समकालीन जनमत
कविता

मनीष यादव की कविताएँ स्त्रियों के पक्ष में एक कवि का आर्तनाद हैं

आदित्य शुक्ल


मनीष यादव की कविताएँ भारतीय समाज में स्त्रियों के पक्ष को खोलती हुई जादू रचती हैं। ये कविताएँ स्त्रियों के पक्ष में मुनादी करती हैं, स्मृतियों में खोकर ढूंढ लाती हैं बहुत कुछ ऐसी यादें जहाँ तरह-तरह की स्त्रियाँ हैं, तरह-तरह की यातनाओं से गुजरती हुई। इन कविताओं में कोई हुंकार नहीं है एक मीठी उदासी है – एक कवि की दृष्टि – कुछ खोने का दुःख बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एक पुरुष कवि होते हुए कवि को स्त्रियों के पक्ष में इतनी करुणा के साथ खड़े होते देखना सुखद है। उनकी पहली कविता याद खोये हुए प्रेम की मार्मिक कविता है। इसमें खोये हुए प्रेम को कवि पुकारता तो है लेकिन उस स्त्री के अन्य यातनाओं से उसकी नज़र नहीं हटती| वह बड़ी करुणा से उसे पुकारता है लेकिन उसे खो देने का दुःख उसे एक खामोश सिसकी तक पहुँचा देती है|

दूसरी कविता में एक नव-विवाहिता विवाहोपरांत घर में प्रवेश कर रही है लेकिन ऐसे ही शृंगार के साथ वह कविता में भी प्रवेश करती है धीमे कदमों से, रंगों को छाप उतारते हुए। इस प्रवेश के साथ शुरू होती उसकी जिम्मेदारियाँ, परम्पराओं को अपने सिर पर उठाने की। नव विवाहिता दुखी है कि जो कुछ भी हो रहा है वह उसका विरोध नहीं कर सकती है और उसके पास दो ही विकल्प हैं – या तो सिर झुकाकर अपने भाग्य को स्वीकार कर लेने की या फिर परम्पराओं का मुखर विरोध करने की बिना इस बात की परवाह किए कि लोग उसके ऐसा करने पर उसे किन नामों, विशेषणों से पुकारेंगे।

जो स्त्रियाँ
अपने मन के विरुद्ध हो रहे निर्णयों का
विरोध नहीं कर पाती
या तो वह टूट कर एक नए साँचे में ढाल लेती हैं खुद को
या कर देती हैं विद्रोह
किसी दिन “कुलक्षणी” की उपाधी पाकर।

अगली कविता में गाँव की एक अदनी सी मास्टरनी कैसे गाँव के दूसरे लड़कियों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाती है, स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाती है इसका चित्रण किया है। कवि अपने निकटस्थ समाज को बड़ी बारीकी से देखता रहा है और उसके इन लगभग नजरअंदाज कर दिए गए मसलों को अपनी कविताओं में जगह दी है। एक मास्टरनी, जो कविता पढ़ती है और डायरी लिखती है – इस कल्पना (या यथार्थ) में ही कितनी मार्मिकता भरी हुई है। मास्टरनी यहाँ पर एक ख़ामोश प्रतिरोध का प्रतीक है। वह चुपचाप अपना काम करती है, शायद उसे भी नहीं मालूम वह अपने समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण काम कर रही है – एक दिन उसी की प्रेरणा से गाँव से निकलेगी कोई रुपाली पायलट!
सड़क से गुजरते हुए
तुम्हें ताकती है मेरी शादीशुदा सखियाँ
और फिर मैं बनती हूँ हर रोज “ पायलट रुपाली ”
उनके मज़ाक में

जानती हो मास्टरनी
तुम हमारे भरभराते स्वप्नों की एकमात्र चलचित्र हो!

हम चुनते हैं चावल से कंकड़
और पूछते हैं सवाल –

जो औरतें अपने पैसों से
अच्छे रेस्तरां में खाना खा सकती हों
उन्हें तो अपने पति से मार नहीं खानी पड़ती होगी?

