निराला के निबंधों और टिप्पणियों में राजनीति और समाज को लेकर महत्वपूर्ण विचार-विमर्श मिलता है। इसमें वे राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चलने वाली राजनीति और उस संदर्भ में समाज की स्थिति पर चिंतन करते हैं। निराला यहां राजनीति के लिए सामाजिक योग्यता की बात करते हैं।
निराला ने बंगाल में सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रभाव को देखा था। इन आंदोलनों ने सामाजिक पुनर्गठन को संभव किया। बंगाल की राजनीति पर इसका असर रहा। चाहे आजादी के आंदोलन की राजनीति रही हो या आजादी के बाद बंगाल की राजनीति रही हो।
कहने का आशय यह, कि सामाजिक आंदोलन, सुधार या परिवर्तन का संघर्ष राजनीति के अंतर्वस्तु को प्रभावित करता है।
बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल आदि ऐसे जो प्रांत हैं, जहां सामाजिक सुधार या परिवर्तन का स्वर मुखर रहा, वहां की राजनीति भी इन प्रश्नों को नजरअंदाज नहीं कर पायी।
इसे सैद्धांतिक स्तर पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के सामने उठाया। जब वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सामाजिक लोकतंत्र की लड़ाई को जरूरी बताते हैं।
हालांकि, डॉक्टर अंबेडकर पूर्व के सामाजिक सुधारों को पारिवारिक सुधारों तक सीमित बताते हैं और उसका जाति-वर्ण तक विस्तार चाहते हैं।
लेकिन, इसके बावजूद भी पूर्व के जो सामाजिक सुधार थे, उसके निश्चित परिणाम सामने आए। इसने सामाजिक गतिशीलता को बल दिया। इसने एक उदार मध्य वर्ग के निर्माण में सहायता की। इस उदार और प्रगतिशील मध्य वर्ग ने राजनीति की दिशा को प्रभावित किया। पूर्णतः परिवर्तनकारी न होते हुए भी, आधुनिक विचारों के लिए जगह तो इससे बनी ही। किंतु हिंदी समाज में ऐसे किसी सुधार का अभाव रहा।
हिंदी समाज के भीतर कोई सामाजिक सुधार आंदोलन घटित नहीं हुआ। निराला जब बंगाल से हिंदी क्षेत्र में आते हैं, तो हिंदी क्षेत्र की स्थिति से उनका सामना होता है।
निराला हिंदी समाज के परिवर्तन या सुधार के लिए ज्ञान के क्षेत्र में समाधान खोजने जाते हैं। व्यवहार में हिंदी समाज, जाति-वर्ण के विभाजन और इससे निर्मित संस्कृति से संचालित था। निराला के यहां द्वंद इसीलिए अधिक है।
हिंदी समाज में सामाजिक आंदोलन के अभाव का असर राजनीति पर भी था। हिंदी समाज से निकले हुए राष्ट्रीय आंदोलन के कांग्रेस नेतृत्व में पिछड़ापन मौजूद मिलता है।
इसमें नेहरू परिवार ही ऐसा है, जो आधुनिकता और सेकुलर मूल्य से संचालित था। लेकिन, नेहरू किसी सामाजिक सुधार आंदोलन को गति देने में विफल रहे। अवध के किसान आंदोलन में नेहरू को ऐसा अवसर मिला था, लेकिन वह उससे पीछे हटे।
अवध का किसान आंदोलन ही एक मात्र ऐसा आंदोलन था, जिसमें सामाजिक आंदोलन के तत्व भी थे। एका आंदोलन और नाई-धोबी बंद आंदोलन उसी का अंग था।
निराला जब इस आंदोलन के संपर्क में आते हैं, तो वह हिंदी समाज के वास्तविक प्रश्नों से मुखातिब होते हैं। इसमें सबसे बड़ा प्रश्न था जाति-वर्ण के विभाजन का।
निराला के निबंधों में इस प्रश्न पर सबसे अधिक विचार-मंथन मिलता है। निराला सामाजिक साम्य को आधुनिक राष्ट्र निर्माण, हिंदी जातीयता के निर्माण और लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आवश्यक मानते हैं।
यह एक महत्वपूर्ण लेकिन अजीब सी लगने वाली बात है, कि राष्ट्रीय राजनीति में या कांग्रेस नेतृत्व में हिंदी समाज के नेताओं के लिए सामाजिक सुधार का प्रश्न प्राथमिक क्यों नहीं लगा! यह कार्यभार दो लेखकों ने लिया। एक प्रेमचंद, दूसरे निराला।
