श्रीधर करुणानिधि
कविताएँ सिर्फ़ सूचना नहीं देतीं भावपूर्ण स्थितियों के माध्यम से खुद की अभिव्यक्ति पर पहुँच कर थम जाती हैं और बाकी का काम पाठकों के जिम्मे छोड़ जाती हैं। पाठक कवि के दर्द में गहरे पैठ कर कविता के मर्म तक पहुंच जाता है। इसी तरह से अच्छी कविताएँ पाठकों से अपना सम्बन्ध जोड़ती हैं| कविताओं में कहे से अधिक अनकहा रह जाता है जो पाठ के बाद मन के किसी कोने में ठहर जाता है|
एकता वर्मा की कविताएँ एक से अधिक बार पाठ की माँग करती है और मन के किसी कोने में जाकर ठहर जाती हैं| ये स्त्री मन की पीड़ा की कविताएँ हैं जिसके एक छोर पर स्त्री है जो तन मन जोड़ कर इस दुनिया को अपने ताने बाने से रचती है तो दूसरे छोर पर उसकी संवेदनाओं के दायरे में आने वाली तमाम भावनाएं हैं, युद्ध की भीषण अमानवीयता है, हर तरह के जख्मों का दर्द है, संघर्ष है, हार न मानने की जिजीविषा है और भूख, सत्ता तथा पूंजी के आतंक से हारती और विस्थापित की जाती मानवता है।
आदिवासी समाज के साथ की जा रही क्रूरताओं की बानगी ‘सारकेगुड़ा’ शीर्षक कविता में प्रस्तुत होकर इस तरह से विन्यस्त है कि साधारण-सी दिखती पंक्तियों में भी असहनीय दर्द दर्ज हो जाता है-
“बुधिया महुआ की छाल पर गीली मिट्टी लेस रही है/उसमें गोलियों के कई सूराख हैं/वह ऐसा इसलिए नहीं कर रही कि उसके घर के दो जने : उसका पति और बेटा छाती और कनपटी में हुए ऐसे ही सूराख से मारे गए हैं/ वह ऐसा कर रही क्योंकि / उस अकेले पेड़ ने/ उसके घर की तीन पीढ़ियों को पाला था और अब उसकी बारी थी..
‘नमक’ शीर्षक कविता श्रम के पसीने से सभ्यता तक की यात्रा तय करती है और मानती है कि –
“सभ्यताओं के आरंभ से/निर्वासित समंदरों की यह सांद्र खेप/संस्कृति की रोटी पर/चुटकियां से बुरककर खायी जा रही है/ अपने अपने स्वादानुसार
‘लोहा’ शीर्षक कविता में स्त्रियों की शाश्वत पीड़ा के साथ-साथ स्त्री अस्मिता की गूंज भी सुनाई पड़ती है। सरल वाक्यों से शुरू होती यह कविता गहरे अर्थ को ध्वनित करती हुई स्त्री की दशा की मार्मिकता को भी बयां करती है। एक साधारण सवाल से शुरू होती कविता असाधारण सवालों को जन्म देती है-
“समझ से परे है/शहर भर की इन औरतों के खून का सारा लोहा/ आखिर कहाँ चला गया?”
