( प्रतिरोध का सिनेमा अभियान अपनी घुमंतू सिनेमा यात्राओं की वजह से भी आम लोगों के बीच अर्थपूर्ण सिनेमा को सार्थक तरह से पहुंचाने में कामयाब रहा है. आज विश्व फ़ोटोग्राफी दिवस के मौके पर जानिये इस अभियान के पूर्णकालिक कार्यकर्ता संजय जोशी से ऐसी ही एक यात्रा की मजेदार कहानी और उस मौके पर हासिल एक दुर्लभ फ़ोटो. का क़िस्सा . सं . )
आज विश्व फोटोग्राफी दिवस के मौके पर यह तस्वीर साझा करने से अपने को रोक न सका . यह जून 2016 के पहले सप्ताह की फ़ोटो है जब मैं अपने परिवार के साथ उत्तराखंड में गर्मियों की छुट्टियों के साथ -साथ घुमंतू सिनेमा की यात्रा पर निकला था. शायद 1 जून को कौसानी से बहुत सुबह निकलकर हमें बेरीनाग के राजकीय कन्या विद्यालय में पहुंचना था जहाँ किशोर लड़कियां सिनेमा देखने के लिए हमारा इंतज़ार कर रहीं थीं .
कौसानी से निकलने में ही देर हो गयी क्योंकि सुबह ही हिमालय की श्रेणियां दिख गयीं जो आमतौर पर जून के महीने में बहुत कम दिखती हैं . फिर गरुड़ घाटी में गाड़ी चलाने का ऐसा आनन्द था कि हर 100 -200 मीटर बाद किसी नए मोड़ से हिमालय की श्रेणियां और सुंदर दिखने लगती. एक धुर ग़ाज़ियाबादी हो चले मुझ इलाहाबादी पहाड़ी के लिए अपने हिमालय कनेक्शन को पक्का करने का यह सुनहरा अवसर था. हम न सिर्फ़ हिमालय को निहारते रहे बल्कि अपने को प्रमाणित करने के लिए विभिन्न कोणों से अपनी , हिमालय की और अपनी व हिमालय दोनों की फ़ोटो उतारते रहे.
इन सब वजहों से 11 बजे की बजाय 12 बजे जब हम बेरीनाग के राजकीय कन्या विद्यालय के विशाल हाल में पहुंचे तो मुझे जैसे सिनेमा एक्टिविस्ट की बांछे खिल गयीं. यह 80 फ़ीट गुणा 30 फ़ीट का ऊंची छत वाला भव्य हाल था जिसमें करीब 500 किशोरियां सिनेमा देखने के लिए हमारा इंतज़ार कर रहीं थीं.
उनका यह इंतज़ार वाकई इंतज़ार ही था क्योंकि उनके स्कूली जीवन में सामूहिक रूप से सिनेमा देखने का यह शायद पहला मौका बनने वाला था. पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार हमें 11 से 1 के बीच दो घंटे का समय मिला था जिसमे से एक घंटा हम अपनी लापरवाही से गँवा चुके थे. मेरे अनुरोध पर समर्पित अध्यापकों ने हॉल में पहले से ही अपनी भरसक कोशिश से थोड़ा बहुत अँधेरा भी हासिल कर लिया था.
मुझे मालूम था कि यहाँ बैठी बहुत सी लड़कियां दूर –दराज के गांवों से भी आती होंगी और उन्हें वापिस पैदल ही घर जाना होता है इसलिए मैंने बिना किसी औपचारिकता के नार्मन मेकरेलन की हमेशा सराही जाने वाली फ़िल्मों ‘द चेरी टेल’ और ‘नेबर’ से स्क्रीनिंग शुरू की. थोड़ी ही देर में 80 गुणा 30 फ़ीट का कन्या विद्यालय का हाल किशोरियों के हंसी के ठहाकों से गूंजने लगा. ठहाकों का यह क्रम लगातार बना रहा. इस क्रम में थोड़ा व्यवधान तब आया जब मैंने अमुधन रामलिंगम पुष्पम की दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘शिट’ दिखाई जो मदुराई की महिला सफ़ाई कामगार के नारकीय जीवन के बारे में है . इसके बाद के पी ससी के म्यूज़िक वीडियो ‘गाँव छोड़ब नाही’ के माध्यम आदिवासी समाज और विकास की अवधारणा पर गंभीर विचार -विमर्श हुआ.
धीरे -धीरे एक अद्भुत संवाद बनने लगा . मेरे लिए इतने शानदार हॉल में इतने सारे दर्शकों के बीच सिनेमा दिखाना, सबको ठहाके लगाते हुए देखना और फिर गहरे संवाद में किशोरियों को जुड़ते हुए देखना कम रोमांचकारी न था. प्रतिरोध का सिनेमा अभियान की सामान्य प्रैक्टिस में हमें आमतौर पर बेहद कामचलाऊ बल्कि गैर सिनेमाई जगहें मिलती रहीं हैं जिस वजह से कई बार हमारी शानदार फ़िल्में भी वो प्रभाव पैदा नहीं कर पाती जो बेरीनाग के इस भव्य हॉल में कर पा रही थीं .
खैर, बहुत जल्द ही एक घंटा बीत गया और किशोरियों के घर जाने का वक़्त करीब आ गया. मुझे भी मन मसोस कर स्क्रीनिंग को समेटना पड़ा . इससे पहले कि सिनेमा का शो उखड़ जाए मैंने सबको औपचारिक धन्यवाद देते हुए फ़िर से आने के वायदे के साथ अपना सिनेमा सत्र पूरा किया.
इस पूरी स्क्रीनिंग में 2400 वर्ग फ़ीट के शानदार हाल में 500 किशोरियों के छत फाड़ ठहाकों की उपलब्धि के अलावा एक और ख़ास चीज मुझे हासिल हुई जो बाद में स्क्रीनिंग की तस्वीरों को छांटने के क्रम में मिली थी. वह चीज थी इस विशाल समूह के बीच सिनेमा दिखाते हुए हरी कमीज़ पहने पीठ वाली मेरी तस्वीर. इस तस्वीर को जब कभी देखता हूँ तो बेरीनाग में बिताई वो यादगार दुपहर याद आती है . उस दुपहर में सिनेमा के मजे से उपजे किशोरियों के शानदार ठहाके और नए विषयों के प्रति उनकी गहरी तल्लीनता और उत्साह एक आत्मीय सुख की तरह हमेशा आनंद देता है .
शुक्रिया बेरीनाग की चेलियों , शुक्रिया ईमानदार फ़िल्मकारों तुम्हारी वजह से ये चेलियाँ खुलकर हंस सकीं और अपनी बात जोड़ सकीं .
( फीचर्ड फ़ोटो : पाखी जोशी )