रजत कृष्ण
किसी भी रचनाकार की उपस्थिति से प्रचलित साहित्य धारा में उसके जीवन सरोकार, भाव संवेदना, सौंदर्य दृष्टि और तत्कालीन जीवन संघर्ष आदि में उभरकर सामने आते हैं। इस क्रम में छत्तीसगढ़ के पीयूष कुमार की कविताएँ हिंदी कविता में एक नई बनक और ताजगी के साथ दिखाई देती हैं।
पीयूष की कविताएँ अपने विषय वैविध्य, सामाजिक सांस्कृतिक वितान और अलहदा शिल्प के कारण सहज ही प्रभावित करती हैं। भाषा का उनका अपना ही धज है तो कहन की अपनी ही रंगत है। उनकी बड़ी विशेषता है अपने भूगोल से वे कविता में आते हैं और लोकल से ग्लोबल हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से में वे जहाँ रहते हैं, वहां सेमरसोत वन्य जीव अभयारण्य को उन्होंने अपनी ही दृष्टि से देखा और उसे अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया है। यहाँ ‘सेमरसोत में बारिश’ कविता में एक आदिवासी बालिका सोनापति का कम दाम में पुटू देने से इनकार करना जैसा प्रतिरोध शामिल है तो ‘सेमरसोत में सांझ’ में ढलती शाम का बेहद खूबसूरत मानवीयकरण भी है।
पीयूष कुमार की दृष्टि इतिहास से वर्तमान तक विस्तृत है। वे समकालीन सन्दर्भों के साथ अतीत के नवीकरण में रुचि रखते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने अपनी तीन कविताओं में वैदिक कालीन ऋषिणियों के माध्यम से अपने समकाल को दर्ज कर लिया है। इन कविताओं में जहां उन्होंने ‘अपाला’ कविता के माध्यम से फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह के आत्महत्या केस में रिया चक्रवर्ती को मीडिया द्वारा चीथे जाने को जाहिर किया है, वहीं ‘लोपामुद्रा’ कविता के माध्यम से जेएनयू की लाइब्रेरी में पढ़ती लड़कियों पर हमले को दर्ज कर लिया है। इसी तरह से उनकी एक कविता ‘गार्गी’ भी है। इन ऋषिणियों को केंद्र में रखकर लिखी यह तीन कविताएँ अपने काल का अतिक्रमण करती हुई स्त्री विमर्श का विस्तृत वितान बनाती हैं।
एक कवि की पहचान यही है कि अपने समय की आंख बनकर जीवन संघर्ष को काल के कपाल पर उकेर दे। पीयूष की हवा, मिट्टी और पानी बस्तर के जंगलों और महानदी के कोख से उपजा हुआ है। ऐसे में उनकी कविताओं में स्वतःस्र्फूत ही जमीनी सरोकार दीख पडता है। उनकी कविता ‘मिट्टी की दीवारें’ छत्तीसगढ से पलायन कर ईट बनाने वाली लडकियों की मार्मिक दास्तान है तो ‘ढिंग एक्सप्रेस’ कविता में वे महिला धावक हिमा दास के जीवन संघर्ष और वर्गीय अभिजात्यता का तुलना करते हैं। इसी तरह वे अपने समय को खुली आँखों से देखते हुए अपनी कविता ‘अदृश्य हत्यारों के समय में’ में उन्होंने माॅब लिंचिंग की घटनाओं को दर्ज किया है। जाहिर है, पीयूष कुमार अपने समाज के अंतर्विरोधों और विडम्बनाओं को ठीक से पहचानते हैं।
