अच्युतानंद मिश्र
निर्मला गर्ग की कविताओं में मौजूद सहजता ध्यान आकृष्ट करती है. सहजता से यहाँ तात्पर्य सरलीकरण नहीं है, बल्कि सहजता का अर्थ है विषय के प्रति साफ़ दृष्टि.
ऐसे समय ,जब साहित्य को विमर्शवाद की तंग गली में ले जाने का प्रयत्न व्यापक तौर पर अंजाम दिया जा रहा हो तो साहित्य के इस फैशनेबुल यथार्थ से बचना किसी भी कवि – लेखक के लिए कठिन हो जाता है .
खासकर तब जब पूरे शोर के साथ विमर्शवाद को एकायामी यथार्थ की तरह प्रस्तुत किया जा रहा हो.
सामान्य अर्थों में कहें तो यह कि स्त्री की दुनिया को स्त्री तक और दलित समाज को दलित विमर्श तक सीमित करने के खतरों के प्रति आगाह करने की कोशिशों को दलित-स्त्री विरोध के रूप में चिन्हित किया जा रहा है .ऐसे में बहुत संभव है कि स्त्रियाँ सिर्फ स्त्रियों के विषय में और दलित सिर्फ दलितों के विषय में ही लिखेंगी .इसके परिणामस्वरूप समाज की सरल मगर अनुकूलित समझ विकसित किये जाने पर ही बल दिया जाता है कहना न होगा कि इस समझ को व्यवसायिकता की ओट मिल रही है.
‘दिसंबर का महिना मुझे आखिरी नहीं लगता’ निर्मला गर्ग का चौथा संग्रह है . इस संग्रह की कविताएँ तंग नहीं लगाती, बल्कि स्त्री की खुली दुनिया का वृत्त हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं. इसलिए कवि कम से कम उतनी जगह की मांग तो करता ही है जितनी कि ‘घेरती हैं चीटियाँ’
कविताओं !
उतनी जगह घेरो
घेरती हैं जितनी चीटियाँ
मर्म में फैलो
फैला है समुद्र में
जल जितना
इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इन कविताओं में स्त्री को जगह नहीं दी गयी है बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि ये कविताएँ स्त्री के लिए व्यापक दायरा निर्मित करने का प्रयत्न करती हैं . इसलिए इन कविताओं में घर की राजनीति या देह की राजनीति की बजाय दुनिया की राजनीति केंद्र में है .घर और देह या परिवार की राजनीति को निर्मला गर्ग दुनिया की राजनीति का ही हिस्सा मानती हैं .
भाई वाले घरों में बहने रहती हैं, पार्श्व में
राखी जैसे त्यौहार भी उसे ठहराते हैं दोयम दर्जे का
बहने धागा बांधेंगी
भाई उसकी रक्षा करेंगे !
क्या सचमुच ?
भाई को मिलता है उसके हिस्से का भी धन
बहन मांग ले यदि अपना अधिकार
तो सारे समबन्ध हो जायेंगे तितर बितर
निर्मला गर्ग यह बताना चाहती हैं कि स्त्री का समूचा जीवन एवं उसके जीवन के सभी संकट उसी राजनीति का शिकार हैं, जिसकी ये दुनिया. यह भी कि निर्मला गर्ग की कविताओं में उपर जिस सहजता की बात कही गयी है वह विचित्र के विरोध में भी है. साहित्य में इन दिनों चौकाने वाले अति- नाटकीय प्रसंगों को अति-यथार्थ या जादुई -यथार्थ के नाम पर खूब प्रचारित एवं प्रसारित किया जा रहा है. मूल विषय से ध्यान बंटाने में यह बेहद मददगार साबित होता है. कहना न होगा कि निर्मला गर्ग की कविताओं में ऐसे प्रसंग नहीं है जो हमारा ध्यान मूल अंतर्विरोध या संकट से दूर करते हों. इसके विपरीत अधिकांश कविताओं में एक केंद्रीय अन्तर्विरोध की पहचान की जा सकती है. समाज और जीवन से प्रतिरोध की संस्कृति की विदाई के प्रति सचेत होना उनकी कविताओं को व्यापक अर्थों में सार्थक बनाता है.
कविताएँ जुटी रहती हैं चींटी सी
समाज की संरचना को बदलने के लिए
फेयर एंड लवली अंगूठा दिखाती है
उस श्रम को
श्रम को अंगूठा दिखने वाली संस्कृति के मूल में नवोदित मध्यवर्ग है .यह मध्यवर्ग प्रतिरोध के पक्ष में आवाज़ बुलंद करने की जगह विकास के गीत गा रहा है .निर्मला गर्ग की कविताएँ मध्यवर्ग के इसी विरोधाभास को सामने रखती है .हालाँकि ऐसा करते हुए कई बार वे बेहद सपाट एवं कविता के प्रचलित दायरे से बाहर भी हो जाती हैं –
नौ प्रतिशत का आर्थिक विकास इन्हें धोखा लगता है
जब करोड़ों करोड़ों लोग रह जाते है भूखे नंगे
हालाँकि ऐसा नहीं है कि निर्मला गर्ग इस तथ्य से वाकिफ न हों कि यह कविता न होकर एक बयान भर रह जायेगा .वे इस तथ्य से भलीं भांति वाकिफ है. इसी कविता के आरम्भ में वे लिखती हैं –
डायरी से काँपी से किताबों से
कवितायेँ निकल रहीं हैं बाहर
लेकिन बावजूद इसके वे ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि “कविता को अंततः और सबसे पहले कविता होना चाहिए” इस पंक्ति के मूल में कौन सी चेतना कार्य करती है ,और इससे संघर्ष तभी किया जा सकता है जब कविता में प्रतिरोध और संघर्ष को हर हाल में स्वर दिया जाये.
