बबली गुज्जर
जिंदगी में जब लगता है कि सब खत्म हो गया है, तो असल में वह कुछ नया होने की शुरुआत होती है।
चुप्पियाँ सबसे बड़ा शोर होती हैं और उन चुप्पियों में जन्म लेती हैं कुछ कविताएँ ! कविताएँ, जिन्हें हम ज़िन्दगी भर याद रखते हैं, किताबों में लिखी आ रही कहानियों की तरह जीवित रहता है जिनका हर पात्र। ‘स्थगित आत्महत्या’ कविता में पूजा लिखती हैं, “सब कुछ खत्म होने के बाद भी, कुछ न कुछ बचा रहेगा जीवन में, शुरू से शुरू करने के लिए”
पूजा की कविताएँ भी ऐसी कहानियों को हम तक पहुँचाती हैं। जिनमें स्वीकारोक्ति है ईश्वर के दिए सब दुखों को अपना कर सह जाने की। दादी के सुहाग उजड़ जाने की। कैसे ज़िन्दगी भर के लिए चूड़ी बिंदी सिंदूर से सज्जित औरतों का शृंगार एक झटके में उजाड़ हो जाता है और इस दुख को उनकी कविता ‘सिंगारदान’ में बखूबी उभारा गया है..
“सिंगारदान सीने से लगाए, बिलख पड़ी थी दादी
हमार मांग सूनी कइले रे विधना, सुनकर फट गई छाती, वैधव्य की कल्पना कर सिसक पड़ी औरतें…”
किसी शांत हुई देह के बगल बैठ कर विलाप करते हुए आदमी को देखकर नहीं रोते हैं हम, रोते हैं तो खुद को उनकी जगह रख कर, रोते हैं ईश्वर के डर से, रोते हैं अकेले रह जाने के भय से, रोते हैं पीछे छूट जाने वालों का भविष्य सोच कर। ‘वैधव्य की कल्पना कर सिसक पड़ी औरतें’ में साफ़-साफ़ उस डर को उभारा गया है।
पेट की भूख और दुनियादारी के चक्कर में खप रहे लोगों को कहाँ भाता है प्यार मुहब्बत! इसी प्रेम और दुनियादारी के बीच हार जाती हैं जब खुद की खुशियाँ तो पस्त होकर आदमी किनारे कर देता है अपनी तमाम मनचाही।
अपनी कविता प्रेम में इसी कशमकश को इतना बारीकी से उतारा है पूजा ने-
“बित्ते भर जमीन और मुट्ठी भर अनाज के लिए
हमें लड़ना पड़ता है रोज, तो अब तुम ही कहो
तुम्हारे प्रेम में, मैं कैसे लिखूं प्रेम”
पूजा की नज़र से न प्रेम बचा, न समाज, न ईश्वर की मार से त्रस्त लोग। ज़िन्दगी कोई बॉलीवुड की फिल्म भर थोड़ी है जहाँ बारिशों को प्रेम का मौसम बताया जाए। एक ही चीज़ और स्थिति अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग तरह से सुविधा और परेशानी की वजह बनती है। अपनी कविता ‘बारिश’ में उन्होंने लिखा है ज़िन्दगी भर चूल्हे चौके में खप रही औरतों के मन की व्यथा, कैसे सुविधाओं के अभाव के साथ जीते-जीते मन ही मन कुढ़ते हुए औरतें अपने नियमित कार्यों में लगी रहती हैं। यह कुछ न कर पाने की चिढ़ और दुख मिलते हैं तो करती हैं अपने ईश्वर से शिकायतें। उनकी कविता बारिश में वे लिखती हैं, “माँ करती हैं सबसे कठिन काम, गीले ईंधनों से चूल्हा जलाने का, मन भर कोसती हैं बादल और बारिश को”
और यह चिंता केवल अपने घर भर की नहीं, उनकी नजर में शामिल है पूरा का पूरा संसार ही ,
“मुझे चमकीले सुख रास नहीं आते