पीयूष 21वीं सदी के उन्नत तकनीकी दौर के कवि हैं और इस समय की बदली हुई भाषा को उन्होंने सहजता से कविताओं में ढाल लिया है। उनकी इन कविताओं के शीर्षकों को देखें – ‘ऑनलाइन मन’, ‘प्रोफाइल पिक्चर में ठहरा पलाश’, ‘होम स्क्रीन में खिला फूल’, ‘ईयरफोन’, ‘ऑफलाइन चाॅद’ में सोशल मीडिया की भाषा में बदलते अभिव्यक्ति माध्यम एवं शैली का प्रयोग करने वाल पीयूष संभवतः पहले कवि हैं। वे नए दौर की नई भाव अनुभूतियों, भाषा, संवेदना, मुहावरे तथा प्रतीकों के बूते अपने समय को साध लेने का हुनर खूब जानते हैं।
अपने दौर और सरोकारों पर नजर रखने के बावजूद यह कहा जा सकता है कि पीयूष मूल रूप से प्रेम के कवि हैं। प्रेम उनका स्थाई भाव है। यह उनकी कविताओं यथा – ‘कैलेंडर बदलते हैं प्यार वही रहता है’, ‘प्यार, बारिश और यादें’, ‘डिग्रियों की फाइल और चांद’, ‘पटरियों से आती तुम्हारी याद’, ‘सेवंती सी तुम्हारी हंसी’, ‘आंखों में उगा हरापन‘, ‘बाल्टी से छलकते पानी की हंसी’ और ‘सफेद गेंदे की उजास’ कविताओं में बखूबी देख सकते हैं। उनकी इन तमाम कविताओं से गुजरना अंतस में बहती तरलता से होकर गुजरना है।
पीयूष कुमार अपने समय के दृष्टा कवि हैं। वे अपने अतीत के चरित्रों, नायकों, खलनायकों, कलाकारों, खिलाड़ियों पर केंद्रित कविताओं के रास्ते अपने समय का दस्तावेज तैयार करते हैं। वे अपने समय के साथ स्वयं को अपडेट रखते हुए अपनी कविताओं को युगीन सरोकारों से जोड़ते हैं। उनकी कविताएँ नई भाषा, अनछुए पहलुओं, मार्मिक प्रसंगों सहित नए मुहावरों के द्वारा जीवन के खेत में अपने समय की रोपाई करती नजर आती हैं।
पीयूष कुमार की कविताएँ
- सेमरसोत में बारिश
हर साल
आषाढ़ की पहली नमी सोखकर
सेमरसोत का प्यासा जंगल
बिखेर देता है जमीन पर ‘पुटू’
ताकि सोनापति उसे दोने में लेकर
पाढ़ी के पहले वाले मोड़ पर
चालीस रुपये में बेच सके
सवारी बस की रफ्तार
कम होती है पाढ़ी मोड़ पर
खिड़की से सिर निकालकर
जोर से पूछता है कंडक्टर
बीस में देगी ?
महुए के नीचे भीगती बैठी सोनापति
इनकार में सर हिलाती है
किराए में पांच रुपये भी
कम नही करनेवाला कंडक्टर बडबडाता है
इन लोगों का भी भाव बढ़ गया है
बस में बैठा कवि सोचता है
जब विकसित सभ्यता की चमक
और सस्ते में मिले संसाधनों में
श्रम के लूट का मिट्टी और पसीना शामिल है
ऐसे वक्त में सोनापति का इनकार में सिर हिलाना
एक जरूरी घटना है
मंथर सेमरसोत से कवि पूछता है
यह इनकार जरूरी था ?
वह सहमति में सिर हिलाती
उछाह लेने लगती है
और भीगता हुआ जंगल मुस्कुराता है
आषाढ़ की इस बारिश में
- गार्गी !
गार्गी !
कभी जनक की सभा में
जब याज्ञवल्क्य से
प्रतिप्रश्न किया था तुमने
ऋषि क्रोधित हो उठे थे एक बार
पर शास्त्रार्थ समुचित संम्पन्न हो गया था
गार्गी !
आज प्रश्न करके देखो
कहो – आसमान से ऊंचा
और पृथ्वी के नीचे क्या है?
तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में
आसमान से ऊँची पताका लिए
पृथ्वी के नीचे
पतन की अनन्त गहराइयों तक
कुत्सित अट्टहास के साथ
प्रतिप्रश्न लिए
एक विराट कुपुरुष
नग्न खड़ा है
अभी व्यस्त हैं जनक
उनकी ओर उम्मीद से मत देखो
इधर देखो
याज्ञवल्क्य लिख रहे हैं
वृहदाराजक उपनिषद
नवीन आर्यावर्त का !
