समकालीन जनमत
कविता

शिवांगी गोयल की कविताएँ और स्त्री अस्तित्व का आधुनिक स्वर

माया मिश्र


आज जब हम इक्कीसवीं सदी का एक चौथाई हिस्सा जी चुके हैं तब यह प्रश्न अपने समूचेपन में हमारे सामने बार बार खड़ा होता हैं कि आखिर कब स्त्रियाँ अपने हिस्से की वेदनायें या पीड़ाएँ कह पाने में सक्षम हो पाएंगी? स्त्री का जीवन और उसका मन निरंतर एक विरोधाभास से जूझता रहता है। आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद स्त्री के जीवन की जटिलतायें आज भी कम नहीं हुई हैं लेकिन अब पढ़ी लिखी आधुनिक लड़कियों ने कम से कम सोचना और सवाल उठाना शुरू किया है जो एक ज़रूरी परिवर्तन है। सवाल यह भी है कि अपने को अभिव्यक्त करने के लिए उनका स्वर पहले से कितना अलहदा होगा? हमारे समय की युवा कवयित्री शिवांगी गोयल की कविताएँ इस सवाल का माकूल जवाब देती हैं। शिवांगी बड़ी बेबाकी से कहती हैं –
“चंद मांस के लोथड़े तो
हर औरत देती है अपने परिवार को,
समाज को देश को
तुम हो सके तो कुछ बेहतर देना…”

शिवांगी की कविताओं में स्त्री के जीवन के दो पहलू दिखाई देते हैं एक वह जो तमाम औरतें जीती हैं और एक उसका अंतर्मन जो अभी भी लगभग निराश, उदास और टूटा हुआ है। ये कविताएँ स्त्री मन की जटिल बनावट को समझाने में खूब सचेत और सफल होती है । शिवांगी स्त्री मन की कई परतों को खोल कर हमारे सामने रखती हैं-
“हमारे हिस्से होश में बोले गए झूठ आये
और नींद में बोले गए सच…”

शिवांगी गोयल की कविताओं में हमें वर्तमान की उस औरत की झलक मिलती है जो औरतों की परंपरागत भूमिका पर सवाल उठाने से नहीं चूकती-
“तुमने माँ हो कर क्या पाया
मैं भी माँ हो कर क्या पाऊँगी
जीवन के आख़िरी दिन तुम भी मैं भी
अकेले कमरे में उदासी के साथ मरेंगे “

शिवांगी की कविताएँ पढ़ते हुए एक उम्मीद सी होती है कि आगे आने वाला समय स्त्रियों के लिए ज़्यादातर उदार और मानवीय होना चाहिए।

 

 

शिवांगी गोयल की कविताएँ

1. कुछ बेहतर देना

चंद माँस के लोथड़े तो
हर औरत देती है
अपने परिवार को,
समाज को, देश को

तुम,
हो सके तो कुछ बेहतर देना।

 

2. दहेज

दहेज में ‘कार’ लिए बिना
ससुराल आई लड़की
किचन में रोटियाँ बना रही है

सास अपने बेटे से
कुछ बुदबुदा रही है

रोटियाँ चिल्ला रही हैं
“जलना मत!”

 

3. मैं कुछ यतीम बच्चों को जानती हूँ

मैं कुछ यतीम बच्चों को जानती हूँ
जिनके वालिदैन ज़िंदा हैं, उनके साथ रहते हैं
पर वह शजर नहीं बन सके अपनी औलाद के लिए
और बने भी तो बस उनके हिस्से की धूप छीनने!

जब इन बच्चों ने उन्हें अपनी तारीकियाँ दिखाई
दिखाए अपनी रानों के बीच पड़ी खरोंचों के निशान
अपनी हयात के छलनी हुए बेहिस हिस्से
तो उनके मुँह बाँध दिये गए अपनी इज़्ज़त का वास्ता देके
अपनी आँखों को बंद कर लिया गया और
छोड़ दिया गया बच्चों को उन्हीं तारीकियों से जूझने!

मैंने कभी अपने वालिदैन को नहीं दिखाई अपनी खराशें
कभी दिखाऊँगी भी नहीं, क्योंकि मुझे डर है
कहीं मैं भी उन्हीं बच्चों की तरह यतीम ना हो जाऊँ!