इतिहास की दृष्टि से देखें तो समाज में कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिसकी पुनरावृति होती प्रतीत होती है| ऐसे में पूर्व के किसी महत्वपूर्ण प्रसंगिक कवि की कविताएँ स्वत: स्मृति पटल पर उभर आती हैं। इस दृष्टि से ‘गाजा में निराला’ जैसी अद्भुत कविता एकता ने रची है। जहाँ इस कविता में निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ की छवियाँ हैं जो एक संघर्षशील स्त्री के मूक आक्रोश को व्यक्त करती है तो वहीं अपने जीवन और अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती फिलिस्तीनी महिलाओं के बिम्ब इस कविता में अनेकशः आए हैं। इक्का-दुक्का पंक्तियों की ‘पैरोडी’ के बावजूद यह कविता स्त्री सौंदर्य के एकदम अलग मानक प्रस्तावित करती है-
“अधजले सुलगते खजूर के ठूँठों के पार/जैतून के उजाड़े गए, छितराए बाग/ चालीस की उम्र, मुँह पर कसकर बंधा शेमाग/कुछ धुएँ से, कुछ आग में जलती आँखें/ सामने ‘संहार – रत’ दुश्मन हजार/ संघर्षरत करती बार- बार प्रहार, डटकर
एकता की ‘फिलिस्तीन सिरीज’ की कई कविताएँ हैं जो न सिर्फ भाव की दृष्टि से सांद्र हैं बल्कि अपनी केन्द्रीयता में मानव की सबसे बड़ी त्रासदी-युद्ध से क्षतिग्रस्त-जर्जर देश और मानवता को गहरे उकेरती हैं। ये कविताएँ युद्ध-जर्जर क्षेत्र के जन समुदाय की विवशताओं का मार्मिक अंकन करती है-
“डॉक्टर अब उसका इलाज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उसका मरना तय है…..
अस्पताल में मॉर्फिन नहीं है/या जो है भी, उसे मरते हुए आदमी पर खर्च नहीं किया जा सकता…
वह रूई से गालों वाली, तोतली बोली वाली सद्यः अनाथ बच्ची/ मरने तक के लिए इमर्जेंसी वार्ड के फर्श पर रख दी गई है|”
मासूम या कोमल भावनाओं और स्मृतियों से शुरू होकर एकता की कविताएँ कई बार हमें एक भयानक मानव-त्रासदी की ओर खींच लाती हैं। ऐसी त्रासदियों को मीडिया अपनी राजनीति और टी. आर.पी. के हिसाब से भले दिखाता हो पर वह हमारी संवेदनाओं को उस कदर झकझोर नहीं पाता जैसी एकता की कविताएँ हमें स्तब्ध करती हैं। ‘रोटियाँ’ शीर्षक कविता में इसकी बानगी देखी जा सकती है। जो रोटियाँ स्मृतियों की आँच पर गमकती हैं, जो सेसौरी के ईंधन पर चिपचिपाई-सी फूलती हैं, वही गाजा में….
“गाजा की रोटी कैसी महकती होगी/जिसे सेंक रही हैं बुर्कानशी औरतें/ध्वस्त इमारत के बीचोंबीच / इन्हीं इमारतों का फर्नीचर जलाकर/……………
क्या गाजा की रोटियों में महकता होगा खून/अजवाइन की तरह बीच-बीच में / कि राशन के कैंप में / रक्तरंजित लाशों बीच से खींचकर लायी जाती है आँटे की बोरियाँ…”
एकता की कविताओं में स्त्री की मौजूदगी एक संघर्षशील स्त्री के रूप में है| वे स्त्रियाँ दुनिया को रचती हुई स्त्रियाँ हैं| अपने रचने-गढ़ने के छोटे से दायरे में भी उन्होंने हमेशा अपने भूगोल को बड़ा किया है और दुनिया को बेहतर और सुन्दर बनाने में अपनी भूमिका निभाई है|
एकता की कविताओं का स्वर यूँ तो भावपूर्ण और कोमल है परन्तु उनकी स्त्रियाँ तपी-तपाई कर्मठ स्त्रियाँ हैं| उनकी आँखें बेहतर दुनिया के स्वप्न में पगी हैं| लेकिन वे सबकुछ बर्दास्त करने वाली स्त्रियाँ नहीं हैं| वे शोषण के बहुविध हथकंडों से परिचित हैं इसलिए पुरुष-सत्ता को चुनौतियाँ पेश करने के क्रम में अपनी छवि को विकृत किए जाने से भी वे परेशान नहीं होतीं बल्कि डट कर मुकाबला करती हैं-
“जो अपनी जांघों पर ताव देकर खुले आम चुनौती दे सकती हैं /
भरी सभा मूछें ऐंठ सकती हैं/ मूछ्दार बेटियां जन सकती हैं…
……./वे मर्दानगी के खूंटे में बंधी सत्ता को/ उसके नुकीले सींगों से पकड़कर दुहती हैं….”
