विवेक निराला
पराग पावन हिन्दी-कविता की युवतर पीढ़ी के पहचाने जाने वाले कवि हैं। उनकी कविता एक ओर हमारे समकालीन यथार्थ को उघाड़ कर रखती है दूसरी ओर अपने प्रेम में डूबे मन के कोमल स्पर्श से उसे सहारा देती भी चलती है।
कविताओं के उर्वर प्रदेश में पराग की कविताएँ ऐसी संभावना के अंकुर की तरह हैं जो धरती को फोड़ अपनी कोमलता से आपका सहज ही ध्यान आकृष्ट करता है-जैसे नन्ही पत्तियों से अपने हाथ हिलाता हुआ-अपने पास बुलाता हुआ।
उसकी चिन्ताएं युवा-मन की स्वाभाविक चिन्ताएं हैं मसलन, जो दुनिया उसे मिली है उसमें हिंसा, बलात्कार, दंगे, धार्मिक अनुष्ठान आदि सब के लिए अपरिमित जगह है मगर इस दुनिया में प्यार करने के लिए थोड़ी भी जगह नहीं।
यह विशाल संसार क्यों नहीं दे पाता निर्भार प्यार के लिए पंजे भर भी स्पेस? यह कवि पेड़ को उसकी जड़ों से समझना चाहता है उसके तने से नहीं।
वह जानता है कि विचार भी कैदखाने होते हैं। इसीलिए वह इस दुनिया से बुरी तरह थका हुआ है, इस दुनिया की भूख से भयभीत है।
वह ऐसी युवतर पीढ़ी का कवि है जिसके पुरखे अभी लौटे नही। उसके पुरखे शायद उस दुनिया में लौटना ही नहीं चाहते जिसमे कालिदास राजा की छींक के मुंतज़िर हों, जहाँ गाँधी से अधिक उनकी लाठी प्रासंगिक हो। यह कवि जेएनयू से पढ़ा हुआ है, जो सत्ता को खटकता रहता है, क्योंकि वह बहस करता है।
पराग की कविता इसी जिरह की कविताएं हैं। अपने देश और देशवासियों की ओर से एक जिरह।
अपनी कोमल ज़िद से एक बेहतर दुनिया के लिए एक बहस। यह कवि पूरी परम्परा से बहस करते हुए कालिदास का वंशज सिरजने की लालसा में कविता की कोर थामे बैठा है जिसके लिए फिलवक्त शुभकामनाएं कि वह अपने कवि का अपनी ही तरह से विकास कर सके।
पराग पावन की कविताएँ
1.पंजे भर जमीन
इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
बलात्कार करने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर और अल्लाह के पसरने की भी जगह है
मगर तुमसे मुलाकात के लिए
पंजे भर जमीन नहीं है इस धरती के पास
जब भी मैं तुमसे मिलने आता हूँ
भईया की दहेजुआ बाइक लेकर
सभ्यताएँ उखाड़ ले जाती हैं
उसका स्पार्क प्लग
संस्कृतियाँ पंचर कर जाती हैं उसका टायर
धर्म फोड़ जाता है उसका हेडलाईट
वेद की ऋचाएं मुखबिरी कर देती हैं
तुम्हारे गाँव में
और लाल मिर्जई बाँधें रामायण तलब करता है
मुझे इतिहास की अदालत में!
