केतन यादव
एक पूर्वकथन यह कि मेरी भूमिका मात्र इस कवि से परिचय कराने की होगी बाकि बात कवि की कविताएँ खुद कहेंगी। यह एक लंबी यात्रा होगी जिसमें आपको धीरज के साथ आगे बढ़ना होगा। इस यात्रा में बहुत से दृश्य मिलेंगे जिनके देखने के हम आदी नहीं हैं लिहाजा उन्हें देख पाने की दृष्टि भी चाहिए होगी। हृदय तो चाहिए ही होगा इन्हें आत्मसात करने के लिए। सभ्यता विमर्श की गहरी शिनाख्त करती इन कविताओं से गुजरने के लिए वह इतिहासबोध भी चाहिए होगा जो इतिहास लेखन में छूटा रहा।
यह छूटे हुए लोगों की कविताएँ हैं। बहुत सारी आवाजें एक साथ कोलाहल करती दिखाई पड़ेंगी उनका हाथ थामकर आगे बढ़ना होगा। उन्हें अबतक कहने का मौका नहीं दिया गया। इसलिए जब वे बोलेंगे तो उनको गौर से सुनना होगा। मोहन मुक्त की इन कविताओं में श्रमिकों, अश्वेतों, असुरों, पशुओं, सपेरों, नटों, बहेलियों, मदारियों, भाँडों, कसाईयों, चांडालों , जल्लादों, ढोलियों, छलिया, मिरासी, हलिया, बाजगी, लुहार, हुडक्या, बादी, कहार, औजी, जगरिया, पल्लेदार, भगरिया, पतार, महाड़ मांझी जैसी कितनी ही आवाजें जब बोलती हैं तो मन में एक विचलन, उद्विग्नता, अकुलाहट पैदा होती है।
ये कविताएँ एक सांस्कृतिक विमर्श खड़ा करती हैं जिनको कथित मुख्यधारा के समाज ने संस्कृति का अंग कभी माना ही नहीं। ग्राम्शी जिसे कल्चरल हेजेमनी कहते हैं वस्तुत: मोहन मुक्त सच्चे अर्थों में बौद्धिक ईमानदारी के साथ उस सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को चुनौती देते हैं।
एक बेहतर सुंदर दुनिया का स्वप्न रचने के लिए हमें सबसे पहले उसकी सफाई करनी होगी जो कुछ इसे असुंदर बना रहा है। वह विभेद वह असमानता जो प्रकृति ने नहीं बल्की मनुष्यों ने पैदा की है हमेशा से, जिस विभेद को अपनी सत्ता का हथियार बनाने के लिए उन्होंने बहुत करीने से उसे सार्वभौमिक प्राकृतिक नियम कह दिया।
उस प्रभुत्ववाद के विभिन्न स्तर हैं मोहन मुक्त यह बताते हैं कि उसे समझने के लिए — ‘ अबेंडकर की नज़र चाहिए ।’
इस कविता यात्रा में मोहन मुक्त विभिन्न जातियों के सामाजिक मुद्दों को उनका सांस्कृतिक विमर्श बनाकर और दृढ़ता से उजागर कर रहे। उसके पीछे काम कर रही वर्ण व्यवस्था और सामंतवादी सत्ता की परतें खोल रहे। वे वर्णाश्रमी व्यवस्था में काम कर रहे प्रचलित अर्थों को चुनौती देते हैं और वास्तविक जीवनसंदर्भ से अर्थ को स्वानुभूति प्रदान करते हैं और ऐसा करते हुए वे भाषा और कविता के नाज़ी तानाशाह तक भी पहुँचते हैं।
मोहन मुक्त भाषा की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए उस सच तक पहुँचते हैं जहाँ शोषण के सूत्र छिपे हुए हैं और वे कहते हैं — ‘ मेरी सबसे प्रिय कविता राज्य की नहीं संस्कृति की जकड़ में है। ’
हिंदी कविता की समकालीन यात्रा को चाहे जो कुछ कहा जाए लेकिन वास्तव में विमर्शों ने न केवल भाषा में सत्ता के वर्चस्व को तोड़ा है बल्कि लगातार उसमें नये अर्थ भरकर उसे लोकतांत्रिक बनाया है।
हिंदी कविता के इतिहास में आज दलित कविता को भाषा की अनगढ़ता और कथ्यगत ठोसपन का अभाव कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। मोहन मुक्त की कविताएँ इसका उदाहरण हैं।उनकी कविताओं में वह ठोस यथार्थ अपनी संपूर्ण जटिलता में खुलता है। किस तरह से वे बाज ही नहीं बहेलिए की दृष्टि से भी भाषा संसार में विभाजनकारी चालों के रेशों-रेशों को देख रहे और उसपर उँगली रख रहे। कथ्य अपनी संरचना स्वयं निर्धारित करता है।
मोहन मुक्त की कविता संरचना में दोनों बाते हैं। जहाँ व्यंग्य वर्तमान समय के बहुजन जीवन के जटिल यथार्थ लय और गेयता में व्यक्त हो सकता है वहाँ तुकांत भी होते हैं और जहाँ बात कहने में गेयता बाधा बनती है वहाँ वे पथरीले गद्य कविता की भूमि पर भी चलते हैं। यहाँ आपको ग़ज़ल मुक्तक दोनों में बात दिखाई देगी बल्कि एक कविता में तो दोनों तरह के शिल्प दिखाई देंगे। ‘ हम खत्म करेंगे ’ कविता में वे आख़िरी में कहते हैं ‘ हिंसक इस दुनिया की हिंसा हम अछूत ही ख़त्म करेंगे ’ और कैसे करेंगे इसका उपाय भी वे बताते हैं इसी कविता में ऊपर जहाँ वे सपेरों , नटों, बहेलियों, मदारियों, कसाईयों सब भाइयों को एक होने को कहते हैं। सब इस दुनिया के अछूत हैं और ग़लत दुनिया के सबूत भी । वे कहते हैं — ‘ एक दूसरे को छुओ/ पहले एक दूसरे को जानो / करतब तान तलवार आग की / असल आग पहचानो ’ … ‘ असल आग इनसानी है ’ और इस तरह से वे सभी अछूत पहचानों में एक मानवबोध भरते हैं और हिंसक दुनिया को अछूतों के हाथों ही खत्म करने का रास्ता रखते हैं। जिस संस्कृति में स्पर्श भी त्याज्य रहा हो और छूना एक क्रांति ही है।