एकता की इन कविताओं में संघर्ष, विस्थापन, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध की त्रासदी, सत्ता और पूंजी का गठजोर और स्त्री संघर्ष की वैचारिकी तमाम संशिलष्ट भाव-बोध के साथ मौजूद दिखाई पड़ती है। ये आस्वाद के स्तर पर जीवन के अनुभवों से संपृक्त पाठकों के मन में गहरे उतरने वाली कविताएँ हैं।
एकता वर्मा की कविताएँ
1. नमक
जिनके लिए कहा गया था
मज़दूरी पसीना सूखने से पहले मिल जानी चाहिए,
समंदर उनके पसीने से बने हैं।
घर की रसोई में
उसी समंदर का
डब्बा बंद नमक रखा है।
सभ्यताओं के आरम्भ से
निर्वासित समंदरों की यह सांद्र खेप
संस्कृति की रोटी पर
चुटकियों से बुरककर खायी जा रही है
अपने-अपने स्वादानुसार।
2. सारकेगुड़ा
बुधिया महुवा की छाल पर गीली मिट्टी लेस रही है।
उसमें गोलियों के कई सूराख हैं।
वह ऐसा इसलिए नहीं कर रही कि उसके घर के दो जने;
उसका पति और बेटा
छाती और कनपटी में हुए ऐसे ही सूराख से मारे गए हैं
वह ऐसा कर रही है क्योंकि
उस अकेले पेड़ ने
उसके घर की तीन पीढ़ियों को पाला था
और अब उसकी बारी थी।
3. लोहा
शहर के स्त्री रोग विभाग के बाहर
औरतों की लंबी क़तार है।
डॉक्टर खून जाँचती है,
देती है सबको
-आयरन की गोलियाँ।
समझ से परे है,
शहर भर की इन औरतों के खून का लोहा
आख़िर कहाँ चला गया?
4. परबतिया जीडीपी से बाहर है
परबतिया गाँव की सबसे बेढब मजदूर है
परबतिया देश की सबसे खलिहर औरत है।
परबतिया की सुबह रसोई से शुरू होती है
और रात रसोई पर ख़त्म होती है।
परबतिया का विस्थापन शून्य है, इसलिए कार्य भी शून्य है।
यह ज्ञान उन अर्थशास्त्रियों ने बाँचा है
जो मनुस्मृति के पृष्ठों पर सेये गए
समुद्री घोड़ों के अंडों से पनपे हैं।
परबतिया के खेत में
मिट्टी की परत के ठीक नीचे
नमक की एक नदी बहती है
जिसमें उसकी पुरख़िनों की हड्डियाँ गली हैं।
परबतिया की रोटी, जिसे धुँधलके की आँच पर
मुँदी आँखों से बिना आवाज़ किए पकाती है,
खेत के उसी नमक से नमकीन है।
परबतिया अक्षर नहीं पहचानती
लेकिन सरकारी स्कूल की दीवार पर पुते नक़्शे को चीन्हती है।
अपनी खुरदरी उँगली मृतसागर पर रखती है
और कहती है अपना खेत!
धीरे-धीरे देह गलाते, दोनों ही मृत्यु के पर्याय।
साल के बारहों महीने पति के साथ खेत में खटते हुए
परबतिया की पहचान एक गृहिणी भर है!
औंधे मुँह गिरते कृष्ण और उनका कर्म का संदेश
अगर युद्ध परबतिया के खेत की मेढ़ पर होता।
परबतिया धूप से काँस चुनती है और बुनती है डलिया-पिटारे
चाँदनी को माँझकर कातती है सुतली, बान
उदास कतरनों में जड़ती है सलमा-सितारे
पिरोती हैं सूत के महीन धागे।
वह खेत को ढोकर, सुलझाकर गृहस्थी के डब्बों में भरती है
बीजों को पोसकर खेत में उतारती है।
घर-बार, गोरू हरहा और न जाने क्या क्या!
