आज के युवा बेहद जटिल समय में साँस ले रहा है. पूर्ववर्ती पीढ़ी में मौजूद कई नायाब और सौंधे सुख उसकी पीढ़ी तक पहुँचने से पहले ही नदारद हो चुके हैं. इसलिए वह उन अनुभूतियों के बीच से गुज़र कर जीवन का आनंद नहीं उठा सकता जिसमें उनके पूर्ववर्तियों ने सांस ली है वह बस अपने बुजुर्गों के ज़रिये उन नदारद हो चुकी अनुभूतियों को पढ़-सुन सकता है.
यही युवा शिक्षा अर्जित करने के बाद जब नौकरी की तलाश करता है तब उसे जीवन की कड़वी सच्चाईयों का सामना करना पड़ता है, वह पंक्ति में खड़े होने से पहले ही बेरोजगारों की कभी न खत्म होने वाली पंक्ति को देखता है और नौकरी न मिलने से उपजे अवसाद से गुज़रते हुए युवाओं को भी देखता है.
गाँव से महानगर तक का लम्बा सफर और फिर महानगर की अवसाद भरी उदासी उसे जीवन का नया पाठ पढ़ाती हैं और फिर एक के बाद एक करके कई अनदेखे किस्से जूतों समेत उसके जीवन में चले आते हैं जो आगामी जीवन के लिए उसे तैयार करते हैं.
इन सब अनुभवों से साक्षात्कार करने के बाद वह इस अवस्था में पदार्पण कर चुका होता है कि उसे अपने मन को समेटने की तमीज़ आ चुकी होती है और वह अपने मन को इस तरह से कस कर बांध लेता है जिस तरह बाहर जाने से पहले जूतों के तस्में बांधे जाते हैं.
युवा कवि घनश्याम कुमार देवांश की कविताएँ तथाकथित लोकतंत्र की पोल-पट्टी खोलने का मादा रखती हैं. उनकी कविताओं में पाठक एक युवा कवि की धड़कने सुन सकते हैं, जिसमें उनका प्रेम, उनकी तलाश, उनके सवाल, सब शामिल हो कर आज के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यवाहरिक समाज का खाका प्रस्तुत करते हैं.
जिस तरह छब्बीस जनवरी की परेड में अनगिनत झाँकियाँ दर्शकों की आँखों से गुज़र जाती है और दर्शक एक झाँकी के दृश्य अपनी आँखों में समेटने में लगा होता है कि तुरंत ही दूसरी झाँकी उसके सामने प्रस्तुत हो जाती है ठीक उसी तरह घनश्याम की कविताओं से गुज़रते हुए हम समय द्वारा प्रस्तुत विभिन्न झाँकियों को प्रत्यक्ष देख सकते हैं.
उनकी कविताओं में जीवन की कड़वी सच्चाई के अनेकों तत्व गूँथें हुए हैं.
जिसके सारे अणु मिलकर आज के समय का ऐसा परिदृश्य सामने लाते हैं जहाँ पर्दों और कालीनों के पीछे और नीचे कुछ भी ढका-छुपा नहीं है जो कुछ भी साफ़ तो है मगर निष्कलंक नहीं।
जीवन का सारा व्यापार सोशल मीडिया और आभासी संसार के बीच ही परिक्रमा करता दीखता है .
अपने निजीपन का हवाला देकर सब अपना अलग संसार बसाना चाहते हैं और अपने उस संसार में भी अवसाद का शिकार हो कर कई बिमारियों के नीचे दबे हुए हैं।
अगर घनश्याम का कवि आज भी जीवन की उन दुर्लभ अनुभूतियों पर उंगली रखता है जो तमाम कोलाहलों के बीच भी अपनी आवाज़ बचाये हुए हैं.
कवि सामान्य जनमानस की संवेदनाओं और उनकी दबी हुयी आहों से ख़ौफ़ खाने की बात करता है. जीवन का वह पक्ष जो चारों ओर की चकाचौंध और जगमगाहट के नीचे कहीं दब चुका है जब कराहता है तो कवि का संवेदनशील मन टीस से भर उठता है.
जीवन की नम और सबसे महीन वस्तुओं को कविता में प्राण देना जीवन में मर्म को पोसना है जो आज के इस दौर में दरअसल इतनी दुर्लभ हो चुकी है कि उनमें देवत्व के गुण इस कदर सम्माहित हो गए हैं और लोग उनके नज़दीक आने से कतराने लगे हैं.