हमेशा से मुख्यधारा में लंबे समय तक यह विमर्श हुआ कि कवि भी स्वतंत्र कलाकार है उसे पृथक बयान की जरूरत नहीं है या विचारधारा और वाम प्रतिबद्धता वाले कवियों ने कहा कि कवि लेखक कर्म के अतिरिक्त एक नागरिक भी है तो एक्टिविस्ट की भूमिका भी उसका सामाजिक दायित्व है लेकिन हाशिए की आवाजें यदि एक्टिविस्ट की भूमिका में नहीं आएँगी तो कला की दुनिया में क्या उनकी बात दर्ज हो सकेगी या वे जिस समाज का बौद्धिक वैचारिक प्रतिनिधित्व कर रहे उसके साथ कई मुद्दों पर भौतिक रूप से भी खड़े होना जरूरी नहीं हो जाता ? इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि हर बात को कविता में कहना जरूरी नहीं कई बार स्टेटमेंट की जरूरत भी होती है और जबतक बात सीधे कही जा सके तबतक क्या उसे कलात्मकता और जटिल द्वंद्वामकता देना जरूरी है इस बात को मोहन मुक्त ‘कहो’ कविता में कहते हैं —
‘ कहो कि हम बातों और पीड़ाओं के कविता बन जाने का इंतजार नहीं करेंगे
हम कहेंगे जीवित दंश की प्राकृतिक और मारक भाषा
तुरंत तीव्र त्वरित और असरदार
ज़हर की तरह। ’
‘ श्रम और सौंदर्य ‘ शीर्षक की कविता एक गहरी सामाजिक राजनीति सचेतना की कविता है। केवल यह राजनीति नहीं कि वर्णाश्रम से किसी व्यवसाय को जोड़ दिया जाता बल्कि यह भी कि उसे लोक से जोड़कर उसके समुदाय की पहचान बना दी जाती है। एक ऐसी परंपरागत पहचान जिसे हुनर बताया जाता जिसका संबंध केवल अर्जन नहीं बल्कि उसकी पीढ़ीगत वर्णगत पहचान बना दी जाती है और वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी मोह में रहकर उस व्यवसाय को नहीं छोड़ता है। श्रम के सौंदर्य की इस पॉलिटिक्स को मोहन मुक्त कविता में बहुत करीने से पकड़ते हैं।
‘प्रेम’ कविता आशुतोष कुमार ने पिछले दिनों वॉल पर शेयर की थी तो उसपर खूब चर्चा हुई थी। किस तरह कवि पुरखा कवि की चूक को पकड़ता है उससे असहमत होता है और संवाद करता है यह बहुत सुन्दर उदाहरण था। पिछले दिनों एक कथित लगभग इतिहासकार महोदय ने लेखिका अरुंधती रॉय को पर्यटक लेखिका कहकर तमाम निजी जीवन के प्रसंगों के साथ कई आरोप लगाए उसके बाद उसी मुद्दे पर वे अपनी किताब का प्रचार करते दिखे तब उनके यूट्युबिया बुद्धि का विज्ञापन क्रीडा विलास समझ आ गया। मोहन मुक्त ने दसवीं कविता अरुंधती रॉय और राना अयूब को समर्पित किया है – ‘ मेरी पसंद की लड़की ‘ जिसमें वे बताते हैं कि कैसे एक बोलने वाली संघर्षरत स्त्री सबसे सुंदर लगती है। ग्यारहवीं कविता का कोई शीर्षक नहीं है बहुत सारे आधुनिक सवाल हैं मुझे यदि शीर्षक देना हो तो – सुन रहे हो ‘ देना चाहूँगा। आखिरी कविता ‘ भूमिका ’ में कवि कहता है ‘ मैं जान रहा हूँ यह नहीं टूटेगा लेकिन मैं अपने हिस्से की चोट जरूर करूंगा। ’
प्रश्न है कि वह कवि जिसका काम है सृजन करना वह तोड़फोड़ करेगा ? बिल्कुल ऐसे ही आरोप वर्णाश्रम समर्थक साहित्यकारों आलोचकों ने अबतक लगाया परंतु यहाँ बात केवल शिल्प, संरचना और भाषा के तोड़फोड़ की नहीं है बल्कि एक सत्ता एक वर्चस्व को तोड़ने की है। कवि अपनी सीमाओं को स्वीकार करने के साथ यह कह रहा है कि वह इसके विरुद्ध संघर्ष करेगा। बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए यह तोड़ जरूरी है और वह कवि का दायित्व भी है।
मोहन मुक्त की कविताएँ
1. नज़र
ज़रूरी नही कि
नैपोलियन…
ख़ून से सनी तलवार लिये
बख़्तरबंद पहने हुए
सवार होकर आये घोडे पर
वह अधनंगा…
लकडी की चप्पल पहने हो सकता है
ज़रूरी नही कि
वह कहलाना चाहे विश्व विजेता
हो सकता है उसे शांतिदूत की उपाधि पसंद हो
लेकिन याद रहे…
नैपोलियन हमेशा होता है हिंसक
आमरण अनशन अहिंसा नही हिंसा होती है
कास्त्रो के कांधे पर बैठा कबूतर
नेहरू की अचकन में टंगा गुलाब
और गोर्वाचेफ के माथे पर बने
बाइबिल के निशान तो दिख जाते हैं सभी को लेकिन…
यरवदा की जेल के भीतर
अनशन पर बैठे…
गांधी के सर पर…
नैपोलियन का टोप देखने के लिये…
आंबेडकर की नज़र चाहिए …
2. नाज़ी
नाज़ी जल्लाद नहीं होते
जल्लाद नाज़ी नहीं होते
जल्लाद श्रमिक होते हैं
नाज़ी श्रमिक नहीं होते
नाज़ी कसाई नहीं होते
कसाई नाज़ी नहीं होते
कसाई हमें भोजन देते हैं
नाज़ी भोजन नहीं देते
नाज़ी बहेलिये नहीं होते
बहेलिये नाज़ी नहीं होते
बहेलिये अछूत होते हैं
नाज़ी किसी को नहीं छूते
नाज़ी मर्द होते हैं
नाज़ी ब्राह्मण होते हैं
नाज़ी कमांडर होते हैं
नाज़ी श्वेत होते हैं
नाज़ी पुरोहित होते हैं
नाज़ी ज्योतिषी होते हैं
नाज़ी व्यापारी होते हैं
नाज़ी अमीर होते हैं
राम नाज़ी है
शम्बूक नहीं नाज़ी
जंगल से चले जो
बंदूक नहीं नाज़ी
भस्मासुर नहीं नाज़ी
रक्तबीज नहीं नाज़ी
जो बिखरे तो पैदा हो
ऐसी चीज नहीं नाज़ी
अरे कविता के क़ब्जेदारो
ओ भाषा के ज़मींदारो
अपने बिम्ब दुबारा देखो
जो इतिहास में हारा देखो
उसी को नाज़ी कहते हो तुम
किस दुनिया में रहते हो तुम
ज़रा अपने उदाहरण देखो
देख सको तो कारण देखो
बिम्ब तुम्हारे झूठे होंगे
भले प्रशंसा लूटे होंगे
‘कालजयी’ जो कृति तुम्हारी
हमें अपराधी ठहराएगी