इतना ही नहीं, 1935 ई. तक आते-आते दोनों ने लेखन से आगे बढ़कर लेखक संगठन में भी अपनी भूमिका बढ़ायी। लेकिन, राजनीति में इस प्रश्न को स्थगित रखा गया। जबकि, निराला जैसे लेखक राजनीति के लिए सामाजिक सुधार को आवश्यक मानते हैं।
निराला ने एक लेख ही लिखा, जिसका शीर्षक है, ‘राजनीति के लिए सामाजिक योग्यता’। यह 1933 ई. का लेख है और सुधा अर्धवार्षिक में छपा है। इसमें निराला लिखते हैं,
“भारत की जातीय राजनीति ने रुख बदल दिया है। इसे यहां की राजनीतिक अदूरदर्शिता भी कह सकते हैं। यहां के एक नेता ने अपर नेताओं का समर्थन करते हुए लिखा है, कि उनकी राजनीतिक चालें बड़ी गहरी थीं। नाकामयाबी अख्तियार से बाहर की बात है। हम इसे केवल मन को समझा लेना समझते हैं। यह कोई तथ्य पूर्ण बात न हुई। अपनी गोटों को सुरक्षित न देखकर, उनके पिट जाने की बात न सोचकर एक उत्तरदायी चाल बढ़ा देना कोई राजनीतिज्ञता न हुई- यह गलती ही है।”
फिर आगे लिखते हैं,
“इस राजनीतिक गलती का कारण हुआ उसकी सामाजिक दुर्बलता।… शासन के प्रारंभ से हमारा जातीय विच्छेद ही हमारी कमजोरी का कारण रहा, और हम कल तक इसके सुधार के लिए न लगे। यह कारण आज भी हमारे सामने उसी रूप में है, और इसी का सुधार हमारा सब प्रकार का सुधार है।”
अर्थात निराला का स्पष्ट मानना है, कि सामाजिक सुधार और परिवर्तन ही बाकी के सुधारों का आधार है। राष्ट्रीय राजनीति, देश की आजादी और आजादी प्राप्ति के बाद राष्ट्र निर्माण के लिए सामाजिक सुधार और परिवर्तन पूर्व शर्त है। इसी लेख में निराला पुनः लिखते हैं,
“हम बहुत पहले से कह रहे हैं, समाज का आमूल परिवर्तन जरूरी है। प्रकृति ने सदियों की पराधीनता से दबाकर भारत की जातीय उच्चता को नष्ट कर दिया है। अब सब एक ही जाति हैं- शुद्र।… हम इस बात को न समझकर, ब्राह्मण बनकर, भारतीय संस्कृति के एकच्छत्र सम्राट होकर भाइयों पर खोखली भारतीयता का रोब गाँठते रहे। अब उस भारतीयता से कैसा फल पैदा हुआ, वह सामने है, चखिए।”
अगर भारत के भूगोल में उत्पन्न व्यापक संस्कृति को देखा जाय तो उसमें सदैव एक गतिशीलता विद्यमान मिलती है। उसमें विभिन्न मत और विचार मिलते हैं। लेकिन क्रमशः इसे ब्राह्मणवादी, वर्णवादी संस्कृत में सीमित किया गया और उसे ही भारतीय संस्कृति के रूप में आरोपित किया गया। यह काम नवजागरण के साहित्य ने भी किया और राजनीति ने भी किया।
जब निराला कहते हैं, कि ‘ब्राह्मण बनकर भारतीय संस्कृति के एकच्छत्र सम्राट होकर’, तो वे वर्णवाद को ही दोषी ठहराते हैं। वह वर्णवाद जिसमें ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा गया है। इसी को आगे वे और स्पष्ट लिखते हैं,
” जो ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी वर्णोच्चता का ढोंग भी नहीं छोड़ सकते, अपने ही घर के अंत्यजों को अधिकार नहीं दे सकते, भारतीयता के अंधेरे में प्रकाश देखने के आदी हैं, वे बिना दिए हुए कुछ पाने का विचार कैसे रखते हैं?… हमारी राजनीतिक दुर्बलता यहीं पर है। यही से हमें समाज- जातीय समाज- भारतीय समाज की नींव डालनी है। उसी की मजबूती हमारे राष्ट्र की दृढ़ता है।”
यहां निराला जाति-वर्ण के भेद, वर्णोच्चता के भाव को राजनीतिक दुर्बलता कहते हैं। अर्थात सामाजिक परिवर्तन का प्रश्न अगर किसी राजनीति में शामिल नहीं है, तो वह राजनीति जातीय समाज- भारतीय समाज का निर्माण नहीं कर सकती। न ही, एक दृढ़ राष्ट्र का निर्माण कर सकती है।
यह बात आज के समय में भी भारत के भीतर चलने वाली राजनीति पर लागू होती है। एक तरफ हिंदुत्व की राजनीति है, जिसका आधार ही जाति-वर्ण का विभाजन है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय वर्णोच्चता के आसन पर हैं। दूसरी तरफ जो हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला कर रहे हैं, उनमें भी प्रकारांतर से वही राजनीतिक दुर्बलता मौजूद है।
