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निराला, आजादी का आन्दोलन और कला की रूप-रेखा

निराला आजादी के लिए चल रहे संघर्ष और आन्दोलन के दौर के प्रखर सांस्कृतिक योद्धा हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि विधाओं में उनके लेखन में इसे आसानी से पाया जा सकता है।

स्वतंत्रता, स्वाधीनता उनका प्रिय शब्द है। उनके व्यक्तित्व का भीतरी तत्व भी और बाहरी लक्ष्य भी उसमें अभिव्यक्त होता है।

यह स्वतंत्रता और स्वाधीनता उनके यहां व्यक्ति से लेकर समाज और भावी राष्ट्र तक विस्तार लिए है। निराला का ‘वैयक्तिक’ उनकी किसी भी रचना में आखिर तक आते-आते ‘सामाजिक’ हो जाता है।

उनकी लम्बी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ में द्वन्द्व और संघर्ष की जो व्यंजना है, वह सिर्फ वैयक्तिक नहीं है। इसी तरह बेहद निजी, आंतरिक अनुभूति की कविता ‘सरोज स्मृति’ सामाजिक गुलामी, पाखंड, दिखावा आदि से मुक्ति का स्वर लिए है।

‘बादल राग’ कविता बाबा रामचन्द्र और मदारी पासी के नेतृत्व में 1920 ई. के अवध किसान आन्दोलन की छाया लिए हुए है। किसानों के  तालुकेदारों से मुक्ति का भाव इसमें व्यंजित होता है। अवध का किसान आन्दोलन लगभग एक दशक तक चलता रहा।

निराला इस आन्दोलन की हर घटना से वाकिफ होते चलते हैं। उनकी संवेदना किसानों के साथ थी। इस किसान आन्दोलन की सीमाओं को वे समझ रहे थे। ‘चतुरी चमार’ कहानी में यह अभिव्यक्त होता है।

इस किसान आन्दोलन के दौरान गाँव में कांग्रेस का झण्डा लगने को लेकर ब्रिटिश राज की पुलिस थाने में निराला को बुलाकर पूछताछ करती है।

निराला का एक अधूरा उपन्यास ‘काले कारनामे’ तालुकेदारों के छल-कपट, धोखा, फरेब, दांव-पेंच एवं उनके विभेदकारी सामाजिक व्यवहार  पर ही केन्द्रित है।

‘कुल्ली भाट’   राष्ट्रीय स्वाधीनता  आन्दोलन में सामाजिक वर्गों की मुक्ति के जुड़ने की आकांक्षा का अद्वितीय आख्यान है।

निराला के उपन्यास ‘चोटी की पकड़’ में 1905 ई. के बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में स्वराज्य के भाव-निर्माण को केन्द्रीय विषय बनाया गया है। कहने का आशय यह कि निराला के यहां स्वाधीनता, गुलामी से आजादी मुख्य विचार है। यह राजनीतिक, सामाजिक तथा मनुष्य से लेकर प्रकृति तक विस्तार लिए है।

निराला के ऐसे साहित्य में एक खास प्रवृत्ति दिखती है। यह है साहित्य में ऐसे आम जन या मामूली लोगों की  प्रतिष्ठा, जिनको इतिहास में जगह भले न मिली हो, लेकिन, जिनसे आजादी के आन्दोलन में फर्क पैदा होता है।

निराला की एक कहानी है, ‘कला की रूप-रेखा’। इस कहानी को इतिहास या आजादी के आन्दोलन को जो जानना-समझना चाहते हैं, उन्हें पढ़ना चाहिए। साथ ही उन्हें भी यह कहानी पढ़नी चाहिए, जो साहित्य का उद्देश्य जानना-समझना चाहते हैं।

साहित्य को क्या होना चाहिए या साहित्य क्यों मनुष्य की बुद्धि के कलात्मक उत्पाद में अलग और ऊंचा दर्जा रखे, इसे निराला के साहित्य से जाना जा सकता है। इस लिहाज से ‘कला की रूप-रेखा’ कहानी महत्वपूर्ण है। इसका शीर्षक ही है, ‘कला की रूप-रेखा’। इसके लिए निराला ने एक सत्य घटना को कहानी का विषय बनाया है।