आर्थिक स्वतंत्रता की ऐसी मार्मिक वकालत! इस कविता में जो सबसे ख़ास बात है, वह है एक पुरुष कवि का स्त्री मन के इतने करीब पहुँचकर उसका कविता में चित्रण। इन भावनाओं में कोई द्वैत नहीं है। लगने लगता है कवि ही उस यातना का भोगी है और हो भी क्यों न? क्या कवि का यह काम नहीं कि अपने निकटतम समाज की यातनाओं का उसके साथ एकमेव होकर चित्रण करे? ऐसे में मनीष अपनी कविताओं में भली-भांति सफ़ल हुए हैं|

अगली कविता में कवि दो पीढ़ी के भिन्न संघर्ष और उससे उपजे आपसी संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है| एक लड़की अपनी माँ से कहती है कि उसकी माँ उसका दुःख नहीं समझेगी| इस लड़की से कवि मनुहार करता है अपनी माँ के दुःख को समझने की और कहता है माएं अपनी बेटियों को जब विदा करती हैं और ख़ुद से अपना बचपन दुबारा विदा करती हैं। भावनात्मक स्तर पर तो यह कविता एक सच को दिखाने में सफ़ल है लेकिन पीढ़ियों के बीच द्वन्द के पीछे के क्रूर सामाजिक-आर्थिक हालातों की तह तक पहुँच सकने में असफल है। माएँ बहुत बार उस पितृसत्तात्मक समाज का मोहरा बनकर रह जाती हैं और उसी सामाजिक ताने बाने को समर्थन देने लगती हैं जो एक समय पर उनकी अपनी यातनाओं का कारण था| यूं भी दो पीढ़ियों के बीच का संघर्ष ऐसा मामला है जो अपने आप में कई महाख्यान समेटे हुए रहता है|

पाँचवी कविता जो व्यस्त हैं आजकल – एक बार फ़िर उन्हीं यातनाओं की ओर लौटती है| उन असफलताओं, उन भग्न स्वप्नों की ओर जो अंततः हमारे समाज की हकीकत हैं| जिस हकीकत ने न जाने कितने ही स्वप्नों और जीवन को रौंद दिया है| फ़िर स्त्रियों के श्रम का क्या? उन्हें उन अज़नबी घरों में कैसे लिया जाएगा जहाँ उन्हें उनकी बिना रजामंदी और जानकारी के ब्याह दिया जाएगा?
जो नौकरी को नौकर का काम समझते हैं
वह घर की औरतों के काम को क्या समझते होंगे?

और इस उधेड़बुन के साथ लड़की अपनी ससुराल चली जाती है – सिर्फ़ एक लड़की नहीं लड़कियों की पूरी फौज अपने सपनों को दफ़न करके चली जाती हैं ससुराल और उन्हें अपने घरों में भी जगह नहीं बचती – किसी दुर्घटना के बाद के तफ्तीश होती है कि आख़िरकार लड़की के साथ क्या हुआ? उसने ख़ुद ही ख़ुद को ख़त्म कर लिया या अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों ने उसका अंत किया – इसकी तफ्तीश जारी रहती है। शायद कोई जवाब न मिले या शायद जवाब हम सभी जानते हैं|

इन कविताओं में एक दुहराव जैसा भी है कि कवि एक ही बात की तह तक पहुँचने के लिए तरह-तरह से उसकी खोजबीन करता है| लेकिन इसमें को ख़ास बात है वह यह कि इनमें ख़ुद को स्त्रीवादी कहने का आग्रह नहीं है और एक नियत दृष्टि है स्त्री की यातनाओं पर। कवि इन यातनाओं को देख रहा है और भीतर ही भीतर उसका दिल तड़प रहा है जिसे वह बार-बार स्वर देता है। ऐसे समय में जब स्त्रियों के स्वर को पितृसत्तात्मक समाज हर तरह से दबाने का यत्न करता है, यहाँ तक कि सांस्कृतिक-साहित्यिक मंचों पर भी, ऐसे में एक कवि को इस कदर स्त्रियों के पक्ष में करुण होते देखना सुखद है, शायद यह एक नए युग, नई दृष्टि के आगमन की सूचना है कि अब पुरुष कवि भी स्त्रियों के पक्ष में रचना करेंगे ताकि उनकी सामाजिक स्थिति को बल मिले। इन कविताओं को पढ़कर गला भर्रा जाता है, आँखें नम हो आती हैं। यह देखना रहेगा कि ये आवाज़ कितनी दूर तक जाती है, कितने दिलों को गलाती है|