सुनो तुम्हारे बच्चों को वो
कहीं छिपानी पड़ जाएगी
संभलो कवि अब बदल भी जाओ
सच्चा देखो सच्चा गाओ
देखो वंशज पराजितों का
अपनी कविता सुना रहा है
आपके जैसे सब कवियों के
भीतर नाज़ी बता रहा है
ऐसे तो असहाय नहीं हो
साथ तुम्हारे न्याय नहीं हो
तुम कविता के क़ब्ज़ेदार
तुम भाषा के ज़मींदार
बिम्ब को पलटो सुनो सलाह
अपने श्रेष्ठ को करो तबाह
करता हूँ तुमको आगाह
कविता के नाज़ी तानाशाह
भाषा के नाज़ी तानाशाह…
3. चाँद चाहिए
साथ ना भी मिले तेरा ,ज़रा सी याद चाहिए
आधा ही सही मुझको सफ़र में चाँद चाहिए
किताबें जलेंगी युद्ध होगा गौकशी होगी
उन्हे चुनाव के समय कोई फ़साद चाहिए
सबसे बड़ा आरक्षण ज्यूडिशियरी में है
कुर्सी पे जज को अपनी ही औलाद चाहिए
शायर सलाम करता है क़ातिल बादशाह को
उसे हिंसा के बिंब के लिए जल्लाद चाहिए
वो कहते हैं कि बाग़ में बस एक फूल हो
हमे तो चाहिए जंगल और आबाद चाहिए
पिंजड़े की चिड़िया के हैं ख़ुद ही ख़रीदार
कठघरे में उनको मगर सय्याद चाहिए
उनके पास शब्द हैं हुनर है डायलेटिक्स है
कविता को लेकिन,दर्द की बुनियाद चाहिए
मक़बूल शायरों के भी कॉलर पकड़ सके
कोई तो ऐसा सिरफिरा एकाध चाहिए
डांगे त्रिपाठी या रामविलास का नहीं
हमे भी चाहिए पर अपना मार्क्सवाद चाहिए
मेरे लिए लिख सकते हो इंकार नहीं है
दिल गहरा चाहिए नज़र ज़ियाद चाहिए
बेज़ुबान के डॉक्टर को असर से मतलब
कब ‘मुक्त’ की कविता ने कहा दाद चाहिए
गांव मुल्क दुनिया में ‘मुक्त’ सिमटता नहीं
उसे तो पूरा यूनिवर्स ही आज़ाद चाहिए
टूटा दिल मज़बूत ज़ेहन देखती नज़र
‘मुक्त’होने के लिए आशियां बर्बाद चाहिए…
4. ज़ब्तशुदा
मेरी सबसे प्रिय कविता ज़ब्त है
उसकी ज़ब्ती राज्य ने नहीं की
राज्य के दायरे में तो उसकी ज़ब्ती संभव ही नहीं
मेरी सबसे प्रिय कविता
भाषाओ ने ज़ब्त की है
लिपियाँ हैं उसकी बेड़ियाँ
मेरी सबसे प्रिय कविता
संस्कृतियों की जेल में है
कवियों और कलाकारों ने किया है क़ैद उसे….
मेरी सबसे प्रिय कविता के पहरेदार सबसे उत्कृष्ट कहे गये इंसानी दिमाग़ हैं
मेरी सबसे प्रिय कविता… काग़ज़ से घबराती है
वो काग़ज़ में उतरते ही कुछ और हो जायेगी…झक्क सफ़ेद काग़ज़ चौंधियाता हुआ चीख पड़ेगा… जब मिलेगा मेरी सबसे प्रिय कविता से…
फ़फ़क उठेगा…
कहेगा मैं पेड़ था ठीक वैसे जैसे तुम भाव थीं सरल और जीवंत…
आरियों रंधों और लोहे के भारी पाटों ने देखो तो मुझे क्या बना दिया…वो मेरी सबसे प्रिय कविता अगर हुई तो उसे काग़ज़ के दुःख में मर जाना चाहिए वहीं…
मेरी सबसे प्रिय कविता में बिम्ब नहीं होंगे… प्रतीक नहीं होंगे… उपमाएं नहीं होंगी सौंदर्य की परिभाषा नहीं होगी ना ही होंगे रास्ते कोई तयशुदा संवेदनाओं के… मेरी सबसे प्रिय कविता में केवल अस्तित्व के कारण होगा प्यार… जैसा कि होना चाहिए जैसा कि होता है….
मेरी सबसे प्रिय कविता में सवाल होंगे बोध पर …
पूछा जायेगा मूर्तिकारों चित्रकारों और कवियों से कि सपाट छातियों वाली औरतों के प्रसिद्ध चित्र क्यों नहीं मिलते…
जबकि उन्होंने भी अपने बच्चों को भरपूर दूध पिलाया है…
उनके भी प्रेमी थे सच्चे जो उनसे लिपटकर पूरी पूरी रात रोते थे…उन स्त्रियों के शरीर की गंध और उनका स्पर्श याद करते हुए मरे थे लम्बी ज़िंदगी वाले ,असाध्य रोग से पीड़ित पुरुष… जो और जीना चाहते थे
और सबसे ज़रूरी बात ये है कि वो उन सपाट छातियों के आलिंगन में मरना चाहते थे… उनमे ज़ाहिराना उभरती धड़कनों को महसूसते… जो मेरी सबसे प्रिय कविता जैसी लगती हैं
पूछा जायेगा मेरी सबसे प्रिय कविता में कि झंडो को फहराते समय नीचे गिरते फूल क्या झंडो के कपड़े से ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत नहीं कहे जायेंगे… ?
क्योंकि वो जा मिलेंगे मिट्टी से और झंडा बना रहेगा दीवार
मिट्टी और आदमी के बीच…
क्या कभी समझा सकेगा झंडे के कपड़े का दुःख…
क्या कभी पहचानी जा सकेगी आज़ादी का प्रतीक बन चुके रंगों की ग़ुलामी…
क्या कभी कपास की ज़ब्ती देखी जा सकेगी
मेरी सबसे प्रिय कविता में कुत्ते भेड़िये हो चुके होंगे अपने बुजुर्गो का ध्यान रखते… मेरी सबसे प्रिय कविता में गिद्ध जब लाशें खा रहे होंगे तो उनके प्रति जुगुप्सा नहीं होगी… ये बस एक दृश्य होगा… जिसका घृणा से ताल्लुक टूट चुका होगा…
मेरी सबसे प्रिय कविता सियारों लोमड़ियों उल्लुओं और सांपो को ये मौका नहीं देगी कि मैं उनसे नज़रें ना मिला सकूँ
मेरी सबसे प्रिय कविता उस मिथक के नायक से टकराएगी जिसने क़यामत की बाढ़ में कुछ को चुन लिया था अपनी नाव पर सवार होने के लिये…
मेरी सबसे प्रिय कविता बुनियादी बात पूछेगी कि अपने साथ कुछ को चुन लेने की बजाय सबके साथ मर जाना ज़्यादा सहज विकल्प क्यों नहीं था…?
नायक!तुमने हमारे अस्तित्व को अपराधबोध बना दिया… यहाँ मेरी सबसे प्रिय कविता को ,अगर वो हुई मेरी सबसे प्रिय कविता तो उसे एक बार फिर से मर जाना होगा..