घटना 1936 ई. की है। कहानी के प्रारम्भ में ही यह सूचना है-

“प्रयाग में था, लूकरगंज में, पं. वाचस्पति पाठक के यहाँ। ‘लीडर प्रेस’ में ‘निरुपमा’ बेचने गया था। जाड़े के दिन 1936 का प्रारम्भ। चाय पीने की लत है। चाय के साथ हिन्दू मिठाई, फल, टोस्ट वगैरह खाते हैं, मैं अण्डे खाता हूँ-बायल्ड, हाफ-बायल्ड या पोच, समय रहा तो आमलेट; अण्डे बत्तख के नहीं, मुर्गी के। पाठक की मा मुर्गी का पर देख लें तो मकान छोड़ दें, लिहाजा सुबह उठकर स्टेशन जाता था, एक मुसलमान की दूकान में, पाठक देखते थे, मैं खाता-पीता था।”

निराला कहानी के वाचक हैं और पात्र भी। कोई चाहे तो इस विवरण से निराला की कविता ‘बापू यदि तुम मुर्गी खाते’ का सन्दर्भ ले सकता है। निराला की कहानियों के विवरण में समय और समाज के इतने आयाम उभर आते हैं, कि उससे  इतिहास और समाजशास्त्र की अच्छी-खासी पुस्तक तैयार हो जाय।

निराला के जन्म के साल को लेकर हिन्दी-साहित्य में एक विवाद चलता है, जबकि अगर निराला की कहानियाँ पढ़ी जायें तो बहुत जगह निराला अपनी अवस्था का उल्लेख करते हैं। इस कहानी में भी है-

“जाते-आते रास्ते में बातचीत होती थी, तरह-तरह की। पाठक मुझसे ग्यारह-बारह साल छोटे हैं। इस समय, अट्ठाईस और चालीस की पटरी बैठ सकती है।”

इस समय अर्थात 1936 ई. में निराला चालीस के हैं। खैर, यह एक अन्य बात हुई।

एक रोज चाय पीने जाते हुए पाठक ने निराला से पूछा, “कला क्या है?” निराला ने कहा, “कुछ नहीं।” फिर इसे समझाते हुए कहा-

“जो अनन्त है, वह गिना नहीं जा सकता। इसलिए ‘कुछ नहीं’ कहा। इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है। कला उसी तरह की सृष्टि है, जैसे आप सामने देखते हैं, बल्कि यही सृष्टि लिखने की कला की जमीन है। अनादिकाल से अब तक सृष्टि को गिनने की कोशिश जारी है, पर अभी तक यह गिनी नहीं जा सकी, अधिकांश में बाकी है। यह एक-एक सृष्टि एक-एक कला है। फलतः कला क्या है, यह बतलाना कठिन है। अद्वैतवाद में, सृष्टि के गिनने की असमर्थता के कारण, सृष्टि का अस्तित्व ही उड़ा दिया गया है। इसलिए कहा, कला कुछ नहीं है। कला के दो-चार, दो-चार सौ, दो-चार हजार, दो-चार लाख, दो-चार करोड़ रूप ही बतलाये जा सकते हैं। पर इससे कला पूरी-पूरी न बतलायी गयी। पर एक बोध है, उसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है, जैसे ब्रह्म के अलग-अलग रूपों की बात नहीं कही गयी, केवल ‘सच्चिदानंद’ कह दिया गया है। इसी को साहित्यिकों ने ‘सत्य, शिव और सुन्दर’ कहकर अपनाया है। बोध वह है, जैसी कला हो, उसके विकास-क्रम का वैसा ज्ञान। इसके लिए प्राचीन और नवीन परम्परा भी सहायक है और स्वजातीय और विजातीय ज्ञान के साथ मौलिक अनुभूति और प्रतिभा भी।”

कला या साहित्य के विकास-क्रम का ऐतिहासिक ज्ञान या यथार्थ बोध होना चाहिए। इसमें प्राचीन और नवीन दोनों परम्परा सहायक है। साथ ही, स्वजातीय के साथ विजातीय ज्ञान भी कलात्मक बोध के लिए सहायक है।

ब्राह्मण जाति, हिन्दू धर्म और हिन्दी-भाषा के समाज में जन्म लेकर, सिर्फ उसी की ज्ञान-परम्परा को सब कुछ मान लेना निराला के लिए साहित्य का उद्देश्य नहीं है, बल्कि उसके बाहर के जितने विजातीय तत्व, ज्ञान परम्पराएं हैं, उनका बोध भी जरूरी है।

भारत देश में जहाँ कई राष्ट्रीयताएं, अस्मिताएं, धर्म-दर्शन की परम्पराएं मौजूद हों, वहाँ के लिए कला की रूप-रेखा पर निराला का यह विचार व ‘विजातीय ज्ञान’ पद का प्रयोग मानीखेज और महत्वपूर्ण है।