 

4. हम समझदार लड़कियाँ थीं

हम समझदार लड़कियाँ थीं
हमने स्त्रीवाद पढ़ा था
हमें ख़ुद पर घमण्ड रहा दुनिया बदलने का
हमने घरों से बग़ावत करके प्यार किया था
विजातीय लड़कों से प्यार किया था
और प्रेम में जीने मरने की कसमें खायी थीं
हमने ख़ुद से वायदे किये कि सच्चे प्यार के लिए
हम ज़माने की रस्में तोड़ देंगी
सगे-सम्बन्धी, घर-बार सब छोड़ देंगी
“प्रेम तो बग़ावत का दूसरा नाम है”

फिर एक शाम हमारे पिता ने हमें बैठा कर समझाया
कि प्यार से घर नहीं चलते, पेट नहीं भरते
हर त्यौहार पर नए कपड़े प्यार से नहीं, पैसों से आते हैं
और आख़िर में कहा, “जब तक जी रहा हूँ, ब्याह कर लो,
मर गया तो दहेज के भी पैसे ना जुटेंगे!”

हम समझदार लड़कियाँ थीं, हमने सब सिर झुका के सुना
हमने घर में प्रेमी का नाम नहीं लिया
हमने अपने प्रेमियों के आगे चार आँसू बहाये, माफ़ी माँगी, विदा ली;
हमने सरकारी मुलाजिमों से शादी रचा ली
ये हमारा त्याग था, हमारी महानता थी
हमने ये फ़ैसला अपने माँ-बाप के लिए लिया था
“प्रेम तो त्याग का दूसरा नाम है”।

 

5. उसने मुझसे कहा कि मैं तुमसे ‘प्रेम’ करता हूँ

उसने मुझसे कहा कि मैं तुमसे ‘प्रेम’ करता हूँ
ये भी कहा कि मैं अपनी पत्नी की ‘इज्जत’ करता हूँ
जब उसके शरीर से बह रहा खून नहीं रुकता है
और वह मेरे शरीर से कस के लिपट जाती है
तो उसे रोता देख मैं भी रो पड़ता हूँ
और मैंने सोचा कि पति को इतना ही हस्सास होना चाहिए

उसने मुझसे फिर कहा मैं तुमसे ‘प्रेम’ करता हूँ
पर मैं अपनी पत्नी की ‘इज्जत’ करता हूँ
और उसे अब ज़्यादा ख़फ़ा नहीं कर सकता
मैंने उससे वादा किया है कि अब तुमसे बात नहीं होगी
मैंने सोचा कि पति को इतना ही वफादार होना चाहिए

उसने मेरी दोस्त से कहा मैं तुम्हारी खूबसूरती से ‘प्रेम’ करता हूँ
पर उसे नहीं बताया कि एक पत्नी है जिसकी ‘इज्जत’ करता हूँ

मैंने सोचा कि पति को ऐसा ही होना चाहिए
जो अपनी पत्नी की इज़्ज़त करे
क्योंकि प्रेम मर सकता है, इज़्ज़त बरकरार रहती है!

 

6. तुझे लगता है मुझे होश है, मैं ज़िंदा हूँ?

तुझे लगता है मुझे होश है, मैं ज़िंदा हूँ?
सामने आएगा तो मरता हुआ पायेगा मुझे
सेज फूलों से नहीं ‘कै’ से भरी होगी मेरी
और उस कै में तेरे नाम के बिखरे अक्षर
जिन्हें मैं घोंट नहीं पाई और उगल बैठी!
फेंकने हाथ लगाती हूँ तो घिन्न आती है

देखना चाहूँ भी तो देख नहीं पाती मैं
सब गलीज़ है; बिस्तर भी तेरा नाम भी तो
मैं उसी कै से घिरी ख़ामशी से बैठी हूँ
उसपे रह-रह के जो उठती है खौफ़नाक-सी बू
वो तेरे लम्स का एहसास मिटा जाती है!

इक तेरे नाम का दस्तार बना रक्खा था
उसी को नोंच रही हूँ, चबा के सोई हूँ
और फिर से चबा के उल्टियां दुबारा कर
ज़ेहनी बीमार बनी बैठी महज़ हँसती हूँ!
तेरे आने के सवाबों पे नज़र जाती है

तुझे लगता है मुझे होश है, मैं ज़िंदा हूँ?

