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कविता

कविता नए दुखों की पहचान करती है- आशुतोष कुमार

नई दिल्ली। सिद्धांत फाउंडेशन द्वारा 23 दिसंबर को दिल्ली में वल्लभ के काव्य-संकलन ‘पोतराज’ पर परिचर्चा का आयोजन किया गया।

परिचर्चा में वरिष्ठ आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि आज का समय पहले से ज्यादा कठिन हो चुका है-राजनैतिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। ऐसे संकटग्रस्त समय में जब लिखने बोलने पर अघोषित पाबंदी हो, ज्यादा से ज्यादा कविताओं का आना जरूरी है। हम पुराने दुखों को तो जानते- पहचानते हैं लेकिन आज के दुख नए हैं। कविता नए दुखों का पहचान करती है।

‘ पोतराज ‘ शीर्षक कविता के संदर्भ में उन्होंने कहा कि सदियों से हम इस चरित्र को देख रहे हैं लेकिन कभी किसी ने नहीं सोचा कि इस चरित्र में कविता भी छिपी हुई है। सुबह से शाम तक हंटर की चोट सहते रहने पर ही जीभ को नमक का स्वाद मिल पाना आज की नियति बन गई है। यह कविता इस समय के दुख को दर्शाती है। संग्रह की तमाम कविताएँ इस समय का बयान हैं।काव्य संकलन में आए विशेषणों के संबंध में उन्होंने कहा कि कई बार ये विशेषण उलझन खड़ा करते हैं। एक ऐसा ही विशेषण ‘ धर्मनिरपेक्ष कौओं’ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्ष के साथ कौओं का आना अजीब लगता है जबकि पूरी कविता पढ़ते हुए स्पष्ट रहता है कि यह सटायर है और मूल्यनिरपेक्ष जैसा कुछ कहना चाहती है। आयोजन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि बहुत सार्थक चर्चा हुई और अच्छी बात यह रही कि आलोचनात्मक चर्चा हुई। ऐसा कम ही देखने को मिलता है।

कार्यक्रम की शुरुआत संस्था की सदस्य रचना त्यागी के वक्तव्य से हुई। उन्होंने सिद्धांत फाउंडेशन की गतिविधियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी।

परिचर्चा की शुरुआत महिमा सिंह के वक्तव्य से हुई। शोध छात्रा महिमा ने कहा कि ‘ पोतराज ‘ की कुछ कविताओं से तो सीधे सीधे मैं खुद को रिलेट कर पा रही हूँ। कविताओं की भाषा संकलन का मुख्य सौंदर्य है। बिम्ब प्रतीक से सजी कविताएँ और अनुभूतियाँ सीधे दिल दिमाग पर छा जाती हैं। ‘भूख’ शीर्षक कविता का उल्लेख करते हुए महिमा ने कहा कि यह कविता रघुवीर सहाय की परंपरा की कविता है। अपने वक्तव्य के आखिर में महिमा ने ‘जोगिया’ शीर्षक कविता को अपनी सर्वाधिक पसंद की कविता बताते हुए इसका पाठ किया।

कवि,कहानीकार एवं अनुवादक सुलोचना ने कहा कि ‘पोतराज’ कविता संग्रह से गुजरते हुए कवि की शब्द संधान में अभिरुचि विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है। भाषाई दृष्टिकोण से इस संग्रह को हिन्दी की जगह हिन्दवी कविता संग्रह कहा जाना अधिक मुफीद मालूम पड़ता है। कवि ने हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू के शब्दों का भरपूर मात्रा में इस्तेमाल तो किया ही है, साथ ही ‘लरछुत’ जैसे आंचलिक शब्द और बांग्ला के ‘मन रक्षा” जैसे शब्द भी कविता के आंगन में अपना कोना पाते हैं। हिन्दी के लिए यह शुभ संकेत है।इस संग्रह की श्वान विषयक चार कविताओं का सौन्दर्य यह है कि कवि कुत्ते को अलग-अलग स्थानों पर रखकर उसकी सामाजिक स्थिति और उसके बरअक्स कुत्ते के व्यव्हार की पड़ताल करता है। मनुष्य समाज में रहता है और कुत्ता आदिम युगों से मनुष्य का सहचर है।इस प्रकार वह हमारे समाज का अभिन्न अंग है।जैसा कि कवि अपनी बात में कहते हैं कि “कवि मात्र दर्शक भर हो नहीं होता बल्कि यथार्थ का भागीदार भी होता है।इस भागीदारी के अपने संघर्ष हैं” ऐसे में बेजुबान कुत्तों के जीवन और उनके संघर्ष को अपनी कविता में स्थान देने के लिए कवि निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।इस संग्रह में ‘अधिगम’ जैसी एन्थ्रोपोसिन विषयक कविता का होना आश्वस्त करता है कि हिन्दी कविता अब भौगोलिक और प्राकृतिक बदलाव जैसे जरूरी मुद्दों पर मुखर हो चली है।