स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में निराला की यह बात और भी  महत्व की है। क्योंकि 1936ई. तक धर्म आधारित राष्ट्र की परिकल्पना जोर पकड़ रही थी। यही समय है जब सावरकर हिन्दू राष्ट्र और भारतीय संस्कृति  का एकांगी सिद्धांत लेकर आ चुके थे।

पूरे उद्धरण पर ध्यान देने से निराला के उस चिन्तन और  विवेक का भी पता चलता है, जिस पर वे औपनिषदिक दर्शन और परम्परा को  देखते हैं।

अद्वैत दर्शन, जिसमें नवजागरणकालीन कई बड़े लेखक फिसल कर गिरे, उसका ऐतिहासिक  बोध निराला के यहाँ है। वे पाठक को बताते हैं कि अद्वैतवाद में सृष्टि को गिनने की असमर्थता के चलते सृष्टि का अस्तित्व ही उड़ा दिया है।

भारतीय दर्शन की भौतिकवादी परम्परा के ज्ञान के चलते या खुद के जीवन अनुभव से विकसित  आधुनिक बोध के चलते निराला अद्वैतवाद की इस सीमा को जानते हैं।

हिन्दी के कई लेखकों ने तो भारतीय दर्शन को अद्वैतवाद के दर्शन में ही विलीन कर दिया। विजातीय ज्ञान और दर्शन  कुछ बचा ही नहीं।

निराला यहाँ पूरे हिन्दी नवजागरण में इसे लेकर  सबसे अलग दिखते हैं। निराला के लिए सिर्फ औपनिषदिक दर्शन और ज्ञान परम्परा पर निर्मित संस्कृति ही पूरी भारतीय संस्कृति नहीं थी।

अर्थात, निराला के यहाँ भारतीयता, सिर्फ हिन्दू संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति  नहीं थी। आज जिस तरह से भारतीय संस्कृति, कला, सिनेमा, साहित्य सभी को एकांगी, एकरंगी किया जा रहा है, उसमें निराला का यह विचार बहुत अर्थ रखता है।

अभी तो हाल यह है, कि विजातीय ज्ञान तो छोड़ दें, स्वजातीय ज्ञान परम्परा को भी एकरंग किया जा रहा है। सब कुछ वैष्णव किया जा रहा है। शैव, शाक्त, भागवत आदि से लेकर अन्य प्रकृति पूजक परम्पराओं को भी वैष्णवी बनाया जा रहा है, उसमें विलीन किया जा रहा है। इस काम में आज सबसे अधिक कला, सिनेमा, साहित्य को आगे कर दिया गया है।

कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे, गौरी लंकेश  की हत्याओं के पीछे का विचार समझ में आता है। इसीलिए इस बात को समझना ज्यादा आसान है कि क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दी साहित्य की दो शख्सियत, प्रेमचंद और निराला के यहाँ ‘हिन्दू मन’ की खोज पर निकला है। मिल गया तो ठीक, नहीं तो उसे विकृत करने में जुट जाता है। खैर

आगे कहानी में वाचक निराला और पाठक के बीच हिन्दी के भिन्न-भिन्न अंगों पर संवाद आगे बढ़ता है। निराला पाठक को बताते हैं-

“हिन्दी-भाषियों का मस्तिष्क दुर्बल है, रूढ़िग्रस्त होने के कारण वहाँ नवीन विचारधारा जल्द नहीं प्रवेश पाती, यद्यपि भारतीय समस्त साहित्य का इतिहास समस्त प्रकार की मौलिकता लिये हुए है। हिन्दी का समाज-संस्कार अनुरूप न होने के कारण उपन्यास उच्चता तक नहीं पहुँच रहे- बहुत जगह भविष्य-समाज की कल्पना कर लिखा जाता है। काव्य, कहानी, प्रबन्ध, नाटक इन सबका लेखक जो मनुष्य है, वह अनेक रूपों में अभी विकसित नहीं हुआ, बड़ी कमजोरियाँ हैं, फलतः साहित्य अभी साहित्य नहीं हो सका।”

रूढ़िग्रस्त हिन्दी-समाज में साहित्य को साहित्य बनाने के लिए निराला निरंतर संघर्ष करते रहे। कुल्ली भाट, चतुरी चमार आदि में  तथा अन्य कहानियों में भी निराला हिन्दी-समाज और साहित्य को लेकर चुटीली टिप्पणियां, व्यंग्य  करते हैं।