मेरी सबसे प्रिय कविता सैनिक को पेशेवर हत्यारा कहेगी, और विजेता सम्राटों को सनकी क़ातिल लुटेरे,
मेरी सबसे प्रिय कविता दार्शनिको से पूछेगी कि तुम अगर सच्चे थे तो बूढ़े होने तक कैसे बचे रहे…
कवियों को दुत्कारेगी कि तुमने भी तो देखा होगा तुरीन के घोड़े की तरह पिटता हुआ कोई बंधवा मज़दूर फिर तुम्हारा नर्वस ब्रेकडाउन क्यों नहीं हुआ… नीत्शे की तरह… झूठो… तुम नीत्शे को फासिस्ट कहते हो…जो दृश्य फासिस्ट को तोड़ दे तुम उसे देखकर भी तने हुए हो
मेरी सबसे प्रिय कविता भेजेगी घृणा से सराबोर लानत मंचों पुरस्कारों सम्मानों प्रतिष्ठाओं और उपाधियों पर..
. वो पीतल के द्वीप प्रज्वलित कर रहे हाथों का दिखावटी संकोच और ख़ास तरह से ओढ़ाये गये शाल दोनों को नोच फेंकेगी… और दिखाएगी कि विनीत बनाये गये दर्पदीप्त चेहरों का तेज ख़ून में नहाने से पैदा हुआ है…
और और निर्दोषों का ख़ून हिसाब मांगता है…
लक्ष्मणपुर बाथे, शंकरभीगा, बथनी टोला… हाशिमपुरा… मणिपुर… ईराक… वियतनाम… और उन सारी जगहों पर बिखरा ख़ून जिनका कहीं ज़िक्र भी नहीं आया…कवि तुम्हें पता है इस मंच पर तुम्हारा सौम्य मुस्कुराता और भावप्रणव चेहरा… किसी तानाशाह से कम गुनहगार नहीं है… वो वीभत्स लगता है… सारी सभ्यता की क्रूरता को छिपाए और दिखाए हुए एक साथ ही
कवि तुम्हारे पुरस्कार का स्पांसर वही है जो जनसंहार के लिये उपयुक्त दिन समय और स्थान तय करने वालों की ख़ुफ़िया एजेंसियो से पैसा लेता है….
कवि ये सम्मानपत्र तुम्हारा मृत्यु प्रमाण पत्र है और तुम इस बात का सुबूत हो कि लाशें भी मंदिर में रखी मूर्तियों की तरह खतरनाक होती हैं…
मेरी सबसे प्रिय कविता…आवाज़ की तरह इंसाफ़ के लिये उठेगी तो उत्पीड़ितों के कुछ भी होने के कारण उसमे कोई हिचकिचाहट नहीं होगी … उसका रिश्ता केवल पीड़ा से होगा… होगा रिश्ता प्रतिरोध से प्रतिकार से…
मेरी सबसे प्रिय कविता के पास कोई लिबास नहीं होगा… मेरी सबसे प्रिय कविता केवल शरीर होगी …नग्न…
जिसका दिल और ज़ेहन पहली नज़र में दिख जायेंगे
मेरी सबसे प्रिय कविता की ज़ब्ती हुई है…
लेकिन ये राज्य का काम नहीं… ये उसके बस में भी नहीं
मेरी सबसे प्रिय कविता राज्य की नहीं संस्कृति की जकड़ में है…
मुझे देखो… देखो तो… शायद मैं ही हूं…
हां मैं ही हूं मेरी सबसे प्रिय कविता… मुझे ज़ब्त किया गया है…
मैं इंतज़ार में हूं कि आएगा जनवाद… पैदा होगा कवि …
तो मुझे गाया जा सकेगा …
उस भाषा में जिसमें शब्द नहीं बिम्ब नहीं प्रतीक नहीं
जैसे चीटियां एक दूसरे से बात करती हैं
या मधुमक्खियां नाचती हैं… या बेलें करती हैं पेड़ों का अलिंगन वहां नियम तो होंगे लेकिन व्याकरण नहीं…
वहां बातें तो होंगी लेकिन शास्त्र नहीं…
जब कोई मुझे गाएगा …
राज्य धर्म संस्कृति अर्थ और युद्ध के प्रति मेरी समुचित और अथाह घृणा को प्यार की भाषा में सुनाएगा सहज
तो मैं और मेरी सबसे प्रिय कविता हो जायेंगे मुक्त
फिलहाल तो मेरी सबसे प्रिय कविता ज़ब्त है …
5. हम ख़त्म करेंगे
सपेरो
तुम तो कभी साँप नहीं मारते
तुम तो सांप पालते हो
सपेरो …तुमने कभी नहीं किया कोई नाग यज्ञ
फिर भी तुम कहे जाते हो हिंसक
नटो
तुम्हारी बच्चियां ज़मीन से ज़्यादा वक़्त
आकाश में रहती हैं
एक लम्बे बोल्ट के सिरे पर नट की तरह अटकी
जिस बोल्ट का दूसरा सिरा धंसा रहता है तुम्हारी आंतो में
नटो..
कहते हैं कि नटराज भी आकाश में रहता है
लेकिन वो कभी तुम्हारी बच्चियों से नहीं पूछता हाल चाल
वो अदृश्य केवल तमाशबीन है
जो सिक्के भी नहीं फेंकता
ना ही बजाता है ताली …शायद वो मुस्कुराता होगा कुटिल कि बांस के डंडे पर टंगी हुई बच्ची तांडव नही कर पायेगी …शायद वो हंसता होगा गर्वित कि धरती पर उसकी विजय की पताका की तरह तुम्हारी बिटिया लहरा रही है
बहेलियो
तुम्हारी मेहनत से पकड़ी गई सलामत चिड़िया
किसके पिंजड़े में मरेगी …कोई नही पूछता
कोई नहीं पूछता…कि तुम हो किसके पिंजड़े में
बहेलियो …हिंसा के पैमाने की तीखी सुई तुम्हारी आँख में क्यों घंसी हुई है …जबकि पलड़ा तो दूसरी ओर चिपका है ज़मीन पर …
क्या दुनिया है ये
कि हिरणों का शिकारी कहलाता है पुरुषोत्तम …हो जाता है ईश्वर
और तुम ज़िंदा चिड़िया पकड़ने पर हिंसक हो जाते हो
जबकि चिड़िया पकड़ना तुम्हारा अपना चुनाव नहीं कभी नहीं था
मदारियो
अब भालू बन्दर नही नचा पाओगे
वन विभाग वाले तुम्हे तस्कर बता देंगे
तुम्हारे करतब अब बासी लग रहे हैं लोगों को
मैं कहूंगा ये तुम्हारे लिए अच्छा है
असल मे तमाशबीन ही बासी हो रहे हैं
उनकी आँखे चमत्कार के क़ाबिल नहीं रहीं
एक जादू होने वाला है …
जानता है दिल तुम्हारा कि तुम्हारे लिए कुछ अच्छा होने वाला है
भाँडो
तुम्हारी सबसे ऊंची तान भी
तुम्हें आचार्य जैसा ऊंचा नहीं बना पायी
इसलिए तो सूर्यकांत त्रिपाठी बोला
‘मैं आचार्य हूं भांड नहीं’
तुम निराले तो हो
लेकिन त्रिपाठी नहीं बन पाओगे
और तय है कि एक दिन तुम इस बात पर बेहद खुश हो जाओगे
छलियो
तुम इस दुनिया के सबसे ज़्यादा छले गए
लोगों में से हो
तुम्हारी तलवारें..