मेरी चिंता में समूची पृथ्वी है।
और यह पृथ्वी बनी रहे सुखद और सुंदर। जिसके लिए उन्होंने खुद को ही उस कंफर्ट जोन से बाहर लाने को भी तैयार हैं। अपनी कविता राह में वह लिखती हैं
‘मुझे घोंसला नहीं चाहिए
चाहिए हवाओं का वार’
हर अभिलाषा की एक कीमत तय की होती है प्रकृति ने, और वह कीमत अगर आप चुकाने को तैयार हो जाते हैं तो आपका सपना एक न एक दिन अवश्य पूरा होता है।
औरत को देह के पार भी देखे जाने की इच्छा लिए वे अपनी कविता ‘मैं देखती हूँ’ में साफ़ शब्दों में औरतों के लिए कहती हैं, “जो शुरू से अंत तक देह रही, विचार नहीं। ऐसी औरतें जो विचार रखती हैं, बोलती हैं, समझती हैं उनके विचारों को अनदेखा कर याद रखा जाता है तो मात्र देह का भूगोल।”
स्त्री और दलित होने का दुख भी एक बराबर ही है, दोनो को अपने हकों के लिए लड़ना पड़ता है। ज़रा सोचें कि एक दिन आपसे कोई कहे कि आपको हक नहीं खुली हवा में सांस लेने का, मन भर का खाने का, बारिश में भीगने का, धूप को महसूस करने का तो आपको कैसा लगेगा। ऐसे ही दलितों से छीन लिया गया है उनका मामूली से मामूली बुनियादी हक भी। उनकी पीड़ा का बखान करती हुई यह कविता देखिये-
भागना पड़ सकता है उसे अचानक ही
गांव के दक्षिणी छोर में
यह भी हो सकता है
उसे कहीं कोई जगह ही नहीं मिले
न इतिहास में
न भविष्य में
न स्मृति में
वो भटकता रहे अनन्त काल तक
तो वह सबके लिए जूता बनाता है
उसके लिए कोई नहीं बनाता
पूजा एक संभावनाशील कवयित्री हैं जिनकी कविताओं में न केवल स्त्री और दलित अपने सवालों के साथ मुखर हैं बल्कि हाशिये की तमाम आवाज़ें इनके यहाँ जगह पाती हैं।
पूजा कुमारी की कविताएँ
1. स्थगित आत्महत्याएँ
बासन में रखे नमक की तरह
गल रहे सपने
जीवन का स्वाद
अवसाद की ओर बढ़ रहा
मैं मान्यता विहीन जमीन पर उपजी हुई
अनचाहे गर्भ की तरह
अनपेक्षित दूब हूँ
कई जोड़ी पैर रौंदते हुए आएं
मेरी पीठ पर अस्वीकृत लिख गए
बियाबान अंधेरे में भटकती
वक्त के आइने में अपना अदृश्य चेहरा ढूंढती हूँ
मुझे गुमशुदा होने का भय सताता है
मैं अपनी चुप्पियों में चीखती हूँ
टूटती हैं दीवारें जिनके निशान मौजूद नहीं
अस्वीकृत की आग में धधकती दुनिया को छोड़कर
मैंने स्वीकारा ली हैं अस्वीकृतियां मौन
स्थगित आत्महत्याओं के नाम
लिखी है पाती
सबकुछ खत्म हो जाने के बाद भी
कुछ न कुछ बचा रहेगा जीवन में
शुरू से शुरू करने के लिए|
2. सिंगारदान
अपने यौवन में अनछुई रह गई धूप का ताला खोलकर
मेरी दादी आकाश के आंगन में
अपने बाल बिछाए बैठी थी
आत्मा के उजास में झांककर
मैंने औचक ही पूछ लिया
गवने की चटक चुनरी का रंग
शब्द सिरहाने बैठे देखता रहा
जीवन के खुलते अर्थ
झुर्रियां ओढ़े चेहरा,उदास आंखें
रूधे गले से कहती मूसल,ओखली,जांते में जाता रहा जीवन
चटक चुनरी साध थी