अगली कविता सुधारगृह की मालकिनें स्त्रियों के उन प्रेमियों को संबोधित हैं जिन्हें प्यार करना नहीं आता, जो पत्नियों पर नियंत्रण और हिंसा को अपना मूलभूत अधिकार समझते हैं। ऐसे प्रेमी और पति जो अपनी प्रेमिकाओं/पत्नियों को सुधारगृह की मालकिन ब्बनाकर छोड़ देते हैं, उनके जीवन का गला घोंटकर उनके अनाथ प्रेमी बने रहते हैं। इस तरह के विषय को एक मार्मिक कविता में ढाल देने की कला कवि की काव्यात्मक प्रतिभा का शानदार बयान हैं क्योंकि इस विषय से मैं ख़ुद परिचित होते हुए कभी भी इसे एक कविता के विषय के रूप में नहीं सोचा था| कवि की यही उपलब्धि है|
सहसा किसी कल्पना में
मेरी फूली देह को देख क्या सोचते हो – मगही भाषा की तुम्हारी गालियाँ
मेरे लिए कोई फायदेमंद कड़वी टॉनिक है?

साज़िश को भाग्य की लकीर मान बैठी, रही से दाल घोंटती वे हम जैसी औरतें
सुधारगृह की मालकीनें थी
जिनके हिस्से आया एक अनाथ प्रेमी।

ऐसे ही कविता अकुलाहट के दिन में कवि एक बार फ़िर अपने आस पास के समाज में हो रही दुर्घटनाओं को अपने कथ्य का विषय बनाती है। ख़ास बात यह भी है कि मनीष ने अपनी कविताओं में स्थानीय मुहावरों और गीतों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है। यह कवि की सांस्कृतिक जागरूकता ही है|

कविता बोलती हुई स्त्रियाँ में उन स्त्रियों की यातनाओं को टटोलती है जो अपनी सभी आकांक्षाओं और सीमाओं को अपने व्यक्तिगत जगह में खोलती हैं इस उम्मीद में एक दिन यह समय जरूर बदलेगा और जीवन सुखद होगा लेकिन ऐसा होता नहीं, ऐसा होने की संभावना कम है और जब वे बोलना शुरू करती हैं तो उन्हें हर तरह से चुप कराया जाता है, उन्हें या तो पागल या मनोरोगी करार दिया जाता है।
इन कविताओं से गुजरते हुए समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति का ऐसा मर्मान्तक चित्रण देखने को मिलता है कि पढ़कर मन कुछ समय के लिए सुन्न हो जाए। एक पुरुष कवि का इतना संवेदनशील कविताई करना कविता प्रेमियों के लिए बहुत उत्साहजनक है। मनीष को इन शानदार कविताओं के लिए बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ

 

मनीष यादव की कविताएँ

1. याद

क्योंकि एक बोझ ख़त्म हो चुका
और मैं दूर पहुँच गया

दोस्त – क्या सालों बाद
याद आते हैं लोग?