मैं चीखना चाहता हूँ कि
देवताओं को लाया जाये मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाय कि
कहाँ गयी वह ज़मीन
जिसपर दो जोड़ी पैर टिका सकते थे
अपना कस्बाई प्यार मैं चीखना चाहता हूँ कि
धर्मग्रंथों को लाया जाय मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाय कि कहाँ गये वे पन्ने
जिनपर दर्ज किया जा सकता था
प्रेम का ककहरा
मैं चीखना चाहता हूँ
कि लथेरते हुए खींचकर लाया जाए
पीर और पुरोहित को
और पूछा जाय
कि क्या हुआ उन सूक्तियों का
जो दो दिलों के महकते भाप से उपजी थीं |
मेरे बरक्स तलब किया जाना चाहिए
इन सबों को
और तजवीज से पहले
बहसें देवताओं पर होनी चाहिए
पीर और पुरोहित पर होनी चाहिए
आप देखेंगें कि
देवता बहस पसंद नहीं करते |
मैंने तो फोन पर कह दिया है अपनी प्रेमिका से
कि तुम चाँद पर सूत कातती बुढ़िया बन जाओ
और मैं अपनी लोक कथाओं का कोई बूढ़ा बन जाता हूँ
सदियों पार जब बम और बलात्कार से
बच जाएगी पीढ़ा भर मुकद्दस जमीन
तब तुम उतर आना चाँद से
मैं निकल आऊँगा कथाओं से
तब झूमकर भेंटना मुझे इस तरह कि
‘मा निषाद’ की करकन लिए हुए
सिरज उठे कोई कालिदास का वंशज |
अभी तो इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
दंगों के लिए जगह है ईश्वर के पसरने की भी जगह है
पर तुमसे मुलाकात के लिए
पंजे भर जमीन नहीं है इस धरती के पास |
2. प्रधानमंत्री जी !
प्रधानमंत्री जी !
आप इन पथरियाये खुरदुरे तनों की व्याख्या
फूलों की दिशा से करने के लिए आजाद हैं
मुझे इनकी व्याख्या जड़ों की तरफ से करने की
इजाजत दीजिये |
इतिहास और प्रेमी
जरा वक़्त वक़्त गुजर जाने के बाद ही
अपना राज खोलते हैं
तब आपके फूलों की भी
कलई खुल जाएगी
और मेरे जड़ों की बदसूरती का रहस्य भी
दुनिया देखेगी |
प्रधानमंत्री जी !
शब्द और विचार भी कैदखाने होते हैं
आप चाहें तो हिटलर से पूछ सकते हैं |
चाहे आप बकरियों से
बाघों के शाकाहारी होने की गवाही दिलवाइये
या भूख की गदोरी पर
फ़रेब का सबसे कसैला आँवला रखकर
अपनी पीठ ठोकिये
चाहे आप हत्याओं की सेज पर
सोई अपनी चुप्पी से
बुद्ध को मौन की तालीम दीजिये
या अपने वक्तव्यों की ऊँचाई से
आकाश को शर्मिंदा कर दीजिये
पर एक यात्रा खेतों की भी कीजिये
खेतों में, कोइलारी में, ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में
और ऐसी ही तमाम जगहों पर दफ्न
उन चेहरों को देखिये
जो जीवन भर सच के भाले पर टँगे रहे
और आखिर में ईमान के कुँए में डूबकर मर गये
उन चेहरों को देखिये और यकीन करिए
कि चेहरे पर चमक लाने के तरीकों में
मशरूम की सब्जी सबसे निकृष्टतम तरीका है |
3. मैं तुम्हारी भूख से भयभीत हूँ
मैं तुम्हारे मुल्क से
और तुम्हारी दुनिया से
बुरी तरह थक चुका हूँ
ताज़ की तरह चांडाल हँसी
अपने सर पर सजाये
तुम्हारी आत्माओं के दुर्गंधित रस्मों-रिवाज
अब सहे नहीं जाते
तुम्हारे तराजू पर अपनी ज़िन्दगी रखकर
साँसों का आवागमन देखना
बहुत ही शर्मनाक लगता है
कौन नहीं जानता ईश्वर तुम्हारा अश्लीलतम तसव्वुर है