मन की जुबान ने कभी स्वाद नहीं लिया
धरती ने करवट बदली
बाबा के पदचिन्ह मिटे
सिंगारदान सीने से लगाए विलख पड़ी थी दादी
हमार मंगिया सून कइले रे विधना
सुनकर फट गई छाती
वैधव्य की कल्पना कर सिसक पड़ी औरतें
सिंगारदान सीने से लगाए अचेत पड़ी थी दादी
कंघी,क्लिप, सिन्दूर,पाउडर की डिबिया
कुछ पत्ती टिकुली जमीन पर बिखरी पड़ी थी|
3. प्रेम
जब तुम लिखोगे प्रेम
मैं रोटी लिखूंगी
रोटी के लिए
बाजार में उतरी हुई औरत लिखूंगी
रोटी के लिए दम तोड़ता जीवन लिखूंगी
जब तुम लिखोगे प्रेम सजी कजरारी आंखें
मैं बाबा की बूढ़ी आंखों का जवान सपना लिखूंगी
छोटे भाई के माथे पर पड़ी
बड़ी -बड़ी सलवटें लिखूंगी
जब तुम लिखोगे
सोने चांदी की बेड़ियों से सजी- धजी दुल्हन
मैं आज़ादी लिखूंगी
बित्ते भर जमींन और मुट्ठी भर अनाज के लिए
हमें लड़ना पड़ता है रोज
तो अब तुम ही कहो
तुम्हारे प्रेम में
मैं कैसे लिखूं प्रेम?
4. बारिश
जब भी बारिश की बूंदें
धरती के होंठों को चूमती हैं
महक उठता है सारा वातावरण
एक सोंधी सी महक से
मैं ढूंढती हूं यादों के तहखानों में
तुमसे जुड़ा कुछ नहीं पाती
जब भी याद आता है घर
तपती धूप में रूह को
रहात देने वाला घर
आंखों में आंसू दे जाता है
मां जगह-जगह बर्तन लगा कर
बचाती है जमीन भीगने से
और कभी आंगन में लगे मिट्टियों के खेप हटाती है
पड़ोसी के ओसारे के पानी से
बचने के लिए रास्ता बनाती है
चूल्हे जलाने के साधन बचाने में
मां खुद भीग जाती हैं
उनकी झुंझलाहट भरी बात सुनकर
समझ नहीं आता
मां बरस रही है कि बादल
बाबा शान्त दिखते हैं
पर भीतर से बहुत अशांत
बारिश गुजरने की देखते हैं राह
ताकि खपरैल को सही ठिकाना बताएं
लेकिन बाबा खुश भी होते हैं
क्यों कि बारिश ने ही किया है
धरती के सीने को उर्वर
अब उगाएंगे मनचाहे अनाज
मां करती हैं सबसे कठिन काम
गीले ईंधनों से चूल्हा जलाने का
मन भर कोसती हैं बादल और बारिश को
भाई की बगल में बैठी बहन पूछती है
कितना फर्क है न
माॅं और बाबा की बारिश में|
5. पहाड़ का दुःख
जब भी हंसती हूं
स्मृतियों में जमी दु:खों की बर्फ पिघल उठती है
चुप्पी ओढ़े पहाड़ का दुःख चीख उठता है
ऑंखे जनती हैं अनाम नदी
एक रोज सब अनसुना सुना जाएगा
सब अनकहा,कहा जाएगा
उस रोज़ जंगल के सबसे अंधेरे हिस्से में उगेगा सूरज
सपनों की नदी में जर्जर नांव
बूढ़े चप्पू के सहारे उतरे कदम
पा लेंगे अपना किनारा
उनके आने की आहट भर से खिल उठेंगे फूल
उस दिन पहाड़ का दुःख दूर से मुस्कुराएगा
नदी रास्ता हो जाएगी|
6. चिन्ता
नहर पर खड़े पुरखे पेड़ की चिन्ता
कि कोई नहीं आया पूछने बीती रात नींद आयी कि नहीं
टहनियों से उड़कर पक्षी आसमान छूने की चाहत में
घर लौटेंगे या शहर की दूषित हवाओं में खो जाएंगे
मेरी पुरखिनें अपने यौवन में कराहती हैं
मातृ विहीन पिता उदास दिखते हैं