 

7.हम एक-दूसरे से प्रेम कर सकते थे

हम एक-दूसरे से प्रेम कर सकते थे
इससे ज़्यादा हमारा कोई हक़ नहीं था
न साँसों पर, न जीवन पर, न एक-दूसरे पर

हम एक साथ एक घर में रह सकते थे
एक साथ एक घर नहीं बना सकते थे
एक शहर में मिलने के ख़्वाब देख सकते थे
हम एक शहर में रह नहीं सकते थे
हम अधूरी ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त थे
अधूरा प्यार करने को

हमारी सम्पत्ति चार सौ किताबें थीं
और एक भी बीघा ज़मीन नहीं
हमारे हिस्से होश में बोले गए झूठ आए
और नींद में बोले गए सच

हम प्रेमियों की तरह मिले
और परायों की तरह बिछड़े
इसके बीच हम जीवनसाथी की तरह रुके
चुराए हुए संबंध का बंधन चाहे बिना
इससे ज़्यादा हमारा कोई हक़ न था..

 

8. मैं दुनिया की शुरुआत से पहले तुम्हारे गर्भ में थी

मैं दुनिया की शुरुआत से पहले तुम्हारे गर्भ में थी
तुमने अपने खून से सींचा है मुझे;
औरत होने का अभिशाप ये है कि मैं गर्भ से नाता तोड़कर आज़ाद होना चाहती हूँ

तुमने मुझे आकार दिया, ज़िंदगी दी
तुम मेरी आँख देखकर मेरी आदिम भूख समझ जाते हो, मेरे रोने से पहले
तुम्हें मेरी आदत पता है, फ़ितरत पता है, पर तुम रोकते नहीं
तुम्हें मेरी फिसलन पता है पर तुम सम्हालते नहीं

वशीकरण के सारे तंत्र जानते हुए भी तुम मुझे कैद नहीं करते
तुम मेरा चेहरा देखकर मेरी मक्कारियाँ समझ लेते हो
तुम बता देते हो कि मैं इन दिनों किसके प्रेम में हूँ

तुम दूसरे पुरुष हो मुझे आश्चर्य होता है
तुम्हें मेरी माँ होना चाहिए था।

 

9.अकेले कमरे में साँसे टूटती हैं

अकेले कमरे में साँसे टूटती हैं
दिल डरा रहता है, उदासी छाती पर सवार रहती है
कमरे के कोने का काला हिस्सा
मकड़ी के जाले से और उलझता जाता है
रातें चार पहर से ज़्यादा लम्बी लगती हैं
खिंची चली जाती हैं दोपहर की ऊब की तरह

तुम बहुत पास लगती हो, कभी बहुत दूर
तुम्हारा दुनिया में कहीं भी होना निरर्थक लगता है
अपना होना भी व्यर्थ
मेरे जीवन की डोर तुमसे तो जुड़ी नहीं है
तुम्हारे गर्भ से निकलकर क्या बचा मेरा तुम्हारे अंदर?
मेरे मरने के दिन तुम ज़िंदा नहीं रहोगी
मेरा क्या जाएगा तुम्हारे साथ?

दुनिया का पहला झगड़ा तुमसे था
“क्यों पैदा किया मुझे?”
आख़िरी झगड़ा ख़ुद से रहेगा
“क्यों पैदा नहीं होने दिया किसी को?”
मैं माँ नहीं हूँ, नहीं हो सकती, नहीं होना चाहती

तुमने मेरी माँ होकर क्या पाया?
मैं किसी की माँ होकर क्या पाऊँगी?
जीवन के आख़िरी दिन तुम भी, मैं भी
अकेले कमरे में उदासी के साथ मरेंगे!

 

10. अफ़सोस

“तुम मर क्यूँ नहीं जाती?