- ढिंग एक्सप्रेस
धान के खेतों से उपजी
टखने भर मिट्टी पानी की ऊर्जा
उसकी रगों से होकर
ट्रेक पर सनसनाती भाग रही है
और उसके कदमों के नीचे की जमीन
सुनहरी होती जाती है
गूगल में खोजकर उसकी जाति
कुछ लोग निराश हो रहे हैं
उधर उत्तरकाशी में अभी तीन महीनों में
एक भी लड़की ने जन्म नही लिया है
इधर एक पूंजीवादी खेल हार कर
सुस्ता रहा है अभी
पी रहा है शीतल पेय
इसी समय सोनभद्र में जमीन से जुड़े दस लोग
मार दिए गए हैं जमीन की खातिर
उसके अंग्रेजी नहीं बोल पाने को
कमजोरी बतानेवाला प्रवक्ता चुप है आज
हैरान हैं अभिजात्य मीडिया के कैमरे
एक दुबली सांवली फर्राटा भरती देह
उन्हें खींच रही बार बार
उसकी गति इतनी तेज है कि
उनके बने बनाये फ्रेम से बाहर हो जाती है
गोल्डन गर्ल दौड़ रही है पटरियों पर
चन्द्रयान भी भेद रहा अनंत को
यह दो दृश्य एक साथ हैं
राष्ट्रगान बज रहा है
मैडल लटकाए बिटिया मुस्कुरा रही है
लड़कियां तैयार हो रही हैं भागने को
ढिंग एक्सप्रेस की तरह
(हिमा दास को ढिंग एक्सप्रेस कहा जाता है।)
- मिट्टी की दीवारें
अपने मिटटी की दीवारों वाले घर से
कभी स्कूल जाती ये बेटियाँ
आजकल ईंटें बना रही हैं परिवार समेत
लखनऊ… बाराबंकी… सुल्तानपुर में
पिता का कर्ज उतारने
अपनी माटी से दूर
पराई मिट्टी से ईंटें बनाती हैं, पकाती हैं
और खुद पकती हैं
इनके हाथों से बनी
ऊंची-ऊंची दीवारों में
लगनेवाली ये ईंटें
क्या कभी सोचती होंगी
कि सुदूर छत्तीसगढ़ के
किसी गाँव में किसी घर की
मिटटी की दीवारें
कितनी अकेली हैं…
- पिता का बचपन
पिता ने अतीत की गठरी से
एक उजली परत निकाली
और दिखाया अपना बचपन
विपन्न और निरक्षर मजदूर पुत्र मैं
कपड़े की रस्सी वाला बस्ता टांगे
बेंत की चकरी को
टायर की तरह दौड़ाते
स्कूल जाया करता था
फटे पुराने कपड़ों में
गुरुजी हर सोमवार
नाखून, बाल और कपड़े देखते
पिता के पास इस कठिन समय मे
एक ही उपाय था
हल्की गुलाबी कमीज
जो उनके बाबा के पास थी
आधी बांह की थोड़ी ठीक ठाक
यह सुनाते समय
पिता की प्रौढ़ आंखों में
देखता हूँ एक गुलाबी चमक
आगे बताते हैं वे
हर सोमवार को जाते थे स्कूल
बाबा की वही
आधी बांह वाली गुलाबी कमीज पहनकर
उस कमीज की आस्तीनें
होती थीं कुहनियों के पार
और नीचे घुटनो तक आती थी
ठीक ही तो थी
जो पीछे से ढँक लेती थी फटी पैंट को
आज मैं शिक्षक हूँ
बस्तर के इस छोटे से गांव में
जहां प्रार्थना के लिए
जब बच्चे खड़े होते हैं कतार में
कुछ आधी बांह की मैली कमीजें
झांकती हैं कतार से बाहर
वही कुहनियों के पार पहुंचती
आस्तीनों वाली
मैं देखता हूँ इन बच्चों में
अपने पिता का स्कूली बचपन
समय नही बदला है
आज भी !
- कविता का समय
लिखी जा रही कविताएँ
रोज, हर पल, हर वक्त
भेजी जा रही कविताएँ
इनबॉक्स, व्हाट्स एप्प और मेल में
पेज में, ग्रुप में, पोर्टल में, ब्लॉग में
छपवा रहा और बेच रहा है कवि
कविता की किताबें
प्रचार कर रहा है कवि
अपनी कविता और किताबों की
सुकून है, दुष्प्रचार नही कर रहा
उसके लिए हैं
एंकर, एडिटर, पैनल और चैनल
और हैं मानसिक नसबंदी कराए
फारवर्ड करनेवाली लाखों उंगलियां
ऐसे समय में
जब भरी हुई है कविता हर जगह
और कवि को फिक्र है
लाइक, कमेंट और शेयर की
तब लाखों दीयों के बुझ जाने के बाद
एक गरीब बच्ची
दीयों से तेल जमा कर रही है
कि घर का बथुआ चुर सके
कविता सोचती है
इतने कवि और कविताओं के बीच
मैं भी बची रह जाऊं दीये की तह में
जिसे जरूरत और जिम्मेदारी की तरह
कोई मुझे बार सके
- ऑनलाइन मन
जाड़ों की इन रातों में
मैं गले तक खींचता हूँ
तुम्हारी हंसी का कम्बल
और व्हाट्स एप्प में
देखता हूँ तुम्हे ऑनलाइन
पर कुछ नही कहता
तुम भी चुप ही रहती हो
यह ऑनलाइन
हमारे बीच का पुल है
उधर जंगल में
नदी सिमट रही खुद में
और किनारों पर
छोड़ जा रही मन की नमी
ताकि सुबह
वहां तुम्हारा नाम लिख सकूं
प्रेम की यह नदी
नहीं सूखेगी गर्मियों में भी
वह भी रहेगी हमेशा
ऑनलाइन
तुम्हारा स्टेटस देखता हूँ
इमोजी में मुस्कुराता हूँ
तुम भी वैसी ही मुस्कुराती हो
दो बार…
सोचता हूँ
इस चित्रलिपि ने
क्या सिंधु सभ्यता में भी इसी तरह
इमोशन को जाहिर किया होगा ?