दिहाड़ी से लौटे बाबा की धोती से टपकता पसीना
थाली में परोसी गई नून,रोटी, प्याज़
उनकी चिन्ताएं दाल तक दौड़ रही
घुन खाए गेहूं फटकती दादी
उसकुन से डेकची की कालिख छुड़ाती मां
बिन ब्याही बहन के हाथों में उदास घड़ी
रोगदार खटिया पर लेटा बेरोजगार भाई
कोहराम मचाती आदमकद भूख
सबकी चिंता में रोटी तैर रही
मैं अपने होने के शोक में डूबी हुई
साॅंसो का ऋण चुकाऊं
या टली आत्महत्याओं को गले लगाऊं
जीवन के विराट में भटकते हुए
अपलक देखती हूं ऑंगन में फुदकती गौरैया
कतारबद्ध दीवाल फाॅंदती चींटियाॅं
खेत,खलिहान, दुनिया जहान
एक एक ऑंख का आंसू और दुःख
मुझे चमकीले सुख रास नहीं आते
मेरी चिन्ता में समूची पृथ्वी है|
7. सपने देखना मना है
रोज़ उगते सूरज को देखकर
करते हो रौशन जहां की उम्मीद
खुले आसमान को नंगी आंखों से घूरते हुए
चाहते हो दुनिया के लिए समान ज़मीन
तो तुम गलत नहीं हो
बस तुम्हें सही नहीं होने दिया जाएगा
सभ्यता तुम्हें सिखाएगी
संयम का पाठ
चुप रहने का सलीका
मूक दर्शक बन साॅंसें ढोने का ढंग
पेड़ की टहनियों पर लटके
परिन्दों के घोंसले उजाड़ कर
दिया जाएगा संदेश
सपने देखना मना है
सभ्यता के इतिहास में
याद की जाएंगी केवल हत्याएं
ऊंची आज़ाद दीवारों से
मिटा दिए जाएंगे शहीदों के नाम
इतिहास उलट पुलट दिया जाएगा
सच लिखती उंगलियां काट दी जाएंगी
मोटे – मोटे अक्षरों में लिख दिया जाएगा
सपने देखना मना है
फिर भी तुम भरना कल्पना की ऊंची उड़ान
बागी सपनों को हवा, पानी देना
बम ,बारूद पर डालकर मिट्टी
प्रेम और शान्ति लिखना|
8. नमक
जिन स्त्रियों के चेहरे पर नमक कम था
जाने कितनी उपेक्षाएं पीछा करती रहीं उनका
वे दोस्त, प्रेमिका, पत्नी सब बनना चाहती थी
दुनिया के मानचित्र पर महज़ देह बनकर रह गई
बोरी भर दहेज़ लेकर भाई भटकते रहें
पिता की आंखें थोड़ी और धंसी
मां कोसती रही बेजुबान कोख
वे रोई तो फट गई धरती की छाती
उनकी हंसी से बसंत ने हंसना सीखा
कोयल ने गीत
वे बीहड़ में उगी कैक्टस थीं
महत्वाकांक्षी हुई तो कुल्टा कहलाई
घर की दहलीज पर शहीद हुई तो देवी
उन्होंने उगाएं बंजर के सीने में हरापन
बोए क्रांति के बीज
बहायी प्रेम की नदी
अंधेरे के गर्भ में उतरती ढूंढती रहीं
अपने लिए प्रेम का चमकता संगीत
तरसती रहीं नर्म बातों के मौसम को
जिन स्त्रियों के चेहरे पर नमक कम था
कम थी घर के भीतर – बाहर चाह
धरती पर वो बहुत कम जगह घेरती
मन की धरती पर जगह नहीं उनके लिए|
9. गलत आदर्श
मैं सदी के महानायक को अपना आदर्श नहीं मानती हूं
क्यों कि खराब से खराब स्थितियों में भी
वह कभी कुछ नहीं बोलता
मैं क्रिकेट के भगवान को भी अपना आदर्श नहीं मानती हूं
जो भारत रत्न को सीने से लगाए घूमता है और कभी भारत के लिए नहीं बोलता
मैं दलित लेखक डॉ तुलसी राम को भी अपना आदर्श नहीं मानती हू जो जाति शोषण पर तो खूब बोले पर अपनी ही व्याहता की कभी सुध न ली