तुम मर जाओ तो मैं चैन से रहूँ
कि मेरी नहीं रही तो किसी की नहीं हुई

तुम उस दिन खून से लथपथ कपड़े लिए
वापस चली आयी; क्यों चली आयी?
तुम्हारी लाश आती तो खुश होता
कि मुझे धोखा दिया था इसलिए जी नहीं पायी
शर्मिंदगी से मर गयी…

अब तुम्हें देखता हूँ तो खीज होती है
जी चाहता है जान से मार दूँ
पर अस्पताल में बिस्तर पर पड़े देखकर तरस आता है;
तुम तो अपनी मौत के साथ भी ईमानदार नहीं रही,
मेरे साथ कैसे रहती!

अब तुम मेरी नहीं हो ये तो लाज़िम है,
पर इस बात में सुकून कैसे लाऊँ?
इससे तो अच्छा तुम्हे हमेशा के लिए खो दिया होता
तुम सल्फ़ास खाती और कभी नहीं आती…”

 

11. नग्नता में नवीनता क्या है?

दिगम्बर मुनियों!
मेरे घरवाले झूठ कहते हैं
मैंने देखा है लोगों को तुम्हें देखते
तुम्हें नहीं, तुम्हारे शरीर के निचले हिस्से को
आश्चर्य से देखते; पर क्यों?

नग्नता में नवीन क्या है?
मेरे घर की औरतें आँखें फाड़कर तुम्हें देखती हैं
और फिर शर्म से भर जाती हैं
उन्हें तुम्हारी नग्नता की स्वाभाविकता नहीं दिखती
तुमने जो दिशाओं के परिधान पहने हैं
वे नहीं दिखते!
उन्हें तुम्हें ‘ना शर्माते’ देख के शर्म आती है

नग्नता तुम्हारे शरीर में नहीं, उनकी आँखों में है
मैंने देखी है।
तुम पुरातन रहना, तुम नग्न रहना!
बस, मानसिक रूप से समृद्ध हो रहे हो तो
औरतों को भी इतनी ही सहूलियत दे देना।

 

12. उसे सौ खत लिखो, हज़ार वादे करो

जब न मिल पाओ तो आँसू बहाओ,
वो तुम्हारे कन्धे पर सिर रख के रोये तो उसकी आँखें चूम लो,
सरसरी गुज़र जाए तो दृश्य के अंतिम छोर तक उसे देखो,
बाँहों में भरे तो निढाल हो जाओ, डूब जाओ
याद आए तो उसे इतना बताओ कि उसे पागल कर दो;
रोना आए तो टूट के रो लो,
उसका सपना आए तो जागते ही उससे पूछ लो कि “मुझे याद किया क्या?”
नाम सुंदर लगे तो पुकारते जाओ, रेत पर उकेरते जाओ,
जवाब की उम्मीद मत रखो, बस अपना दिल निकाल दो ..
यदि कोई प्यार की अति से मर रहा है तो उसे मर जाने दो;
प्यार की कमी से कोई नहीं मरना चाहिए!

 


कवयित्री शिवांगी गोयल का जन्म बिहार के सिवान जिले में 13 जुलाई, 1997 को हुआ था। वर्तमान में वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में शोध कर रही हैं। शिवांगी गोरखपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में स्वर्ण-पदक धारक भी रह चुकी हैं। वह कविताएँ लिखने में विशेष रुचि रखती हैं; साथ ही उनकी कुछ रचनाएँ विभिन्न अखबारों में, कविता कोश, पोषम पा इत्यादि वेब पेज पर ऑनलाइन भी प्रकाशित हो चुकी हैं। शिवांगी ने हिन्दीनामा (फ़ेसबुक पेज) के लिए बतौर संपादक (2017-2019 तक) काम किया है। उनकी कविताएँ वाणी प्रकाशन एवं कविता कोश द्वारा आयोजित कविता लेखन प्रतियोगिता में पुरस्कृत रहीं हैं।

सम्पर्क: Shivangigoel.197@gmail.com

 

टिप्पणीकार माया मिश्रा, जन्म – 11/06/83 सागर (mp)
शिक्षा – हिन्दी में एम.ए. एवं एम.फिल.
‘गुलजार’ निर्देशित फ़िल्मों पर “हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय” से शोध कार्य
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म समीक्षा, कहानियाँ एवं समकालीन कविताओं पर लेख प्रकाशित ।
वर्तमान में – मैहर (M.P) में व्याख्याता हिन्दी के रूप में अध्यापन कार्य

सम्पर्क: maya.mishra1106@gmail.com

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