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निराला का वैचारिक लेखन: राष्ट्र निर्माण का सवाल और भाषा

राष्ट्र निर्माण में भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। निराला भावी राष्ट्र निर्माण को लेकर अपने लेखों और टिप्पणियों में  विचार करते हैं। आजादी की लड़ाई के साथ-साथ 1930 ई. के दशक में यह सवाल प्रमुख होने लगा था, कि भारतीय राष्ट्र निर्माण किस बुनियाद पर होगा, और उसका स्वरूप क्या होगा? निराला एक आधुनिक, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र निर्माण के हिमायती हैं।

इसी क्रम में उन्होंने भाषा पर भी विचार किया है। यह विचार उन्होंने एक साहित्यिक के रूप में किया है। गांधी जी से बातचीत शीर्षक निबंध में निराला लिखते हैं,

“मैंने भी वस्तु और विषय की स्वतंत्रता की तरफ ध्यान रखा है, एक साहित्यिक की तरह, एक कवि की तरह, एक दार्शनिक की तरह। मेरा उद्देश्य था और है, स्वतंत्रता बहुमुखी है और साहित्य का मतलब है- वह सबको साथ लिये रहे। इसी दृष्टि से दूसरे जाग्रत राष्ट्रों और उन्नतिशील साहित्यों  के नमूने देखते हुए,  अपने गत और वर्तमान राजनीति और साहित्य को समझते हुए, देश के विभिन्न धर्मों, संप्रदायों,  प्रांतीय भाषाओं, लोगों के अचार-विचारों के भीतरी रूप जानते हुए, बाहरी संसार से उनके सहयोग का रूप देखते हुए जो साहित्य का निर्माण करते हैं, वे साथ-साथ जाति और राष्ट्र का भी निर्माण करते हैं।”

अर्थात धर्म, संप्रदाय, भाषा को बाहरी संसार से सहयोग में होना चाहिए। बाहरी संसार आधुनिकता के मेल में है, ऐसा निराला कई जगह जिक्र करते हैं।

यूरोप में जो आधुनिक जागृति आई है, निराला उससे प्रभावित होते हैं। इसी आधुनिक, लोकतांत्रिक  परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र की भाषा पर निराला विचार करते हैं।

इस सन्दर्भ  में एक और बात ध्यान रखना है, कि निराला राष्ट्र भाषा पर विचार करते हुए एक ऐसी भाषा चाहते हैं, जो अधिकांश जनता की भाषा हो तथा  जिससे सभी प्रान्तों के  लोग आपस में संवाद कर सके।

 

निराला बंगाल में रहे और फिर हिंदी क्षेत्र में आये। बंगाल में रहते हुए बंगला भाषा और बंगला जातीयता  से निराला गहरे प्रभावित थे। लेकिन राष्ट्रभाषा के सवाल पर बंगला प्रान्तीयता  की भावना को वे उचित नहीं मानते थे।

निराला राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की व्यापकता के आधार पर वकालत करते थे। लेकिन निराला का मानना था, कि प्रांतीय भाषा भी उन्नत करे। वे शिक्षा की भाषा के रूप में मातृभाषा की वकालत करते हैं।

 

निराला हिंदी को एक राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित करने पर जोर देते हैं, जो प्रांतीय भाषाओं से सहयोग में हो और संपर्क भाषा के रूप में हो। वह लिखते हैं,

“हम राष्ट्रभाषा के लिए उसी भाषा को चुनें, जो सरलता से सीखी जा सके, सहज में  जिसका उच्चारण किया जा सके,  जिसका अधिक प्रचार और प्रचलन हो, जिसे इच्छानुसार प्रयोग कर सकें, और जिसका साहित्य संपन्न हो। यदि हम इन पांचों  दृष्टियों से देखें,  तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा की हिंदी ही राष्ट्र-भाषा बनने की सबसे अधिक अधिकारिणी है।”(‘भारत की राष्ट्र भाषा’, ‘सुधा’, मासिक, लखनऊ, जून, 1930)

 

हिंदी से यहां आशय हिंदुस्तानी भाषा से है। यह महत्वपूर्ण बात है, कि निराला जब हिंदी की, राष्ट्रभाषा के रूप में बात करते हैं, तो वह उसके हिंदुस्तानी रूप की बात करते हैं।