ये तलवारें भोथरी जिनके सहारे नाचते हो …ये तुम्हारे शरीरों के इतने क़रीब क्यों है
ये क्यों नहीं लहरातीं है तुम्हारी तरह कभी
ये तुम्हारी आत्मा के अलावा किसी चीज़ को नहीं काटतीं
छलियो चेतना को उसका नृत्य लौटा दो
और तलवारों को उनकी भूमिका
कसाईयो
तुम हमें भोजन देते हो
लेकिन किसानों की तरह तुम्हारा कोई शुक्रगुज़ार नहीं
जबकि कोई अंतर नहीं है
किसान की दराती और तुम्हारे चाकू में
तुम इंसान हो मेरे भाई
बिलकुल मेरे जैसे इंसान
मेरा प्यार देना अपने बच्चे को
चांडालो
अगर तुम जलाने वालों में न होकर
दफ़नाने वालों में होते
तो गाली नहीं होते
मिट्टी में जज़्ब होती लाशों में पनपते कीड़े
तुम्हें शुक्रिया कहते
मैं तुम्हें यही कहूँगा
कि अब मुर्दे जलाना बन्द करो
बहुत और चीज़ें जलानी हैं
ऐसी बंजर चीज़ें जिनमें कीड़े भी नहीं पनपते
जल्लादो
मृत्युदंड के विधान वाला मुल्क हिंसक नहीं कहा जाता
भागते ‘आरोपी’ के सीने में नजदीक से
आठ गोलियां दागने वाली पुलिस हिंसक नहीं
बातचीत के लिए बुलाये गये विद्रोही को भूनने वाला राज्य हिंसक नहीं
मौत लिखने वाला जज हिंसक नहीं
बस तुम हो हिंसक
राज्य धर्म समाज परिवार सभ्यता संस्कृति के समस्त पाप तुम्हारे सर डाल दिये गए हैं
और तुम्हारे इंसान को दिया गया है मृत्युदंड
सुना है इसी दुनिया के कुछ टापुओं में जल्लाद एनेस्थेसिया एक्सपर्ट होते हैं वो हिंसक नहीं कहलाते …और हाँ वो जल्लाद भी नही कहलाते
जल्लादो…
अपनी हत्या के ख़िलाफ़ खड़े हो जाओ
जल्लादो …
अपने और सबके मृत्युदंड के ख़िलाफ़ खड़े हो जाओ
सपेरो ..नटो… बहेलियो
सीधी.. सरल ..पहेलियो
मदारियो ..भांडो ..छलियो
फूल न बन सकी ..कलियो
कसाईयो …मेरे भाईयो
चांडालो … जल्लादो
सुनो इंसानी औलादो
तुम न तो हिंसक हो
और न ही नीच हो
तुम एक ग़लत दुनिया मे
ग़लत लोगों के बीच हो
तुम और मैं अछूत हैं
हम ग़लत दुनिया का सबूत हैं
सबूतो इकट्ठा हो जाओ
अछूतो इकट्ठा हो जाओ
एक दूसरे को छुओ
पहले एक दूसरे को जानो
करतब तान तलवार आग की
असल आग पहचानो
असल धार इंसानी है
असल आग इंसानी है
जाननी है माननी है बात
उसके बाद मनवानी है
जो हमे कहे
है हिंसक वो ही
हम हैं जागृत
हम विद्रोही
कवियों बिंबों की मनमानी
ध्वस्त करेंगे हमने ठानी
इंसानी आंखों का पानी
आग भरी आंखें इंसानी
हिंसक हमको ठहराये जो
हर उस किताब को भस्म करेंगे
हिंसक इस दुनिया की हिंसा
हम अछूत ही ख़त्म करेंगे
हिंसक इस दुनिया की हिंसा
हम अछूत ही ख़त्म करेंगे…
6. कहो
कहो कि
कहना ज़रूरी है
कहना बाध्यता है
और यह बाध्यता एक चुनाव है
कहो कि
हमने कहना चुना है
हमने झींगुर कोयल या मेढक की
तुलना में कोई चमत्कार नहीं किया है
कहो कि कहना हमारी मजबूर प्रकृति है
क्योकि हमने सरलता को निम्न कह दिया है
कहो
कि केवल कहने से ही
हम फिर सरल हो पाएंगे
कहो कि जो हमारी भाषा में नहीं कहते अपनी बात
उन्हें निम्न कहना हमारी ग़लती है
कहो
कि बुद्ध ठीक कहता है
कि हम मौन और शोर के स्थिर तटों से नहीं चिल्लायेंगे
कहो कि हम बातों की नदी में तैरेंगे
बीच के रास्ते की नदी में
कहो कि बीच के रास्ते का मतलब
सिर्फ़ वो नहीं है जो पाश कहता है
कहो कि
‘कॉमरेड से बातचीत’ में
पाश बीच के रास्ते में है
कहो
कि न कहने से
न कह पाने से
न कहने देने से हुए इंसानी नुकसान की भरपाई
कभी नहीं हो सकती…
दुनिया नहीं रह पाई है रहने लायक
क्योंकि मार दी गई हैं बातें सारी कहने लायक
लिपियों से पहले की सारी बातें
जो कही जानी थी
अगर कह दी गयी होतीं
तो गुलाम होती नहीं भाषाएँ
कहो कि ये कहने का अवसर फिर आया है
हम्मूराबी से
‘तुझे हमारे कानून बनाने का अधिकार नहीं’
कहो कि ये घोषणा चट्टान पर नहीं आकाश दर्ज होगी
कहो कि चुप्पी
हाइड्रोजन बम का फॉर्मूला है
चुप्पी ग्लेशियर पिघला रही है
चुप्पी देशों और साम्राज्यों का कारखाना है
कहो कि
चुप्पी नाज़ी चिमनियों से धुआं बन कर उड़ती है
और पूरी दुनिया मे बेआवाज़ पसर जाती है
कहो कि चुप्पी भाषाओं में बदल गई है
कहो कि चुप्पी हमारे कानों में पिघल गई है
कहो कि चुप्पी
हमारे शरीरों पर हर समय जकड़ी हुई जंजीरों में ढल गई है
कहो कि हमारी चुप्पी आई एम एफ़ का करार बन गई है
कहो कि हमारी चुप्पी इतिहास में हुए पहले क़त्ल का चश्मदीद है
कहो कि चुप्पी ने अपनी जान बचाकर
हत्याओं को ही बना दिया है विधि संहिता
कहो कि
अच्छी बात है कि इतिहास में कहने के अवसर
कभी नहीं मरते
कहो कि लाशों की बातें भी कही जा सकती हैं
कहो कि लाशों के कहने का अधिकार ही
ज़िंदा लोगों का असली कर्तव्य होता है
कहो कि
अभिव्यक्ति……
स्वतंत्रता की तरह औपचारिक नहीं
सांस की तरह आदिम है
कहो
कहो
वो बात
जो पिता ने कान में कही थी
बुदबुदा कर
तुम उसे कहो इतनी ताक़त से
कि वो सितारों के पार
सुनाई दे पिता को…
कहो
कहो कि कहना
एक चुनी हुई बाध्यता है…
कहो कि कहने से
केवल कहने से
फ़र्क़ पड़ता है
चुप्पी की ताक़त भी
केवल चुप्पी से नहीं
चुप्पी के बारे में कुछ कहने से पता चलती है
कहो
कि संस्कृतियों की मौत पर…
मौन नहीं होगा
गीत होंगे…
कहो
कि कहने से हवा के कण काँपते हैं
धड़कन की तरह… सांस के साथ
कहने से ज़ाहिर होता है
ज़िंदगी का नृत्य
चेतना का दायित्व…
कहो
कि लाचार हैं
बंदी भाषाएँ जो बन चुकी हैं जेल
कहो कि
कुछ भी कहना
नाकाफ़ी है…
कहो
कि…फूल… दिल…अंगूठे.. हाथ… ताली… इमोजी… नहीं ले पायेंगे
आवाज़ की जगह..