जिनसे कभी मिलना न हो पाया संभव
उन दोस्तों का क्या हुआ
मैने कभी नहीं सोचा

एक फूल के गुम होने पर उदास बैठा!
पर ढूँढ नहीं पाया तुमको
और जब सामने रही – बिल्कुल वैसी नहीं थी तुम

अब जब कहीं बहुत खुश होता हूँ तो
याद आते हैं वह सारे दोस्त
जिनमें तुम सबसे पीछे आती
कितने दिनों तक वापस न जाने के लिए

बिछड़े हुए लोग
नींद की तरह लौटते गए मेरी देह में
और तुम मेरी देह की बगल बैठी रही सिरहाने
याद बनकर

और मैंने प्रेम किया बहुतों से
और सोचा की कितनी छोटी बात है –
न लौटना!

और अब लौटा हूँ तो देखो
सभी हैं – तुम नहीं कहीं

तुम गयी और सारे फूल चुरा ले गई
कितनी बुरी हो तुम
मुझे रंग दिखाई नहीं देते
गंध नहीं जान पाता

और दु:ख!
आता है तो लगता है जैसे तुम आई हो।

 

2.

एड़ी को अँगूठे से सटाते
टोकरी में छोटे-छोटे कदमों से आगे बढ़ते हुए
हुआ है उसका प्रवेश

गाढ़े कत्थयी लाल रंग में
हाथों को डुबोकर, देवता घर के बाहर
दिए हैं उसने अपने हथेलियों के छाप!

जैसा सहेलियों ने बताया था
सुनाई देने लगी है‌
कोहबर के गीतों की ध्वनि

दीये को लेकर घर में चारों तरफ
सांझ दिखाती सास
अब अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने वाली है

रात्रि के आहट से भय खाती हुई वो स्त्री
मिथ्या के कौन से कोर को पकड़े कुछ कहे

वह झुंझला नहीं पा रही
वह दौड़ नहीं पा रही
वह अपना माथा भी नहीं पीट सकती
अपने भाग्य पर रोने का अवसर नहीं उसके पास

जैसे बर्फ की नई चादर चढ़ गई हो देह पर
उसी तरह सुन्न हो गयी है वो!

अगले दिन की मुंह दिखाई के रस्म के बाद
उसे थोपा गया एक नया जीवन दिखने लगा है.

वह सब कुछ नहीं निहारती
एक ही प्रश्न किए जा रही है खुद से –

नए अपनों के बीच
उससे घुल मिल जाने का प्रयास करते लोगों के बीच
वह अपने प्रिय स्वप्नों को भूल जाने का कौन सा मुहूर्त तय करे?

जो स्त्रियाँ
अपने मन के विरुद्ध हो रहे निर्णयों का
विरोध नहीं कर पाती
या तो वह टूट कर एक नए साँचे में ढाल लेती हैं खुद को
या कर देती हैं विद्रोह
किसी दिन “कुलक्षणी” की उपाधी पाकर।

 

3. ओ मास्टरनी

ओ मास्टरनी!
डाह से नहीं ताकती है तुम्हें नित दिन
हमारी कातर दृष्टी

वो खोजती हैं तुम्हारी दर्ज़ उपस्थिति
वह देखती हैं
घर से विस्थापित कमाती हुई औरतें

सोचती हैं वो – कँधे से लटकते तुम्हारे बैग में
निश्चित ही छुपाए हुए हैं कई सारे पंख

सड़क से गुजरते हुए
तुम्हें ताकती है मेरी शादीशुदा सखियाँ
और फिर मैं बनती हूँ हर रोज “ पायलट रुपाली ”
उनके मज़ाक में

जानती हो मास्टरनी
तुम हमारे भरभराते स्वप्नों की एकमात्र चलचित्र हो!

हम चुनते हैं चावल से कंकड़
और पूछते हैं सवाल –

जो औरतें अपने पैसों से
अच्छे रेस्तरां में खाना खा सकती हों
उन्हें तो अपने पति से मार नहीं खानी पड़ती होगी?

जब तपता होगा तुम्हारा माथा
आती होगी भीतर से कोई चीख
क्या रोती होगी तुम भी अपनी माई से बतियाते?

जितनी असभ्य है हमारी उदासी
वैसे ही उदास दिनों में
क्या बेचैनी से थरथराते हैं तुम्हारे भी पाँव?