पलट कर वापस मुर्दहिया की ओर न देखा
जहां एक त्यागी गई स्त्री अपनी मूक पुकार में कहती रही
स्त्री भी तो एक सताई गई जाति ही है
मैं देश के प्रधानमंत्री को भी अपना आदर्श नहीं मानती हूं
और मैं उसका कोई कारण भी आपको नहीं बताऊंगी
आखिर वह देश के प्रधानमंत्री हैं
और उनके बारे में सभी, सबकुछ जानते हैं|
10. चमार
सभ्यता के विराट अंधकार में
एक आदमी चीजों को टटोलता हुआ
आगे बढ़ता जा रहा है नंगें पैर
टटोलने वाले हाथो में
एक खास तरह की अभ्यस्तता है
वो नंगें पैर है तो जानता है
अंधकार में लग सकती किसी के पैरो में चोट
चुभ सकता है
निर्ममता का कांटा उसके पैर में भी
भागना पड़ सकता है उसे अचानक ही
गांव के दक्षिणी छोर में
यह भी हो सकता है
उसे कहीं कोई जगह ही नहीं मिले
न इतिहास में
न भविष्य में
न स्मृति में
वो भटकता रहे अनन्त काल तक
तो वह सबके लिए जूता बनाता है
उसके लिए कोई नहीं बनाता
11. मैं देखती हूं
मैं स्मृतियों में झाकती हूं
पाती हूं एक विराट शून्य
पुरखों की ओर ताकती हूं
देखती हूं एक महान उपलब्धि हीनता
मैं जाति की ओर देखती हूं
तो देखती हूं मुझे कोई नहीं जानता
फिर मैं देखती हूं कि मैं एक स्त्री हूं
तो पाती हूं मुझे सब जानते हैं
फिर मैं देखती हूं
थोड़ा समय से आगे
तो मैं देखती हूं
मेरे अतीत में एक औरत खड़ी है
जिसे सब देखते हैं
उस तरह जैसे कोई देखता है
इतिहास विहीन व्यक्ति को
एक पराजित नागरिक को
जिसने खोया तो सबकुछ
पर पाया कुछ भी नहीं
जो शुरू से अन्त तक
सिर्फ देह रही
विचार कभी नहीं
12. राह
मैं विचलनों का समुच्चय हूं
मेरी राह बिगड़ी चाल है
मैं जहां पहुंचती हूं भटक कर पहुंचती हूं
मुझे सीधी सरल राह दुर्लभ है
मैं सामान्य का विलोम हूं
जो अब तक कहा नहीं गया
वो मेरी जूझ है
मेरे जीवन का तरल
अनकहे का संगीत है
जो कहता है
जो सामान्य है
उसे ध्वस्त करो
तय करो जीवन का हाहाकार
जहां सबकुछ सहज सरल है
रटे-रटाए व्यवहार में
नहीं चुभता जीवन का कोई शूल
मुझे भय बताते हैं
कैसा होगा मेरे साहस का आकार
मैं एक दिशाहीन दिशा में भटक रही पंक्षी हूं
मुझे घोसला नहीं चाहिए
चाहिए हवाओं का वार
सूरज को घूरने भर की हिम्मत
बेख़ौफ़ हर बुराई के खिलाफ खड़े होने का ढंग |
कवयित्री पूजा कुमारी, जन्मतिथि -12/12/1993. ज़िला – आजमगढ़, उत्तर प्रदेश। शिक्षा- स्नातक, परास्नातक, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोधकार्य। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। सम्पर्क: ईमेल- coolpooja311@gmail.com
टिप्पणीकार बबली गुज्जर (3 नवम्बर 1990) की कलम नई है, बबली गुज्जर दिल्ली की मूलनिवासी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से मास कॉम्युनिकेशन की पढ़ाई की है। फोटोग्राफ़ी का शौक़ है।