2004 में आए अपने पहले कविता संग्रह ‘शोकनाच’ के साथ आर चेतन क्रांति ने इक्कीसवीं सदी की दुनिया के पेच शायद सबसे करीने से पकड़े। इक्कीसवीं सदी में जीने की कुंजी प्रबंधन है- सबकुछ प्रबंधित-प्रायोजित-परिभाषित है- प्रकृति हो या मनुष्य, उसकी उत्पादकता को प्रबंधन के दायरे में लाना, उसे उपयोगी बनाना इकलौता लक्ष्य है। जो इस लक्ष्य से बाहर है, इसे अस्वीकार करता है, वह विफल है, पीछे छूट जाने को अभिशप्त है। सत्ता राजनीति की हो या कविता की- यह एकमात्र सच है। उस संग्रह की पहली ही कविता में चेतन लिखते हैं,
‘वे सभी जाग्रत जीव / जिनकी रगों के घोड़े / मांद पर बंधे ध्यानरत खाते होंगे संतुलित पुष्ट घास / विचार करेंगे / उन सभी पशुओं की नियति पर / जिनके खुर नहीं आते उनके वश में / वे ईश्वर को सलाह देंगे / कि ये बैल, ये भैंस, ये कुत्ता, ये बिल्ली, / ये चूहा, ये हिरन, ये लोमड़ी, / ये सब दरअसल जंगल के जानवर हैं / कि इनके विकास के लिए कोई विज्ञान रचा जाए / वे सब-परिस्थितियां और मनस्थितियां होंगी जिनकी चेरी, / जिन्होंने किए होंगे सारे कोर्स,/ और शानदार ढंग से पाई होगी शिक्षा / कि कैसे रखें काबू में कच्ची ऊर्जाओं को / कि कैसे निबटें ठाठे मारती इस पशु ताकत से / जो हुक्म देती भी नहीं, हुक्म लेती भी नहीं, / इसे उत्पादन में कैसे जोतें।‘
अनुशासन, आज़ादी और हाज़िरजवाबी की इस प्रबंधकीय कुटिलता से बनी दुनिया का सतहीपन उनकी कविता जैसे तार-तार कर देती है- सबसे प्रेरक ईर्ष्याओं और सबसे हसीन चुटकुलों की सभ्यता पर चोट करती हुई और इशारा करती हुई उस भायवह भविष्य की ओर, जिसमें ‘एक दिन वे बैठेंगे वहां और दुनिया की सफाई पर विचार करेंगे।‘
चेतन की निगाह में यह औसत का राजमार्ग है- अपनी दृष्टिहीनता की कोख से उपजा हुआ। वे बिल्कुल सख्ती और सहजता से अपनी बात कहते हैं- और यह बिल्कुल खिल्ली उड़ाने जैसी मालूम होती है
‘कि राजा नहीं, प्रजा नहीं, भगवान नहीं, भक्त नहीं / कि फ़ाज़िल नहीं, ज़ाहिल नहीं, आसान नहीं, सख़्त नहीं, / सिर्फ मीडियॉकर ही दुनिया को बचाएगा / कि कृष्ण का, कि राम का, कि ख्रीस्टा का, / कि वेस्ट का, कि ईस्ट का, / मिला-जुला ख़ुदा एक आएगा।‘
यह ख़ुदा कौन होगा, चेतन नहीं बताते।
लेकिन प्रबंधकीय औसतपन और बुद्धिहीनता का बीहड़ सिर्फ बाज़ार और शून्य पैदा नहीं करता, वह अपने बने रहने के लिए एक आसान सी क्रूरता पैदा करता है, सत्ता नियोजित सांप्रदायिकता का पोषण करता है, लोकतंत्र के भीतर ज़ख़्मी पहचानों की राजनीति का खेल खेलता है।
इसी में 2002 का गुजरात भी घटित होता है। इस त्रासदी को हिंदी कविता ने कई तरह से पढ़ा है। मंगलेश डबराल की कविता ‘एक मृतक का बयान’, गुजरात के राहत शिविर को लेकर लिखी गई विष्णु खरे की कविता और ऐसी बहुत सारी दूसरी कवितायेँ हैं जो सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक आख्यान बनाती है।
मगर आर चेतन क्रांति संभवतः सांप्रदायिकता से लड़ाई में सबसे दूर तक जाते हैं और सबसे तीखे वार करते हैं। ‘हत्यारे साधु जाएं हत्या करने मेरा यह शाप लेकर’ एक अद्भुत कविता है जिसमें चेतन लिखते हैं, ‘धर्माचार्यों, तुम्हारे दिन तो जा ही चुके थे बरसों पहले / लो, अब तुम्हारा धर्म भी गया / हत्या पर हत्या करके भी / अब तुम उसे लौटा नहीं सकते। / तुम्हारी हवस की लपटों बीच / अकेला, असहाय, निहत्था खड़ा / भगवान के भी सहारे बिना / मैं तुम्हें शाप देता हूं / कि जाओ तुम्हारी क्षय हो, सतत / पाताल के सबसे गंदे कुएं में जाकर तुम गिरो, / मारीच जैसी मौत मरा था, ऐसी मौत तुम मरो / और लौट-लौट कर रावण के कुल में ही जनमो / अनंत काल तक। / जब तक पूरी लंका, और पूरी अयोध्या न हो जाए नष्ट।‘
यह सात्विक गुस्सा आर चेतन क्रांति की कविता को वह काव्यात्मक उदात्तता देता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस संग्रह में ऐसी बहुत सारी कवितायेँ हैं जो सांप्रदायिकता की व्यर्थता, उसके छल और उससे पैदा होने वहशीपन के विरुद्ध पूरी ताकत से ख़डी हैं।
वह 2004 का साल था। तब से अब तक 12 साल बीत गए। ‘शोकनाच’ के बाद अब आर चेतन क्रांति का दूसरा संग्रह ‘वीरता से विचलित’ आया है। वीरता वह विशेषण है जिससे अब तक दुनिया अभिभूत रही है। वीर होना एक बड़ी नियामत है। लेकिन यह वीरता हमारे कवि को विचलित करती है।
2004 से 2017 तक आते-आते कुछ समय भी बदला है और कुछ हमारा कवि भी। लेकिन मूलभूत बदलाव दोनों में नहीं है। समय ज़्यादा क्रूर, ज़्यादा प्रबंधित, ज़्यादा उग्र और उन्मादी है।
