अनुपम त्रिपाठी
समकालीन जनमत के लिए ‘नई कलम’ में आज बात करते हैं गोलेन्द्र पटेल की कविताओं पर।
कई बार कच्चेपने की अपनी एक अलग उपयोगिता होती है। यूँ कहें कि कच्चापन हमारे बड़े काम का होता है। जबकि साहित्य में हम जिसे पसंद करते हैं, वह बहुत पका हुआ होता है लेकिन फिर भी कभी-कभी जो कच्चा है वह पके हुए से ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। गोलेंद्र की कविताएँ कच्ची हैं, पर ज़रूरी हैं। उनकी चिन्ताएँ कविता में बहुत सच्ची हैं।
अपनी पीढ़ी की बात करूँ, तो बहुत बड़ा तबक़ा आराम पसंद लोगों का है। हमारी चिंता में जोमेटो और स्वीगी से आने वाला लज़ीज़ भोजन तो है लेकिन वह अन्नदाता नहीं जिसके होने से जोमेटो है, स्वीगी है। किसान आंदोलन चल रहा है। उसे ध्यान में रखते हुए अभी हाल ही में देश में ‘काला दिवस’ मनाया गया। अजीब है कि उस आंदोलन में युवाओं की भागीदारी चिंता का विषय है। ऐसे में गोलेन्द्र जैसे युवा अपनी कविता और अपनी प्रतिबद्धता के साथ उन किसानों के साथ खड़े हैं, नेटफलिक्स और अमेजन के मोह से दूर तमाम हताश किसानों की आवाज़ बन रहे हैं। वे अपनी कला में कच्चे हो सकते हैं लेकिन सचाई के पक्ष में हैं। किसानों का आक्रोश और उनकी चिंता गोलेन्द्र जैसे युवा कवियों की ज़मीन है।
गोलेन्द्र अपनी बोली के शब्दों के साथ अपनी कविता में उपस्थित हैं। यूँ वह भाषाई दूरी को मिटाते हुए चलते हैं। ‘हीरे हिर्य होरना’, ‘लौनी’, ‘पुवाल’, गोड़िन, भरकुंडी- आजकल ये ठेठ पूर्वांचली शब्द कविता में कहाँ दिखाई पड़ते हैं? गाँव का व्यक्ति विस्थापित होकर शहर आता है। वह शहर की भाषा-बोली को अपनाता है और धीरे-धीरे अपनी बोली को भूलता जाता है। अपनी बोली को भूलते जाना, गाँव से दूरी के बढ़ने का परिणाम है। गोलेन्द्र जैसे कवियों की कविताएँ उस दूरी को कम करने का काम करती हैं। हो सकता है कि कोई भाषा शास्त्री ‘हीरे हिर्य होरना’ का अर्थ न समझ पाए लेकिन अगर किसी ने किसानी की हो तो वह झट से पकड़ लेगा कि ये वो शब्द हैं जिससे एक किसान अपने मवेशियों से संवाद स्थापित करता है।
अब देखिए- कोयरी टोला में कोई टेघर गया है – यहाँ ‘टेघरना’ मृत्यु के अर्थ में है। और यह शब्द कितनी सजीवता के साथ यहाँ उपयोग में लाया गया है। इस तरह के कई उदाहरण गोलेन्द्र की कविताओं में देखने को मिल जाएँगे।
आंचलिक पहचान के साथ, किसानों के संघर्ष, उनके दुःख, उनके जीवन और ग्रामीण लोगों की व्यथाओं को अपनी कविता में स्थान देने वाले युवा कवि गोलेन्द्र की कुछ कविताएँ यहाँ आपके सामने हैं।
गोलेन्द्र पटेल की कविताएँ
1. थ्रेसर
थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ
देखकर
ट्रैक्टर का मालिक मौन है
और अन्यात्मा दुखी
उसके साथियों की संवेदना समझा रही है
किसान को
कि रक्त तो भूसा सोख गया है
किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े
साफ दिखाई दे रहे हैं
कराहता हुआ मन कुछ कहे
तो बुरा मत मानना
बातों के बोझ से दबा दिमाग
बोलता है / और बोल रहा है
न तर्क , न तत्थ
सिर्फ भावना है
दो के संवादों के बीच का सेतु
सत्य के सागर में
नौकाविहार करना कठिन है
किंतु हम कर रहे हैं
थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर –
बुजुर्ग कहते हैं
कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है
तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं
क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं
जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं
खेलने के लिए
बताओ न दिल्ली के दादा
गेहूँ की कटाई कब दोगे?