दिसम्बर का महीना मुझे आखिरी नहीं लगता
आखिरी नहीं लगती उसकी शामें
नई भोर की गुज़र चुकी रात नहीं है यह
भूमिका है उसकी
निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है की निर्मला गर्ग की ये कविताएँ भले प्रचलित अर्थों में स्त्री विमर्श की कविताएँ न प्रतीत होती हों ,लेकिन इन कविताओं को पढ़कर यह जरुर कहा जा सकता है कि यह एक ऐसे कवि की कविताएँ हैं जो यह मानता है कि दुनिया को अंततः और हर हाल में बदलना चाहिए .
निर्मला गर्ग की कविताएँ
1. इत्मीनान के लिए
8. स्त्री बारिश देख रही है
सामने वाली खिड़की पर
चाय का कप लिए
एक स्त्री
बारिश देख रही है
उसका नाम शगुफ़्ता ख़ान है
बूँदों को
घास-मिटटी पर पड़ते देख
वैसे ही हलचल से भर रही है
शगुफ़्ता
भर रही हूँ जैसेकि मै
यानी निर्मला गर्ग
आडवानी जी व्याख्या करें
इस चमत्कार की
9. अयोध्या
अयोध्या अयोध्या थी
वह थी क्योंकि वहाँ एक नदी बहती थी
वह थी क्योंकि वहाँ लोग रहते थे
वह थी क्योंकि वहाँ सड़कें और गलियाँ थीं
वह थी क्योंकि वहाँ मंदिर में बजती घंटियाँ थीं
और मस्जिद से उठती अजान थी
अयोध्या अयोध्या थी
रामचन्द्र जी के जन्म से पहले भी वह थी
रामचन्द्र जी हमीद मियाँ की बनाई खड़ाऊँ पहने
करते थे परिक्रमा अयोध्या की
सो जाती थी जब अयोध्या रात में
सोई हुई अयोध्या को चुपचाप देखते थे रामचन्द्रजी
बचपन की स्मृतियाँ ढूँढ़ते कभी ख़ुश कभी उदास
हो जाया करते थे रामचन्द्र जी
अयोध्या अब भी अयोध्या है
अपनी क्षत-विक्षत देह के साथ
अयोध्या अब भी अयोध्या है
पूर्वजों के सामूहिक विलाप के साथ
हमीद मियाँ चले गए हैं देखते मुड़-मुड़कर
जला घर
चले गए हैं रामचन्द्र जी भी मलबे की मिट्टी
खूँट में उड़स
10. गज़ा पट्टी-1
गज़ा पट्टी रक्त से सनी है
खुले पड़े हैं अनगिनत जख़्म
अरब सागर अपनी चौड़ी तर्जनी से बरज़ रहा है
इस्त्राइल को किसी की परवाह नहीं है
काठ का हो गया है
उसका ह्रदय
ताकत के नशे में वह इतिहास को भूल रहा है
अभागे फिलिस्तीनी अपनी मिट्टी से
बेदख़ल किए गए
उनके घर के दरवाज़े
उनके चाँद तारे
सब पर कब्ज़ा कर लिया
दुनियाभर से आए यहूदियों ने
अमेरिका का वरदहस्त सदा रहा इस्त्राइल के कंधे पर
इस्त्राइल के टैंक रौंदते रहे
फिलिस्तीनियों के सीने
उनकी बंदूकें उगलतीं रहीं आग
मक्का के दाने से भुन गए छोटे छोटे शिशु भी
पर टूटे नहीं फिलिस्तीनियों के हौसले
आज़ फिर ख़ामोश है अमेरिका यूरोप
आज फिर उद्देलित है
अरब सागर
सूअरों-कुत्तों की तरह फिर मारे जा रहे फिलिस्तीनी
लाल हो रही रक्त से फिर
गज़ा पट्टी
11. ज़िन्दगी का नमक
वह औरत मिली थी मुझे
छोटा नागपुर जाते हुए ट्रेन में
गठरी लिए बैठी थी संडास के पास
फिर और बहुत सारी औरतें मिलीं
पूछती हुई
दर्ज़ करती हैं क्या कविताएँ
हमारे तसलों का ख़ालीपन
जानती हैं क्या
हमारी गठरियों में जो अनाज है
उसके कितने हिस्से में घुन है
कितने में लानत
उनके चेहरों पर
मौसम के जूतों के निशान थे
उनकी ज़िन्दगी का नमक
उड़ा था नमक की तरह
हाट-बाज़ार।
12. पुत्रमोह
बैठक में रखी मेज के शीशे के नीचे
दो तस्वीरें सजी हैं
ये तस्वीरें मेरे भइयों की हैं
एक हैदराबाद रहता है एक दिल्ली
पिताजी मेज पर घंटो व्यस्त दीखते हैं
पेट्रोल पंप बिक चुका है बाकी कारोबार