कहो
कहो कि सब कुछ…
जो कहा जा चुका है
उसे कहते जाना है
जब तक वो भाषाओं की क़ैद से
मुक्त ना हो जाए
जब तक शब्द…
आवाज़ पर सवार होकर
बहता हुआ रक्त ना हो जांय
जब तक चेतना की ध्वनियाँ
धड़कनो में ना बदल जांय
तब तक कहते रहो….
कहो…
कहो कि नीत्शे ने मालिक की मार से टूट चुके घोड़े से कहा था
‘मैं तुम्हें समझता हूँ ‘
फिर टूट गया था नीत्शे भी
कहो ऐसे कि सारे शब्द तुम्हारे अंतिम हों… और उसके बाद आवाज़ ही ना हो
कहो
ऐसे कि तुम्हारे अंतिम शब्द
टूट रहे लोगों के लिये हों..
कहो कि हम बातों और पीड़ाओ के कविता बन जाने का इंतजार नहीं करेंगे
हम कहेंगे जीवित दंश की प्राकृतिक और मारक भाषा
तुरंत तीव्र त्वरित और असरदार
ज़हर की तरह
कहो कि हमे महान साहित्य नहीं
अचूक हथियार रचने हैं
कहो
कहने से कह पाने से कहने देने से
टूट सकती है दोस्ती
कहो कि
कहने से
मज़बूत हो जाते हैं दोस्त
कहो कि
कहने से अस्तित्व की बूंदे
खास आवृतियों में नाचती हैं
जिनकी भंगिमाओं के स्थायी चित्र केवल दिमागों में नहीं
अंतरिक्ष में अंकित हो जाते हैं
कहो कि
पुनर्जन्म मुमकिन है
वो आत्मा या ईश्वर के रास्ते नहीं
कही गई बातों के गर्भ से पैदा होता है
कहो कि
कहना ही निषेचन है
कहने में ही वीर्य और रज की पवित्रता है
बातों से अधिक उर्वर कुछ नहीं है
हर कही गई बात में घनीभूत होती हैं
सारी मरी हुई पीढ़ियाँ
हर कही गई बात से निकलती हैं
भविष्य की सारी नस्लें
कहो कि
कहना
जो इंसानों के लिए बाध्यता है
वो एक चुनी हुई बाध्यता है
कहो कि
अभिव्यक्ति……
स्वतंत्रता की तरह औपचारिक नहीं
सांस की तरह आदिम है
कहो कि कहना ही जीवन है
कहो
मौन का चुनाव
कोई चुनाव नहीं होता
वो मौत का चुनाव है…
7. श्रम और सौंदर्य
एक आवाज़ आ रही है
ठक ठक… ठक ठक… ठक ठक
मत थक….. मत थक… मत थक
नाद है… ताल है
आवृत्ति है.. लय है
संगीत है..
नृत्य है इसमें
काठफोड़वा पक्षी गर्दन हिला कर नाच रहा है
हर चोट के साथ पेड़ उसे लौटा रहा है स्पन्दन
जिसके गहरे अर्थ उसके छोटे से दिखने वाले सर में धंस रहे हैं
जैसे गैलेक्सियां धंसती हैं एक दूसरे में
उड़ेलती हैं जीवन
कठफोड़वा पक्षी भोजन ढूंढ रहा है
अपना भोजन
ख़ुद का भोजन
एक घर भी बन रहा है वहाँ
सुन्दर घर
अपने लिये किया गया श्रम
दुनिया को फैलाता है
जगहें बनाता है
नई जगहें
अपने लिये किये गये श्रम के निशान भी
बनते हैं नये लोगों की पनाह
यही है श्रम का सौंदर्य
अपने श्रम का सौंदर्य
अपने लिये श्रम का सौंदर्य
ढोली छलिया और मिरासी*
इस पहाड़ के मूल निवासी
हलिया बाजगी और लुहार*
हुडक्या बादी और कहार*
औजी जगरिया पल्लेदार*
भूल भगरिया और पतार*
तू मंचो में और थीसिस में
नहीं किसी भी ऑफिस में
हर झांकी में नुमाईश में
पर घृणित रहा पैदाईश में
सुन ले शिल्पी
सुन ले ओड़
पुश्तैनी कामों को छोड़
सौंदर्य नहीं है ये है कोढ़
जो बहलाये वो…
वो मुँह तोड़… सच में तोड़… एकदम तोड़
उनका उल्लास उन्ही का शोक
उनकी संस्कृति उन्हीं का लोक
उनकी हर फरमाईश टोक
जो लोक कहें तू उनको रोक*
ढोल जला दे तू नहीं ढोली
टोले अब बन जाएं टोली
हुडक्या बोल की भूल जा बोली
बंदूक वक्त है तू बन गोली
क़ब्ज़ा* किए पहाड़ वो आकर
तेरे पुरखे बंदी चाकर
खुश है तू बेगार कमाकर
कुछ तो अपना कर्ज़ अदाकर
उनके सेरे* उनके आगर*
वो गांव छोड़के हो गए नागर
कब तक गाएगा तू जागर*
निकल कुंए से बन जा सागर
हाथों में तेरे किताब उठेगी
चेहरे से कहीं नक़ाब हटेगी
परख नहीं है जाँच नहीं
आंफर* में तेरे आंच नहीं
तलवारों से लड़ना सीख
तलवारों संग नाच नहीं
सच से जब वाबस्ता होगा
सड़क भी होगी रस्ता होगा*
छलियों के दल* छले गये हैं
अब छलियों का दस्ता होगा
जो मंदिर में पोथी बांचे
अब वो छलिया बनकर नाचे
बामण अब बोले भगनोल*
खसिया* गाये हुड़क्या बोल*
तेरा दिल जब आंफर*होगा
देखने लायक मंजर होगा
तेरा अपना पत्थर होगा
मंदिर ना होगा वो घर होगा
जो भीतर है
वो बाहर होगा
जो है बाहर
वो अंदर होगा
इस पहाड़ को
उलट के रख दे
तेरा वो श्रम सुन्दर होगा
जो बीत गया
जाने दे बीत
उस देहलीज़ पे*
मत गा गीत
तोड़ दे रीत
छोड़ अतीत
अपना श्रम
अपना संगीत
गीत नहीं दहाड़ चाहिये
सबका हो पहाड़ चाहिए
एक सदी होने को आयी
अब तो यहाँ महाड़* चाहिए
माज़ी छोड़ तू मांझी*बन
सुन्दर श्रम का साझी बन
पेड़ को चुन कठफोड़वा बन
पैंथर*हो जा बनढड़वा* बन
——-
1- पहले पांच * पहाड़ की दलित जातियों के नाम