तुम्हारा लास्ट सीन दिख रहा है
मैं भी तीन डॉट्स छोड़कर
मोबाइल डाटा ऑफ करता हूँ
तुम्हारे ख्वाब संजोए हुए हूँ
कोई स्क्रीन शॉट लेकर
गैलरी में संजोता हो जैसे
मन रे !
हमेशा ऑनलाइन ही रहना
- चाँद आधा
आधी है ख्वाहिशें
और आधी है रात
चांद भी है आधा
ठहरा हुआ
तुम्हारे लास्ट सीन की तरह
क्षितिज के आधे चांद ने
स्टेटस बदला है अभी
‘चांद रात और तुम’
गुजरती है इसी तरह
तुम्हारी टाइमलाइन पर
गुलजार की नज्म
आधे चांद को भेजता हूं
मैसेज में एक स्माइली
तो दरख़्त ओट हो जाता है
फिर आता है
कुछ देर में रिप्लाई करता है
मुस्कुराता है मद्धम मद्धम
ख्वाब अपडेट हो रहे हैं
और मन के स्क्रीन पर
नाच रहे हैं तीन डॉट्स
शायद कमेंट कर रहा है प्यार
जड़ों की खुशबू
गर्मा रही है मन
और रात जम्हाई ले रही
कल फिर उसे आना है
थोड़े एनलार्ज आधे चांद के साथ
चलो अब सो भी जाओ
आधे चांद!
ऑफलाइन होकर भी
इत्ती देर
कोई जागता है क्या?
- गांधीजी के पास रखा स्वेटर
तुम्हारे शहर उतरता हूँ
गांधी चौक पर
देखता हूँ
तुम्हारे घर जाने को
कई रास्ते हैं
पर मैं आ न सकूंगा
सुबह की ठंडी हवा
टकराती गुजर रही है
गांधीजी की प्रतिमा से
और वे मुस्कुरा रहे हैं
सुनो!
मैंने गांधीजी के पास
मेरे नेह की धूप का स्वेटर
रख दिया है तुम्हारे लिए
आकर ले जाना !
- प्यार, सर्दियां और यादें
उन सर्द शामों को
दो उंगलियां होठो से लगाकर
सिगरेट की तरह भाप छोड़ती
कित्ता हंसती थी तुम
इन सर्दियों
तुम्हारी वह भाप
मेरी आंखों में पिघल रही है
कवि पीयूष कुमार, जन्म – 03 अगस्त 1974, महासमुंद, छत्तीसगढ़।
लेखन – कविता, समीक्षा, सिनेमा, अनुवाद और डायरी आदि विधाओं में लेखन। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और ऑनलाइन मंचों, पोर्टल्स आदि पर नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी और दूरदर्शन से आलेखों का प्रसारण और वार्ता। ‘चैनल इंडिया’ अखबार रायपुर में छत्तीसगढ़ी गीतों पर ‘पुनर्पाठ’ नाम से साप्ताहिक आलेख। प्रकाशन – सेमरसोत में सांझ (कविता संग्रह) 2021 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित। अन्य – लोकसंस्कृति अध्येता, फोटोग्राफी (पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ के लिए छायांकन)
संप्रति – उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़ शासन में सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
सम्पर्क : मोबाइल – 8839072306
ईमेल – piyush3874@gmail.com
टिप्पणीकार रजत कृष्ण विगत 3 दशकों से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविताओं – लेखों के प्रकाशन के साथ ‘सर्वनाम’ पत्रिका का डेढ़ दशक का संपादन कर रहे हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ के कवियों पर केंद्रित एक पुस्तिका ‘समय के शब्द’ का भी संपादन किया है। रजत कृष्ण का पहला संकलन ‘छत्तीस जनों वाला घर’ 2011 में आया था, उसके बाद उनका दूसरा कविता संग्रह ‘तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना’ 2020 में आया है। रजत कृष्ण की कविताओं पर ‘सूत्र’ और ‘संकेत’ पत्रिकाओं ने अंक निकाला है। उन्हें ठाकुर पूरन सिंह स्मृति सम्मान और जनकवि लेखराम चिले ‘निःशंक’ स्मृति सम्मान, माता सुंदरी फाउंडेशन प्रतिभा सम्मान और छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का सप्तपर्णी सम्मान मिला है। रजत कृष्ण की कविताओं और जीवन पर 2004 में एमफिल और 2010 में पीएचडी की गई है। वे वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय बागबाहरा में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं। संपर्क – बागबाहरा, जिला महासमुंद, छत्तीसगढ़मोबाइल – 5755392532 मेल: rajatkrishna.68@gmail.com