परबतिया की छाती की धौंकनी पर
इस देश का पहिया घूमता है,
लेकिन उस देश की ‘सकल घरेलू आय’ से
परबतिया जैसी, घरेलू कहलाती औरतें, बाहर हैं।
5. गाज़ा में निराला
वह फेंकती पत्थर
मैंने देखा उसे, गाजा पथ पर!
अधजले सुलगते खजूर के ठूठों के पार
ज़ैतून के उजाड़े गए, छितराए बाग
चालीस की उम्र, मुँह पर कसकर बंधा शेमाग
कुछ धुएँ से, कुछ आग में जलती आँख
सामने ‘संहार-रत’ दुश्मन हज़ार
संघर्षरत करती बार-बार प्रहार, डटकर
वह फेंकती पत्थर।
गाजा के बारूदी पथ पर।
चढ़ रही थी शीत
बारिश में भीगती, गल रही हर रेशे-ओ-रोम की ऊष्म
धूम के ग़ुबारों में खौलता आकाश
नभ से झरते बारूद-पिंडों में कौंधता आकाश
शाम हो गई,
लौटने को शेष न कोई घर
वह तोड़ती पत्थर
गाज़ा के राख-राख पथ पर।
देखते देखा मुझे जो एक बार
चीखी-‘वेयम बिदना नरूह?’*
सिनाई से सटता उसका पूरा शहर,
एक कब्र में अँटता उसका पूरा शहर ।
देखा मुझे उस दृष्टि से
ज्यों धुँध में खोई हुई सी, सूखे आंसुओं में रोई हुई सी
सजा सहज सितार,
विक्टर ज़ारा की सी अमर झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
दस दिशाओं से जो उठी धड़-धड़
ढुलककर गिरे भीड़ से दो-चार सिर
……………..
चीखकर लीन हो कर्म में ज्यों,
खींचकर मारे दो-चार-पाँच कंकड़
वह फेंकती पत्थर।
देखा मैंने उसे मृत्यु पथ पर।
*आख़िर हम कहाँ जाएँ?
6. क्वाइट, वी आर शूटिंग!
चुप रहो,
दुधमुहे अपनी किर्र किर्र बंद कर लें!!
आसमानी धमाकों पर
चीखकर उठ न बैठें बच्चे, न चिपकें बड़ों की दरकती मज्जाओं से।
तुम भी ‘या अल्लाह’ कहकर मत खींचो लंबी आह!
विलाप को साध लो, मत पटको हाथ-पैर, न कूटो छातियाँ
सिसकियों को शेमागों में, हिजाबों में दाबकर घोंट दो।
इमारतों के टूटे हुए गुम्बदों को मत हिलाओ
जो जहां दबा है, फँसा है, उसको बोलो
पड़ा रहे, न पुकारे दिन-रात कपार छेदती मर्मांतक कराह में।
एकदम शांत रहो! कत्तई चुप!
स्नाइपर निशाना साध रहे हैं
चीखो नहीं, भागो नहीं, धम्म से गिरो नहीं!
हमारी आह से उनकी बन्दूकों का निशाना ख़राब होता है।
इस समय,
एक ख़ाली चली गई गोली फ़िलिस्तीन की सबसे संवेदनशील खबर है।
7. रोटियाँ
रोटियों की स्मृतियों में आँच की कहानियाँ गमकती हैं।
अम्मा बताती हैं,
सेसौरी के ईंधन पर चिपचिपाई सी फूलती हैं रोटियाँ
सौंफ़ला पर सिंकी रोटियाँ धुँवाई; पकती हैं चटक-चटक
नीम के ईंधन पर कसैली सी, करुवाती हैं रोटियाँ
पर, अरहर की जलावन पर पकती हैं भीतर-बाहर बराबर।
अम्मा का मानना है, शहर रोटियों के स्वाद नहीं जानते
स्टोव की रोटियों में महकती है किरोसिन की भाप
और ग़ैस पर तो पकती हैं, कचाती, बेस्वाद, बेकाम रोटियाँ।
रोटियों की इन सोंधाती क़िस्सागोई के बीचों-बीच
मेरे सीने पर धक्क से गिरता है एक सवाल
सवाल कि –
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी?