मास्टरनी हमें माफ़ करना
कल मिली थी तुम्हारी भूली डायरी
हमने पढ़ लिए उसके कुछ पन्ने

तुम सच कहती हो — कविता हमें अपने मन को
धीमे-धीमे उधेड़ना सिखलाती है!

हम स्त्रियों ने अपनी पीड़ा को
इतनी सहजता से स्वीकार करना सीख लिया
जैसे स्वयँ के देह एवं मन पर हुआ कोई जुर्म दिनचर्या का हिस्सा हो

परंतु मन का घाव
मेंहदी लगाते हुए कपड़े पर लगा कोई कत्थई लाल धब्बा नहीं है
जो धोने से साफ हो जाए

जब तक बहेगा रक्त शिराओं में
बारंबार उठेगी घाव की टीस
बिना किसी पुरवइया बयार के।

 

4.

कवि ने लिखा है
बेटी एक उम्र के बाद माँ सी हो जाती है
प्रेम बांटने वाली
सबकी चिंता करने वाली
और खुद के प्रति मौन

मगर मैं
कविताई के ढोंग से परे होकर
सचमुच लिखना चाहता हूँ कि —

सुनो लड़की
वह माँ तुम्हारी तरह स्कूल जाते हुये
खुद को देखती है तुम में

कभी दो चोटी बाँधे हुये
अपनी किसी बचपन की सहेली के
हाथों में हाथ डाले

कभी किसी छोटे भाई को चिढ़ाते हुये.

या फिर कभी
किसी सफेद और नीले चेक शर्ट वाले
लड़के से खुद की नजरें चुराते हुये

लेकिन जब माँ को
इतनी आसानी से कह देती हो –
तुम नहीं समझोगी दु:ख हमारा!

उस समय निश्चित ही
तुम्हें सोचना चाहिये कि
माँ की भी कोई प्रेम कहानी जरूर रही होगी

अंततः मैं यह चाहता हूँ
कि हर उस माँ की तरफ से
तुम महसूस करो –

बेटी की शादी के बाद विदाई के समय
एक माँ अपनी बेटी के साथ-साथ
खुद के बचपने को भी
दूसरी बार विदा कर रही होती है।‌

 

5. जो व्यस्त है आजकल

धान के ओसौनी से भरे जिस माथे में ललक थी कभी अफसर बनने की
वह व्यस्त है आजकल
भात और मन दोनों को सीझाने में!

उसने तो नहीं कहा था — बावन बीघा वाले से ब्याह दिया जाए उसे.
जहाँ उसका महारानी बनना तय हो

सकपका जाती है
नहीं पूछती है
किंतु एक सवाल जो आत्मा की तह से उठ रही –

जो नौकरी को नौकर का काम समझते हैं
वह घर की औरतों के काम को क्या समझते होंगे?

आलते से गोर (पैर) को रंगती है
कमर में खोंसती है साड़ी का कोर
धम-धम महकती,
रही से घोंट कर बनाती है साग लाज़वाब

वो जिसे कभी जिले की अशिक्षित महिलाओं के रोजगार का
रोडमैप बनाना था!

बुदबुदाती है वो –

“सब जानती थी माँ
माँ को पिता ने समझाया ‌
माँ ने उसे बहलाया, फुसलाया और भरोसा दिलाया

नहीं दीखती है अब कोई राह और नहीं मिलती है नईहर में जाने पर मिट्टी की वो कोठी
जिसमें छुपा दिए गए हैं उसके सारे बुने स्वप्न। ”

पुन:, कोई पुकार आती है
ध्यान बँटता है
और उससे पूर्व आता है एक वाक्य — धत पागल हो क्या!

आत्मा के मध्य धीमी जलती आँच
किसी दिन जरूर विद्रोह करेगी और लड़ेगी अपने “ मैं ” के लिए।

तबतक देश के किसी और कोने की
अख़बार में आई एक खबर पढ़ रहा हूँ —

कहीं छिटकली लगी है
औरत के गले की नस चटक गई है

रस्सी से या लात से? अभी तफ्तीश जारी है।

 

6. एग्रीमेंट

धप्पा के जैसे अचानक
उसके जीवन में हो गई ब्याह की संधि

वह कौन है जो कहता है —
लड़की जितना पढ़ेगी
उतना खर्च बढ़ेगा ब्याह में करने को!