धर्म सृष्टि का सबसे बड़ा घोटाला है
और जाति बहुत गहरा कुआँ
जिसकी भयावहता पानी ढँकता है |
मैं तुम्हारी कला से
और विज्ञान से
बुरी तरह ऊब चुका हूँ
यहाँ खून को एक थूक प्रतिस्थापित कर देता है
यहाँ चीत्कार को मंदिर का कीर्तन घोंटकर बैठा है
यहाँ सत्य को संसद में टॉयलेट-पेपर बनाकर
लटका दिया जाता है
जिससे सुबह-शाम जनता के चूस लिए गये सपने
पोछे जाते हैं |
मैं इस देश के उस आहारनाल से आया हूँ
जिसने सदियों तलक अन्न का चेहरा नहीं देखा
मैं तुम्हारी भूख से भयभीत हूँ |
मुझे बख्श दो
मेरे उन ताल-तालाबों के लिए
जहाँ माँगुर मछलियाँ मेरा इंतजार कर रही होंगी
किसी दिलदार दोस्त के साथ
सावन को अपनी कमीज बनाकर
मैं उन दिशाओं में तैरने चला जाउँगा
जहाँ मेरी बकरियाँ भींग रही होंगी
जहाँ किसी आम के पेड़ पर
अब भी मेरा दोहत्था अटका होगा
और पास ही मेरे मछरजाल की उलझनें
मेरी अँगुलियों को गोहार रही होंगी |
मुक्तिबोध के बारे में मेरी कोई राय नहीं है
मार्क्स को मैं पहचानता तक नहीं
अम्बेडकर नाम ही सुना पहली बार
अज्ञेय शायद तुम्हारी सभ्यता का सबसे बड़ा ईनाम है
अब मुझे जाने दो
मैं ग़ालिब जुबान पर भी न लाउँगा
और जायसी को
युद्ध के निर्थकताबोध का पहला कवि मानने की
जिद भी छोड़ दूंगा
मुझे जाने दो
मुझे भीरु कहो
भगोड़ा कहो
पर जाने दो |
मेरे चले जाने पर मेरे गर्तवास का मतलब
शायद तुम समझ सको
शायद तुम कभी समझ सको
उस मोड़ दी गयी बाँस की फुनगी की
तनाव भरी थरथराहट
जिसने मुझे सिखाया था –
विनम्रता को बेचारगी में तब्दील होने से पहले
विद्रोह में बदल देना ही
ज़िंदगी का सुबूत है |
4. विदेश जाते एक दोस्त से…
कोई पूछे तो साफ-साफ मत कहना
साफ़-साफ़ मत कहना कि
यह देश अब बन्दूक या परमाणु बम से
नहीं मर सकता
यह देश भात के अभाव में मर चुका है |
कि अब यहाँ गाँधी से अधिक
उनकी लाठी प्रासंगिक है
और तानसेन राजा के पादने को फ़िलवक़्त
अद्भुत राग घोषित कर रहा है
अब यहाँ कबीर चक्की के बरअक्स
पहाड़ की महिमा जोड़ने के लिए
प्रतिबद्ध हैं
और कालिदास राजा की छींक के मुन्तज़िर हैं
अब दुष्यंत बूढ़ा होकर मर जाता है
पर शकुन्तला, बावजूद बड़ी मेहनत के
याद नहीं आती
कौटिल्य का अर्थशास्त्र
सबसे निरीह पुस्तक है
राजा का गणित अचूक है |
साफ़-साफ़ मत कहना किसी से
कि जहाँ
सर्वाधिक क्रूर व्यक्ति करुणा का तरफदार है
सर्वाधिक हिंसक मनुष्य बुद्ध को अपना पटिदार बताता है
और सर्वाधिक गोल अध्यापक
सर्वाधिक सीधी रेखा का प्रमेय पढ़ाता है
मैं उसी देश का बाशिंदा हूँ |
क्या हुआ जो यही सच है
मेरे तुम्हारे देश का
पर मत कहना साफ़-साफ़ कि
यहाँ सरकार लोगों के बारे में
बहुत चिंतित है
आजकल सरकार लोगों का हाथ काटकर
कलाई घड़ी बाँट रही है |
5. आत्महत्याओं का स्थगन
अपने वक़्त की असहनीय कारगुजारियों पर
शिकायतों का पत्थर फेंककर
मृत्यु के निमंत्रण को
जायज नहीं ठहराया जा सकता |
हम दुनिया को
इतने ख़तरनाक हाथों में नहीं छोड़ सकते
हमें अपनी-अपनी आत्महत्याएँ
स्थगित कर देनी चाहिए |