सांप्रदायिकता की विष-बेल राजनीति और सार्वजनिक जीवन से उठ कर घरों-परिवारों के भीतर पहुंच गई है, सारी पढ़ाई-लिखाई नौकरियों के लिए है और चमकदार करिअर की तलाश में लगे नौजवान अब विश्वविद्यालयों की धूल-मिट्टी का नहीं, निजी-चमचमाते संस्थानों के भव्य परिसरों का रुख़ करते हैं। दुकानों की जगह मॉल ने ले ली है जो बाहर बिखरी-पसरी गंदगी और विपन्नता से बिल्कुल अछूते, चमचमाते स्वर्ग जैसे लगते हैं। क्रूरता और कुलीनता का यह परस्पर आलिंगन इस संसार में बिल्कुल नया तो नहीं, मगर इस लिहाज से अनूठा है कि अब उसका पूरा एक सांस्कृतिक भाष्य और विमर्श तैयार किया जा रहा है। इसके पीछे आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह की सत्ताएं लगी हुई हैं। एक छोटा सा भारत एक बहुत ब़डे भारत को अपना उपनिवेश बना कर ऐश कर रहा है। दुर्भाग्य से हम सब इस छोटे से भारत के ही सुविधासंपन्न नागरिक हैं। इस दौर में चेतन की कविता में पुराना थरथराता आवेग तो है ही, एक नई क़िस्म की व्यंग्य विदग्धता दिखाई पड़ती है। सत्ता और सांप्रदायिकता के बर्बर गठजोड़ की वे खिल्ली उडाते हैं, मॉल और कार संस्कृति पर तीखी चोट करते हैं, पेशेवर ठंडेपन पर ठंडेपन से निगाह डालते हैं, और लोगों के वस्तुओं में बदलते जाने की मार्मिक पुष्टि करते हैं। लेकिन सबसे बड़ा काम उनकी कविता यह करती है कि इस पूरे दौर की शिनाख़्त करती है जिसमें यह सारे बदलाव घटित हुए हैं। बरसों पहले उन्हें ‘सीलमपुर की लड़कियां’ कविता लिखने के लिए भारत भूषण अग्रवाल स्मृति सम्मान मिला था। इस बार उन्होंने ‘सीलमपुर के लड़के’ नाम की कविता लिखी है। अगर धूमिल की ‘पटकथा’ भारत की आज़ादी से लेकर साठ के दशक के मोहभंग की कहानी है, अगर मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में” उस दौर में बढ़ रहे अंधेरों की शिनाख़्त है तो सीलमपुर के ल़डके बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई से इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों में हुई उस दुर्घटना का साक्ष्य हैं जिसे हम सब अपने साथ घटित सभ्यता का वरदान मानते हैं।
सीलमपुर के लड़के भूखे और बेरोज़गार हैं, घर-परिवार और समाज से बेजार हैं, जिंदगी के बारे में कोई नक्शा उनके पास नहीं है, उनके सामने टीवी पर राम और युधिष्ठिर मनोरंजन करके नई भूमिकाओं में चले गए, उनके सामने चार सौ साल पुरानी एक मस्जिद गिरी और नया ज़माना आया, उनके सामने मोबाइल की स्क्रीनों पर लड़कियां उग आईं जिन्हें वे मसलते रहे, उनके सामने रामलीला मैदान में एक बूढ़ा बैठा और अपनी नाउम्मीदी के बीच और बावजूद जीने की भूख के साथ वे वहां चले आए। हर सवाल का जवाब उन्होंने मोटरसाइकिल से दिया और एक दिन वे देशप्रेमी हो गए। एक तरह की निरुद्देश्यता और हताशा के बीच एक दिए गए मक़सद में अपने हिस्से का गर्व और गुमान खोजती एक पूरी पीढ़ी की निस्पंद हिंसा के स्रोत जैसे यह कविता पक़ड लेती है,
‘सो सबसे पहले उनहोंने पौरुष पहना, / फिर पैसा / और सबसे ऊपर देश। / जिसने सब शिकायतें, / सब दुख / सोख लिए / वे कहते घूमे कि क्या हुआ जो मरते हैं लोग / लोग तो मरते ही हैं असली बात है देश / और देश का विकास।‘
यह मुक्तिबोध के उस सादगी भरे उलाहना का जवाब है, कि “मर गया देश। जीवित रह गए तुम।‘
सीलमपुर के लड़कों के साथ घटी इस त्रासदी के बाद दुनिया कैसी है? ‘शोकनाच’ के धर्माचार्य अब सत्तासीन हैं, उनकी हुक्मउदूली नहीं की जा सकती, लेकिन उनको कविता के चाबुक से पीटा तो जा सकता है। ‘भय प्रवाह’ नाम की कविता लगभग यही काम करती है। लेकिन चेतन जो चाबुक उठाते हैं, नागार्जुन और कबीर की तरह सीधा नहीं है, उसका घुमाव अपने चरम पर है। वह शुरू करते हैं इस बात से कि ‘लीजिए हम डर गए, लीजिए हम मर गए, आप ही यहां रहें, आप ही अपनी कहें। और इसके बाद वे अपने ख़ास लहजे में उनकी इच्छाओं का सच उजागर करते हैं-
‘हर सड़क का नाम स्वदेशी? जी साहिब कर दिया/ हर तरफ़ हुक्काम स्वदेशी? जी मालिक कर दिया/ औरतें साड़ी में निकलें? ओत्तेरी जी, भेज दीं/ साथ में सिंदूर की डिबियाएं भी? जी भेज दीं/ लिखने-पढ़ने सोचने वाले भी साहिब जा चुके/ मीर, ख़ुसरो, जोश, मंटो और ग़ालिब? जा चुके/ ज्ञान के भूखों को भी संतुष्ट हमने कर दिया/ वेद सबके सामने एक-एक कॉपी धर दिया/ कर दिया जी कर दिया, इतिहास भी सब ठीकठाक/ बालकों के मुंह पे, चिपका दी है इक-इक गज़ की नाक।‘
क्या हिंदी कविता में इतना मारक और अचूक व्यंग्य तत्काल याद आता है?