अर्थात, कला की रूप-रेखा में  उस मनुष्य की स्थापना अभी पूरी तरह से नहीं हुई है, जो इतिहास-निर्माण की प्रक्रिया में फर्क पैदा करता है या वस्तुनिष्ठ दृष्टि से सृष्टि को देखना  अभी हिन्दी साहित्य में नहीं हुआ है। अभी वह दृष्टि आत्मनिष्ठ है, आध्यात्मिक है, वेदान्ती है। बहरहाल

निराला का पाठक से संवाद होता रहता है और एक दिन  चाय पीकर जैसे ही स्टेशन से निकलने को होते हैं,  कहानी की मूल घटना सामने आती है।

“अभी हम लोगों ने स्टेशन का अहाता पार नहीं किया था। अहाते में मदरासियों का एक दल बैठा हुआ देख पड़ा। मैंने सोचा, शायद ये लोग कुम्भ नहाने आये थे। इतने ही में कि उनमें से एक आदमी, उम्र पैंतालीस के लगभग, भौंरे का रंग, खासा मोटा-तगड़ा, एक लंगोटी से किसी तरह लाज बचाये हुए, उतने जाड़े में नंगा बदन, दौड़ा हुआ मेरे पास आया और एक साँस में इतना कह गया कि मैं कुछ भी न समझा। मैंने फिर पूछा। टूटी-फूटी हिन्दी में पूरे उच्छ्वास से वह फिर कहने लगा। इस बार मतलब मेरी समझ में आया। वह यात्री है, मदरास का रहनेवाला, कुम्भ नहाने आया था, यहाँ चोर उसके कपड़े-लत्ते, माल-असबाब उठा ले गये, गठरियों में ही रुपये-पैसे थे, अब वह (अपने आदमियों के साथ) हर तरह लाचार है, दिन तो किसी तरह धूप खाकर, भीख माँगकर पार कर देता है, पर रात काटी नहीं कटती। जाड़ा लगता है। वह एक दृष्टि से मेरा मोटा खद्दर का चादरा देख रहा था। मैं विचार न कर सका, उतारकर दे दिया। वह मारे आनन्द के दौड़ा हुआ अपने साथियों के पास गया और इस महादान की तारीफ करने लगा, मेरी तरफ उँगली उठाकर बतलाता हुआ।”

निराला के साथी पाठक को यह ठीक नहीं लगा। उन्हें पता था कि निराला के पास वैसे ही कपड़े कम रहते हैं और उन्होंने अपना चादर दे दिया। पाठक बोले, “यह अभी दोपहर को, गुदड़ीबाजार में, चार आने में, यह चादरा बेचेगा।”

इस घटना के दो महीने बाद नैरेटर निराला  कांग्रेस अधिवेशन की गतिविधियों, खबरों को जानने के लिए लखनऊ में होते हैं। यह कांग्रेस का उन्चासवां अधिवेशन था। सत्ताईस मार्च को पाठक भी अपने दो मित्रों के साथ पहुँच गये। अधिवेशन में घूमते- टहलते एक दिन वह दूसरी घटना आती है कहानी में, जो मूल कथ्य और संवेदना दोनों लिए होती है-

“शाम को बाहर निकला। एकाएक एक ऊँची आवाज आयी। देखा, एक स्वयंसेवक दौड़ा आ रहा है, स्वयंसेवक की वर्दी पहने हुए। मुझे देखकर दोनों हाथ उठाकर फिर उसने हर्षध्वनि की। मुझे ऐसा मालूम देने लगा जैसे उसे स्वप्न में कभी देखा हो। मुझे पहचानता हुआ न जानकर उसने आनन्दपूर्ण लड़खड़ाती हिन्दी में कहा, ‘मैं वही हूँ, जिसे आपने चादरा दिया था।”

इसके बाद निराला की प्रतिक्रिया है, “मुझे कला का जीवित रूप जैसे मिला। प्रसन्न आँखों से देखता हुआ मैं तत्काल कुछ कह न सका। संयत होकर बोला, ‘आप कांग्रेस में आ गये। अच्छा हुआ।’ उसने कहा, ‘फिर मैं वहाँ स्वयंसेवकों में भरती हो गया।’ प्रसन्न-चित्त बाहर निकलकर मन में मैंने कहा, ‘पाठक मिलें तो बताऊँ कैसे गुदड़ी बाजार  में इसने चादरा बेचा।”