6. मौसम, जिनका जाना तय था
शरद की एक दोपहर
मुस्कराती धूप की छाया में
मटर के जिन फूलों से
मैंने तुम्हारी अंजुरियों का वादा किया था
वे मेरा रास्ता रोकते हैं |
एक दिन
कुँए के पाट पर नहाते बखत
तुम्हारे कंधे पर मसल दिया था पुदीना
वहीं पर ठहरा रह गया मेरा हरा
आज विदा चाहता है |
जमीन के जिस टुकड़े पर खड़ी होकर
मेरे हक़ में तुम ललकारती रही दुनिया को
उसे पृथ्वी की राजधानी मानने की तमन्ना
अब शिथिल हो चुकी है |
मेरे लिए
गाली, गोबर और कीचड़ में सनी
बस्ती लाती बरसात के लिए तुमने कहा-
नहीं, देखो इस तरलता में
मजूर के दिल जितना जीवन है !
तपिश के बुलावे पर बरखा का आना देखो !
…और फिर
पुरकशिश पुश्तैनी थकान के बावजूद
एक दिन मैं प्यार में जागा
जागता रहा… |
मेरी बरसात को बरसात बनाने के लिए उच्चरित शुक्रिया
तुम्हारी भाषा में शरारत है
मेरी रात को रात बनाने के लिए दिया गया शुक्राना
मेरी भाषा में कुफ़्र होगा |
जाओ मेरे प्रिय
जलकुम्भी के नीले फूलों को
तुम्हारे दुपट्टे की जरूरत होगी
पके नरकट की चिकनाई
तुम्हारे रुखसारों की आस में होगी
जुलाई में जुते खेतों की गमक
तुम्हे बेइंतहा याद कर रही होगी
समेटे लिए जाओ अपनी हँसी
रिमझिम फुहारों के बीच
बादल चमकना भी तो चाहेंगे
जाओ मेरे प्रिय |
मैं तुम्हे मुक्त करता तो
लोग तुम्हे छिनाल कहते
मैं मुझे मुक्त करता तो
लोग मुझे हरामी कहते
दोनों को बीते हुए से बाँधकर
मैंने प्यार को मुक्त कर दिया |
अब बीते हुए की गाँठ के अतिरिक्त
रतजगे का तजुर्बा तुम्हारा दिया सबक है
अब हाड़तोड़ थकान के बावजूद
हर तरह की रात में
हर तरह की नींद से
हिम्मत भर समझौता करूँगा
और ताजिंदगी इसे सबसे पहली और आखिरी
जिम्मेदारी मानता रहूँगा
चले जाओ प्रिय |
7. मेरे खून का एक संक्षिप्त इतिहास
मेरे पुरखे
वहाँ, जंगल के उस पार
टीलों और पहाड़ों पर
अपने ढोर लेकर गये थे
और नहीं लौटे हैं |
शाम गाढ़ी होती जा रही
यह बेला अँधेरे में डूबने वाली है
घिर आये हैं बादल
खोने लगी हैं दिशाएँ
और मेरे पुरखे नहीं लौटे हैं |
आकुलता के शबाब में लिपटा
अजीब मनहूस मौसम है
रौशनी की हार पर रोने वाले हैं बादल
जंगल के रास्ते अभी डूबकर मर जायेंगे पानी में
रास्तों की मौत से पहले
कबूतर लौट आये हैं घोसलों में
मुर्गियाँ लौट आयी हैं दरबों तक
हिरन, घोड़े, गाय, बाघ, भेड़िये
सब लौट आये हैं जंगल के इस पार
पर मेरे पुरखे टीलों पर बैठकर
बाँस की टोकरी बना रहे
बनाते ही जा रहे हैं
शाम ख़त्म हो चुकी है
और वे
नहीं लौटे हैं |
इसी देश में
मैंने मेमनों को हत्यारा साबित होते देखा
और हत्यारों को प्रधानमंत्री घोषित होते देखा
इसी देश में
ईमान की देवी को
जल्लाद की बैठक में नाचते देखा
और जल्लाद को अहिंसा पर
शोध-पत्र पेश करते देखा
मेरे भीतर की आग
किसी और दिन के लिए
क्रोध में आकाश हुई मेरी चीख
किसी और दिन के लिए
म्यान से निकल आई मेरे तलवार की ये थरथराहट
किसी और दिन के लिए
आज
यह अँधेरी शाम की बेला
घिरे हुए बादल
सन्नाटा ओढ़े जंगल
और मेरे पुरखे
अभी तक नहीं लौटे हैं |
8.