रघुवीर सहाय के रामदास को हम सबने पढ़ा है। वह निरीह है। उसे पता है हत्या होगी। वह अपनी हत्या के लिए प्रस्तुत है। उसकी हत्या होती है, सब गवाह हैं। लेकिन अब रामदास बदल गया है। अब वह एक प्रोफेशनल है जिसे मालूम है कि वह चूकेगा तो पीछे रह जाएगा, उसको सबसे ज़्यादा तनख्वाह इस बात की मिल रही है कि वह एक कुशल हत्यारा है। आर चेतन क्रांति की कविता ‘प्रोफेशनल’ इस नए रामदास से मिलाती है-
‘उसको एक चाकू दिया गया / और तनख्वाह / कि जब मरते हुए आदमी को देखकर / तुम्हारा हाथ कांपे, / तुम करुणा से बाज रहो। / तो वह जब घर में घुसा / उसके हाथ में सिर्फ आदेश था। / उसने बैठकर मक़तूल की पूरी बात सुनी, / उसे दया आई, हमदर्दी हुई, / आदत के तहत उसके दिल ने कहा, छोड़ दो, / लेकिन उसे पीछे रह जाने से डर लगा/ …..और थोडी देर बाद / अपने थैले में / एक सिर ठूंस कर निकला / जिसकी आंखें खुली थीं।‘
यह नया रामदास है। मार रहा है और मर रहा है। उसकी तनख्वाह का औचित्य साबित करने के लिए, यह साबित करने के लिए कि उसके लिए भी मनोरंजन की गुंजाइश बची है, नई सभ्यता ने म़ॉल बनाए हैं। आर चेतन क्रांति लिखते हैं,
‘गू-मूत-कीचड़-धूल-शोर / ख़ून दर्द उल्लास / धक्कामुक्की और भीड के चौराहे पर / एक वास्तुसम्मत दिशा देखकर / ख़ड़ा किया वह नन्हा सा स्वर्ग / साफ़ और चमकीला / जो दो ही महीने में / सदियों पुराने शहर से ज़्यादा शाश्वत दिखने लगा।‘
इस मॉल का वैभव और इसकी व्यवस्था डराते और लुभाते हैं, याद दिलाते हैं कि हमारी कितनी ज़रूरतें हैं जिनका हमें भी एहसास तक नहीं, हमारी कितनी इच्छाएं हैं जिनका हमें पता तक नहीं। लेकिन मन, नज़र, उदर सब तृप्त कर देने वाले मॉल से निकलने के बाद क्या होता है? चेतन से सुनिए- ‘शाम ढले जाकर हम बाहर निकले / और रात देर तक / पता ही न कर सके / कि हमें प्यास ज़्यादा थी / या हगास।‘
कोमलता में छुपी क्रूरता, सलीके में छुपी फूहड़ता, आधुनिकता में छुपी मध्ययुगीनता, सहिष्णुता में छुपी असहिष्णुता, कविता में छुपी और उदात्तता से ढंकी क्षुद्रता, मनुष्यता के चोले में छुपा जातिवाद- आर चेतन क्रांति की कवितायेँ जैसे एक-एक कर सभ्यता का वह परदा हटाती चलती है जिसके पीछे अलग-अलग समय में और नियत-नियत लक्ष्यों पर वार कर सकने लायक अचूक और आजमाए हुए हथियार छुपा कर रखे गए हैं। आर चेतन क्रांति इस मोड़ और मोर्चे पर सबसे आगे हैं और सबसे चौकन्ने। – प्रियदर्शन
आर. चेतन क्रांति की कवितायेँ –
सीधी सड़क-टेढ़ी सड़क
मुझसे अपने स्वार्थ छिपाए नहीं बनते
अपने लालच-लोभ मैं धाड़ से कह देता हूँ
जिन्हें सुनकर सलीके अवाक रह जाते हैं
जाने क्यों
पर यह मुझे ज्यादा घातक लगता है
कि बैठे हैं और धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं.
सलीका भले सहमत न हो
पर यह कितना विचित्र है
कि अंततः जो तय है
सारा सफ़र तुम वही न कहो.
और कितना अश्लील
कि एक टुच्चे से स्वार्थ को
तुम सृष्टि के रहस्य की तरह ढोते रहो
और अंत में दस पैसे की एक पुड़िया
कांख में दबाकर चिहुँकते हुए निकलो
और यह भी कहो
कि मार लिया…जी मार लिया मैदान.
ताज्जुब कि तुमको आलस नहीं आता
शुक्र है, मुझे ऐसा पुख्ता-पीठ आलस मिला
कि नमस्कार से पहले लिप्सा कह देता हूँ.
मुझे लगता है कि अगर मैं सीधे जाऊँगा
तो इतना घूमकर नहीं जाना पड़ेगा
जिसके लिए तुमको वाहन रखना पड़ जाता है.
