मंगलेश डबराल
शुभा शायद हिंदी की पहली कवि हैं, जो अभी तक कोई भी संग्रह न छपवाने के बावजूद काफ़ी पहले विलक्षण कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थीं. कई लोग उन्हें सबसे प्रमुख और अलग तरह की समकालीन कवयित्री मानते हैं, और इंतज़ार करते हैं कि कभी उनका संग्रह हाथ में ले सकेंगे.
स्वाभाविक रूप से शुभा नारीवादी हैं, लेकिन यह नारीवाद बहुत अलग तरह का, वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध और वामपंथी है. लेकिन उसके अंतःकरण की तामीर एक ऐसे ‘अतिमानवीय दुःख’ से हुई है, जिसे न आँसू उठा सकते हैं, न कोई चीख, न गुस्सा, न कोई खामोशी, न विचार, न कोई दोस्त और न ही वे कम्युनिस्ट पार्टियाँ जो उसे उठाते-उठाते ‘बिखर’ चुकी हैं. वह प्रकृति के भीतर चला गया दुःख है और उसे शायद तूफ़ान और कंदराएं या यह धरती उठा पायेगी और अगर धरती भी नहीं उठा सकी तो उसकी चिन्दियाँ अंतरिक्ष में नाचती रहेंगी.
ख़ास बात यह है की शुभा दुःख को उपभोग्य, इस्तेमाल की जाने लायक वस्तु में नहीं बदलतीं, बल्कि ‘शिला के नीचे दबी हुई’ उसकी बेशुमार कहानियों की भीतरी परतों और रेशों को टटोलते हुए संबोधित करती हैं: ‘अपने कुचले हुए पैरों पर उठो/गाढ़े काले खून के बीच से उठो/टुकड़े-टुकड़े कर डालो उदासीनता और दंभ के/मिट्टी में मत मिलने दो अपने दुःख.’ यह किसी स्त्री का निजी कारणों से पैदा हुआ दुःख नहीं है, बल्कि समाज, इतिहास और राजनीति से गहरे जुड़ा हुआ है- ‘दुखों से बहुत दूर थे/उनके स्रोत.’
शुभा की कविताएँ आम तौर पर तात्कालिक घटनाओं, राजनीतिक गतिविधियों और मनुष्य की आत्मा में हलचल करने वाली छोटी-छोटी चीज़ों से बुनी हुई हैं, लेकिन वे तात्कालिकताओं का जो स्थापत्य रचती हैं उसका वजूद स्थायी और ऐतिहासिक होता है.
उनकी एक कविता ‘मुश्किल ईद’ में बच्चों का ईद का चाँद देखने का चाव आँसू बनकर बरसता है तो ‘औरतें आँसू की गठरी बांधती हैं/बच्चों को तैयार करती हैं/नौजवानों की टोली उन्हें ईदगाह के रास्ते में हँसाती है जतन से/नमाज़ पढ़कर बुज़ुर्ग दुआ मांगते हैं/बच्चों की मीठी ईद लौट आ/ईद के चांद लौट आ.’ इस कविता की मार्फ़त हम आज अपने समाज में मुसलमानों के बर्बर दमन, उनकी यंत्रणा और वंचना को देख सकते हैं, और उस उम्मीद को भी, जो आँसुओं के बरक्स बुजुर्गों की दुआ की शक्ल में बरसती है.
स्त्री जीवन के विकट दुखों और संघर्षों के अलावा मानवीय सम्वेदनाओं का ख़त्म होने, नैतिक गिरावट, नष्ट की जा रही चीज़ों, ऑनर किलिंग और मर्दवादी विमर्श के कई पहलुओं को शुभा अपनी कविताओं में एक समाजशास्त्री की सी निगाह से देखती हैं.
उन्हें कुछ दूरी से जांचा गया लगता है ताकि उनकी विडम्बना प्रकट हो सके. लेकिन इस जांच में गहरी मार्मिकता और प्रतिरोध है. वे मामूली या अनदेखा कर दिए जानेवाले दृश्यों और घटनाओं से जीवन का विचलित करने वाला वृत्तान्त तैयार करती हैं और एक बड़ी उम्मीद को भी रेखांकित करती चलती हैं: ‘कल्पना से/दूरी कम नहीं होती/काम पूरा नहीं होता/फिर भी दिखती है मंज़िल/दिखाई पड़ती है हंसती हुई/एक बच्ची रास्ते पर.’ दरअसल एक हँसती हुई बच्ची का होना इस भयानक समय में किसी उम्मीद का होना है.
ये कविताएँ सतह पर आसान लगती हैं, सहज दिखना शुभा की कविताओं का ख़ास गुण भी है, लेकिन उनकी तहें, उनका आतंरिक संसार बहुत जटिल और बहु-स्तरीय है. ऐसी कविता कितनी भी आसान दिखे, उसे लिखना आसान नहीं होता. एक कविता में शुभा कहती हैं: ‘असल में सबसे आसान काम ही सबसे मुश्किल होते हैं.’
न पिता का न भाई का न माँ का
जो संरक्षण देते हुए मुझे
कुएँ में धकेलते हैं और
मेरे रोने पर तसल्ली देने आते हैं
हवाला देते हैं अपने प्रेम कामुझे राज्य का संरक्षण भी नहीं चाहिए
जो एक रंगारंग कार्यक्रम में
मुझे डालता है और
भ्रष्ट करता है
मुझे चाहिए एक संगठन
जिसके पास तसल्ली न हो
जो एक रास्ता हो
कठोर लेकिन सादा
जो सच्चाई की तरह खुलते हुए
मुझे खड़ा कर दे मेरे रू-ब-रू
जहाँ आराम न हो लेकिन
जोख़िम अपनी ओर खींचते हों लगातार
जहाँ नतीजे तुरन्त न मिलें
लेकिन संघर्ष छिड़ते हों लम्बे
एक लम्बा रास्ता
एक गहरा जोख़िम
रास्ते की तरह खुलती
एक जटिल सच्चाई मुझे चाहिए ।
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