बेटियों तक पहुँचने से कतराती है
पिता के मृत्यु की सूचना
बेटियाँ पिता के बूढ़े दाँतों पर
सबसे पवित्र हँसी की तरह सजती रहीं
बेटियाँ पिता की संयत आवाज से
बीमारी को बरामद कर
बिल्लियों की तरह चिहुँकती रहीं
बेटियाँ पिता की लम्बी उम्र की प्रार्थना के लिए
नाकाफ़ी पाकर ईश्वर को
जाती रहीं दरगाह और गुरुद्वारे और गिरजाघरों तक
जब पिता खाँसी बने
बेटियाँ चाय में अदरक बन गईं
जब पिता सरापा लू हो चले
जेब में प्याज बनकर पहरेदारी कीं बेटियाँ
एक रात ख़बर मिली उन्हें-
‘नहीं रहे पिता’
वे धरती के एक छोर से
दौड़ती-हाँफती हुई गईं धरती के दूसरे छोर तक
पिता को ढूँढने
बेटियाँ समुद्र की सरहद तक गईं
दिशाओं के सीमान्त तक गईं
आसमान को छलाँग में नापती
आसमान तक गईं
पिता को खो चुकी बेटियाँ
पिता की लाश के क़रीब खड़ी हैं
वे टुकुर-टुकुर निहार रही हैं पिता की लाश
मुसलसल सिसक रही हैं पहरों-पहर
फलसफों के पहाड़ पर चित्त बेटियाँ
दहाड़ें मारकर
पृथ्वी को दोनों हाथों से पीट रही हैं
और पूछ रही हैं-
ऐसा कैसे हो सकता है ?
9. हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
पत्थर के विरुद्ध चक्की की वक़ालत करते लोग
छद्म रौशनी में अंधेरों की शिनाख्त करते हुए लोग
इस सदी में गाय को माँसाहारी साबित करते हुए लोग
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग |
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
जब मछुआरा बने तो हमने याद रक्खा
छावा चराती माँ-मछली को नहीं मारना कभी
भले ही भूखी गुजर जाये रात
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
जब गड़ेरिया बने तो हमने याद रक्खा
अपनी लग्गी से सितारे तोड़ने का कोई अर्थ नहीं
भेड़ें जब भी खायेंगी हरे पत्ते ही खायेंगी
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
जब इत्रफ़रोश बनें तो भूले नहीं
कि धरती की गमकती गंध के आगे
कितना फीका है ग्लोबल कम्पनी का सबसे महँगा इत्र
हम जहाँ भी गए
पूछा गया हमसे
दो और दो होता है कितना
हमने कहा
गणित में बोलूँ
कि राजनीति में बोलूँ
कि अर्थशास्त्र में बोलूँ
जीवन की भाषा में भी
बता सकते हैं हम दो और दो का योग
हमें सनकी कहा गया, पागल कहा गया
पर हम बड़ी शिद्दत से महसूस करते रहे
कि एक ही नहीं होता दो और दो का योग
जीवन में और गणित में और राजनीति में |
हम जे एन यू में पढ़े हुए लोग
जहाँ भी गए
पूछा गया हमसे
क्या रिश्ता है हमारा बाबर से
हमने कहा इतिहास नहीं होता
सिर्फ़ घटनाएँ होती हैं
और संस्कृतियों-सभ्यताओं का विस्थापन भी