तुमको नहीं लगता कि पूरी पृथ्वी सिर्फ सड़कों को नहीं दी जा सकती
और न सब सड़कें पहियों के सुपुर्द की जा सकती हैं
और फिर, पैरों के बिना
सोचो, कैसे तो तुम लगोगे
जब वे पूंछ की तरह
तुम्हारे गाड़ी-भर नितम्बों के गोश्त में विलुप्त हो जाएंगे.
माना
कि सभ्यता का उत्सर्जन
आँतों-सी अनंत इन सड़कों से हुआ
सलीके निकले, तमीज आई
फिर भी सोचो कितना सुकूनदेह होता
कि सबसे पहले स्वार्थ ही कह देते
और बाकी वक्त हाथों में हाथ डाल बस घूमते.
क्या पता, सड़कों का जंजाल तब इतना दुष्कर न होता
शरीरों के सिर आकाश में पुल बाँध रहे होते
और मगन मन पाँव
धरती के दुपट्टे में पगडंडियों की कढाई करते.
कितनी राहत मिलती है सोचकर
कि मुझे जो चाहिए बिना अगर-मगर जाकर ले आता
और कितनी ऊब यह देखकर: कि पहले तो प्रणाम जी, फिर चतुराई जी-चालाकी जी, सावधानी और वाक्पटुता जी. फिर यह सोचना कि कौन सी मिठाई उन्हें पसंद है कौन सी राजनीति. ध्यान रखना कि बीवी से नजर नहीं मिलानी है…बेटे का भजन सुनना है… ज्ञान दिखाना है…तर्क सुनाना है…यह भी मान लेना है कि मुट्ठी में तो बस रेत है जी और यह भी कि जीवन में संघर्ष के बिना घंटा भी हाथ नहीं आता. और अंत में थक जाना है, कुढ़ना है, धैर्य खो देना है. हमलावर हो जाना है और गर्दन पर पैर रखकर लेकर चले आना है, दरअसल जो चाहिए था.
ये ही सड़क है?
इसी पर जाना है?
सीलमपुर की लड़कियाँ
सीलमपुर की लड़कियाँ ‘विटी’ हो गईं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पन्द्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया,
पन्द्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
यह डाक्टर मनमोहन सिंह और एम. टी.वी. के उदय से पहले की बात है।
तब इन लड़कियों के लिए न देश-देश था, न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और दो छातियाँ
बदन और वक्त की हर हरकत यहाँ आकर
मांस के एक लोथड़े में बदल जाती थी
और बन्दर के बच्चे की तरह
एक तरफ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजख़ास से दिलशाद गार्डन जानेवाली
बस का कंटक्टर
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
फिर वक्त ने करवट बदली
सुष्मिता सेन मिस यूनीवर्स बनीं
और ऐश्वर्या राय मिस वल्र्ड
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थीं
किसी पत्रिका में अपने अर्द्धनग्न चित्र छपने को दे आयीं
और सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों के
गालों, कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
सप्राण हो उठे
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पन्द्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माएँ
अनजाने कम्पनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से
और गलियों-चैबारों से
एक साथ तटस्थ हो गईं
जहाँ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहाँ वे स्तब्ध होने लगीं,
जहाँ उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहाँ वे यातना कमाने लगीं
जहाँ उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहाँ वे सिर्फ अकुलाने लगीं
उनके मन के भीतर दरअसल एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक समतल मैदान निकल रहा था
जहाँ चैबीसों घंटे खट्खट् हुआ करती थी।
यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
हिन्दुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारों को चुपके से बताया था कि
एक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएँगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
कैरियर जो आजादी था
उन्हीं दिनों यह हुआ
कि सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
वहाँ की सौन्दर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गए
चैराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिए
उनके चेहरे खूँखार तेज से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे,
वे साकार शिश्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो इधर
लड़कियों की टाँगों में तराश दी गईं थीं
और उस मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों और उनके समय के बीच
जाने कहाँ से निकल आया था
इसलिए जब उनका पाँव उस जमीन पर पड़ा
जिसे उनका स्पर्श पाते ही धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियाँ हँस रही थीं
वे जाने कहाँ की बस का इन्तजार कर रही थीं
और पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इन्तजार कर रही हैं।
सीलमपुर के लड़के
…………………………………….
सीलमपुर के लड़के देशप्रेमी हो गए
पहले वे भूखे थे, और बेरोजगार
और घर से, घरवालों से, रुंधे हुए नाक तक,
समाज से और देश से भी
उन्हें समझ नहीं आता था
कि क्या करें
जिन्दगी के बारे में कोई नक्शा उनके पास नहीं था,
न देश के बारे में
वे जमुहाइयां लेते हुए आकाशवाणी सुनते
और समझ न पाते कि यह किसके बारे में क्या कहा जा रहा है
पाठ्य-पुस्तकों की लिखत उन्हें पराई जान पड़ती
कर्तव्यपरायण अध्यापक अत्याचारी लगते
और पढ़ाकू जो मोहल्ले के आसमान में फानूस की तरह लटके रहते
इनके हर खेल का निशाना बनते
शिक्षा इनके लिए एक औपचारिक क्रिया थी
जिसका सबसे अच्छा उपयोग
सरकारी नौकरी था
लेकिन वह बहुत ऊंचा आदर्श था
जिसके लायक वे खुद को नहीं मानते थे
यूं ही बस बाई-डिफाल्ट.