कवि उन शाश्वत चीज़ों का हवाला देता है जिसमें जीवन का लोहा सबसे अधिक मात्रा में विद्यमान है और जो अपनी जीर्ण-क्षीण अवस्था में भी इंसान को मुग्ध कर देती हैं. वह उन्हें बचाये रहने की कोशिश में हैं जिसे दुनिया अपने पाँव के नीचे कुचल देने की जुगत में हैं.
“डरो
धार और नोक से नहीं
एक नरम घास के मैदान की विशालता
और हरियाली से”
कवि इंसान के मशीन बनते चले जाने के बरक्स आरामतलबी के जीवन के उलट श्रम में रत मेहनती लोगों को देख हैरानी प्रकट करता है क्योंकि आज श्रम का महत्व लगभग लुप्तप्राय हो चुका है.
“मैं हैरान था मछलियाँ मारने के काम में
इतनी पवित्रता देखकर”
वह किसानों के श्रम के अवमूल्यन को देखता है और अनाज के संरक्षण के बारे में सरकार को नकारात्मक रुख को देखता है. उसके राजनीतिक नाकारापन समझ में आता है.
कवि अपनी घनीभूत संवेदनाओं से जीवन का जो खाका उतरता है. उसमे जीवन को जीवन समझने के लिए अधिक जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती है. क्योंकि वहां ख़ुशी, हास्य के स्थान पर अवसाद और दुःख अधिक है और कभी न खत्म होने वाले अंतहीन दुखों का सिलसिला।
कवि जानता है कि कभी न ख़त्म होनी वाली उदासी किसी भी जीवन को दीमक की तरह से खत्म कर देती हैं . कवि महानगरों का अबोलापन, बेरोज़गारी, निष्ठुरतापन देख कर आवाक है. महानगर में बसने के बाद कवि अपने अकेलेपन में जीवन के अधिक करीब आ जाता है और उन संवेगों को भी महसूस करता है जिससे घर के सुरक्षित परिवेश में कदाचित ही उसका सामना हुआ हो.
अभी बेरोजगारी में वह जीवन को दार्शनिक के रूप में देखता है और पाता है की जहाँ परिचितों, रिश्तेदारों और दोस्तों की तादाद बढ़ती जा रही है लेकिन ऐसा कोई नहीं है करीब जिससे वह अपने संबंधों के तापमान की थाह पा सके. कवि अपनी घनीभूत संवेदनाओं के चलते महीन चीज़े पकड़ने में सक्षम हैं.
घनश्याम की कवितायेँ जीवन की उस मचान पर बैठ कर दुनियादारी को देखती है और अपनी प्रौढ़ संवेदनाओं से यही कहती दिखती हैं जो कभी साहिर लुधियानवी ने कहा था, “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है”. – विपिन चौधरी
घनश्याम कुमार देवांश की कविताएँ-
डरो
डरो
लेकिन ईश्वर से नहीं
एक हारे हुए मनुष्य से
सूर्य से नहीं
आकाश की नदी में पड़े मृत चंद्रमा से
भारी व वज्र कठोर शब्दों से नहीं
उनसे जो कोमल हैं और रात के तीसरे पहर
धीमी आवाज में गाये जाते हैं
डरो
धार और नोक से नहीं
एक नरम घास के मैदान की विशालता
और हरियाली से
साम्राज्य की विराट ललाट से नहीं
एक वृद्ध की नम निष्कंप आँखों से
…
मछुआरे
विंध्य घुटनों के बल
एक उदास बूढ़े की तरह बैठा था
और मछुआरे गंगा में डूबे साध रहे थे मछलियाँ
उनके चेहरे पर एक पवित्र मुस्कान थी
मंदिर से लौट रही औरतों
और पुजारियों से भी कहीं अधिक पवित्र मुस्कान
मैं हैरान था मछलियाँ मारने के काम में
इतनी पवित्रता देखकर
एक पैसे में महानगर
सुबह बहुत उदास थी
और मेरे भाड़े के कमरे में
धूप के तंतु ओढ़े दूर तक पसर आई थी
कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था