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी,
जिसे सेंक रही हैं बुर्कानशीं औरतें ध्वस्त इमारत के बीचों-बीच
उन्हीं इमारतों का फ़र्नीचर जलाकर।
क्या गाज़ा की रोटियों में महकता होगा खून
अजवाइन की तरह बीच-बीच में
कि राशन के कैंप में,
रक्तरंजित लाशों बीच से खींचकर लायी जाती हैं आँटे की बोरियाँ
क्या किसी कौर में किसक जाती होगी कोई चिरपरिचित ‘आह’
कि चूल्हे के ठीक नीचे, मलबे की तलहटी में
दफ़्न हो गए उस परिवार के सात लोग एक ही साथ
इन रोटियों को निगलते हुए गले में अटकता होगा
उन किताबों का अलिफ़,
गृहस्थी की सबसे व्यर्थ सामग्री की तरह
जिन्हें सुहूर की दाल बनाने में चूल्हे में झोंक दिया गया
क्या गाज़ा की रोटियाँ
कचाती सी,
तालु में चिपकती होंगी
कि पूरा देश जल जाने बावजूद
दुनिया देखती है फ़िलिस्तीन की तरफ़, अब भी बहुत ठंडी, सूखी आँखों से।
8. मृत्यु के चरण
रात के 2:30 बजे हैं।
आसमान के कोने आगज़नी की रौशनी में लपक रहे हैं।
अल-अक्शा अस्पताल के शीशों पर
खून से उठी भाप
जमा होकर धीरे-धीरे टपक रही है।
एक बहुत छोटी बच्ची है,
जिसके रूई जैसे गाल, लपट से छूकर
रूई की तरह ही झुलसकर ग़ायब हो गये हैं।
भीतर के जबड़े झांक रहे हैं,
उनमें अभी पूरे दांत नहीं उगे हैं।
ज़रूर वह बोलती होगी, तब तुतलाती होगी।
अभी मर्मांतक कराह में काँप रही है।
डॉक्टर अब उसका इलाज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उसका मरना तय है।
लेकिन सिर्फ़ मरना उसकी नियति नहीं है
उसको पीड़ा के अनंत नरकों से गुज़रकर, फिर मरना है।
अस्पताल में मॉर्फ़िन नहीं है
या जो है भी, उसे मरते हुए आदमी पर खर्च नहीं किया जा सकता।
किंतु, यह नियति भी उसका अंत नहीं है!
उसको मरने में जितना समय लगेगा
उस समय के लिए उसको रखने की कोई जगह शेष नहीं बची है
न घर, न पड़ोस, न जबलिया, न फ़िलिस्तीन, न दुनिया, कब्र में भी अभी नहीं।
इसलिए
लाल, हरे, सफ़ेद, काले रंग के चीथड़ों में लिपटी
वह रूई से गालों वाली, तोतली बोली वाली सद्यःअनाथ बच्ची
मरने तक के लिए इमरजेंसी वार्ड के फ़र्श पर रख दी गई है।
9. समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जो राजाओं के युद्ध से लौटने का इंतज़ार नहीं करतीं
उनके पीछे जौहर नहीं करतीं,
बल्कि निकलती हैं संतान को पीठ पर बांधकर,
तलवार खींचकर रणभूमि में
समाज उन्हें मर्दाना कहता है!