पडौसी के टीवी में इतवार की फीचर फिल्म
एकमात्र ठिकाना थी
जहाँ वे कुछ देर रह सकते थे
और जिसे बाद में एक बड़ी दुनिया का
दरवाजा बनना था
सालों वे उसे खोलते-बंद करते रहे
फिर जब वह अंततः खुला
और नब्बे का दशक
मुहावरा बनने से पहले
चार सौ साल पुरानी
एक मस्जिद की धूल
हवाओं को सौंप
खिड़कियाँ खोलने में जुटा
वे अपने अंधेरों से
ऊब चुके थे
फिर रोशनी हुई
सब तरफ उजाला
सब साफ़ दिखने लगा
यह भी कि जिन स्वार्थों को बल्लियों पर टांगकर
दुर्लभ कर दिया गया था
सबके लिए प्राप्य थे
जिन्हें धर्मग्रंथ त्याज्य कहा करते थे
वे भी.
दुनिया
रोज एक टटके कालीन की तरह
थर्रर्र से खुलती
रोज क्षितिज थोड़ा और पास आ जाता
रोज आत्मा की गिरहें
तड़-तड़ टूटतीं
रोज़ रीढ़ का एक सुन्न हिस्सा
जाग उठता
रोज पता चलता
कि पैसा बुरी चीज नहीं है
रोज मालूम होता कि न प्रेम पाप है, न हस्तमैथुन
राम और युधिष्ठिर
जब अपनी गंभीर मुद्राएं
कैमरामेन को सौंपकर
हँसते हुए चले
और उनसे ज्यादा हँसते हुए
कुछ और लोग
दौड़कर मंच पर आये
कि आगे मनोरंजन हम करेंगे
वे जान चुके थे
कि सत्य वही है जो सामने है
और यह भी
कि वह डरावना तो बिलकुल भी नहीं.
बरसों से हवा में लटके
उनके निहत्थे और अनाथ हाथ
एक-एक मोबाइल पकड़कर
जिस दिन वापस लौटे
उन्हें पता चल चुका था
कि कुछ तो होता रहा है
उन्हें बिना बताए
कि लडकियां
उन पर हंस रही हैं
और हर साल उन्हीं के फोटो
पहले पन्ने पर छपते हैं
और हर दिन
वे और ज्यादा अ-लैंगिक दिखाई देती हैं
हर दिन और ज्यादा कमनीय, लेकिन और भी ज्यादा उदासीन
कि जैसे उन्हें पता ही न रहा हो
कि दुनिया को मर्द चलाते हैं.
क्रोध और प्रतिशोध में उन्होंने
लाखों डाक्टरों-इंजीनियरों, जजों और प्रधानमंत्रियों को
नालियों के हवाले कर दिया
उन्हें यह देश नहीं चाहिए था
जिसमें प्राकृतिक चीजों की इतनी हेठी हो
कंधे तक हाथ डाल-डाल कर
मोबाइल की स्क्रीन में
मसल डाला उन्होंने दूर देश की जाने कितनी औरतों को
जिन्हें वे दिन भर
मुहल्ले की पढ़ाकू लड़कियों की टांगों में
मुस्कुराते देखते थे
और आगे जाकर थूक देते थे
वीर्य और रक्त की बाल्टियां कंधे पर टांगे
वे रात-रात भर घूमते
कामनाओं की तस्वीरें बनाते
बसों, रेलों, पेशाबघरों
और पुलों के नीचे
लिख-लिख छोड़ते रहे अपने सन्देश
जिनका कोई जवाब उन तक नहीं पहुंचा
रामलीला मैदान में जब वह बूढ़ा
गांधी की तरह मरने बैठा
मरने का भारतीय आदर्श उनके लिए मजाक बन चुका था
वे नाउम्मीदी की हदों पर मंडरा रहे थे
बस जीने की अंधी भूख थी
जो उन्हें वहां लेकर गयी
कई दिन वे सड़कों पर दनदनाते घूमे
कई दिन उन्होंने हर सवाल का जवाब
मोटरसाइकिल से दिया
और जिस वक्त यह तय हुआ
कि देश को सिर्फ ताकत से चलाया जा सकता है
वे खुद ही जान चुके थे कि पौरुष ही पथ है.
फिर हजारों रंग उतरे
दिल पर अलग, देह पर अलग
और हजारों ख्वाहिशें
जो अलग अलग बोलियों में
दरअसल ताकत की ही ख्वाहिश थी
वे वजह ढूँढने निकले
जो एक नाखुश देश के हर नुक्कड़ पर उपलब्ध थी
पर उन्होंने जो चुना
वह सिर्फ इसलिए नहीं कि आसान था
इसलिए भी कि उसमें शरीर–सौष्ठव के प्रदर्शन की गुंजाइश थी
निष्ठा के पातिव्रत और अमानवीय की संवैधानिकता को
सिद्ध करने की
गारंटी भी
वे सत्य के लिए वन नहीं जाना चाहते थे
उनके लिए इतना काफी था
कि आधी रात जगाकर कोई न कहे
कि जो तुम छाती से चिमटाकर सो रहे हो
देख लो वह कितना सच है
अंतिम तौर पर विश्वास करने के लिए
वे काफी थक चुके थे
उनकी हड्डियां अब आवरण मांग रही थीं
सो पहले उन्होंने पौरुष पहना
फिर पैसा
और सबसे ऊपर देश
जिसने सब शिकायतें
सब दुःख
सोख लिए
वे कहते घूमे कि क्या हुआ जो मरते हैं लोग
लोग तो मरते ही हैं असली बात है देश
और देश का विकास
और जिस दिन वह सहसा कंधे पर बैठा मिला
वह आदमी जिसने जाने किस किस तरह बताया
कि छाती चौड़ी हो और टांगों पर बाल हों
और हाथ में लाठी हो और
दिल में सत्य को पा लेने का भरोसा और
संशय से सुरक्षित रहने का आत्मबल
तो कुछ भी किया जा सकता है.
लेकिन वह पहले विकास करेगा, उसने कहा.