हिंदुस्तानी, हिंदी का वह रूप है, जो उत्तर से लेकर दक्षिण तक सामान्य रूप से बोली और समझी जाती है। इसमें सहज ग्राह्य और लोक प्रचलित शब्द अधिक हैं। यह ब्रज हिन्दी और दक्कनी उर्दू से मिलकर विकसित हुई थी।
निराला हिंदी के इसी रूप की वकालत राष्ट्रभाषा के रूप में करते हैं। निराला के अलावा प्रेमचंद भी हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने की बात करते हैं।
यह आज के समय में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने से भिन्न था। आज हिंदी को उसकी बोलियों से अलग,  उर्दू से विरोध के आधार पर संस्कृत के कठिन, अव्यवहारिक शब्दों को थोपकर  राष्ट्रभाषा बनाया जा रहा है।  हिंदी का हिंदुस्तानी रूप अब दक्षिण के राज्यों में और कुछ लोक में ही बचा है। ऐसे में निराला के भाषा संबंधी चिंतन का महत्व समझ में आता है।

निराला भी 1930 तक हिन्दी के नये शब्द गढ़ने में संस्कृत को वरीयता देते  हैं, लेकिन 1940 तक आते-आते वे लोकोन्मुख होते हैं। इसकी भौतिक वजह थी। निराला इसी दशक में साधारण हिन्दी जन के सम्पर्क में आते हैं। इसी दशक में किसान आन्दोलन, राष्ट्रीय आन्दोलन में निर्णायक ताकत बनता है। यह किसान राष्ट्रीय फलक पर अपनी भाषा भी लेकर आता है। निराला पर इसका असर है।

 

निराला हिंदी के रचनाकारों, लेखकों  से बार-बार आग्रह करते हैं,  कि सहज स्वीकार  भाषा को अपने साहित्य के माध्यम से वे बढ़ावा दें।  ऐसी हिंदी में लेखक लिखें, जिससे सरल और सहज हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो। जिसे संप्रेषण और संपर्क की भाषा के रूप में सभी प्रान्तों  को आसानी हो।

खुद निराला 1930 ई के बाद क्रमशः हिंदी के ऐसे रूप की तरफ अपनी रचनाओं में बढ़ते हैं और 1940 तक आते-आते निराला की हिंदी, हिंदुस्तानी रूप में ढल जाती है।

निराला जब हिंदी के रचनाकारों, लेखकों  से नई हिंदी के लिए आवाहन करते हैं,  तो खुद को भी इसमें रखते हैं और स्वयं भी बदलते हैं। निराला ऐसी हिंदी भाषा का रूप विकसित होते देखना चाहते थे, जिसमें राष्ट्रभाषा के गुण के साथ दर्शन और नई दुनिया के विचार को भी अभिव्यक्त करने की शक्ति हो। भाव के स्तर पर हिंदी भाषा में अंतर्राष्ट्रीयता को भी व्यक्त करने की क्षमता हो।

इस विचार से बंगला भाषा में रविंद्रनाथ टैगोर के योगदान को निराला महत्वपूर्ण मानते हैं। खुद के लिए भी एक ऐसा ही मानक रखते हैं। लेकिन इसके बावजूद बंगला भाषा को वे राष्ट्रभाषा बनने के काबिल नहीं मानते। निराला लिखते हैं,

“भारतवर्ष के लिए एक साधारण और चलित भाषा का निर्वाचन करते समय यह देखने की आवश्यकता नहीं है, कि भारत की प्रधान भाषाओं में साहित्यिक उत्कर्ष किसका बड़ा है।… यद्यपि हम मानते हैं, कि बंगला साहित्य कई दृष्टियों से औरों की अपेक्षा उत्कृष्ट है।… यह ठीक है, कि अंग्रेजी के प्रभाव से बंगला ने तरक्की की, परंतु इसका यह आशय नहीं की साहित्यिक उत्कर्ष के बल पर बंगला सारे देश की भाषा हो सकती है।”

 

निराला यह टिप्पणी, ‘हिंदी भाषा के संबंध में बंगाली मनोवृत्ति’ शीर्षक संपादकीय में करते हैं। निराला यह टिप्पणी श्री सुशील कुमार वसु के एक लेख के सापेक्ष करते हैं। सुशील कुमार वसु का लेख बंगाल की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘विचित्रा’ की आषाढ़ की संख्या में छपा था। यह लेख भारत की साधारण भाषा क्या होनी चाहिए, विषय पर लिखा गया था।