खिड़की के बाहर की चिड़िया भी
रेलिंग पर हिलती डुलती
खामोश बैठी थी
और हवा का संवादहीन शोर
एक निरर्थक सायरन की तरहबज रहा था
जबकि मैं
इस सवाल से जूझ रहा था
कि सुबह
इतनी सुबह सुबह आखिर इतनी उदास
क्यों थी
किसबके सब ही जैसे उदास थे
चुप थे
जबकि कॉल दरें इतनी सस्ती थीं
कि पूरे दिनऔर पूरी रात
सिर्फ एक पैसे में
बात की जा सकती थी
…
नौकरी एक जूता
ये मैं नहीं हूँ-सुबह साढ़े दस बजे
अपने जूतों के फीतों को बांधता हुआ
ये मेरे मालिक के हाथ हैं जो मुझे जूतों में कैद कर रहे हैं
यह मेरी गाड़ी नहीं है
दरअसल यह जूता है जिसके भीतर बैठकर
मैं हर रोज हाजिर होता हूँ
इस जूते के बाहर एक ब्रांडका लेबल चस्पा है
बेशक यह एक महंगा जूता है
और मैं इस बात पर फक्र कर
सकता हूँ कि करोड़ों लोग
अपने फटे हुए जूतों और चप्पलों
के रिक्शे पर बैठकर आते हैं
और मुझे अपने सामने पाकर सलाम ठोंकते हैं
लेकिन यह शायद मैं ही जानता हूँ कि
इस जूते के भीतर कितनी घुटन और बेचैनी है
एक दुर्गन्ध में लथपथ रोज लौटता
हूँ मैं अपने घर के सीलिंग फैन के नीचे
मैं एक इतवार का इंतजार करता हूँ
इस पसीने भरी दुर्गंध को
अपने वजूद से सुखाने के लिए
…
स्टेशन पर पड़ा अनाज
इतने बड़े संसार में अनाज के वे ढेर इतने अकेले थे
कि उनकी उदासी दूर करने के लिए उनके बीच
एक पीपल को जन्म लेना पड़ा
हर साल उस स्टेशन से मैं गुजरता और हर साल
वह पीपल का पेड़ मुझे वैसा ही मिलता
अकेला रखवाली करता हुआ
ऐसे समय में भी जब
चोरी पर बनी फिल्में हिट हो रही हों
उसे चुराने वाला कोई नहीं था
उस पुराने स्टेशन पर ढेरों का ढेर अनाज सुरक्षित पड़ा था
स्टेशन के बगल में मीलों लंबे खेत थे
जिनमें सैकड़ों नीलगायें थीं
उन नीलगायों और अनाज के ढेर के बीच महज एक सड़क थी
जिसे नीलगायें भी पार नहीं करना चाहती थीं
भूख से युद्ध
मैं अपनी भूख से लड़ना नहीं जानता
माँ से दूर जब भी अकेला होता हूँ
तो यह एक मायावी तृप्ति रचती है मेरे चारों तरफ
मैं निर्द्वंद्व बेखटके गुंथा रहता हूँ
किसी न किसी काम में
कि तभी भूख यकायक घात लगाए बाघ की तरह
जोरदार हमला करती है
दुनिया भर के छोटे बड़े काम पूरे कमरे में
भय और विस्मय से तितर बितर हो जाते हैं
मैं घबराकर बर्तन टटोलता हूँ
सब्जी की टोकरी पलटता हूँ
छूरी उठाकर फटाफट तरकारी काटता हूँ
पतीली में आटा राँधता हूँ
और दुनिया का सबसे तेज़ कुक बन जाता हूँ
मैं पंद्रह मिनट में
दाल चावल, आलू चोखा और रोटी
या फिर खिचड़ी जैसा कुछ भी बनाकर तैयार कर देता हूँ
मैं प्लेट लिए कमरे में लौटता हूँ
जैसे घायल शिकारी अपनी बंदूक के साथ
जंगल में लौटता है
लेकिन हर बार बाघ जा चुका होता है
…
सातवें माले पर अखबार
यहाँ सूरज के उगने और
डूबने की कोई आवाज नहीं होती
इतनी ऊपर अखबार सनसनाकर नहीं आता बालकनी के गमले पर
वह दरवाजे के बाहर ठंड में मर गए
लावारिस पिल्ले सा पड़ा रहता है
दोपहर होती है, शाम होती है
और अखबार उठता जाता है
लेकिन किसी किसी दरवाजे से
कई कई दिन तक नहीं उठता अखबार
अखबार दरवाजे पर एक ढेर में बदल जाते हैं
और ढेर एक डरावने ख्याल में