और सीलमपुर के लड़के मुस्तैद हो गए
बोले कि अब जो सामने आया तोड़ देंगे तोड़ देंगे जो पीछे से हंसा
तोड़ देंगे जो ऊपर से मुस्कुराया
तोड़ देंगे जो नीचे कुलबुलाया
और इसी मंत्र को जपते हुए बैठ गए
एक आँख बंद कर समाधि में
और दूसरी आँख खोलकर तैयारी में.
मर्दानगी
पहला नियम तो ये था कि औरत रहे औरत,
फिर औरतों को जन्म देने से बचे औरत,
जाने से पहले अक्ल-ए-मर्द ने कहा ये भी,
मर्दों की ऐशगाह में खिदमत करे औरत.
इतनी अदा के साथ जो आए जमीन पर,
कैसे भला वो पांव भी रखे जमीन पर,
बिस्तर पे हक़ उसी का था बिस्तर उसे मिला,
खादिम ही जाके बाद में सोये जमीन पर.
इस तरहा खेल सिर्फ ताकतों का रह गया,
अहसास का होना था, हिकमतों का रह गया,
सबको जो चाहिए था वो मर्दों ने ले लिया,
जो छूट गया सबसे, औरतों का रह गया.
यूं मर्द ने जाना कि है मर्दानगी क्या शै,
छाती की नाप जांघिये का बांकपन क्या है,
बाहों की मछलियों को जब हुल्कारता चला,
पीछे से फूल फेंक के देवों ने कहा जै.
बाद इसके जो भी सांस ले सकता था,
मर्द था जो बीच सड़क मूतता हगता था,
मर्द था, घुटनों के बल जो रेंगता था,
मर्द था वो भी, पीछे खड़ा जो पांव मसलता था, मर्द था.
कच्छा पहन के छत पे टहलता था,
मर्द था जो बेहिसाब गालियाँ बकता था, मर्द था,
बोतल जिसे बिठा के खिलाती थी रात को,
पर औरतों को देख किलकता था, मर्द था.
जो रेप भी कर ले, वो मर्द और जियादा, फिर कहके बिफर ले,
वो मर्द और जियादा, चलती गली में कूद के दुश्मन की बहन को,
बाहों में जो भर ले वो मर्द और जियादा.
मर्दानगी को थाम के बीमार चल पड़े बूढ़े-जवान, नाकिसो-लाचार चल पड़े.
मर्दानगी के बांस पे ही टांग के झंडे, करने वतन की देख-रेख यार चल पड़े.
पावर
पावर गली-गली थी, छज्जे पे भी खडी थी,
छत पे लगाके आला, घर-घर में झांकती थी.
पावर का था ‘विधाला’, पावर की थी पढाई
टीचर भी किया करते पावर की ही बड़ाई
पावर के ही सबक फिर माँ-बाप ने रटाए,
पावर का पेन लाये, पावर की रोशनाई.
पावर के चार पहिये, पावर के आठ बाजू,
पावर के हाथ में था इन्साफ का तराजू पावर ने जिसे चाहा,
आकाश में उछाला पावर ने जिसे चाहा,
मारा पटक के ‘ता-जू’ पावर ने गले जिसके जयमाल डाल दी हो
दुनिया में घूमता है दामाद की तरह वो
सुसराल हर शहर में, दुल्हन हरेक घर में हर द्वार पर ठहरकर कहता है, ‘जी, उठो तो.’
पावर के सर पे पावर, पावर के तले पावर,
है और क्या जमाना, हयरैर्की-ए-पावर.
पावर की सीढियों से कुछ हांफते गए थे, आये हैं जब से वापस,
फिरते हैं लिये पावर. पावर ने सबको बोला जाओ दिखा के पावर,
सब दौड़ पड़े, घर से, लाये उठाके पावर, थी जिसके पास जैसी,
नुक्कड़ पे लाके रख दी, फिर शहर-भर ने देखी, मोटर में जाके पावर.
पावर जिसे न भाये, फिरता वो सर झुकाए पूछो पता-ठिकाना,
ये जाने क्या बताए जी, मैंजी, हाँजी, ना-जी, ऐसे-जी, क्या-पता-जी
ऐसे डफर को पावर खुद ही न मुंह लगाए.
पावर में iइक कमी थी, तन्हाई से डरती थी,
चलती थी झुण्ड लेकर, जब घर से निकलती थी,
फिर बोलती थी ऊंचा ज्यों सामने बहरे हों,
और साथ में छिपाकर हथियार भी रखती थी.
पावर को चाहिए थी थोड़ी सी और पावर, रहती है अधूरी ही पावर बतौर पावर,
हमको तो कनखियों से खामोश कर देती है, पावर के लिए नचती, पर ठौर-ठौर पावर.