जो थाली में छोड़ी गई जूठन से संतोष नहीं धरतीं
जो अपनी हथेलियों से दरेरकर तोड़ देती हैं भूख के जबड़े
जो खाती हैं घर के मर्दों से ड्यौढ़ी खुराक
और पीती हैं लोटा भर पानी
समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जिनके व्यक्तित्व में स्त्रियोचित व्यवहार की बड़ी कमी होती है
जिनकी चाल में सिखाई गई सौम्यता नहीं है,
स्त्रीत्व नहीं, बल्कि गुरुत्व के अनुकूल
जो धमककर चलती हैं, टाँगे खोलकर; पसरकर बैठती हैं
जिनके खून की गर्मी सारे षड्यंत्रों के बावजूद शेष है
समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जो गरज सकती हैं, क्रोध में बरस सकती हैं
आशंकाओं से निश्चिंत
जो अपनी जंघाओं पर ताव देकर खुले आम चुनौती दे सकती हैं
भरी सभा मूछे ऐंठ सकती हैं
मूछदार बेटियाँ जन सकती हैं
समाज उन्हें मर्दाना ही कहता है।
वे, मर्दानगी के खूँटे में बंधी सत्ता को
उसके नुकीले सींघों से पकड़कर दुहती हैं
घर की इकलौती कमाऊ लड़कियों से लेकर
प्रदेश की मुख्यमंत्री
अथवा देश की प्रधानमंत्री तक
वे सभी औरतें, जो नायिकाओं की तरह सापेक्षता में नहीं,
अपितु एक नायक की भाँति जीती हैं केंद्रीय भूमिकाओं में।
यह समाज, यह देश मर्दाना ही कहता है।
इसलिए प्राची, तुम्हें जब यही समाज
मर्दाना कहे,
तो तुम गर्व से मुस्कुराना।
तुम अपनी कॉपी में स्त्रीत्व को बहुत सुंदर, नए ढंग से लिख रही हो।
10. इच्छागीत
दृश्यों को बुझाकर,
मुँदी पलकों पर रखे गए चुम्बनों की तरह
क्या किसी ने पृथ्वी को उसके स्पर्श से पहचाना है?
यदि, नहीं
तो मत कहिए
अंधे की अंतिम इच्छा दो आँखें हैं।
दुनिया रेटिना पर चमगादड़ की तरह उल्टा लटकी कोई कलाकृति भर नहीं होती।
सामूहिकता से बाहर खदेड़े गए बधिर कहलाए लोग
सुनते हैं जीवन की इंद्रियभेदी धुन,
अनहद की तरह अपनी आत्मा पर।
मत कहिए उनको कि उनका व्यक्तित्व लघु है
छुप-छुपकर बातें सुनती पत्थर की दीवारों से भी।
माँ का स्तन पकड़े अनिमेष शिशु
अपनी जिह्वा पर जो चखता है,
उसे दूध का नहीं,
जिजीविषा की मोहित स्वाद कहिए।
मनुष्य,
इंद्रियों के तुम्हारे अनुभव, सत्य हो सकते हैं
किंतु अंतिम नहीं हैं वे।
रोने की परिभाषा में
आँसुओं में डूबा अंधत्व शामिल है।
जिन्होंने हमेशा,
कवयित्री एकता वर्मा, जन्म: 24 अप्रैल 1996
हरदोई, उत्तर प्रदेश से। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से विश्व साहित्य की अवधारणा और ‘वर्ल्ड लिटरेचर टुडे’ पत्रिका पर शोधरत।
सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों में विशेष रुचि एवं उन पर लिखीं रिपोर्ट ‘न्यूज़क्लिक’, ‘मीडिया विजिल’ आदि में प्रकाशित।
अंतरराष्ट्रीय पत्रिका TMYS review के ‘आदिवासी विशेषांक’ जून 23 अंक में कविताएँ प्रकाशित।
कई पत्रिकाओं में शोध-आलेखों का प्रकाशन।
‘रमा मेहता स्मृति लेखन पुरस्कार 2024’ से सम्मानित
संपर्क : ektadrc@gmail.com एवं everma.edu@gmail.com
टिप्पणीकार श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया ,बिहार के एक गाँव में
देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
3. “पत्थर से निकलती कराह”(कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित)
4. ‘अँधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ(कहानी-संग्रह), बोधि प्रकाशन से रामकुमार ओझा पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के तहत प्रकाशित
संप्रति-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)
सम्पर्क: 09709719758, 7004945858
Email id- shreedhar0080@gmail.com