आजादी का आन्दोलन चल रहा है। सुदूर दक्षिण से धार्मिक पुण्य हेतु उत्तर में कुम्भ नहाने  आये व्यक्ति का सारा सामान, रुपया-पैसा चोरी चला जाता है। परिस्थितियों और घटनाओं के बीच वह आजादी के आन्दोलन से जुड़ जाता है। निराला उसे देखकर कहते हैं, ‘मुझे कला का जीवित रूप जैसे मिला।’, ‘पाठक मिलें तो बताऊँ कैसे गुदड़ीबाजार में इसने चादरा बेचा।’

निराला के लिए साहित्य का उद्देश्य स्पष्ट है। कला की रूप-रेखा स्पष्ट है। ‘कुल्ली भाट’ और ‘चतुरी चमार’ जैसे चरित्रों को इस मदरासी व्यक्ति के चरित्र से मिलाकर देखने पर यह और स्पष्ट हो, जाएगा, कि निराला के लिए साहित्य देश-काल के यथार्थ और उसके भीतर से मामूली लोगों के जीवन-संघर्ष की अभिव्यक्ति है।

यह मामूली लोग, जिनके यहाँ  देश-प्रेम और मनुष्यता का जीवित रूप मिलता है। जहाँ मामूली व्यक्तित्वों  का आत्म-प्रसार, आत्म-विस्तार है।

इनकी कहानियाँ इतिहास में नहीं मिलेंगी। इसीलिए शायद प्रेमचंद साहित्य का उद्देश्य निबंध में लिखते हैं, कि इतिहास सच होकर में झूठ है और साहित्य झूठ होकर भी सच है।

साहित्य जीवन-संघर्ष के साथ जीवन-मूल्य की भी रचना करता है। निराला के यहाँ लगातार इसी साहित्य के लिए संघर्ष है। निराला ने कई जगह इसे व्यक्त किया है, कि मैं साहित्य को जितना ऊँचा उठाना चाहता हूँ, लोग(‘हिन्दी समाज’, संकेत मेरा) मुझे उतना ही नीचे गिराते हैं। नैतिकता को धर्म से हटाकर राष्ट्रीय मुक्ति के आन्दोलन के सापेक्ष कर देना निराला का अभीष्ट है। उनका साहित्य इसी के लिए जूझता है।

इसे किसी निश्चित परिभाषा से समझने की बजाय खुद निराला के साहित्य की अंतर्वस्तु से ज्यादा ठीक से समझा जा सकता है।

निराला का साहित्य एक साथ वैयक्तिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीय आन्दोलन, सामाजिक मुक्ति और मानवीय करुणा तक विस्तार लिए है। इसके भीतर तमाम चरित्र व्यक्तित्वांतरण लिए हुए हैं। निराला के यहाँ कला की यही रूप-रेखा है। इसमें मनुष्य, समाज, राष्ट्र और संस्कृति की उदार, व्यापक और मानवीय चिंतन-पद्धति मिलती है। निराला का यह चिंतन किसी भी संकीर्ण, एकांगी, एकरंगी सोच के विरुद्ध पड़ता है। बहरहाल

निराला से जब वह विदा लेता है। उसके पास चप्पल नहीं है। वह पैदल अपने देश(मदरास) जाना चाहता है। निराला के खुद के पास केवल छः पैसे बचे हैं, जिसमें चप्पल नहीं आ सकता। उनके खुद के चप्पल जीर्ण हो चुके थे। वे खुद को मदद न कर पाने से लज्जित महसूस करते हैं। फिर भी वह विदा लेता है, तो निराला लिखते हैं,

“उसने वीर की तरह मुझे देखा। फिर बड़े भाई की तरह आशीर्वाद दिया और मुस्किराकर अमीनाबाद की ओर चला। मैं खड़ा-खड़ा उसे देखता रहा, जब तक वह दृष्टि से ओझल नहीं हो गया।”

आजादी का आन्दोलन ऐसे  मामूली और असंख्य लोगों की चेतना-निर्माण से अपने अंजाम तक पहुंचता है। इस चेतना-निर्माण की प्रक्रिया कई रूप लिए होती है। वह एकरेखीय नहीं होती। निराला ने ऐसे कितने रूपों को अपने साहित्य में रचा है। कोई चाहे तो निराला के साहित्य के अध्ययन से जनता की जगह से आजादी के आन्दोलन का नया पाठ कर सकता है।
निराला उस ‘वीर’ को जिस दृष्टि से देखते हैं, उसी की सृष्टि साहित्य है, कला की रूप-रेखा है!

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