2- लोक संस्कृति के संरक्षण के नाम पर चलाए जा रहे दोषपूर्ण विमर्श में दलितों के जाति निर्योग्यता आधारित वंशानुगत अपमानजनक पेशों को बनाए रखने का लगभग आम सहमति वाला साजिशाना काम
3- पुष्ट ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक़ अपरकास्ट शासक जातियां शंकराचार्य के आने के बाद कत्यूरीऔर चंद शासनकाल में पहाड़ में आई हैं और उनके साथ ही जाति व्यवस्था का वर्तमान रूप विकसित हुआ है
4*सेरे-
पहाड़ की नदी घाटियों के किनारे की सबसे उपजाऊ भूमि के टुकड़े जिन पर दलितों की नगण्य बसासत या अधिकार है, हाँ अपर कास्ट के मिल्कियत माने गए इन खेतों में रोपाई लगाते समय दलित हुडकिया बोल के रूप मे बेगार स्वरूप गाना ज़रूर गा सकते हैं
5*आगर-
पहाड़ में ऐसे हिस्से जहाँ पत्थर के स्लेट (पाथर) की खानें पाई जाती हैं, जिससे पहाड़ी मकानों की छतें बनाई जाती हैं, इन पत्थरों को निकालने का काम ऐतिहासिक रूप से पहाड़ का आगरी दलित समुदाय करता रहा है, लेकिन खानों पर मालिकाना अधिकार उनका नहीं होता
6*जागर –
कुमाऊँ हिमालय के गाँवों में ‘लोक देवताओं’ की प्रशस्ति और गौरवगाथा वाले ग्रामसमाज के आयोजन कई बार सामूहिक और कई बार निजी हैसियत से आयोजित, जिनमें देवताओं का आह्वान
होता है.. जबरदस्त नाद के साथ..कुछ पहलुओं में जागर आर्य सभ्यता के अनुष्ठान यज्ञ से मिलता है , जागर की कहानियों को गौर से सुनने पर साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये कथित सरल लोक की बजाय एक पितृ सत्ता आधारित स्तरीकृत ब्राह्मण वर्चस्व आधारित समाज की स्थापना के बाद की आर्य प्रभाव की गाथाएँ हैं जो इंडो आर्यन पहाड़ी भाषा जो कि एक समय स्थानीय राज्य की शासन की भाषा भी रही है, में गाई जाती हैं… और अपवाद को छोड़कर केवल दलित मज़दूर ही इसे गाते हैं और इस आयोजन में ढोल बजाने का काम भी दलित ही करते हैं.. जब जागर आयोजित नहीं होती उस समय यही दलित कमोबेश बंधवा मज़दूर या हलिया का काम भी करता है…
7*आंफर- कुमाऊँ हिमालय के पहाड़ में दलित लुहार की लौह कृषि उपकरण तैयार करने की धौंकनी आधारित भट्टी जिसमें छलियों की तलवारें भी तैयार होती हैं
8* छलिया दल – पहाड़ में विवाह समारोह में भोथरी तलवारें और ढालें लहराकर रंग बिरंगे ‘सैन्य वस्त्र’ पहने हुए नृत्य करने वाले दलित मज़दूर पुरुष, छलिया नृत्य को पहाड़ी संस्कृति का प्रतीक बताये जाने का चलन है, जिस समय विवाह आयोजित नहीं होते छलिया दल के सदस्य बेगार करते हुए बदहाली में जीते हैं. . छलियों के नाम पर पहाड़ में समाज के साथ साथ बौद्धिक जगत में भी केवल छल है
9* कविता में सड़क और रास्ते का संदर्भ इसलिए है कि अधिकतर अवसरों पर पहाड़ में दलितों की बसासतों तक सड़क नहीं पहुँचने दी जाती है
10*भगनोल – वाद विवाद पर आधारित लोक गायन जिसे दलित गाते हैं
11* खसिया- अल्पाइन ओरिजिन की बताया गई खस जाति समूह , जिसने पहाड़ के मूल निवासी कोल मुंडा शबर आदिवासियों अथवा वर्तमान के दलितों के पूर्वजों को हराकर ‘खसदेश’ की स्थापना की, बाद में खस भी बहिरागत अपर कास्ट के हाथों पराजय का शिकार हुए और ब्रिटिश काल तक गृह दासों के रूप में खस स्त्री पुरुषों का व्यापार भी होता रहा वर्तमान में विशिष्ट सामाजिक गतिकी के चलते खस समुदाय का ब्राह्मणीकरण हो चुका है और खस स्वयं को राजपूत के रूप में देखते हैं हालांकि खसिया शब्द अपमानजनक माना जाता है, और यह भी गौरतलब है कि मनुस्मृति से लेकर रामचरितमानस तक ब्राह्मण ग्रंथों में खस को शूद्र ही माना गया है, परंतु दलितों के साथ छुआछूत व जाति भेदभाव खस समुदाय के सदस्यों द्वारा भी किया जाता रहा है
12*हुड़क्या बोल -खेत में श्रम करती महिलाओं का हौंसला बढ़ाने के लिये दलित हुड़क्या द्वारा किया गया गायन
13* दहलीज पर गीत गाने का संदर्भ अपर कास्ट के घर के बाहर चैत की ऋतु गाने वाली उन दलित स्त्रियों से जुड़ता है, जिसकी एवज में उन्हें अनाज इत्यादि का मामूली भुगतान किया जाता है
14 महाड़*- अंबेडकर के नेतृत्व में 1927 में महाराष्ट्र के महाड़ में चवदार सार्वजनिक तालाब के पानी के लिए हुआ दलित आंदोलन
15 मांझी – दशरथ मांझी, बिहार के दलित श्रमिक जिन्होंने अपने प्रेम के लिए अकेले ही दशकों तक चट्टान काटकर एक सार्वजनिक रास्ता तैयार किया
16* पैंथर- ब्लैक पैंथर / दलित पैंथर
17* बनढड़वा- कुमाऊँ हिमालय के पहाडों की खतरनाक जंगली बिल्ली / पैंथर के लिए इस्तेमाल
8. प्रेम
क्या बात करते हो…वीरेन डंगवाल !