अर्थात उनके लिए सामाजिक सुधार और परिवर्तन का प्रश्न गौण है। 1930 के दशक में जो राजनीतिक दुर्बलता थी, वह अभी भी मौजूद है।
1933 ई. की ही एक टिप्पणी ‘राजनीति और समाज’ में निराला लिखते हैं, कि
‘समाज की तैयारी, राजनीति की तैयारी है’। यानी सामाजिक प्रश्न को बिना हल किए राजनीतिक हल नहीं हो सकता।
1930 ई. के दशक में भी यह बात उठी, कि पहले आजादी पाना मुख्य लक्ष्य है, उसके बाद सामाजिक सवालों पर ध्यान दिया जाएगा। अभी भी यही भाव रहता है राजनीति में। सामाजिक सवाल को पीछे कर दिया जाता है।
1930 ई. के ‘समाज और मनुष्य’ शीर्षक टिप्पणी में निराला इसी प्रश्न को उठाते हैं, कि स्वराज्य प्राप्ति के संघर्ष के साथ-साथ सामाजिक सुधार को मुख्य मानना चाहिए। निराला ने नेताओं की इस बात का विरोध किया कि सामाजिक बुराइयों को स्वराज्य प्राप्ति के बाद हल किया जाएगा। इस टिप्पणी में वे लिखते हैं,
“हमारे देश के किसी-किसी नेता ने कहा है, कि समाज में जो कमजोरियां हैं, उन्हें दूर करने के उपाय स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात सोचे जायेंगे।… जो लोग अपनी उच्च शिक्षा, अपार उद्यम, यथेष्ट त्याग और अलंघ्य साहस के बल पर जन-नायकत्व प्राप्त कर इस प्रकार की बातें करते हैं, वे अपनी अबाध शक्ति से लक्ष्य तक पहुंच कर कुछ अकर्मण्य मनुष्यों को भी अपने साथ खींच ले जाते हैं, उनकी योग्यता और अयोग्यता, शक्ति और दुर्बलता का विचार नहीं करते। इस तरह प्रायः ऐसा होता है कि समाज कुछ दूर चलकर फिर उनका साथ नहीं देता और यह उनकी मानसिक स्थिति को देखते हुए स्वाभाविक भी कहा जा सकता है।… फल यह होता है कि वह आगे खींचते हैं और कुछ दूर उठकर, सामर्थ्य न रहने के कारण, आगे बढ़ने से घबराया हुआ समाज, प्रतिक्रिया के रूप से, फिर अपने पूर्व स्थान को पहुंचना चाहता है, जिससे नेताओं के आगे खींचने और समाज के पीछे हटने के विरोधी गुणों से शक्ति का व्यर्थ ही नाश होता है।”
इसी टिप्पणी में निराला आगे लिखते हैं, कि
“दूसरे देश जहां राजनीतिक ध्येय प्राप्त हुए हैं, अपनी सामाजिक दशा में इतने पिछड़े हुए नहीं थे। वे नवीन भावना तथा नवीन कार्यक्रम को पहचानते थे।”
इसी में आगे यू.पी या हिन्दी समाज के मुख्य केन्द्र के लिए लिखते हैं,
“यहां यू.पी की जनता विचारों की इस हद तक नहीं पहुंच सकती। शिक्षा की कमी तथा रूढ़ियों का प्राबल्य होने कारण वह अपने क्षुद्रतम स्वार्थ में ही पड़ी हुई है।”
अपने चिंतन में निराला इस विचार तक पहुंचते हैं, कि राजनीतिक रूप से आधुनिक, मुक्तिकामी संघर्ष की सफलता के लिए सामाजिक चेतना को उन्नत करना आवश्यक है।
निराला का यह चिंतन आजादी के लिए चलने वाले राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में है, लेकिन वह आज की राजनीति के लिए भी प्रासंगिक है। आज हिंदुत्ववादी, विभेदकारी, फासीवादी राजनीति के खिलाफ संघर्ष करने वाले राजनीतिकों को भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि सामाजिक प्रश्न स्थगित कर राजनीतिक प्रश्न हल नहीं किया जा सकता।
आज जिस लोकतंत्र को बचाने के लिए राजनीतिक संघर्ष चल रहा है, उसे सामाजिक लोकतंत्र के सवाल को हल करना ही होगा।
सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र कमजोर बना रहेगा। जाति, धर्म, वर्ण आदि के भेद को निराला तब के राजनीतिक ध्येय की प्राप्ति में बाधक बताते हैं, सामाजिक सुधार को राजनीति करने की योग्यता बताते हैं। यह बातें आज के लिए भी उतनी ही अर्थपूर्ण हैं!