निराला यह मानते हैं, कि साहित्यिक उत्कर्ष होना किसी भाषा के राष्ट्रभाषा बनने का मुख्य गुण नहीं है। यद्यपि,  निराला हिंदी को साहित्यिक उत्कर्ष की दृष्टि से कम नहीं मानते। वह सूर, तुलसी और कबीर दास को उत्कृष्ट साहित्य के मिसाल के रूप में देखते हैं।
निराला का मानना है, कि बंगाल में एक रविंद्रनाथ टैगोर हैं, तो हिंदी में सूर, तुलसी और कबीर दास, तीन हैं। लेकिन निराला बंगला भाषा की एक खासियत की तरफ भी इशारा करते हैं। वे लिखते हैं,

“बंगला भाषा में बहुत से शब्द अरबी-फारसी के हैं, पर वे हिज्जे और उच्चारण दोनों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके ऐसे अपनाये गये हैं, कि उनके नये रूप में कोई भी उन्हें विदेशी नहीं समझ सकते। सब कोई उनको काम में  लाते हैं और वे देशज और तद्भव शब्दों के ही बराबर हो गये हैं। ऐसा ही होना चाहिए।… वहां के साधारण मुसलमान भी बंगला ही बोलते हैं। हां, उनकी भाषा में उर्दू शब्द कुछ अधिक रहते हैं, पर उत्तरी भारत में उनका जैसा उच्चारण हम सुन पाते हैं, वैसा बंगाल में वे नहीं करते। जैसे बंगाल के साधारण मुसलमान और हिंदू में पोशाक का भी अंतर थोड़ा ही है। (‘हिंदी भाषा कैसी होनी चाहिए’, ‘समन्वय’ मासिक, कोलकाता, मई-जून, 1923)

 

निराला हिंदी भाषी क्षेत्र या उत्तर भारत में हिंदी को इसी रूप में देखना चाहते थे, जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों बोलते हैं। उनमें कम से कम अंतर हो। निराला लिखते हैं,

“आपस की फूट बढ़ाना बुद्धि का काम नहीं। यों तो कुछ-न-कुछ त्रुटि सभी भाषाओं में रहा करती है। तो व्यर्थ की मनमानी हाँकने के बदले एक राष्ट्रीय भाषा बनने में मदद देना केवल उचित ही नहीं,  परमावश्यक है। और-और प्रांतवासी भाई-बहनों पर दृष्टि रखते हुए सब हिंदी-प्रेमियों को एक सरल, सुंदर और जोरदार देशभाषा बनाने के लिए कमर कसे रहना चाहिए,  जिससे हिमालय से कन्याकुमारी तक और सिन्ध से आसाम तक सारे भारतवर्ष में एक साधारण भाषा के सहारे एक प्रांतवासी दूसरे प्रांत में रहने वाले अपने भाइयों से अपना मनोभाव प्रकट कर सके और भाषा की दृढ़ पर मुलायम डोरी से बंधे हुए एक अखंड भारत की सृष्टि करे।” (‘हिंदी भाषा कैसी होनी चाहिए’, ‘समन्वय’ मासिक, कोलकाता, मई-जून, 1923)

इस तरह निराला राष्ट्रभाषा के सवाल पर सोचते हुए लोकतांत्रिक हैं। निराला का जोर इस पर रहता है, कि हिंदी राष्ट्रभाषा के अनुकूल बने तथा अन्य भाषाओं से साहचर्य विकसित करे। इसके लिए वे हिंदी के लेखकों से ऐसी भाषा विकसित करने की अपेक्षा करते हैं, जो सहज स्वीकार्य  हो।

आज के शासक वर्ग की तरह नहीं कि, हिंदी को जबरन अन्य प्रान्तों  पर थोपा जाए। इसकी बजाय निराला उसे सहजता से अपनाने की, प्रचार-प्रसार की बात करते हैं। अर्थात, हिंदी का पहले प्रचार-प्रसार हो, फिर वह स्वयं ही राष्ट्रभाषा के रूप में अपनायी जा सकेगी!

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