उसकी अम्मा का पैमाना कहता –
लड़की को हमेशा अपने से ऊंचे ओहदे के परिवार में विदा करना चाहिए
इस भय से उसने अपनी लड़की का ओहदा कमत्तर ही रखा

यह बात नयी न होते हुए भी कितनी नयी है कि
माथे का बोझ बता उस लड़की को
आठवीं कक्षा के चौदहवें वसंत के पश्चात ब्याह दिया गया
विलायती मजदूर के साथ

हर बरस उसे देखते हुए मैं सोचता हूँ —
औसत होते हुए भी
कितना कठिन है उसका जीवन

हर बरस पति के दो महीने के आगमन पर
करती है ससुराल को प्रस्थान
गले से निगलती है जबरदस्ती का कौर

पति कहता है —
दूर देश साथ ले जाने पर बिगड़ जाती हैं पत्नियाँ

इसलिए लौट आती है अपने घर वापस
पुन: फसल बोती है ,और काटती भी
वैसे ही जैसे
पिछले पाँच सालों में वो जन चुकी है चार बच्चे।

मैं पूछना चाहता हूँ कि
ये कैसा एग्रीमेंट है
जो उसकी रीढ़ को
पेट से बाहर निकालने को आतुर है।

 

7. शेफ़ाली के लिए

जब हुआ तुम्हारा जन्म
किस जयेष्ठ के खिले थे भाग्य!

जैसे खिल जाते हैं मेरे बगीचे,
आम के सारे नये पत्ते इसी जेठ में

तुम्हें निहारते हुए मैं बधिर हो जाता हूँ
और सोचता हूँ –
क्या तुम अभिनय के अलावा भी
आँखों से संवाद करती हो?

अज्ञात कितने प्राणों के उदास दिनों की
सबसे सुंदर हासिल हो तुम!

लैपटॉप की स्क्रीन पर तुम्हें देखते हुए
मैं वो बच्चा हो जाता हूँ
जिसने “ट्यूलिप” को पहली बार देखा और प्रेम में पड़ गया

निश्चित ही अगर मैं कोई कवि होता
तब अपनी सबसे सुंदर प्रेम कविता तुम्हारे लिए लिखता
किंतु अभी मैं एक गांव में बैठा दर्शक मात्र हूँ

जानती हो शेफाली
तुम्हारी फिल्मों से इतर
यहाँ और भी बहुत कुछ चलता है

कुछ औरतें हैं – बूढ़े समय की दादियाँ,
ढलती उम्र की चाचीयाँ,
भरी जवानी में बन बैठी अभागिन भाभीयाँ

शुभ समय में
इनकी देह पर अशुभ रेंगने लगता है!
ईश्वर रूष्ठ न हों इसलिए
देवता-पितरों को भोग चढ़ाने से मनाही है

प्रिय!
मैं तुमसे अगर मिलूँ
मेरी एक विनती स्वीकार‌ना
कह देना मेरी मेघा से
अपनी आवाज़ में एक झूठ

एक स्क्रिप्ट पढ़ी है तुमने
जिसमें कोई डायलॉग है‌ — पति कोई दाल भात का कौर नहीं होता,
जिसे पत्नी शादी के दूसरे दिन खा‌ जाए।

 

8. बतीसवें बरस की लड़की 

गीत सुना होगा —
अँखिया के पुतरी हईं ,
बाबा के दुलारी
माई कहे जान हऊ तू मोर हो.

ज्ञात हो तो बताइएगा
लड़की देखने जाने वालों के नेत्र में
कौन सा दर्पण होता है?

शिक्षा और गुण-अवगुण से पहले
रूप का सुडौलापन और रंग क्या सुनिश्चित करता है?