पहले से ही ठप हैं
इतने बड़े घर में पिताजी अकेले रहते हैं
बेटियों की शादी हो गई पत्नी का स्वर्गवास हुआ
(घर पुरातत्व का नमूना लगता है
एक समय खूब गुलजार था।)
खाने के बेहद शौकीन पिताजी कई कई दिन
दूध ब्रेड पर गुजारा करते हैं
मुझे याद है उनका भोजन करना
घर का सबसे अहम काम हुआ करता था
(उसके बाद सब चैन से बतियाते हुए खाते थे)
बेटों में से कभी कभी कोई आता है
अपने हिस्से के रूपये लेने
कोई नहीं कहता आप चलकर हमारे साथ रहें
हमें खुशी होगी
बड़ी बहन बीच-बीच में आती है
जितना होता है सब व्यवस्थित कर जाती
नौकर को तनखा से अलग और रूपयों का लालच देती है
ताकि टिका रहे
(बेमतलब डांटने की बाबूजी की लत तो जाने से रही)
मेरे मन में कई बार आया
मेज के नीचे की तस्वीरें बदल दूं
भाइयों की फोटो हटा
बड़ी बहन की तस्वीर लगा दूं
पर जानतीहूं पिताजी सह नहीं पायेंगे मेरी
इस हरकत को
सख्त नाराज़ होंगे
बहन को भी मलाल होगा व्यर्थ पिताजी को दुख पहुंचा
पुत्र मोह का यह नाता भारत में ही बहता है
या विदेशों में भी है इसका अस्तित्व
चिंतनीय यह प्रश्न जवाब दें आप मैं विदेश गई नहीं…
13. मुक्ति का पहला पाठ
करवाचौथ है आज
मीनू साधना भारती विनीता पूनम राधा
सज-धजकर सब
जा रही हैं कहानी सुनने मिसेज कपूर के घर
आधा घंटा हो गया देसना नहीं आई
४०५ वालों की बहू है कुछ ही महीने पहले
आए हैं वे लोग यहाँ
भारती उसे बुलाने गई है
ड्राइंगरूम से ही तकरार की आवाज़ें आ रही हैं
देसना की नोंक-झोंक चलती रहती है
कभी पति से कभी सास से
कभी ननद-देवर से
आज महाभारत है व्रत उपवास को लेकर
देसना कह रही है –
‘मुझे नहीं सुनी कहानी-वहानी नहीं रखना कोई व्रत
आप कहती हैं सभी सुहागिनें इसे रखती हैं
शास्त्रों में भी यही लिखा है
इससे पति की उम्र लंबी होती है
यह कैसा विधान है !
मैं भूखी रहूँगी तो निरंजन ज़्यादा दिनों तक जिएँगे !
यदि ऐसा है तो निरंजन क्यों नहीं रहते मेरे लिए निराहार
क्या मुझे ज़्यादा वर्षों तक नहीं जीना चाहिए ?
शास्त्रों को स्त्रियों की कोई फ़िक्र नहीं
उन्हें लिखा किसने ?
किसने जोड़ा धर्म से – मैं जानना चाहती हूँ
चाहती हूँ जानें सब स्त्रियाँ
पूछें सवाल
मुक्ति का पहला पाठ है पूछना सवाल ।’
साधना मीनू पूनम विनीता राधा
सब सुन रही हैं भारती से देसना की बतकही
मिसेज़ कपूर कहानी सुना रही हैं –
‘सात भाइयों की एक बहन थी……’
पर आज कहीं से हुंकारा नहीं आ रहा
(कवयित्री निर्मला गर्ग का जन्म- 21 जून 1955 को दरभंगा, बिहार में हुआ. इनकी शिक्षा- वाणिज्य स्नातक एवं रूसी भाषा में डिप्लोमा। लेखन के अतिरिक्त जन-नाट्यमंच से जुड़ी हुई हैं। लेखक संगठनों में सक्रियता। सफ़दर हाशमी की निर्मम हत्या के तुरंत बाद जन नाट्य मंच गाज़ियाबाद की स्थापना। लगभग 20 से 22 प्रदर्शन । कविता संग्रह- यह हरा गलीचा (1992), कबाड़ी का तराजू (२०००), सफ़र के लिए रसद (2007),
दिसंबर के महीना मुझे आखिरी नहीं लगता(2014). दूसरे कविता संग्रह कबाड़ी का तराजू पर हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कीर्ति सम्मान’। टिप्पणीकार अच्युतानंद मिश्र युवा कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित और समकालीन कविता का चर्चित नाम हैं.)