेने की जरूरत’ बताई। इसे गलत कहा कि ‘इस्लाम तलवार के बल पर फैला…भारत में……. इस्लाम के फैलने का कारण ऊँची जाति वाले हिन्दुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था। इस्लाम तलवार के बल से नहीं बल्कि अपने धर्म तत्वों की व्यापकता के बल से फैला।’ ‘हिन्दुत्व’ के उदघोषकों में क्या हिन्दू धर्म की व्यापकता है ?

अब ‘पांच्यजन्य’ में ‘गोदान’ के कुछ नये व्याख्याकार हैं, जिनके अनुसार प्रेमचंद ने ‘गोदान’ के माध्यम से ‘हमारे जीवन के संस्कारों में गाय के आध्यात्मिक महत्व’ पर विचार किया है। प्रेमचंद गाय को आध्यात्मिक दृष्टि से न देखकर आर्थिक दृष्टि से देखते थे। गाय का ‘आर्थिक दृष्टि के अलावा और कोई महत्व नहीं है।’ उन्होंने गौकशी के मामले में हिन्दुओं के जिस ‘अन्यायपूर्ण ढ़ंग अख्तियार’ करने की बात कही थी, वह आज कहीं अधिक विकराल रूप में है।

प्रेमचंद पाखंडियों, धर्मान्धों, अलगाववादियों, साम्प्रदायिक शक्तियों के सदैव विरोधी रहे। आज ये सभी शक्तियां भ्रम फैलाकर चुनाव जीतना चाहती हैं। इन्हें प्रेमचंद का लेख ‘चुनाव चुथौअल’, हंस, अगस्त 1934, पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद ने वोटरों को सावधान किया था। उन्हें ‘हिन्दूवादी’ घोषित करने वालों को ‘विविध प्रसंग-2’ का ‘हिन्दू मुसलमान’ खंड पढ़ना चाहिए जो पृष्ठ 349 से 433 तक है।

प्रेमचंद के विचारों को तोड़-मरोड़कर, विकृत कर खंडित, दूषित और मतलबी दृष्टि से देखने की कोशिश कभी सफल नहीं हो सकती। प्रेमचंद के सामने देश का भविष्य था। हम सबके सामने भी देश का भविष्य है। प्रेमचंद को अपने समय में दूसरे देशों के भविष्य की भी चिन्ता थी। जर्मनी में 5 मार्च 1933 को चुनाव हुआ था। ‘राष्ट्रीय समाजवादी जर्मना पार्टी’ जो नाजी पार्टी थी, को कुल 288 सीटें मिली थी। उसने डी एन वी पी, ब्लैक हवाइट रेड स्ट्रगल फ्रंट से जिसे 52 सीटें मिली थी, मिलकर सरकार बनाई। प्रेमचंद अपने संपादकीय ‘जर्मनी का भविष्य’, जागरण 20 मार्च 1933 में प्रश्न करते हैं ‘क्या जर्मनी फासिस्ट हो जावेगा और वहां नाजी शासन कम से कम पांच वर्ष तक दृढ़ रहेगा ? यदि एक बार नाजी शासन को जमकर काम करने का मौका मिला तो वह जर्मनी के प्रजातंत्रीय जीवन को, उसकी प्रजातंत्रीय कामना को अपनी सेना और शक्ति के बल पर इस तरह चूस लेगा कि फिर पच्चीस वर्ष तक जर्मनी में नाजी दल का कोई विरोधी नहीं रह जायेगा।’ ‘पांच्यजन्य’ पत्रिका का ध्यान ऐसे विचारों पर क्यों नहीं है ?

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