सातवें माले पर पड़ोस का दरवाजा खटखटाना
सचमुच एक डरावना सा ख्याल है
लेट्स गो बैक टू टिब्बेट
एक तिब्बती लड़की
अलसुबह
बड़े तेज़ कदमों से गुजरती है
मेरे घर के सामने के गलियारे में
अपनी गीली चप्पलों के साथ
तिब्बती लड़की
हमेशा छींका¹ पहनकर निकलती है
और कंधे पर डाले रहती है
‘लेट्स गो बैक टू टिब्बेट’ वाला
एक झोला
कि जैसे यही उसकी ज़िंदगी का
सबसे बड़ा ख्वाब हो
तिब्बती छींका पहने लौट जाना ल्हासा की ओर
जहां के लामा
दुनिया भर का जादू जानते हैं
तिब्बती लड़की ने अपने झोले में
विरासत में मिला धैर्य
इतनी अच्छी तरह संभाला हुआ है
कि उसके पूरे वजूद में
कहीं कोई हड़बड़ी नहीं नजर आती
बेचैनी की सीमा से परे
जब वह
दमगिन² बजाना शुरू करती है
तो बेन जियाबाओ
बेचैन हो उठते हैं
और तेज़ कदमों से टहलने लगते हैं
बीजिंग के अपने महल में
तिब्बती लड़की
प्राय बहुत धीमा गाती है
इतना धीमा कि
उसकी बंद आँखों को देखकर ही
पता चल पाता है कि वह कुछ
गा रही है
वह इतना अच्छा गाती है
कि लोग कहते हैं उसकी आवाज में
जादू है
लेकिन लड़की जानती है
कि छिने हुए देश को
वापस पाने के लिए
उसकी आवाज का जादू काफी नहीं है
…
1. छींका – एक तिब्बती परिधान
2. दमगिन – एक तिब्बती वाद्ययंत्र
रोहित वेम्यूला! क्या तुम्हें पता है?
क्या तुम्हें पता है तुम्हारे जाने के बाद
एक लड़की कितना रोई?
वही जो तुम्हारी तस्वीर उठाए सड़कों पर पुलिस
की लाठियाँ खा रही थी
लेकिन जिसकी आवाज पर
लाठियों का कोई असर नहीं था
पुलिस हैरान थी कि उसकी लाठी से उसकी पीठ कहीं
अधिक मजबूत थी
वॉटर कैनन चलाने वाले दुःशासन की तरह चक्कर खाकर
गिर चुके थे
लेकिन उस लड़की को भिगो तक नहीं पाए थे
वो बस अपने ही आँसुओं से गीली थी
हर शाम जब वह अपनी नीली पीठ, डगमगाती जांघें
और सैलाब भरी आँखे लिए घर लौटती तो
परिवार उसे एक चाकू की तरह देखता
लेकिन वह चुपचाप तुम्हारी तस्वीर वाला
पोस्टर लिए जाकर अपने बिस्तर पर औंधे मुँह गिर जाती
वह रोज तुम्हारी तस्वीर पर
अपना भीगा गाल टिकाए सो जाती
कमरे में एक संवाद तीखीबर्फीली हवा की तरह
लड़की के जिस्म औ रूह के चारों तरफ तैरता रहता-
तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले
मैं तुम्हें बचा लेती
…
(कवि घनश्याम कुमार देवांश का जन्म 2 जून 1986, गोंडा, उत्तर प्रदेश में हुआ. वह समकालीन कविता में उभरता हुआ और चर्चित नाम हैं. घनश्याम कविता, कहानी, नाटक, पटकथा, समीक्षा आदि विधाओं में लिखते रहे हैं. उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार’ और ‘मोहन राकेश सम्मान’ प्राप्त है. फ़िलवक़्त वह हिंदी विभाग, डी.पी.एस. इंटरनेशनल स्कूल, गुड़गाँव में अध्यापक हैं. टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन कविता का जाना माना नाम हैं और स्त्री विमर्श पर आधारित अपनी कविताओं के कारण नयी कवयित्रियों में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं. )
कवि सम्पर्क : घनश्याम कुमार देवांश
ghanshyamdevansh@gmail.com
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