पिता ने तो पाई-पाई जोड़ कर पढ़ाया होगा
बिटिया को वैसे ग्रामीण परिवेश में!
सोचते होंगे किसी तरह कोई अच्छा घर परिवार मिल जाए
बिटिया के ब्याह के लिए.

शाम को खाना बनाते समय
रोज की दिनचर्या की भाँति पड़ोस की काकी पहुंच ही तो जाती है घर!
पिता तब रोटी का निवाला निगले
या उसे कहते हुए सुने –

“ बत्तीस के हो गईल लड़िकिया हो रामा, न जाने कईसे होखी बियहवा ई छौड़ी के!
सहसा रुकती और पुन: कहती – भगवान पार लगईहें। ”

पिता का मन कितना कौंध उठता होगा
अपनी डबडबायी आँखों को रोकते हुए
हर बार एक ही उत्तर देते हुए –

“ रंग ही तो तनिक मधिम (साँवला) बा नु काकी,
बाकि कौना गुण के कमी बा बिटिया में ”

ह्रदय के जल चुके कौन से कोने की राख़ को
अपनी पीड़ा पर मले है वो लड़की!
उसके भाग्य में तो रोने के लिए ख़ुद का बंद द्वार वाला
एक कमरा भी न था।

देह या आत्मा दु:ख में कितना भी पसीझे!
बाग में उसके लगाये शीशम के पेड़ की तरह
उस बुद्धू लड़की की उम्मीदें भी अब सूख रही थीं

पिता किसी शुभ दिन आँगन में खाट पर बैठ
पंडित जी के बताए कुंडली में दोष को
विस्थापित करने का उपाय ढूँढते रहे..!

उसी शुभ दिन माघी पूर्णिमा को
गंगा स्नान करने गई वह लड़की नहीं लौटती है घर

संभवत: कुछ गोते !
जीवन की तैराकी से
दूर भागने के लिए लगा दिये जाते हैं।

 

9. बोलती हुई स्त्रियाँ 

बोलती हुई स्त्रियाँ
समाज के कौन से भाग के लिए
गले में अटका मछली का काँटा बन गयी

क्या उनमें स्त्रियाँ नहीं थी?
जब अपने रिवाज़ों को ना स्थापित होता देख
नव विवाहिता पर कु-संस्कारी का शाॅल ओढ़ा दिया गया

जैसे अपने बाजू से लगाए किसी पीढ़ीगत श्राप के बोझ से उन्हें मुक्ति मिल गई हो!

अपने न्यूनतम सुख में भी खिलखिला कर हंसने वाली लड़कियाँ
आख़िर अब चुप क्यों है?

एकांत में बैठ विचार कर रही है वो
पैर के सूजन की तकलीफ़ अधिक है
अथवा खुले घर की कोठरी में ख़ुद को बंद महसूस करने की पीड़ा‌?

जो कभी जहाज उड़ाना चाहती थी
आज वह ख़ुद की नींद उड़ने से परेशान है

पति के संग दुनिया घूमने के सपनों को
सहेलियों को शर्मा कर बतलाने वाली वह लड़की
भीतर से चूर हो जाने के पश्चात अपनी अथाह पीड़ा को किसे बतलाए!

जब वो मौन को त्याग देंगी
और धीमे-धीमे बोल उठेंगी
ख़ुद की देह और मन पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध
भोर में चहचहाते पंछियों की तरह..!

मैं सोचता हूँ –
फिर क्या होगा?

मुझे बस उनका पता चाहिए
जिन्होंने इन सबके मध्य रहते
स्वयं को कभी न बदलने की कसमें खायी थी

अंततः
अंतिम बार दिखी होंगी वो
किसी मनोरोगी की तरह पहाड़ी पर ले जाते हुए
झाड़-फूंक के लिए!

क्योंकि समाज पर उंगली उठाती स्त्रियाँ
या तो पागल होती हैं,
या होता है उन पर किसी प्रेत का साया।

 

10. सुधारगृह की मालकीनें

इमारतों से स्थगित होती
तुम्हारी छलाँग
समा देती थी एक मृत्यु मेरी देह में!