हत्यारे साधु जाएँ हत्या करने मेरा यह शाप लेकर
(गुजरात नरसंहार के बाद)
धर्माचार्यो
तुम्हारे दिन तो जा ही चुके थे बरसों पहले
लो, अब तुम्हारा धर्म भी गया
हत्या पर हत्या करके भी
अब तुम उसे नहीं लौटा सकते
तुम्हारी हवस की लपटों बीच
अकेला, असहाय, निहत्था खड़ा
भगवान के भी सहारे बिना
मैं तुम्हें शाप देता हूँ
कि जाओ, तुम्हारी क्षय हो, सतत
पाताल के सबसे गन्दे कुएँ में जाकर तुम गिरो
मारीच जैसी मरा था, ऐसी मौत तुम मरो
और लौट-लौटकर रावण के कुल में ही जनमो
अनन्तकाल तक
जब तक पूरी लंका, और पूरी अयोध्या न हो जाए नष्ट
कष्ट पाए तुम्हारी आत्मा
चैरासी की चैरासी लाख योनियों में
और भ्रष्ट करो
तुम हर योनि को अपने रावण-गुण से
करते रहो
जब तक कि धरती का हर चरिन्द, हर परिन्द, हर पेड़ और हर पानी रावण न हो
जाए
तब
शायद तुम्हारे राक्षसी धर्म लौट आएँ
लिखी जाएँ तुम्हारे तप की गाथाएँ
तुम्हारे तेज की विरुदावलियाँ गाई जाएँ
तुम्हारे तेज की विरुदावलियाँ गाई जाएँ
धर्माचार्यो
अभी तो तुम हो बस पशुबल का अट्टहास
नरभक्षी अहंकार का विलास
(यह देखो, यह लाश
सुलग रही है, भुना हुआ है मांस
इसका भोग लगाओ
सन्तो, हम भूखे-नंगों की दुनिया
बस यही तुम्हें दे सकती है, खाओ)
राम से मत डरो महन्तो,
वे नहीं आएँगे अभी
हत्या के लिए वे व्याकुल नहीं रहते कभी
हत्या उनका मार्ग नहीं है
वे तो अभय देते हैं पापियों को भी
मुहलत–कि तुम करो पाप
जब तक किसी निर्बल का शाप
न फैल जाए पूरे ब्रह्मांड में प्रलय-प्रस्ताव की तरह
साधुओ,
तब तक हो तुम स्वतन्त्र
और मर्त्यलोक का यह जनतन्त्र
तुम्हारा है
लिप्सा के
ये सारे शक्तिशाली दास
तुम्हारे हैं
उथले धन के पाले
ये सारे बदमाश
तुम्हारे हैं
भगवान की दुत्कारी
इस अनपढ़ जनता के
अन्धे लूले विश्वास
तुम्हारे हैं
तुम्हारा क्या नहीं है, सिवा राम के
ओ लंका के धर्मरक्षको,
सारे मृत्यु मन्त्र
तुम्हारे पास पड़े हैं
तुम्हारे पास पड़े हैं
यम के सारे दूत
श्रद्धावान से सब हत्यारे
ये मृत्युपूजक
मानस पूत तुम्हारे
तैयार खड़े हैं
तो जब तक आएँ राम
बजे हत्या का डंका
खून की प्यासी
रह न जाए
सोने की लंका
तिलक रक्त का चढ़ा
पहनकर असुरों का उत्साह
है मेरा शाप तुम्हें
तुम जाओ ताकतवर की राह।
प्रोफेशनल
उसको एक चाकू दिया गया
और तनख़्वाह
कि जब मरते हुए आदमी को देखकर
तुम्हारी आत्मा काँपे
तुम पश्चात्ताप से बाज रहो।
तो जब वह घर में घुसा
उसके हाथ में सिर्फ आदेश था
उसने बैठकर मकतूल की पूरी बात सुनी
उसे दया आई, हमदर्दी हुई
आदत के तहत उसके दिल ने कहा कि छोड़ दो
पर वह माना नहीं
उसे पीछे रह जाने से डर लगा
चूक जाने की आशंका से वह सिहर उठा
अपनी सालाना रिपोर्ट में
एक खाली खाना उसे दिखा
जहाँ साहब कुछ भी लिख सकता था,
यह भी कि तुम फेल रहे
उसे अपनी तनख़ाह याद आई
जो सबसे ज्यादा थी
तब उसने मकतूल से कहा
कि देखो चिड़िया
और थोड़ी देर बाद
अपने काले थैले में
एक सिर ठूँसकर वह निकला
जिसकी आँखें खुली हुईं थीं।
भय–प्रवाह
……………………
लीजिये हम डर गए
लीजिये हम मर गए
आप ही यहाँ रहें
आप ही अपनी कहें
आपकी सरकार है
आपका ब्योपार है
हम अगर लड़ें भी तो
सामने पड़ें भी तो
आप कर देंगे फ़ना
आप का भुजबल घना
आपकी जाँघों में दम
आपकी आँखों में यम
आप चल दें जिस तरफ
हो जाए परलय उस तरफ
सुर असुर सब आप जी
सींग-खुर सब आप जी
आपको संशय नहीं
आपको कुछ भय नहीं
आपसे सीता डरे
मंदोदरी छिपती फिरे
आप पंडित आप जज
आपका ऊंचा ध्वज.
२
लीजिये हम बैठ जाते हैं उधर अब आप चलिए,
ठीक है, इतना जरूरी है तो पहले राख मलिए.
अब उठें, उठकर कहें, जो मन में है खुलकर कहें
तोड़ देंगे? फोड़ देंगे? ठीक, कुछ बेहतर कहें
हर सड़क का नाम स्वदेशी? जी साहिब कर दिया
हर तरफ हुक्काम स्वदेशी? जी मालिक कर दिया
औरतें साड़ी में निकलें? ओत्तेरी, जी भेज दीं
साथ में सिन्दूर की डिबियाएं भी ? जी भेज दीं
लिखने-पढने-सोचने वाले भी साहिब जा चुके
मीर, खुसरो, जोश, मंटो और ग़ालिब? जा चुके
ज्ञान के भूखों को भी संतुष्ट हमने कर दिया
वेद सबके सामने एक-एक कॉपी धर दिया
कर दिया जी कर कर दिया इतिहास भी सब ठीकठाक
बालकों के मुंह पे चिपका दी है इक-इक गज की नाक
औरतें तो जी लगी हैं रात-दिन जचगी पे ही
दफ्तरों में कारखानों में हैं केवल मर्द जी
यौन-यौवन लग गए हैं संतति-निर्माण में
सब प्राकिरतिक विधि से हैं जुटे अभियान में
समलैंगिक? जी सब हवालातों में कसरत कर रहे
सब सही कर देगी सर अपनी पुलिस, अमर रहे!