2. गुढ़ी
लौनी गेहूँ का हो या धान का
बोझा बाँधने के लिए – गुढ़ी
बूढ़ी ही पुरवाती है
बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल
और पीड़ा उसकी कलाई !
(पुवाल = पुआल)
3. घिरनी
फोन पर शहर की काकी ने कहा है
कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ
अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है
भरकुंडी में है कीचड़
खाली बाल्टी रो रही है
जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?
आह! जनता की तरह मौन है घिरनी
और तुम हँस रही हो।
4. जोंक
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय…..
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
5. ठेले पर ठोकरें
तीसी चना सरसों रहर आदि काटते वक्त
उनके डंठल के ठूँठ चुभ जाते हैं पाँव में
फसलें जब जाती हैं मंडी
तब अनगिनत असहनीय ठोकरें लगती हैं
एक किसान को – उसकी उम्मीदों के छाँव में
उसकी आँखों के सामने ठेले पर ठोकरें बिकने लगती हैं –
घाव के भाव
और उसके आँसुओं के मूल्य तय करती है
उस बाजार की बोली
खेत की खूँटियाँ कह रही हैं
उसके घाव की जननी वे नहीं हैं
वे सड़कें हैं जिससे वह गया है उस मंडी !
6. ईर्ष्या की खेती
मिट्टी के मिठास को सोख
जिद के ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं के ईख
खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या
छिलके पर
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !
7. किसान है क्रोध
निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !
8. ऊख
(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
9. उम्मीद की उपज
उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!
10. मेरे मुल्क की मीडिया
बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगाय नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की….
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क की मीडिया!
11. कविता की जमीन
कविता के लिए
अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं
केदारनाथ धूल से
श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से
पहला – निर्वात है
कह नहीं सकता
ताकना तुम
तर्क के तह में सत्य दिखेगा
दूसरी – गुलाब है
गंध आ रही है
नाक में
तीसरी – नदी है
जिसमें एक नाव है
जो औंधे मुंह लेटी पड़ी है !
12. गड़ेरिया
१)
एक गड़ेरिये के
इशारे पर
खेत की फ़सलें
चर रही हैं
भेड़ें
भेड़ों के साथ
मेंड़ पर
वह भयभीत है
पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं
दूर
बहुत दूर
दिल्ली की ओर
२)
घर पर बैठे
खेतिहर के मन में
एक ही प्रश्न है
इस बार क्या होगा?
हर वर्ष
मेरी मचान उड़ जाती है
आँधियों में
बिजूकों का पता नहीं चलता
और
मेरे हिस्से का हर्ष
नहीं रहता
मेरे हृदय में
क्या
इसलिए कि मैं हलधर हूँ
३)
भेड़ हाँकना आसान नहीं है
हलधर
हीरे हिर्य होरना
बाँ..बाँ..बायें…दायें
चिल्लाते क्यों हो
तुम्हारे नाधे
बैलें
समझदार हैं
४)
मेरी भेड़ें भूल जाती हैं
अपनी राह
मैं हाँक रहा हूँ
सही दिशा में
मुझे चलने दो
गुरु
मैं गड़ेरिया हूँ
भारत का !
13. मुसहरिन माँ
धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है
चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए
आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?
मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को
सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!
टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, साहित्य और संगीत में अभिरुचि।