प्रेम का निषेध करने वाले
हाथ धोने नहीं आते
बूचड़ खाने की नाली से बहते पानी में
वो हफ़्ते के किसी भी दिन
बूचड़ की दुकान पर आते हैं…
उठाते हैं मांस
मुर्गा… बकरा कुछ भी… पैसे नहीं देते
तुम क्या देखते हो वीरेन डंगवाल
प्रेम का निषेध करने वाले
ना तो बूचड़खाने की नाली देखते हैं
ना ही देखते हैं बूचड़ का चेहरा
वो देखते हैं
बूचड़ की दुकान खुली तो नहीं है
मंगलवार के दिन
वो आते हैं
बूचड़ के टपरे टिन के दरवाज़े पर लात मारते हैं
कटे बकरे को देखकर दहाड़ते हैं नफ़रत से
भो.. डी के मुल्ले
बहन.. द कटुवे
यहीं काट देंगे तुझे मादर… द
कसाई के हाथ मे बड़ा सा चाकू
उस वक़्त…
दुनिया की सबसे निरीह बेड़ी
दुनिया का सबसे बेकार औज़ार
काँपने लगता है…
आर्तनाद करता है कसाई का सबसे छोटा बच्चा
कसाई की बीवी दुआ बड़बड़ाती है
माहौल मे भय के साथ तैरता है प्रेम भी
प्रेम भय से ताक़तवर है
हम डरते हैं
क्योंकि हम प्रेम करते हैं
हो सकता है कि ये प्रेम
निषेध करने आये लोगों मे से किसी को कवि बना दे…
सुनो…वीरेन सुनो
मेरी बात से पहले
कसाई के बच्चे का आर्तनाद सुनो
कसाई की बीवी की दुआ सुनो
प्रेम सुनो वीरेन प्रेम
और जान लो कि
प्रेम का निषेध करने वाले
कभी प्रेम का निषेध कर नहीं पायेंगे…
(यह कविता हिंदी के प्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘दुश्चक्र में स्रष्टा ‘में प्रकाशित कविता ‘विद्वेष’ से और इस कविता के बिम्ब चित्रण से पूरी तरह असहमत होकर लिखी गई है .)
[वीरेन डंगवाल की कविता
•विद्वेष•
यह बूचड़खाने की नाली है.
इसी से होकर आते हैं नदी के जल में
ख़ून
चरबी, रोयें और लोथड़े.
प्रेम की सुंदरता का निषेध करनेवाले
इसी तट पर आते हैं
हाथ -पैर धोने.
-वीरेन डंगवाल]
9. लेकिन
दासों ने
विद्रोह किया
वो लड़े…….
वो हार गये
पकड़ लिये गये
उन्हें खम्बों पर लटकाया गया
वो धीरे धीरे मरे…
तो क्या विद्रोह असफल हो गया …???
नहीं…
विद्रोह और प्रेम…
कभी असफल नहीं होते
जिस समय
वो मर रहे थे
उस समय
वो दास नहीं रह गये थे…
10. मेरी पसंद की लड़की
(अरुंधति रॉय और राना अयूब के लिए)
तो आपको कैसी लड़कियां पसंद हैं
उसने पूछा बिना हिचकिचाये
मैंने कहा जिनके बाल हों घुँघराले
घूमते हों ऐसे जैसे घूमती हैं गैलेक्सियां …
अनंत की ओर बढ़ती हुई
जिनकी आँखें हों तीखी स्वायत्त गहरी
सजग बेखौफ़ और प्रेरणास्पद
जिनमे आप अपने अस्तित्व की समूची आग और चेतना का सारा पानी एक साथ देख सकते हों
जिन्हें देखते ही पहला शब्द कौधे ज़ेहन में ‘आज़ाद’
ऐसी लड़कियां जिनके अंतरिक्ष जैसे अस्तित्व से डरते हों इस छोटी सी दुनिया के क़ब्ज़ेदार ताक़तवर मर्द
मुझे पसंद हैं लड़कियां जिन्होंने ली
अपनी ज़िंदगी अपने हाथ
और इस तरह बताया कि यही है दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने का सबसे ख़ूबसूरत तरीक़ा
मुझे पसंद हैं बागी लड़कियां
मुझे पसंद हैं जागी लड़कियां
मुझे पसंद हैं लड़कियां
जो सवाल करती हों बिना हिचकिचाये
एक बेखौफ़ औरत की निगाह का सामना करना
इस पृथ्वी का सबसे मुश्किल काम है
जैसे मुश्किल है पैदा होना और मर जाना
एक बेदार औरत का सबसे सरल और स्वाभाविक सवाल
बुद्ध को असमंजस में डाल देता है
और तब वो पहली बार ओढ़ते हैं ध्यान रहित सजग मौन
स्वतंत्र और स्वायत्त औरतों की धरती को किसी ईश्वर या पैगंबर की ज़रूरत नहीं होगी
उनके बाल घुँघराले ना भी हों
तो भी मैं करूंगा स्वतंत्र और स्वायत्त औरतों का अनुगमन
जैसे चाँद करता है पृथ्वी का
जैसे पृथ्वी करती है सूर्य का
जैसे सूर्य घूमता है ब्लैकहोल के चारों ओर
जैसे सारे ब्लैकहोल घूमते हुए नाचते हुए खुलते हैं
दूसरी दुनियाओं में
और इस तरह सारी कायनात आगे बढ़ती है
एक अनंत ख़ूबसूरत और घुँघराले रास्ते पर…
11.
सुन रहे हो ???… मैं क्या कह रहा हूँ ???
तुम्हारी भाषा के सबसे पहले कवि ने मेरी माँ को वैश्या कहा है …
तुम्हारे सबसे प्रिय लोक कवि ने मेरे पुरखों को चींटी बताया…
तुम्हारे जनकवि ने मेरे लोगों के खिलाफ़ मोर्चे का नेतृत्व किया
तुम्हारे सबसे महान लेखक ने हमें कफ़नखोर ठहराया
तुम्हारा महात्मा भूखा मरने को तैयार हो गया … हमारे अस्तित्व के विरुद्ध …
तुम्हारे इतिहासकारों ने मेरे मानस पिता को अवैध संतान घोषित कर दिया
तुम्हारी संस्कृति की हर बात जो तुम्हें जान से प्यारी है…
वो मेरे लिए जान का खतरा है …
सुन रहे हो ???… मैं क्या कह रहा हूँ ???
तुम शायद ही जान पाओ कभी कि तुम्हारे इंसान बनने में अभी वक़्त है
तुम शायद ही समझ पाओ इस लगने वाले वक़्त के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी
और तुम्हें शायद ही मेरी कविता…
कविता जैसी लगे…
12. भूमिका
जानता हूँ …
ये मेरी ज़िंदगी में नहीं टूटेगा
लेकिन…
मैं अपने हिस्से की चोट करूँगा…
कवि मोहन मुक्त
मध्य हिमालय के गंगोलीहाट ( पिथौरागढ़) के रहवासी, विगत 15 वर्षों से पत्र पत्रिकाओं में वैचारिक लेखन, दो काव्य संग्रह ‘ हिमालय दलित है ‘ ( 2022) और ‘हम ख़त्म करेंगे’ (2024) प्रकाशित.
सम्पर्क: मोबाइल 9917161178
ईमेल: mohanmanu.arya@gmail.com
टिप्पणीकार केतन यादव
जन्म : 18 जून 2002
शिक्षा : बी. कॉम (2020) हिंदी से एम ए(2022) , वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध छात्र
कई पत्र पत्रिकाओं एवं वेब माध्यमों आदि पर कविताएँ प्रकाशित।
संपर्क – 208 , दिलेजाकपुर , निकट डॉ एस पी अग्रवाल, गोरखपुर -273001 उत्तर प्रदेश।
ईमेल – yadavketan61@gmail.com
मो . 8840450668