परकटी वे औरतें भी हैं वहीं पर सब जनाब
हो गए सारे सिपाही वक्त के पाबन्द साब
३
और कहिये,
क्या करें,
क्या जल मरें?
जिनके ह्रदय में ताप है, वे सब?
जिनके लिए दिल भी दुखाना पाप है, वे सब?
मस्तिष्क जिनका है विकल, वे सब?
जो चाहते हैं और उजले आज-कल, वे सब?
जो सोचते हैं हर गली पहुंचे धरा के छोर तक, वे भी?
जिनके लिए भाई-बहन हैं शेर-बिल्ली-मोर तक, वे भी?
जो चाहते हैं हाथ हर खुद उठ के पहुंचे कौर तक, वे भी?
जो एक रोटी शाम को खा कुलबुलाएं भोर तक, वे भी?
जिनके लिए हर रंग है इंसान का ही रंग!, जी अच्छा!
जो औरतों पर मर्द के जुल्मों से होते दंग!, जी अच्छा!
जो मर्द होकर भी नहीं करते कभी हुड़दंग!, जी अच्छा!
पतलून जिनकी चुस्त, औ’ कुरते की बाजू तंग!, जी अच्छा!
जी अच्छा, कि जी साहिब, कि जी मालिक
ये सारे आ गए
आइये अब
लाइए सब फ़ौज-फाटा
तीर-तश्कर
गोलियां-बारूद-गोले
जो भी है
जो आप चाहें
जिस तरह भी आपका मन हो,
लात से, घूंसे से, लाठी से कि डंडे से
जूते से या झंडे से
लगे जो आपको बेहतर
उठाकर मारिये
जी, जिस तरह चाहें जहाँ चाहें
अदालत में या संसद में
सड़क पर या कि घर में
हमें अब कुछ नहीं कहना
कि हम जी डर गए
और लीजिये….
ये मर गए.
सिपाही
राजा का खौफ है न मंत्री का खौफ है
इस मुल्क को अगर है तो खाकी का खौफ है.
जब केसरी ने राम को तलवार थमा दी
और सब्ज ने जिहाद के शोलों को हवा दी
जो था सफ़ेद रफ्तःरफ्तः स्याह पड़ गया
खाकी ने उसी वक्त क़यामत की सदा दी.
थोड़ा सा नवीं पास का जलाल मिल गया
कुछ रंग बदगुमानियत का लाल मिल गया
मजहब से मूढ़ता मिली औ’ जात से ठसका
कुछ आप कमाया हुआ कमाल मिल गया.
दो फावड़े वर्दी के रंगे-खाश का जलवा
बा-रोजगार होने का गुरूर इक तसला
घर के दही और दूध-घी की साठ हांडियां
फूफा के कॉन्टेक्ट्स का जुनून बे-तौला.
ये सब मिला के एक सिपाही बना दिया
फिर उसमें फूंक भरके सड़क पर चला दिया
तन्खवाह कम रखी कि अफसरों सा ना लगे
रिश्वत का एक रास्ता यूं ही दिखा दिया.
डंडा भी एक दे दिया कि हाड़ तोड़ दे
उड़ता जो दिखे बोच ले फ़ौरन भंभोड़ दे
खुद से न जो हगे उसे दबा-दुबा के देख
खाया-पिया लगे तो बस हिला के छोड़ दे.
तू बादशाहे-मुल्क है ये सोच के निकल
डर कर निकल यहाँ से डराता वहां पे चल
डर ही तेरी गिजा कि खौफ ही तिरा सिंगार
डंडा उठा वर्दी चढ़ा और खूब फूल-फल.
कार
…………………………….
एक कार ले के चल दिया इक घर पे खडी है,
इक और भी है पर वो इस गली से बड़ी है.
ये कार मेरा शहर है मेरा मकान है,
हाँ मानता हूँ इससे परे भी जहान है,
गंदी गली, कच्ची सड़क, थूके हुए-से लोग,
ये मुल्क नहीं, यार मेरे, नाबदान है.
मेरी जगह पे आइयो तो देगा सुनाई,
मेरी जगह से झांकियो तो देगा दिखाई,
इस शहर की औकात बताती है ये खिड़की,
इस व्हील से खुल जाती है गैरत की सिलाई.
एक हॉर्न जो दे दूँ तो दहल जाए मोहल्ला,
उतरूं हूँ जब सड़क पे तो पड़ जाए है हल्ला,
ये कार हौसला है, जी ताकत है, शान है,
इस मुल्क में ये सिर्फ सवारी नहीं लल्ला!
खुशबू मुझे पसंद है तो ये लगी इधर,
गाने नए सुनता हूँ, यहाँ डेक पे जी-भर,
एकाध बार इसमें घुमाया है माल भी,
देखो है दाग अब भी वहां पिछली सीट पर.
अहमक तुझे मालूम नहीं, चीज है फन क्या,
दिल्ली में कार क्या है और बदन की तपन क्या,
घिस जाओगे कंडक्टरों की जूतियों तले,
होती नहीं तुझको कभी यारों से जलन क्या!
हो कार तो पुलिस भी सोचती है सौ दफा,
ठहरे न सामने कोई, पीछे न हो खड़ा,
इज्जत है कार की बहुत और खौफ अलग है,
कुछ भी हो कोई भी कभी कहता नहीं बुरा.
कुछ काम ले अकल से, जोर खोपड़ी पे डाल,
कुछ बैंक से उधार ले, कुछ बाप से निकाल,
कर ले जुगाड़ एक कार का किसी तरह,
ये चूतिये जो साथ हैं इनको परे हकाल.
(कवि आर. चेतनक्रांति भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित और हमारे दौर की कविता की दुनिया का चर्चित नाम है, टिप्पणीकार प्रियदर्शन कवि, आलोचक, कथाकार, अनुवादक, पत्रकार और संपादक के रूप में साहित्य की दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं.)