एक स्वाभाविक घटना है
उनकी निगाह में मेरे जवाब से
गद्दारी की गंध उठती है
हमारे जवाब के मद्देनज़र हमें विधर्मी कहा गया |
हमसे मुल्क में और मुल्क के बाहर
तिरंगे के बारे में पूछा गया
सरहद पर शहीद सैनिक के बारे में पूछा गया
हमने कहा
गोलियाँ खेतों में भी उगती हैं-
सल्फ़ास की गोलियाँ
और देश कोई पालतू परिंदा नहीं
जो आपकी रटायी ज़बान दुहरायेगा
जो आपकी व्यक्तिगत मल्कियत है
वह शहीद मेरा दोस्त था
आपकी राजनीति से बाहर का दोस्त
इस कविता की परिधि से बाहर का दोस्त
ईश्वर-अल्लाह के अनस्तित्व की तरह
सचमुच का दोस्त
किसानी और मजूरी से डरकर
उसने चुनी थी वह ज़िंदगी…
हमारी बात बीच में ही काटकर
हमारे गिरेबाँ तक पहुँची उनकी मुट्ठी ने बताया
कि हम तो पुश्तैनी देशद्रोही हैं |
उन्होंने कहा सूरज लाल नहीं है
हमने कहा- बहस करेंगे
उन्होंने कहा आसमान नीला नहीं है
हमने कहा- बहस करेंगे
उन्होंने कहा चाँद दागदार नहीं है
आमंत्रित स्वर में कहा हमने- बहस करेंगे |
हम जे एन यू में पढ़ चुके लोग
शब्द को ब्रह्म नहीं मानते थे
पर हमारा अपराजेय यकीन था शब्दों पर
हममें से कोई नाजिम हिक़मत नहीं था
पर हम हमेशा सोचते थे कि
‘बहुत सारे रहस्य
जो दुनिया को अभी जानने हैं
इन शब्दों में थरथरा रहे हैं |’
10. क्योंकि मृत्यु कोई माफ़ीनामा नहीं है
क्योंकि मृत्यु कोई माफ़ीनामा नहीं है
और मैं तुम्हारा मुंसिफ़ नहीं हूँ |
चिता की आँच तक
मगरगोह पालने वाले लोग चाहते हैं
कि मैं ज़हर की निंदा न करूँ
कब्र की मिट्टी तक
बारूद की कालीन बुनने वाले लोग चाहते हैं
कि मैं भाषा पर मलाई लगाकर
सिर्फ़ प्रेमिका का परिचय लिखूँ
पर मैं जानता हूँ
वह ज़हर मेरी बहन के कंठ के लिए
पाला गया है
और वह बारूद
मेरी प्यारी के चीथड़े उड़ा देने की
ख्व़ाहिश रखता है |
जीवन भर मगरगोह पालने वाले लोगों !
और जीवन भर बारूद की खेती करने वाले लोगों !
मैं तुम्हारी चिता की आँच तक आऊँगा
कब्र की मिट्टी तक आऊँगा
और डर की पुतली पर खड़ा होकर
पूरी ताक़त से चिल्लाकर
तुम्हे हत्यारा कहूँगा
क्योंकि मृत्यु कोई माफ़ीनामा नही है
और मैं तुम्हारा मुंसिफ़ नहीं हूँ |
(कवि पराग पावन हैदराबाद विश्वविद्यालय में एम. फ़िल. के छात्र हैं और समकालीन कविता का उभरता हुआ नाम हैं. टिप्पणीकार विवेक निराला समकालीन कविता और आलोचना का जाना माना नाम हैं और वर्तमान में कौशाम्बी जनपद के एक महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष. प्रस्तुति-उमा राग)
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