परिचर्चा को आगे बढाते हुए वरिष्ठ कवि, समीक्षक राकेश रेणु ने कहा कि कविता को अलग-अलग पाठक अलग-अलग तरह से रिसीव करते हैं। वल्लभ की कविताएँ पूरी तरह से राजनीतिक कविताएँ हैं। बिम्बों और प्रतीकों के संबंध में उन्होंने कहा कि ये कविता के लिए जरूरी हैं। वल्लभ की कविताओं में बिम्ब और प्रतीक की भरमार तो है ही लेकिन विशेषणों का भी बहुत प्रयोग हुआ है। कवि को इससे बचना चाहिए। ‘जीवन-रहस्य’ कविता को कोट करते हुए उन्होंने कहा कि इस कविता में कबाला-पंथ का जिक्र आता है। कबाला-पंथ यहूदियों के धर्म से जुड़ा हुआ है। कवि को यहूदियों द्वारा जारी हिंसा के बारे में लिखना चाहिए वनिस्पत उनके धर्म को ग्लोरीफाई करने के। उन्होंने कहा कि यह जानना भी बेहद जरूरी हो जाता है कि जो संघर्ष कवि की कविताओं में नजर आता है , वह उसके जीवन का भी संघर्ष है या नहीं? अंत में उन्होंने कहा कि पोतराज की कविताएं महत्वपूर्ण हैं और इनको ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचना चाहिए।

तमाम विषयों पर अपनी एक अलग दृष्टि रखने के लिए चर्चित कवि,आलोचक फ़ाकिर जय ने अपने लंबे वक्तव्य में विभिन्न कोणों से पोतराज संकलन की पड़ताल की। उन्होंने कहा कि वल्लभ की काव्य यात्रा के तीन पड़ाव हैं। इनकी कविताओं की काव्यभूमि प्रेम है। प्रेम कविताओं के संकलन ‘सुनो शोना’ से ही इन्होंने अपने लेखन की शुरुआत की। रोमांटिसिज्म का मतलब होता है आत्मग्रस्त। यहाँ कवि खुद को ही यथार्थ मानता है। इसके बाद वल्लभ एन्टी रोमांटिक, एन्टीथीसिस के साथ अपना दूसरा काव्य संकलन लाते हैं -‘कुकनुस’। यह कवि का दूसरा पड़ाव है। यहाँ कवि ऑब्जेक्टिव रियलिटी,यथार्थ को देखने समझने लगता है। कुकनुस का कवि द्रष्टा है, ऑब्ज़र्वर है। वह साक्षीभाव से देखता है। कवि का तीसरा पड़ाव है पोतराज। यहाँ कवि अपने दोनों पड़ाव से आगे जाता है और स्वीकार करता है कि वह यथार्थ का सिर्फ द्रष्टा नहीं है, भागीदार भी है। कवि का यह वक्तव्य कवि को बेहद महत्वपूर्ण बना देता है। वल्लभ दरअसल मौलिक और नए नए बिम्बों की तलाश के कवि हैं। प्रचलित अर्थों में इनको प्रयोगधर्मी कवि भले ही कहा जाए लेकिन मैं इनके लिए प्रयोगधर्मी शब्द का इस्तेमाल नहीं करूँगा। प्रयोगधर्मी की जगह इनको मैं लैंग्वेज आइसोलेट या पोएट आइसोलेट कहना चाहूँगा। क्लासिफिकेशन सबसे बड़ा अत्याचार है। वल्लभ रेसिस्टेंस टू क्लासिफाई के कवि हैं। इनकी कविताई को किसी वाद, किसी पंथ या किसी भी तरह के खांचे में फिट नहीं किया जा सकता। क्लासिफाई से इनकार ही वल्लभ को महत्वपूर्ण कवि बना देता है। अपने वक्तव्य के पक्ष में फ़ाकिर जय ने बहुत सारे दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों और दुनिया भर के महत्वपूर्ण लेखकों को उद्धृत किया।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए किस्सागो एम.एम चन्द्रा ने कहा कि वैसे तो मैं कहानी का आदमी हूँ लेकिन कविताएँ पढ़ता रहता हूँ। ‘ पोतराज ‘ की कविताएँ राजनीतिक हैं भी और नहीं भी हैं। ना उम्मीदगी से भरी हुई दिखने वाली कविताओं की तह में वस्तुतः खूबसूरत समाज के सपने हैं। ये कविताएँ आज की विसंगतियों का यथार्थवादी स्वरूप हैं। इन कविताओं में आत्मपीड़न है, बेचैनी अकुलाहट है और उसको समाप्त करने का क्रियात्मक आधार भी है।

अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए पोतराज के कवि वल्लभ ने कहा कि रचना प्रक्रिया दरअसल बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। साहित्य या लेखन-कर्म से मेरा संबंध भावात्मक भी है कृतज्ञता का भी है और अन्तरंगता का भी। मैं इनमें कोई विरोधभास नहीं देखता। समस्या चाहे ईरान की हो, चाहे झारखण्ड के किसी गाँव की या फिर गंगा के दियर इलाके की ; लाज़िम है कि संवेदना के स्तर पर कमोबेश हर रचनाकार इनको एक ही जैसा महसूस करता है। तब है कि सबका अपना विजन भी अलग होता है और उस हिसाब शिल्प की बुनावट भी अलग होती है। ईमानदार रचनाकर्म के लिए जो दृष्टिकोण होती है वह आत्मसंघर्ष से आती है। इस आत्मसंघर्ष से हर ईमानदार रचनाकार को जूझना ही पड़ता है। वल्लभ ने ‘ पोतराज ‘ संकलन से दो कविताओं का पाठ किया।

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