पुरुष तुमने नहीं समझा –
आदेश हेतु बँधी
कोई रस्सी नहीं होती हैं पत्नियाँ

तंबाकू , सिगरेट , शराब
उदासी , बेचैनी से अधिक वस्तु दृष्टि से देखती
तुम्हारी नज़र ने गलाई है मेरी आत्मा

कैद किया है तुम्हारे हर स्पर्श ने
मुझे छुआ नहीं

सहसा किसी कल्पना में
मेरी फूली देह को देख क्या सोचते हो – मगही भाषा की तुम्हारी गालियाँ
मेरे लिए कोई फायदेमंद कड़वी टॉनिक है?

साज़िश को भाग्य की लकीर मान बैठी, रही से दाल घोंटती वे हम जैसी औरतें
सुधारगृह की मालकीनें थी
जिनके हिस्से आया एक अनाथ प्रेमी।

 

11. अकुलाहट के दिन 

जितना अधिक हुआ दोहन
ओढ़ा तब-तब एक नया चेहरा
बेसुध पड़ी रही
जैसे बिस्तर पर रखी हो देह की फाँक!

अकुलाहट के दिन करवट फेरती
आप ही बुदबुदाती हूँ –
क्यों अबकी नहीं बोई फसल?

जानती हूँ
करंट ने नहीं , तुमने छुआ था उसे
कर ही दिया साबित कि मेड़ें गवाह नहीं बनती

दु:ख कितना विशाल हो जाता है
जब दुख साझा करने वाला हमसे पृथक हो जाए

सगी बन चुकी है इन दिनों अलगनी की रस्सी
ले जाती है एक कोना
उतारती है मन पर लगा लेप

तभी अपनी भाषा करती है भेंट
आँसू के संग रटते हुए
निकलती है गले से अस्फुट ध्वनि —

“ कवना रुपवा के ओढ़ी हो पापा
सबो कुछ मटिए हो जाला। ”

 

12. समय-अंतराल

बाँस के बगीचे में खेलती बच्ची के
गुम जाने से
क्या उदास हो तुम?

दौड़ने का विस्थापन असीमित है
और भागने की परिधि तय

जैसे भूख का अंतिम निवाला
माँ के हाथों में हो
और सुख की अंतिम छुअन प्रेमी के हथेलियों में बंद

किंतु प्रिय मेरे!
क्यों आज़ाद है हर स्पर्श को स्मृतियों में मन?

यह मात्र समय-अंतराल है –
कुछ नहीं होने में से भी
थोड़ा कुछ बचा लेने का

जैसे बारिश न होने पर
कुछ दिन खुद को बचाता है धान

जैसे धान न होने पर
कुछ दिन खेतों से छुप जाता है खरगोश

और जैसे खरगोश के न मिलने पर
रो देती थी यकायक मैं

वैसे ही कुछ दिन स्वयं को बचाओ तुम
क्योंकि –
मैं अब समाज के धागे से बुनी इस परिधि पर
घूम नहीं रही
इसको काट रही हूँ।


कवि मनीष यादव, पटना , बिहार
स्नातक – मगध विश्वविद्यालय
मनीष यादव की कविताएँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।

ईमेल: manishraj5535@gmail.com

सम्पर्क: 8058607121

 

टिप्पणीकार आदित्य शुक्ल, जन्मः 27 नवम्बर 1991, गोरखपुर (उ.प्र.)। पढ़ाई-लिखाई गोरखपुर से। सृजनः ब्लॉग लेखन और विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और ललित गद्य
प्रकाशित। ‘सात समन्द की मसि करौ’ नामक एन्थॉलॉजी में कविताएँ संकलित।

सम्प्रतिः सॉफ्टवेयर क्वालिटी एनालिस्ट

मोबाइलः 7836888984

ई-मेलः shuklaaditya48@gmail.com

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